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________________ अहिंसा-दर्शन जा सकता है ? जब दोनों ही समानरूप से प्रासुक उपलब्ध हों तो फिर भेद करने का क्या कारण है ? मांस या कन्दमूल ? जो मुनि ऐसा मानता है कि कम जीवों के मरने से कम हिंसा होती है और अनेक जीवों के मरने से अधिक हिंसा होती है, उसके सामने एक दिन ऐसा आदमी आता है, जो मांस खाने वाला है और जिसके यहाँ एक बकरा रोजाना हलाल हो जाता है। उसने उस मुनि से निवेदन करता है-"मैं अहिंसा-व्रत धारण करना चाहता हूँ। किन्तु पूर्ण रूप से हिंसा को त्याग देना मेरे लिये शक्य नहीं है, क्योंकि मेरे यहां रोजाना एक बकरा मार कर खाया जाता है और गाजर-मूली आदि कन्दमूल भी खाये जाते हैं। इन दोनों में से मैं केवल एक वस्तु का त्याग करना चाहता हूँ। जिसके प्रयोग में अधिक हिंसा होती हो, उसी का त्याग करा दें। जिसमें कम हिंसा होगी, वही पदार्थ मैं खाद्यरूप में ग्रहण करूंगा।" हो सकता है कि वह मुनि दोनों चीजों का त्याग कराना चाहे, परन्तु त्याग तो त्याग करने वाले की इच्छा पर ही निर्भर है। वह दोनों का त्याग नहीं करना चाहता है । वह तो दोनों में से केवल एक का ही त्याग करना चाहता है; जब यह गम्भीर प्रश्न उस मुनि के सामने आता है तो उसका सही फैसला वह क्या दे सकेगा ? जो इस सिद्धांत को ले कर चला है कि यदि अधिक जीव मरें तो अधिक हिंसा होती है, तो क्या वह कन्दमूल में अनन्त जीव होने के कारण, उसमें अधिक हिसा मान कर कन्दमूल का उससे त्याग करायेगा ? इधर कंदमूल में अनन्त जीव हैं, किन्तु दूसरी ओर केवल एक बकरा मरता है और उससे सारे परिवार की उदर-पूर्ति हो जाती है ! अब बताइए वे किस सिद्धांत पर चलेंगे ? जीवों की गिनती का हिसाब लगा-लगा कर हिंसा की न्यूनता और अधिकता को तोलने वाले ऐसे प्रसंग पर क्या करेंगे ? त्यागने वाला तो दो में से केवल एक का ही त्याग करना चाहता है। यदि वह मुनि कंदमूल के खाने में अधिक हिंसा समझते हैं तो कंदमूल का त्याग करा दें, यदि बकरे को मारने में अधिक हिंसा समझते हैं तो बकरे का त्याग करा दें । यदि मुनिराज बकरे का त्याग करवाते हैं तो उनकी यह मान्यता समाप्त हो जाती है कि --जहाँ अधिक जीव मरते हैं, वहाँ अधिक हिंसा होती है । चारों तरफ बगलें झाँकने के बाद अन्त में वे बकरा मारने का ही त्याग करायेंगे । किन्तु दुनियाभर में चक्कर काटने के बाद आखिर उन्हें सही सिद्धांत पर ही आना पड़ेगा। जैन-धर्म में एकेन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय जीव तक की द्रव्य-हिंसा और भावहिंसा मानी गई है, और साथ ही उसमें क्रमशः तरतमता भी होती है । तरतमता का मूल कारण हिंसा का संक्लेश परिणाम है । जहाँ क्रोध आदि कषाय की तीव्रता जितनी ही कम होती है, वहाँ हिंसा भी उतनी ही कम होती है । इसी कसौटी पर हिंसा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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