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डा० रामनाथ शर्मा
डी. फिल. (प्रयाग), डी. लिट. (मेरठ) योग शब्द का शाब्दिक अर्थ जोड़ना, मिलाना, मिलाप, संगम अथवा मिश्रण है। इसके अतिरिक्त रघुवंश में इसका अर्थ सम्पर्क, स्पर्श और सम्बन्ध आदि से लगाया गया है। मनुस्मृति में इसे काम में लगाना, प्रयोग, इस्तेमाल आदि के अर्थ में लिया गया है। हितोपदेश में इसे पद्धति, रीति, क्रम, साधन के अर्थ में प्रयोग किया गया है। अन्य स्थानों पर इसको फल, परिणाम, जूआ, वाहन, सवारी गाड़ी, जिरहबख्तर, योग्यता, औचित्य, उपयुक्तता, व्यवसाय, कार्य, व्यापार, दाव-पेंच, जालसाजी, कूटनीति, योजना, उपाय आदि के भी अर्थ में प्रयोग किया गया है। मनुस्मृति में इसका प्रयोग उत्साह, परिश्रम और अध्यवसाय के अर्थ में भी हुआ है। योग का प्रयोग उपचार, चिकित्सा, इन्द्रजाल, अभिचार, जादू-टोना, धन-दौलत, नियम, विधि, सम्बन्ध, निर्वचन, गम्भीर भाव, चिन्तन, मन का केन्द्रीकरण आदि अर्थों में भी हुआ है। पतंजलि ने योगसूत्र में इसे चित्तवृत्ति-निरोध कहा है। साधारणतया दार्शनिक ग्रन्थों में योग को इसी अर्थ में इस्तेमाल किया गया है। इस योग में उन उपायों की शिक्षा दी गयी है जिनके द्वारा मानव आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मा में लीन होकर मोक्ष प्राप्त करता है। इसीलिए योग मन के संकेन्द्रीकरण का अभ्यास माना गया है। गणित में योग का अर्थ जोड़ या संकलन होता है। ज्योतिषशास्त्र में इससे तात्पर्य संयुति, दो ग्रहों का योग, तारापुंज, समय विभाग, मुख्य नक्षत्र इत्यादि माना गया है। इसके अतिरिक्त योग को आचार के अर्थ में भी इस्तेमाल किया गया है। योगदर्शन का अध्यापक आचार्य कहलाता था। उसे अलौकिक शक्ति सम्पन्न, जादूगर, देवता इत्यादि माना जाता था। योग को जादू जैसी शक्ति भी माना गया है। अनेक दार्शनिक ग्रन्थों में योग को समाधि के अर्थ में प्रयोग किया गया है। चिकित्साशास्त्र के ग्रन्थों में योग को अनेक प्रकार के चूर्ण के अर्थ में भी प्रयोग किया गया है।
इसी प्रकार योगिन् (योगी) शब्द को भी अनेक अर्थों में प्रयोग किया गया है जैसे युक्ति सहित या जादू की शक्ति से युक्त, चिन्तनशील, महात्मा, भक्त, संन्यासी, जादूगर, ओझा, बाजीगर, इत्यादि । प्रस्तुत लेख में योग शब्द को उन विधियों के लिए प्रयोग किया जायेगा जो भारतीय विचारकों ने आत्मा के आध्यात्मिक विकास के लिए समाधि की स्थिति प्राप्त करने के लिए या मोक्ष प्राप्त करने के लिए बतायी थीं।
योग साहित्य उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय साहित्य में योग शब्द को अनेक अर्थों में प्रयोग किया गया है। रामायण, महाभारत, महापुराण, उपपुराण, स्मृतियों, धर्मशास्त्र, वेद और संहिताएँ, षड्दर्शनग्रन्थ, बौद्धग्रन्थ, जैन साहित्य आदि में योग के विवरण भरे पड़े हैं । तन्त्र साहित्य में भी योग के लम्बे-चौड़े विवरण मिलते हैं। इस प्रकार वैदिक और अवैदिक सभी प्रकार के धार्मिक और दार्शनिक सम्प्रदायों में योग की चर्चा की गयी है। योग में आत्मा की मान्यता आवश्यक नहीं है। उदाहरण के लिए बौद्ध दार्शनिक आत्मा को नहीं मानते किन्तु योग की चर्चा करते हैं । योग शब्द का भारत में इतना प्रयोग हुआ है कि केवल हिन्दू, बौद्ध अथवा जैन सन्तों ने ही नहीं बल्कि मुस्लिम सूफियों ने भी इस शब्द का व्यापक प्रयोग किया है। इस प्रकार अति प्राचीनकाल से बैदिक ऋषियों से लेकर आधुनिक काल में श्री अरविन्द और विवेकानन्द तक भारत में योग की परम्परा रही है।
