Book Title: Vyapti Vichar
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229034/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याप्ति विचार प्र०मी० १.२.१०.मैं अविनाभावका लक्षण है जो वस्तुत: व्याति हो है फिर भी तर्क लक्षणके बाद तर्कविषयरूपसे निर्दिष्ट व्याप्तिका लक्षण इस सूत्रके द्वारा श्रा० हेमचन्द्रने क्यों किया ऐसा प्रश्न यहाँ होता है। इसका खुलासा यह है कि हेतुबिन्दुविवरण में अर्चटने प्रयोजन विशेष बतलानेके वास्ते व्याप्यधर्मरूपसे और व्यापकधर्मरूपसे भिन्न-भिन्न व्याप्तिस्वरूपका निदर्शन बड़े आकर्षक ढङ्गसे किया है जिसे देखकर श्रा० हेमचन्द्रको चकोर दृष्टि उस अंशको अपनानेका लोभ संवृत कर न सकी। आ० हेम-वन्द्रने अर्चटोक्त उस चर्चाको अक्षरशः लेकर प्रस्तुत सूत्र और उसकी वृत्तिमै व्यवस्थित कर दिया है। ___अर्चटके सामने प्रश्न था कि व्याप्ति एक प्रकारका संबन्ध है, जो संयोग की तरह द्विष्ठ ही है फिर जैसे एक ही संयोगके दो संबन्धी 'क' और 'ख' अनियतरूपसे अनुयोगी प्रतियोगी हो सकते हैं वैसे एक व्याप्तिसंबन्धके दो संबन्धी हेतु और साध्य अनियतरूपसे हेतुसाध्य कयों न हों अर्थात् उनसे अमुक ही गमक और अमुक हो गभ्य ऐसा नियम क्यों ? इस प्रश्नके श्राचार्योपनामक किसी तार्किक की अोरसे उठाए जानेका अर्चटने उल्लेख किया है। इसका जवाब अर्चटने, व्यातिको संयोगकी तरह एकरूप संबन्ध नहीं पर व्यापकधर्म और व्याप्यधर्मरूपसे विभिन्न स्वरूप बतलाकर, दिया है और कहा है कि अपनी विशिष्ट व्याप्तिके कारण व्याप्य ही गमक होता है तथा अपनी विशिष्ट व्याप्तिके कारण व्यापक ही गम्य होता है । गम्यगमकभाव सर्वत्र अनियत नहीं है जैसे आधाराधेयभाव । उस पुराने समयमैं हेतु-साध्यमै अनियतरूपसे गम्यगमकभावकी आपत्तिको टालनेके वास्ते अर्चट जैसे तार्किकोंने द्विविध व्याप्तिकी कल्पना की पर न्यायशास्त्र के विकासके साथ ही इस आपत्तिका निराकरण हम दूसरे और विशेषयोग्य प्रकारसे देखते हैं। नव्यन्यायके सूत्रधार गंगेशने चिन्तामणिमें पूर्वपक्षीय और सिद्धान्तरूपसे अनेकविध व्याप्तियों का निरूपण किया है (चिन्ता० गादा० पृ० १४१-३६०)। पूर्वपक्षीय व्याप्तियोंमें अव्यभिचरितत्वका परिष्कार' है जो वस्तुतः १. 'न तावद्व्यभिचरितत्वं तद्धि न साध्याभाववदवृत्तित्वम् , साध्यवद्भिन्नसाध्याभाववदवृत्तित्वं......साध्यवदन्यावृत्तित्वं वा ।'–चिन्ता० गादा० पृ० १४१ । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ अविनाभाव या अर्चटोक्त व्याप्यधर्मरूप है । सिद्धान्तव्याप्तिमें जो व्यापकत्वका परिष्कारांश' है वही अर्चटोक्त व्यापकधर्मरूप व्याप्ति है। अर्थात् अर्चटने जिस व्यापकधर्मरूप व्याप्तिको गमकत्वानियामक कहा है उसे गंगेश व्याप्ति ही नहीं कहते, वे उसे व्यापकत्व मात्र कहते हैं और सथाविध व्यापकके सामानाधिकरण्यको ही व्याप्ति कहते