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________________ अहिंसा के दो पक्ष : प्रवृत्ति और निवृत्ति-१ ११६ देर न लगेगी। तुम बहम के झंझावात में मत भटको। बहम भयंकर अनर्थ और विपदाओं का जनक है।" । सम्राट् घटना की वास्तविकता समझ गये, और एक भयंकर अनर्थ होते-होते रह गया। झूठे बहम के कारण आज समाज में कितने विग्रह और कलह चल रहे हैं, कितनी गृहस्थियाँ उजड़ रही हैं, कितने परिवार इसकी चपेट में आ कर बर्बाद हो रहे हैं । समाज में एक सिरे से दूसरे सिरे तक यह भयानक रोग महामारी की तरह फैला हुआ है । पति-पत्नी एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, पिता-पुत्र में बहम के कारण अनबन है, भाई-भाई में परस्पर अविश्वास है। बहम और संदेह के कारण समाज का जीवन नीरस हो रहा है, प्रेम के तार टूट रहे हैं, परस्पर अविश्वास और कलह का वातावरण छाया हुआ है। आज आवश्यकता है, प्रभु महावीर जैसे तत्त्वज्ञानियों की, जो अपने पवित्र हस्तक्षेप से समाज की भ्रान्त चेतना को समय पर सत्य का प्रकाश दे सकें। भगवान् महावीर के जीवन का यह सामाजिक पक्ष कितना-महत्त्वपूर्ण और कितना विराट् है ! समाज के हर अंग को वे छूते हैं । पारस्परिक कलह और विग्रह जब भी जो भी उसके सामने आते हैं, वे उन्हें सुलझाते हैं। पारिवारिक उलझनों का यथोचित कल्याणकारी समाधान उनके द्वारा होता है। राजकीय विग्रह के नाजुक प्रसंगों पर भी उनकी प्रज्ञामयी वाणी मुखर होती है और वहाँ भी शान्ति एवं सुव्यवस्था स्थापित हो जाती है। निवृत्ति और प्रवृत्ति का मर्म __मैं समझता हूँ, महावीर के निवृत्ति और प्रवृत्ति धर्म को समझने के लिये ये उदाहरण काफी हैं। जिन्हें शिकायत है कि जैनधर्म निवृत्तिप्रधान है, उसमें लोकहितकर प्रवृत्ति के लिये कोई स्थान नहीं है, सामाजिक भाव का कोई रूप नहीं है, वे भगवान् महावीर के इन प्रवृत्तिमय जीवनप्रसंगों पर से उनके जीवन-दर्शन की वास्तविकता समझ सकते हैं। जैनधर्म ने सामाजिक जीवन से कभी इन्कार नहीं किया, वह तो सदा ही सामाजिक जीवन के साथ इकरार करता आ रहा है। उसने ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि के रूप में समाज के प्रत्येक वर्ग का कर्तव्य सूचित किया है, प्राप्त उत्तरदायित्वों को स्वीकार करके उन्हें उचित और सुन्दर ढंग से निबाहने का संदेश दिया है। प्रवृत्ति और निवृत्ति की इस चर्चा में मैं पुनः एक बात दुहरा देता हूँ कि इन ६ स्थानांगसूत्र १०वां स्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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