योग और परामनोविज्ञान पश्चिम में मनोविज्ञान के इतिहास में अनुसन्धान का सबसे अधिक अर्वाचीन क्षेत्र परामनोविज्ञान है। इसमें, जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, अनुभव के कुछ ऐसे क्षेत्रों में अनुसन्धान किया जा रहा है जिन्हें परा (Para) कहा जा सकता है । परा से तात्पर्य असाधारण लगाया जाना चाहिये । इस प्रकार के अनुभवों में अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष सबसे
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अधिक उल्लेखनीय है जिसको कि संक्षेप में ई. एस. पी. (E.S.P.) कहा गया है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने कुछ दशक के प्रयोगों से अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के अस्तित्व को सिद्ध किया है। इसके अतिरिक्त मनोगति (Psycho-kinesis) के प्रभाव को भी पासा फेंकने के प्रयोग के द्वारा सिद्ध किया जा चुका है। अब विशेष अनुसन्धान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष और मनोगति को नियन्त्रित करने वाले कारकों का पता लगाने की दिशा में हो रहा है।
चूंकि योग में कुछ ऐसी क्रियाओं के होने का दावा किया जाता है जिनसे अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसलिए कुछ पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक आज यह आशा करने लगे हैं कि परामनोविज्ञान में अतीन्द्रिय-प्रत्यक्ष, दूरदर्शन (Clairvoyance), मन:पर्याय (Telepathy), अनागत का ज्ञान (Pre-cognition), मनोगति (P. K.) इत्यादि को नियन्त्रित करने अथवा इन्हें उत्पन्न करने की शक्ति या क्रिया का पता लगाने में योग से सहायता मिल सकेगी। इस सम्बन्ध में लेखक द्वारा सम्पादित 'Parapsychology and Yoga' (परामनोविज्ञान और योग) के प्रकाशित होने पर जरट्र ड श्मीडलर ने लेखक को अपने एक पत्र में लिखा था, "यदि आप इस अत्यन्त रुचिकर दृष्टिकोण को चलाये रखने की आशा करते हैं, तो मुझे निश्चय है कि हममें से अनेक, जिनमें मैं भी शामिल हैं, यह आशा करेंगे कि इन विधियों के द्वारा आप ज्ञान के क्षेत्र में एक वास्तविक नयी राह निकालने में सफल होंगे। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों के इस प्रकार रुचि दिखाने के बाद से भारतवर्ष में भी योग और परामनोविज्ञान के सम्बन्ध को लेकर अनेक सेमीनार आयोजित किये जा चुके हैं। बम्बई में एस.पी.आर. (S.P.R.) तथा राजस्थान में परामनोवैज्ञानिक संस्थान (Parapsychological Institute) की स्थापना, सागर में आयोजित परिसंवाद, उत्तर प्रदेश की राज्य मनोविज्ञानशाला में परामनोविज्ञान सम्बन्धी अनुसन्धान के अतिरिक्त पिछले दो दशकों में होने वाले अनेक सेमीनार आधुनिककाल में परामनोविज्ञान के क्षेत्र में भारतीय मनोवैज्ञानिकों की बढ़ती हुई रुचि के परिचायक हैं। इस सम्बन्ध में सन् १९६२ में लखनऊ विश्वविद्यालय में 'योग और परामनोविज्ञान' पर एक सेमीनार का आयोजन किया गया जिसमें अनेक प्रसिद्ध भारतीय और पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने योग और मनोविज्ञान के सम्बन्ध पर शोध पत्र प्रस्तुत किये। ये शोधपत्र सन् १९६३ में लेखक के सम्पादकत्व में 'Parapsychology and Yoga' शीर्षक से रिसर्च जर्नल ऑफ फिलासफी एण्ड सोशल साइंसेज (Research Journal of Philosophy and Social Sciences) के प्रथम अंक के रूप में प्रकाशित हुए। इसमें सम्मिलित मनोवैज्ञानिकों में के. रामकृष्ण राव, ऐलेन जे. मेन, मिलान रिझल, नन्दोर फोदोर, एच. प्राइस, आर.एच. थाउलैस, जे. सी. क्रमा, जी. जारेब, आई. जे. गुड, टी. जी. कलघटगी, रामचन्द्र पाण्डे, भीखनलाल आत्रेय, रामजी सिंह, गार्डनर मर्फी, एच.एन. बनर्जी, एफ.सी. डोमेयर तथा एस. जी. सोल के शोधपत्र थे।