है२ | गंगेशका यह निरूपण विशेष सूक्ष्म है। गंगेश जैसे ताकिकोंके अव्यभिचरितत्व, व्यापकत्व श्रादि विषयक निरूपण प्रा० हेमचन्द्र की दृष्टिमें पाए होते तो उनका भी उपयोग प्रस्तुत प्रकरण में अवश्य देखा जाता। व्याप्ति, अविनाभाव, नियतसाहचर्य ये पर्यायशब्द तर्कशास्त्रोंमें प्रसिद्ध हैं । अविनाभावका रूप दिखाकर जो व्याप्तिका स्वरूप कहा जाता है वह तो माणिक्यनन्दी ( परी० ३.१७, १८) श्रादि सभी जैनताकिकोंके ग्रन्थों में देखा जाता है पर अर्चटोक्त नए विचारका संग्रह प्रा० हेमचन्द्र के सिवाय किसी अन्य जैन तार्किकके ग्रन्थमै देखनमें नहीं आया। परार्थानुमान के अवयव परार्थ अनुमान स्थलमें प्रयोगपरिपाटीके सम्बन्धमें मतभेद है। सांख्य तार्किक प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त इन तीन अवयवोंका ही प्रयोग मानते हैं (माठर० ५)। मीमांसक, वादिदेवके कथनानुसार, तीन अवयवोंका ही प्रयोग मानते हैं ( स्याद्वदर० पृ० ५५६)। पर श्रा० हेमचन्द्र तथा अनन्तवीर्यक कथनानुसार वे चार अवयवोंका प्रयोग मानते हैं ( प्रमेयर० ३. ३७) । शालिकनाथ, जो मीमांसक प्रभाकरके अनुगामी हैं उन्होंने प्रकरणपञ्चिकामें (पृ० ८३-८५), तथा पार्थसारथि मिश्रने श्लोकवातिककी व्याख्यामै ( अनु० श्लो० ५४ ) मीमांसकसम्मत तीन अवयवोंका ही निदर्शन किया है | वादिदेवका कथन शालिकनाथ तथा पार्थसारथिके अनुसार ही है पर श्रा. हेमचन्द्र तथा अनन्तवीर्यका नहीं। अगर आ० हेमचन्द्र और अनन्तवीर्य दोनों मीमांसक १. 'प्रतियोग्यसमानाधिकरणयत्समानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिता वच्छे. दकावच्छिन्नं यन्न भवति"-चिन्ता० गादा० पृ० ३६१ । २. 'तेन समं तस्य सामानाधिकरण्यं व्याप्तिः ।।'-चिन्ता गादा पृ० ३६१ । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सम्मत चतुरवयव कथनमें भ्रान्त नहीं हैं तो समझना चाहिए कि उनके सामने चतुरवयववादकी कोई मीमांसक परम्परा रही हो जिसका उन्होंने निर्देश किया है । नैयायिक पाँच अवयवोंका प्रयोग मानते हैं ( १. १. ३२) । बौद्ध तार्किक, अधिक से अधिक हेतु दृष्टान्त दो का ही प्रयोग मानते हैं (प्रमाणवा० १.२८; स्याद्वादर० पृ० ५५६) और कम से कम केवल हेतुका ही प्रयोग मानते हैं ( प्रमाणवा० १.२८ ) । इस नाना प्रकारके मतभेदके बीच जैन तार्किकने अपना मत, जैसा अन्यत्र भी देखा जाता है, वैसे ही अनेकान्त दृष्टिके अनुसार नियुक्तिकालसे' ही स्थिर किया है । दिगम्बर श्वेताम्बर सभी जैनाचार्य श्रवयवप्रयोगमें किसी एक संख्याको न मानकर श्रोताकी न्यूनाधिक योग्यता के अनुसार न्यूनाधिक संख्याको मानते हैं । माणिक्यनन्दीने कमसे कम प्रतिज्ञा हेतु इन दो श्रवयवका प्रयोग स्वीकार करके विशिष्ट श्रोता की अपेक्षा से निगमन पर्यन्त पाँच अवययोका भी प्रयोग स्वीकार किया है ( परी० २. ३७-४६ ) । श्रा० हेमचन्द्र के प्रस्तुत सूत्रोंके