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________________ १६१ २. आराहणापडाया 1840. सयमेव अप्पणा सो करेइ आउंटणाइकिरियाओ। उच्चाराइ विगिचइ सयं च सम्मं निरुवसग्गे ॥ ९०८॥ 1841. जाहे पुण उवसग्गा दिव्वा माणुस्सया व से हुजा। ताहे निप्पडिकम्मो ते अहियासेइ विगयभओ ॥९०९॥ 1842. पत्थिनंतो वि तओ किण्णर-किंपुरिसदेवकण्णाहिं। न य सो तहा वि खुन्भइ, न विम्हयं कुणइ रिद्धीए ॥ ९१०॥ 1843. जइ से दुक्खत्ताए सव्वे वि य पुग्गला परिणमिज्जा । तह विन से थेवा वि हु विसोत्तिया होइ झाणस्स ॥ ९११॥ 1844. सव्वो पुग्गलकाओ अहव सुहत्ताए तस्स परिणमइ । तह वि न से संजायइ विसोत्तिया सुद्धझाणस्स ॥ ९१२॥ 1845. सच्चित्ते साहरिओ सो तत्थुप्पिक्खए विमुक्कंगो । उवसंते उवसग्गे जयणाए थंडिलमुवेइ ॥ ९१३ ॥ 1846. वायण-परियट्टण-पुच्छणाओ मुत्तूण तह य धम्मकहं । सुत्त-ऽत्थपोरिसीए सरेइ सुत्तं च एगमणो ॥९१४ ॥ 1847. एवं अट्ठ वि जामे अतुयट्टो झायई पसण्णमणो । आहच निदभावे वि नत्थि थेवं पि सइनासो ॥ ९१५॥ 1848. सज्झाय-कालपडिलेहणाइयाओ न संति किरियाओ। जम्हा सुसाणठाणे वि तस्स झाणं न पडिकुटुं ।। ९१६॥ 1849. आवासयं च सो कुणइ उभयकालं पि जं जहिं कमइ । उवहिं पडिलेहेइ य मिच्छक्कारो य से खलिए ॥ ९१७॥ 1850. वेउव्वण-माहारय-चारण-खीरासवाइलद्धीओ। कन्ने वि समुप्पण्णे विरागभावा न सेवइ सो ॥ ९१८॥ 1851. मोणाऽभिग्गहनिरओ आयरियाईण पुव्ववागरओ। देवेहि माणुसेहि य पुट्ठो धम्मक्कहं कहइ ॥ ९१९ ॥ १. गरहिमओ मो० विना॥ पा.११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001045
Book TitlePainnay suttai Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Amrutlal Bhojak
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1987
Total Pages427
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_anykaalin, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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