ड्यूक विश्वविद्यालय की विश्वप्रसिद्ध पत्रिका जर्नल ऑफ पेरासाइकोलाजी में योग और मनोविज्ञान पर संसार के सभी प्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिकों और योग के अधिकारी विद्वानों के लेखों के लेखक द्वारा सम्पादित इस संग्रह का स्वागत करते हए लिखा गया था, "योग और मनोविज्ञान के सम्भावित सम्बन्ध पर अनेक प्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिकों और चित्तविद्या के दार्शनिकों के विचारों को देखकर अत्यन्त रुचि उत्पन्न होती है। यदि इस परम्परागत विश्वास में कोई सत्य है कि योग का प्रशिक्षण और अभ्यास अतिसामान्य योग्यताओं की प्राप्ति की ओर ले जाता है, तो यह समय है कि उसके लिये कुछ किया जाना चाहिए। इस प्रकाशन का इसीलिए स्वागत है कि वह इस महत्वपूर्ण समस्या पर ध्यान केन्द्रित करता है।"२ पश्चिम में परामनोविज्ञान की सबसे अधिक प्रसिद्ध पत्रिका में योग के अध्ययनों का यह स्वागत यह स्पष्ट करता है कि आज परामनोविज्ञान के क्षेत्र में योग की प्रक्रिया की ओर आशा की दृष्टि से देखा जा रहा है। किन्तु इस सम्बन्ध में अभी कोई उल्लेखनीय अनुसन्धान नहीं हो सका है। प्रस्तुत लेख में भारतीय दार्शनिक और योग साहित्य में परामनोवैज्ञानिक रुचि की सामग्री का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जायेगा। योगवाशिष्ठ में परामनोवैज्ञानिक विवरण
भारतवर्ष में अति प्राचीनकाल से ही अलौकिक शक्तियों की चर्चा होती रही है। प्राचीन वेदों और उपनिषदों में अनेक स्थलों पर अलौकिक शक्तियों का उल्लेख किया गया है। उपनिषदों में योग के अनेक अंगों का उल्लेख करते हुए उनसे मिलने वाली अलौकिक शक्तियों का उल्लेख किया गया है। प्राचीन भारत में योग की एक अत्यन्त श्रेष्ठ पुस्तक योगवाशिष्ठ में ऐसी अनेक कथायें मिलती हैं जिनमें अतिसामान्य (असाधारण) घटनाओं और शक्तियों का विवरण दिया गया है। इनमें वशिष्ठ की कथा, लीला की कथा, इन्दु के पुत्रों की कथा, इन्द्र और अहिल्या की कथा, जादूगर की कथा, शुक्राचार्य की कथा, बलि की कथा इत्यादि विभिन्न कथाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार की अतिसामान्य शक्तियों का उल्लेख किया गया है । वशिष्ठ की कथा में विचार के मानव शरीर ग्रहण कर लेने का उल्लेख है । लीला की कथा में अनेक अतिसामान्य घटनाएँ दी गयी हैं । कर्कटी की कथा में अणिमा सिद्धि का उल्लेख है। इन्दु-पुत्रों की कथा में इच्छा और संकल्प की अलौकिक शक्तियों का उल्लेख है। इन्द्र और अहिल्या की कथा में मन की शक्ति के द्वारा
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शारीरिक कष्टो पर पूर्णतया विजय प्राप्त करने का उल्लेख है। शुक्राचार्य की कथा यह दिखाती है कि इच्छा-मात्र से नया जन्म कैसे प्राप्त किया जा सकता है। बलि की कथा में निर्विकल्प समाधि प्राप्त करने की विधि बतायी गयी है। काकभुशुण्डि की कथा में असीम रूप से लम्बे और पूर्ण स्वस्थ जीवन की सम्भावना बतायी गयी है। अर्जन की कथा में भविष्य का अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष दिखाया गया है। शतरुद्र की कथा आत्मा के पुनर्जन्म में विचार और इच्छा की शक्ति दिखाती है। शिकारी और साधु की कथा समाधि का अनुभव बताती है। इन्द्र की कथा लघिमा सिद्धि का उल्लेख करती है। विपश्चित की कथा पुनर्जन्म पर विचार और इच्छा की शक्ति दिखाती है। इन सब कथाओं के अतिरिक्त योगवाशिष्ठ में उपर्युक्त अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने की विधियों की भी व्यापक चर्चा की गयी है। इसमें यह बताया गया है कि कैसे मन को सर्वशक्तिमान