और उनकी स्वोपज्ञ वृत्तिके शब्दों से भी माणिवयनन्दी कृत सूत्र और उनकी प्रभाचन्द्र यदि कृत वृत्तिका ही उक्त भाव फलित होता है अर्थात् श्रा० हेमचन्द्र भी कम से कम प्रतिज्ञाहेतु रूप श्रवयवद्वयको ही स्वीकार करके अन्तमें पाँच श्रवयवको भी स्वीकार करते हैं; परन्तु वादिदेवका मन्तव्य इससे जुदा है। वादिदेव सूरिने अपनी स्वोपज्ञ व्याख्यामें श्रोताकी विचित्रता बतलाते हुए यहाँ तक मान लिया है कि विशिष्ट अधिकारीके वास्ते केवल हेतुका ही प्रयोग पर्याप्त है ( स्याद्वादर० पृ० ५४८), जैसा कि बौद्धोंने भी माना है । अधिकारी विशेषके वास्ते प्रतिज्ञा और हेतु दो अन्यविध अधिकारीके वास्ते प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण तीन, इसी तरह अन्य वास्ते सोपनय चार, या सनिगमन पाँच श्रवयव का प्रयोग स्वीकार किया है ( स्याद्वादर० पृ० ५६४ ) इस जगह दिगम्बर परस्पराकी अपेक्षा श्वेताम्बर परम्परा की एक खास विशेषता ध्यान में रखनी चाहिए, जो ऐतिहासिक महत्त्व की है । वह यह है कि किसी भी दिगम्बर आचार्य ने उस अति प्राचीन भद्रबाहुकतृक मानी जाने १ 'जिवय सिद्धं चैव भरणए कत्थई उदाहरणं । श्रसज्ज उ सोया ' ऊ विकहिञ्चि भोज्जा || कत्थई पञ्चावयवं दसहा वा सव्वहा न पडिसिद्धं न य पुण सव्वं भगराई छंदी सविचार मक्खायं । दश० नि० गा० ४६, ५० | Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 163 वाली नियुक्ति में निर्दिष्ट व वर्णित' दश अवयवों का, जो वात्स्यायन' कथित दश अवयवों से भिन्न हैं, उल्लेख तक नहीं किया है, जब कि सभी श्वेताम्बर तार्किकों (स्याद्वादर० पृ० 556) ने उत्कृष्टवाद कथा मैं अधिकारी विशेषके वास्ते पाँच अवयवों से आगे बढ़कर नियुक्तिगत दस अवयवों के प्रयोग का भी नियुक्ति के ही अनुसार वर्णन किया है। जान पड़ता है इस तफावत का कारण दिगम्बर परम्परा के द्वारा श्रागम आदि प्राचीन साहित्यका त्यक्त होना-पही है। एक बात माणिक्यनन्दीने अपने सूत्र में कही है वह माके की जान पड़ती है। सो यह है कि दो और पाँच अवयवोंका प्रयोगभेद प्रदेशकी अपेक्षा से समझना चाहिए अर्थात् थादप्रदेशमैं तो दो अवयवोंका प्रयोग नियत है पर शास्त्रप्रदेशमें अधिकारीके अनुसार दो या पाँच अवयवोंका प्रयोग वैकल्पिक है / वादिदेवकी एक खास बात भी स्मरणमें रखने योग्य है / वह यह कि जैसा बौद्ध विशिष्ट विद्वानों के वास्ते हेतु मात्रका प्रयोग मानते हैं वैसे ही वादिदेव भी विद्वान् अधिकारीके वास्ते एक हेतुमात्रका प्रयोग भी मान लेते हैं / ऐसा स्पष्ट स्वीकार श्रा० हेमचन्द्र ने नहीं किया है / ई० 1636] [प्रमाण मीसांसा - 1 'ते उ पइन्नविभत्ती हेउविभत्ती विवक्खपडिसेहो दिहतो आसङ्का लप्पडिसेहो निगमणं च ।'–दश नि० गा० 137 / 2 'दशावयवानेके नैयायिका वाक्ये सचक्षते-जिज्ञासा संशयः शक्य. प्राप्तिः प्रयोजनं संशयव्युदास इति-न्यायभा० 1. 1. 32 /