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हिंसा भावहिंसा
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हिंसा है और इसी से मनुष्य को सबसे बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ती है । उसे अपने अंदर के सबसे बड़े शत्रु का संहार करना होता है । राजर्षि नमि ने कहा है - - ' जीवन में कितनी ही बाहर की लड़ाइयाँ लड़ीं और कितना ही खून बहा और बहाया भी, किन्तु उनसे जीवन का सही फैसला नहीं हुआ । अब तो अपने विकारों और वासनाओं से लड़ना है ।" यदि इस संघर्ष में सफलता प्राप्त हो जाती है, तो बाहर के शत्रु आप ही आप शान्त हो जायेंगे । उन पर शाश्वत विजय पाने वाले सद्गुण अपने अन्दर ही विराजित हैं, इसलिए व्यक्ति अपने आप से लड़े। अपने से लड़ने का अर्थ है - अपने विकारों से और अपनी हिंसा - वृत्ति से लड़ना। द्रव्य हिंसा की जननी, यह अन्दर की हिंसावृत्ति ही तो है ।
ब्रव्य-हिसा
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क्रोध, मान, माया, लोभ के कारण मन में किसी के प्रति द्वेष-भाव जगता है। और उसके फलस्वरूप व्यक्ति उसे पीड़ा पहुँचाना चाहता है । वह कड़वी बातें कहता है, गालियां देता है और इससे भी आगे बढ़कर शारीरिक कष्ट देने की कोशिश करता है । किसी को मारता है, किसी अस्त्र-शस्त्र से प्रहार करता है, जान से भी मार डालता है । जैसा कि हम लोगों ने अब तक देखा है कि मन के द्वेषभाव को भावहिंसा की संज्ञा देते हैं। पर, भाव- हिंसा के परिणामस्वरूप जो भी घटनाएँ घटती हैं, वे द्रव्य - हिंसा की कोटि में आती हैं । दार्शनिक या धार्मिक मान्यता हिंसा के दो रूप माने जाते हैं, साधारण जीवन में सामान्य जाती है कि द्रव्यहिंसा ही हिंसा है । अर्थात् हिंसा के नाम पर द्रव्य - हिंसा ही खड़ी होती है । मन में भले ही कोई कुछ विचार करे, लेकिन जब तक वह किसी को शारीरिक हानि नहीं पहुँचाता, तब तक वह हिंसा करने का दोषी नहीं समझा जाता । अतः धार्मिकता या दार्शनिकता के दृष्टिकोण से भावहिंसा प्रधान है और सामान्य मान्यता के अनुसार द्रव्य-हिंसा ऊँचा स्थान रखती है ।
के अनुसार यद्यपि धारणा ऐसी देखी
चौभंगी
द्रव्य - हिंसा और भाव - हिंसा को ले कर हिंसा के चार विकल्प किये गये हैं । आगम की परम्परा में उसे चौभंगी कहते हैं, वह इस प्रकार है
(१) भाव -हिंसा हो, द्रव्य - हिंसा न हो । (२) द्रव्य - हिंसा हो, भाव-हिंसा न हो ।
(३) द्रव्य - हिंसा भी हो, भाव-हिंसा भी हो । (४) द्रव्य - हिंसा न हो, भाव- 1 व - हिंसा भी न हो ।
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३ अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ ?
४ दशवैकालिक चूणि, प्रथम अध्ययन |
- उत्तराध्ययन सूत्र, ६, ३५
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