बनाया जा सकता है। इसके लिये कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर प्राण का नियन्त्रण, चित्त का शुद्धीकरण और नियन्त्रण तथा आध्यात्मिक प्रकृति के साक्षात्कार का उल्लेख किया गया है। योगवाशिष्ठ में कुण्डलिनी शक्ति को जगाने की प्रक्रिया को विस्तारपूर्वक बताया गया है। इसके अतिरिक्त योगवाशिष्ठ में सभी प्रकार के शारीरिक रोगों के उपचार की विधि बतायी गयी है। इसके लिये मन्त्रों के प्रयोग की विधि भी बतायी गयी है। योगवाशिष्ठ में ऐसी क्रियाएँ बतायी गयी हैं जिनसे मनुष्य रोग, जरा और मृत्यु से बच सकता है। योगवाशिष्ठ में दूसरों के मन के विचारों को जानने के उपाय भी बताये गये हैं। ये मन:पर्याय के उपाय हैं । इस ग्रन्थ में सिद्ध आत्माओं के लोक में प्रवेश करने के उपाय भी बताये गये हैं। इसमें ऐसी क्रियाओं की चर्चा की गयी है जिनको करने से स्थूल आकार छोड़कर सूक्ष्म आकार प्राप्त किया जा सकता है।
योगसूत्र में परामनोवैज्ञानिक विवरण योगवाशिष्ठ के अतिरिक्त योगसूत्र में परामनोविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कथन बिखरे पड़े हैं। वास्तव में यदि योगसूत्र को परामनोविज्ञान की सबसे अधिक प्राचीन पुस्तक कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। परामनोविज्ञान की दृष्टि से योग के महत्व के विषय में पहले कहा ही जा चुका है। यहाँ पर उन सिद्धियों का विवरण दिया जायेगा जिनको प्राप्त करने के उपाय योगसूत्र में बताये गये हैं। सिद्धियों के विषय में पतंजलि ने लिखा है, "जगमौषधिमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः" अर्थात् सिद्धियाँ पाँच प्रकार की होती हैं जिनमें से कुछ जन्म से, कुछ औषधियों से, कुछ मन्त्रों से, कुछ तप से और कुछ समाधि से उत्पन्न होती हैं। इनका विवरण निम्नलिखित है :
१. जन्म से प्राप्त होने वाली सिद्धियाँ-अनेक लोगों को मनःपर्याय, अतीन्द्रियप्रत्यक्ष इत्यादि अतिसामान्य शक्तियां जन्म से ही प्राप्त होती हैं। कभी-कभी आयु बढ़ने पर ये नष्ट हो जाती हैं।
२. औषधि से प्राप्त सिद्धियाँ-वेदों से लेकर आज तक अनेक संस्कृत ग्रन्थों में ऐसी औषधियों का उल्लेख किया गया है जिनके सेवन से अनेक अतिसामान्य शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। वेदों में सोमरस की भारी महिमा बतायी गयी है। अन्य ग्रन्थों में अनेक अन्य प्रकार की औषधियों का उल्लेख पाया जाता है।
३. मन्त्रज सिद्धियाँ-संस्कृत साहित्य में मन्त्रों से प्राप्त शक्तियों का उल्लेख पाया जाता है। मन्त्र का जप श्रद्धा सहित किया जाना चाहिए । मन्त्र दो प्रकार के होते हैं-ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक । पहले प्रकार में ध्वनि का विशेष महत्त्व होता है। इसका उदाहरण ओंकार का मन्त्र है। वर्णात्मक मन्त्र में व्याकरण के नियमों के अनुसार मिलाये हए शब्द होते हैं जैसे 'नमो नारायणाय' । मन्त्र देने वाले को ऋषि कहा जाता है। ऋषियों में अतिसामान्य शक्ति होती है। अस्तु, उनसे निकले हुए मन्त्र भौतिक क्रिया के साधन बन जाते हैं।
४. तपोजन्य सिद्धियाँ संस्कृत ग्रन्थों में ऐसी अनेक सिद्धियों का उल्लेख पाया जाता है जो विभिन्न प्रकार के शारीरिक और मानसिक तप से प्राप्त होती हैं। उदाहरण के लिए अहिंसा का पूर्ण रूप से अभ्यास करने पर साधक में यह शक्ति आ जाती है कि उसके सम्पर्क में आने वाले पशु भी हिंसा भाव छोड़ देते हैं।
उपर्युक्त सिद्धियों के अतिरिक्त पतंजलि ने समाधिजन्य सिद्धियों का भी उल्लेख किया है। संक्षेप में ये । सिद्धियाँ निम्नलिखित हैं :
