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________________ अहिंसा-दर्शन किन्तु प्रवृत्तिमार्गी है । जब हम अपने समान ही दूसरों के जीवन का मूल्य और महत्त्व समझते हैं, अपनी ही तरह उससे भी स्नेह करते हैं, तो इसका यही उदात्त परिणाम आता है कि वह जब कष्ट होता है, तब उसको सहयोग देना, उसके दुःख में भागीदार बनना और उसकी पीड़ाएँ बाँट कर उसे शान्त और सन्तुष्ट करना-यह जो सहज प्रवृत्ति जगती है, मन में सद्भावों की स्फुरणा होती है, बस यही है मैत्री का उज्ज्वल रूप । दान : प्रवृत्तिरूप और निवृत्तिरूप भी भगवान् महावीर ने सातावेदनीय कर्म के बन्धहेतुओं की व्याख्या करते हुए बताया है कि संसार में जो प्राणी हैं, वे चाहे तुम्हारी जाति के हों, कूल के हों या देश के हों, अथवा किसी भिन्न जाति, कुल या देश के हों, उन सबके प्रति करुणा का भाव जागृत करना, उनके दुःख के प्रति संवेदना और सुख के लिए कामना करना, यह सातावेदनीय के बन्ध का प्रथम कारण है। महावीर की धर्म-परम्परा का एक उज्ज्वल आदर्श है कि जब एक साधु भोजन लाता है, तो यह नहीं कि बस, लाया और स्वयं ही खा-पी कर साफ कर दिया। वह अपने से बड़े और छोटे सभी साथियों को पूछता है, प्रार्थना करता है कि मेरे इस लाये हुए भोजन में से आप कुछ स्वीकार करके मुझे अनुगृहीत करें---“साहु हुज्जामि तारिओ।" कितना ऊँचा आदर्श है यह, समर्पण का ? देखिए, निवृत्तिमार्ग के यात्रियों में भी इससे सामाजिक सम्बन्धों की कितनी मधुर भावना विकसित हुई है ? इससे भी आगे कहा गया है कि 'जो साधु ऐसा नहीं करता, भोजन ला कर साथियों को निमंत्रित नहीं करता, अकेला ही खाने बैठ जाता है, वह असंविभागी है, उसकी मुक्ति नहीं हो सकती'- "असंविभागी न हु तस्स मोक्खो"।२। कल्पना कीजिए-जो धर्म इतनी बड़ी प्रेरणा देता है, जिसके कण-कण में मानवता का अमृत छलक रहा है, उसके लिए यह कहना कि उसमें सामाजिकता का अंश नहीं है, सामूहिक चेतना का अभाव है, अपने में कितनी बड़ी बौद्धिक विडम्बना है। __श्रावक भी जब गृहीत तप का पारणा करने बैठता है तो उसकी भी यही परम्परा है कि उस समय आस-पास में जो भी उपस्थित हों, उन्हे भी भोजन के लिए सादर एवं साग्रह आमंत्रित करे। यदि वह बिना पूछे बिना निमन्त्रण दिए ही खाना शुरू कर देता है तो वह स्वार्थपरायण अपने व्रत की पवित्रता को दूषित करता है। १ दशवकालिक २ वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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