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अहिंसा को विधेयात्मक त्रिवेणी
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संघर्ष की जन्मभूमि
मनुष्य के जीवन में प्रकृति की ओर से जो कष्ट एवं पीड़ाएं आती हैं, वे तो बहुत ही अल्प एवं साधारण होती हैं, उनसे संघर्ष करना कोई कठिन नहीं है। किन्तु अधिकतर पीड़ाएँ 'स्व' और 'पर' की टक्कर से ही पैदा होती हैं । 'स्व' के विस्तार की कामना ही पीड़ाओं की जड़ है, वही संघर्ष की जन्मभूमि है। मनुष्य 'स्व' के सुख के लिए दूसरे के सुख को छीनना शुरू करता है । सोचता है-उसके सुख को लूट कर ही मैं सुखी हो सकता हूँ। किन्तु वह यह नहीं सोचता कि वस्तुतः देह की दृष्टि से तू भी तो 'पर' है। यह शरीर 'स्व' कहाँ है ? आत्मा से तो 'पर' ही है। यह भी तो आखिर 'स्व' के अभ्युदय में बाधक है। आत्मा के सिवाय सभी 'पर' है।
_ 'स्व' की अनुभूति को यदि विस्तृत बनाने का प्रयत्न किया जाए तो 'स्व' व्यापक बन जाता है ; 'पर' में स्व की अनुभूति जगने लगती है। संघर्ष यहीं समाप्त हो जाता है और अहिंसा का जन्म होने लगता है । जिस प्रकार मेरा 'स्व' पीड़ाओं से, चिन्ताओं से व्याकुल हो जाता है ; उसी प्रकार 'पर' भी पीड़ा और चिन्ताओं से व्याकुल होता है। जब तक मनुष्य 'पर' के चैतन्य की सत्ता स्वीकार नहीं करता, तब तक उसके हृदय से संघर्ष की भावनाएँ समाप्त नहीं होती; आक्रमण एवं दूसरे के सुख को लूटने की प्रवृत्ति खत्म नहीं होती और न पर के आनन्द की पवित्र भावना ही जग सकती है। जो दूसरों के जीवन में विघ्न डालना चाहता है, उद्वेग पैदा करना चाहता है; उसके स्वयं के जीवन में भी क्या विध्न और उद्विग्नता नहीं आयेगी ?
__ पाप और हिंसा क्या है ? दूसरे की जीवन-यात्रा में बाधा उपस्थित करना ही तो पाप है, यही हिंसा है । इस हिंसा से दूर रहने का उपाय है-'समता', 'सर्वत्र समदर्शन' । भगवान् महावीर से पूछा गया- “भगवन् ! हम पापों से मुक्त होना चाहते हैं, किस मार्ग का अवलम्बन करें ?"
उन्होंने कहा-"जो समस्त प्राणियों को आत्मभाव से देखता है, जिसकी दृष्टि सम अर्थात समतामय हो गयी है, जो हर आत्मा में अखण्ड चैतन्य का दर्शन करता है, और जिसने आश्रवों, एवं पापों के सब द्वार रोक दिये हैं, उस इन्दियविजेता को पाप कर्म नहीं बन्धता ।
__ पापों से मुक्त होने का यह एक सही मार्ग है। कुछ लोग कहते हैं-'चलो, अमुक देवता की मनौती कर लो, उस देवी को बलि चढ़ा दो, पंडित को कुछ दानदक्षिणा दे दो और भेंट-पूजा चढ़ा दो, बस पापों से मुक्ति हो जायेगी।'
मैं समझता हूँ, यह अपने आपसे आँखमिचौनी है । पापों से न कोई दैवी शक्ति
१ सव्व भयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइ पासओ।
पिहियासवस्स दंतस्स पाव-कम्मं न बंधइ ।।
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