१. प्रातिभज्ञान-प्रातिभज्ञान वह है जिसमें कुछ भी अज्ञेय. न हो । योग के साधन से इस प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति होती है। प्रातिभज्ञानप्राप्त व्यक्ति के विषय में पतंजलि ने लिखा है, "प्रातिभाद्वा वा स्वतः सर्वम् । प्रातिभज्ञान की सिद्धि ध्यान से होती है। ध्यान से व्यक्ति वासना से ऊपर उठ जाता है।
२. भुवनों का ज्ञान–पतंजलि के अनुसार जिस वस्तु की कामना हो उस पर अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि का अभ्यास करने से वह वस्तु प्राप्त हो जाती है। भुवनों के ज्ञान के लिए सूर्य पर संयम लगाना चाहिए। पतंजलि के शब्दों में "भुवनज्ञान सूर्य संयमात् ।" इसको स्पष्ट करते हुए भाष्यकार ने लिखा है कि भूमि आदि सात लोक, अवीच आदि सात महानरक तथा महातल आदि सात पाताल, यह भुवन पद का अर्थ है। तीन ब्रह्म लोक हैं,
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उनसे नीचे महा नाम का प्रजाति का लोक है, उनसे नीचे माहेन्द्र लोक है, उनसे नीचे तारा लोक है और उनसे नीचे मनुष्यों का लोक है । पृथ्वी के ऊपर छः और नीचे १४ लोक हैं जिनमें सबसे नीचा अवीच नाम का नरक है । लोकों की व्यवस्था का अन्य अनेक संस्कृत ग्रन्थों में भी उल्लेख पाया जाता है। सूर्य पर संयम करने से इनके ज्ञान की बात प्रामाणिक नहीं है ।
३. ताराव्यूह का ज्ञान - पतंजलि के अनुसार चन्द्रमा पर संयम करने से ताराव्यूह का ज्ञान होता है । भाष्यकार की व्याख्या को विस्तारपूर्वक पढ़ने से इस सिद्धि की बात भी समझ में आने वाली नहीं लगती ।
४. मनः पर्याय - पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार यदि दूसरे के मन की क्रिया पर संयम किया जाये तो उसके मन की बातों का पता लगाया जा सकता है। भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित करने से भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। नाभि पर ध्यान लगाने से सम्पूर्ण शरीर रचना का ज्ञान होता है। कर्ण और आकाश के सम्बन्ध पर ध्यान लगाने से मीलों दूर बोला जाने वाला शब्द सुनायी पड़ता है। आत्मा पर संयम करने से मनःपर्याय की शक्ति प्राप्त होती है। इसी से भविष्य का ज्ञान भी प्राप्त होता है ।
५. सर्वज्ञानित्व - आत्मा और जड़ पदार्थ के विवेक पर संयम करने से सर्वज्ञानित्व प्राप्त होता है। कुछ लोगों को इसके बिना भी यह सिद्धि प्राप्त हो जाती है । रूप, काल तथा वस्तु की विभिन्न दशाओं पर संयम करने से भी भूत, वर्तमान और भविष्य का ज्ञान प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार चित्त का यथार्थ वृत्तियों पर संयम करने से भी यह सिद्धि प्राप्त होती है ।
६. अतीन्द्रियप्रत्यक्ष — समाधि की प्रक्रिया में योगों को अतीन्द्रियप्रत्यक्ष की शक्ति प्राप्त होती है। धर्ममेधसमाधि की स्थिति में वह सब कुछ जान सकता है ।
समाधि की प्रक्रिया के अतिरिक्त अष्टांग योग के अन्य अंगों का अभ्यास करने से भी अनेक प्रकार की सिद्धियों के मिलने का उल्लेख किया गया है । उदाहरण के लिए, योग में प्रथम सोपान यम है। यम के अभ्यास से योगी भयंकर पशुओं तक की हिंसात्मकता को दूर कर देता है। उसके सम्पर्क में आने वाले पशु भी हिंसा भूल जाते हैं । नियम के पालन से भी अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं जैसे अत्यधिक आनन्द, दिव्य दृष्टि, इष्ट देवता की सिद्धि, ध्यान की सिद्धि इत्यादि । आसन का अभ्यास करने से अनेक प्रकार की शारीरिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं । प्राणायाम से मन प्रकाशयुक्त हो जाता है और किसी भी वस्तु पर ध्यान को एकाग्र किया जा सकता है। प्रत्याहार से इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं।
धारणा, ध्यान और समाधि को मिलाकर संयम नाम दिया गया है। संयम की शक्ति का पीछे वर्णन किया जा चुका है । शरीर पर संयम करने से अदृश्य होने की शक्ति मिलती है । तत्काल और भविष्य के कर्म पर संयम करने से भावी मृत्यु का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। मंत्री पर संयम करने से मित्रता की शक्ति प्राप्त होती है। हाथी इत्यादि पशुओं पर संयम करने से अजेय शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है । आन्तरिक ज्योति पर संयम करने से भूगर्भशास्त्र का
ज्ञान प्राप्त होता है। सूर्य, चन्द्र, नाभि इत्यादि के संयम के विषय में पीछे उल्लेख किया जा चुका है। ध्रुव तारे पर संयम करने से तद्विषयक ज्ञान प्राप्त होता है। गले पर संयम करने से भूख और प्यास पर अधिकार हो जाता है। ब्रह्मरन्ध्र पर संयम करने से वासनाओं पर नियन्त्रण किया जा सकता है । भ्रकुटि के मध्य संयम करने से स्थिरता और सन्तुलन प्राप्त होता है । बन्धन और मोक्ष के कारणों पर संयम करने से दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की शक्ति प्राप्त होती है । उदानवायु पर संयम करने से पृथ्वी से ऊपर उठ जाने की शक्ति प्राप्त होती है। समानवायु पर संयम करने से इच्छा-मृत्यु की शक्ति प्राप्त होती है। शरीर पर संयम करने से आकाश में यात्रा की जा सकती है । आकाश पर संयम करने से भी इसी प्रकार की शक्ति प्राप्त होती है । वस्तुओं के गुणों, सम्बन्धों और प्रयोजनों पर संयम करने से अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं जैसे शरीर को अणु के समान सूक्ष्म बना लेना अथवा अत्यन्त विशाल बना लेना, चाँद और सितारों को छू लेना, किसी भी वस्तु को प्राप्त कर लेना अथवा बना देना, भूत जगत पर अधिकार इत्यादि । इन्द्रियाँ, अहंकार और उनके गुणों पर संयम करने से योगी इन्द्रियजयी हो जाता है । इससे वह प्रधानजय हो जाता है । वस्तुओं के परिवर्तनों पर संयम करने से उनमें विवेक की शक्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार पतंजलि के योगसूत्र में संयम के भिन्न-भिन्न आधारों के अन्तर से विभिन्न प्रकार की शक्तियों के प्राप्त होने का उल्लेख किया गया है। यह विवरण कहाँ तक प्रामाणिक है, इसका तर्क से विवेचन न करके यौगिक क्रियाओं की प्रयोगात्मक जाँच से पता लगाया जा सकता है ।
वेदों तथा उपनिषदों में योग और परामनोविज्ञान
अथर्ववेद में तपस्वियों की अतिसामान्य शक्ति का उल्लेख है। योग का ॠग्वेद में भी उल्लेख किया
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________________ योग और परामनोविज्ञान 71 . गया है। अनेक उपनिषदों में भी परामनोविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण विवरण बिखरे पड़े हैं / उपनिषदों में मन और इन्द्रियों के नियन्त्रण से मिलने वाली शक्तियों का उल्लेख है। कठ, तैत्तिरीय तथा मैत्रायणी उपनिषदों में योग की क्रियाओं का उल्लेख किया गया है। षड्दर्शनों के ग्रन्थों में किसी न किसी प्रकार से योग और उससे प्राप्त होने वाली सिद्धियों का उल्लेख किया गया है। चार्वाक और मीमांसा दर्शनों को छोड़कर अन्य सभी आस्तिक और नास्तिक भारतीय दर्शनों के ग्रन्थों में अतिसामान्य अनुभवों और शक्तियों का उल्लेख पाया जाता है। प्रशस्तपाद ने यौगिक प्रत्यक्ष को युक्त और अयुक्त दो वर्गों में विभाजित किया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने, छान्दोग्य उपनिषद् में प्रजापति ने, कठोपनिषद् में यम ने, और गौड़पाद ने अपनी कारिका में योग का उल्लेख किया है। . जैनदर्शन में योग और परामनोविज्ञान भारतवर्ष में केवल वैदिक दर्शनों में ही नहीं बल्कि जैन और बौद्ध दर्शनों में भी अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने के अभ्यासों का वर्णन मिलता है। इस दृष्टि से जैन आचार्यों ने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं जिनका परामनोविज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्व है। जैनों में जीव का मनोविज्ञान बताते हुए अनेक प्रकार की साधनाओं के द्वारा अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने का उल्लेख है। जैनों के अनुसार इन्द्रियप्रत्यक्ष के अलावा अतीन्द्रियप्रत्यक्ष भी सम्भव है। जैन ग्रन्थों में मनःपर्याय, अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष, मनोगति, सर्वज्ञानित्व आदि की चर्चा की गयी है। सकलज्ञान से तात्पर्य सभी वस्तुओं का ज्ञान है। अवधि और मन:पर्याय ये सकलज्ञान के दो प्रकार हैं। अवधिज्ञान प्राप्त होने पर अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं जैसे इससे भूत, भविष्य और वर्तमान सभी कालों और निकट तथा दूर सभी देशों की रूपधारी वस्तुओं का ज्ञान सम्भव है। कर्मक्षय हो जाने से ये शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं। भिन्नभिन्न स्थितियों में अवधिज्ञान में आंशिक अन्तर पाया जाता है। अंगुल अवधिज्ञान छोटी से छोटी वस्तु का ज्ञान है। लोकअवधिज्ञान बड़ी से बड़ी वस्तु का ज्ञान है। अवधिज्ञान को स्थूल रूप से दो वर्गों में बांटा गया है-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय / भवप्रत्यय अवधिज्ञान केवल स्वर्ग और नरक के निवासियों को प्राप्त होता है। मानव और पशुओं को गुणप्रत्यय अवधिज्ञान प्राप्त हो सकता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान को भी आगे छ: वर्गों में बांटा गया है। प्रकार भेद से भी अवधिज्ञान के कुछ वर्गीकरण पाये जाते हैं जैसे देशावधि, परमावधि, सर्वावधि इत्यादि / अवधिज्ञान के अतिरिक्त सकलज्ञान का दूसरा प्रकार मनःपर्याय है। अवधिज्ञान में देशकाल में दूरस्थ वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। मनःपर्याय में दूसरों के विचारों को प्रत्यक्ष रूप से जाना जा सकता है। इस सम्बन्ध में विभिन्न जैन विचारकों में न्यूनाधिक मतभेद भी पाया जाता है। मनःपर्याय के दो प्रकार माने गये हैं-ऋजुमति और विपुलमति / पहले में दूसरे के मन के वर्तमान विचारों का ज्ञान होता है तथा दूसरे के मन के भूत और भविष्य के विचारों को जाना जा सकता है। अवधि और मनःपर्याय, सकलज्ञान के ये दोनों प्रकार कर्म के बन्धन और आवरण के हट जाने से प्राप्त होते हैं। कर्म का आवरण हटाने के लिए जैन साहित्य में अनेक साधनाओं का उल्लेख किया गया है। जैन साधना में सर्वोच्च स्थिति को केवलज्ञान कहा गया है। इस प्रकार की स्थिति-प्राप्त व्यक्ति के लिए कोई भी ज्ञान असम्भव नहीं है क्योंकि उसकी आत्मा पर से कर्म का आवरण पूर्णतया हट चुका है। जैन ग्रन्थों में पातंजल-योग से कुछ भिन्न योग-साधना की प्रक्रिया मिलती है। जैन विद्वानों के लिए योग चारित्र है। इसके लिए गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय इत्यादि विभिन्न प्रकार की साधनाओं का उल्लेख किया गया है। आध्यात्मिक विकास में 14 गुणस्थान माने गये हैं। ये विभिन्न सोपान हैं। अध्यात्म की साधना में योग के 5 सोपान माने गये हैं-अध्यात्म, भावना, समता, वृत्तिसंक्षय तथा ध्यान / आत्मा पर कर्म-पदार्थ का आवरण लेप्य के रूप में होता है। जैन आचार्यों ने अनेक प्रकार की लेप्यों की चर्चा की है और उनको हटाने के उपाय बताये हैं। परामनोविज्ञान के क्षेत्र में भारतीय मनोवैज्ञानिकों के योगदान के इस लेख में दिये गये संक्षिप्त विवरण से यह अवश्य सिद्ध होता है कि भविष्य में व्यवस्थित अनुसन्धान करने पर इस दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया जा सकेगा। हर्ष है कि आज देश में अनेक विश्वविद्यालयों में योग और परामनोविज्ञान के विषय में अनुसन्धान किये जा रहे हैं। इनमें डा. के. रामकृष्ण राव के निर्देशन में आन्ध्र विश्वविद्यालय का परामनोविज्ञान केन्द्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है और इसमें प्रामाणिक अनुसन्धान होने की सम्भावना है / इलाहाबाद में राज्य मनोविज्ञानशाला के भूतपूर्व निर्देशक डा. जमनाप्रसाद तथा उनके सहयोगियों ने भी परामनोविज्ञान के क्षेत्र में अनुसन्धान को आगे बढ़ाया है / राजस्थान में परामनोविज्ञान को सेठ सोहनलाल स्मारक संस्था और बाद में राजस्थान विश्वविद्यालय में परामनोविज्ञान विभाग में श्री एच.एन. बैनर्जी के निर्देशन में परामनोविज्ञान के क्षेत्र में अनेक अनुसन्धान किये गये हैं। इन केन्द्रों के ALLP
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________________ के . 72 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड अतिरिक्त विभिन्न विश्वविद्यालयों में समय-समय पर योग और परामनोविज्ञान से सम्बन्धित विषयों को लेकर सेमीनार होते रहे हैं / अनेक भारतीय परामनोवैज्ञानिक अमरीका में ड्यूक विश्वविद्यालय में डा. जे. बी. राइन की परामनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं। ये सभी अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भी अनेक विश्वविद्यालयों में परामनोवैज्ञानिक अनुसन्धान को आर्थिक सहायता दी है। उपर्युक्त समस्त गतिविधि से यह आशा की जा सकती है कि भविष्य में भारतीय मनोवैज्ञानिक परामनोविज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकेंगे। योग और परामनोविज्ञान के सम्बन्ध के विषय में महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान में सबसे बड़ी बाधा यह है कि भारत में अभी योगियों और परामनोवैज्ञानिकों में प्रत्यक्ष रूप से कोई सम्पर्क तथा सहयोग नहीं है। इस क्षेत्र में केवल पुस्तकीय अध्ययन पर्याप्त नहीं है। आशा है कि भविष्य में परामनोवैज्ञानिक योगियों का सहयोग प्राप्त करके इस क्षेत्र में स्थायी महत्व के अनुसन्धान कर सकेंगे। 1 "If you expect to continue with this most interesting approach, I am sure that many of us, including myself, will hope that by those methods you will be able to make a real breakthrough in knowledge." ---Gertrude Schmeidler. 2 "It is very interesting to see many distinguished parapsychologists and philosophers of P.S.I. reflecting on the possible relationship of Yoga to Parapsychology. If there is any truth in the age old belief that Yoga training and practice lead one to paranormal abilities, it is time that something should be done about it. This publication is welcome in that it focuses its attention on that important problem." - The Journal of Parapsychology, Vol. 28, No. 2- June 1964, p. 142. 3 योगसूत्र, 4,1 / योगसूत्र, 3, 32 // 5 योगसूत्र, 3, 25 / असंयतात्मना योगो, दुष्प्राप्य इति मे मतिः / वश्यात्मना तु यतता, शक्योऽवास्तुमुपायतः // ___ मन को वश में न करने वाले पुरुष को योग की प्राप्ति होना बहुत कठिन / है। उपाय से आत्मा को वश में करने वाला योग को प्राप्त हो सकता है।