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विरल विद्यापुरुष श्रीहरिवल्लभ भायाणी
कुमारपाळ देसाई
समग्र देशमां गुजरात विशेष समृद्ध छे, एना हस्तप्रतोमां सचवायेला विपुल ज्ञानराशिथी. समस्त देशमां गुजरात सौथी रंक छे, एणे करेली ए विपुल साहित्यसमृद्धिनी उपेक्षाथी. आपणा हस्तप्रतभंडारोमां पडेली हजारो हस्तप्रतो अभ्यासी-संशोधकनी राह जोईने बेठी छे. आवी हस्तप्रतो ज्ञानभंडारनी दीवाल माथी बहार आवे अने गुजरातनो ज्ञानप्रकाश ग्रंथरूपे प्रगट थाय ते माटे आजीवन चिता सेवनार श्री हरिवल्लभ भायाणीनी विदायथी गुजरातमां कोई रीते न पुराय तेवो शून्यावकाश सर्जायो छे. विद्याजगतमां तेओ 'भायाणीसाहेब'ने नामे विशेष जाणीता, पण ए मात्र ज्ञानोपासनाना ज मार्गदर्शक तरीके नहीं, एकनिष्ठ संशोधक के नीवडेला सर्जकने जीवनोपासनानुं अमृत आपनारा हता. मध्यकालीन गुजराती साहित्यना अभ्यास अने संशोधन माटे एम अविरत पुरुषार्थ कर्यो. आ साहित्य संशोधित थईने प्रकाशित पामे तेने माटे सतत प्रयास करता. नवा नवा युवानोने संशोधन कार्यमा प्रेरवा बराबर जोतरता. अने वखतोवखत प्रोत्साहन आपवुं ते एमनुं काम. क्यारेक विद्यार्थी प्रमादवश काम न करतो होय तो मीठी टकोर करीने विद्यार्थीने फरी आगळ वधारता. गुजरातना अनेक संशोधकोने भायाणीसाहेबनुं मार्गदर्शन मळ्युं छे. एमना अवसानथी गुजरातनी साहित्य संशोधन "प्रवृत्तिने कळ न वळे तेवो आंचको लाग्यो छे.
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गुजरातना आ विद्या- तपस्वीए अनेकविध विद्याशाखाओमां समृद्ध प्रदान कर्तुं छे. भाषाविज्ञाननुं क्षेत्र होय के प्राकृत अपभ्रंश साहित्य होय, विवेचन होय के संपादन होय, पण जे विषयमां भायाणीसाहेबनी प्रतिभानो स्पर्श थतो, त्यां ऊंडाण अने उत्कृष्टता एकसाथे संवाद साधतां मूळ तेओ संस्कृतना विद्यार्थी संस्कृतमां अने अर्धमागधी विषय साथे एम. ए. थया हता, पण एमनी विद्याओनो व्याप सतत वधतो गयो. प्राकृत अने अपभ्रंश भाषाओना तज्ज्ञ बन्या. नवमी शताब्दिना कवि स्वयंभूदेव - रचित अपभ्रंश
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भाषाना रामायणविषयक महाकाव्य 'पउमचरिय' पर महानिबंध लखीने डोक्टरेटनी पदवी मेळवी. ए पछी आ क्षेत्रनां एमनां संपादनो आंतरर्राष्ट्रिय ख्याति तो पाम्यां, किंतु तेथीय विशेष नवी दिशादृष्टि आपवामां सहायक बन्यां. 'अपभ्रंश व्याकरण', 'व्युत्पत्ति विचार' अने 'थोडोक व्याकरणविचार' जेवा ग्रंथोमां भाषाविज्ञानी तरीकेनी एमनी प्रतिभानां दर्शन थाय छे.
'कमळना तंतु' के 'तरंगवती' जेवी मध्यकालीन गुजराती कृतिओनां संपादनमां एमनो संशोधक तरीकेनो नवोन्मेष प्रगट थाय छे. गुजराती विवेचनना क्षेत्रने अनेक पुस्तकोथी एमणे समृद्ध कयुं. प्राचीन साहित्यथी मांडीने आधुनिक साहित्यनी छेल्लामां छेल्ली गतिविधि साथे एमनो परिचय होय. एमनी प्रज्ञानो आवो अखंड विस्तार जोईए त्यारे आश्चर्य थाय. पाश्चात्य विवेचनना अद्यतन प्रवाहोनो ऊंडो अभ्यास धरावता अने छेलामां छेल्ला उपलब्ध ग्रंथो के लेखी विशे लखता रहेता अपभ्रंशना दुहाथी मांडीने पोस्टमॉडर्निझम अने स्ट्रक्चरालिझम विशे लेखो लखता होय. कठिन व्याकरणग्रंथोथी मांडीने शृंगाररसिक मुक्तकोनो अनुवाद पण भायाणीसाहेब पासेथी मळ्यो छे. बौद्ध जातक कथाओना अनुवादनो ग्रंथ 'कमळना तंतु' मळे छे. भायाणीसाहेब जर्मन, मराठी, बंगाळी, तमिळ भाषाओ जाणता हता. प्रारंभमां तेओ अंग्रेजीमां लखता हता. लोकसाहित्यमां पण एमने ऊंडो रस. 'लोकसाहित्य : संपादन अने संशोधन' नामना शास्त्रीय पुस्तके लोकसाहित्यना अभ्यासीओने नवी दिशा आपी छे. संस्कृत प्राकृत अने अपभ्रंश मुक्तकोना अमर साहित्य वारसाने एमणे 'गाथामाधुरी', 'मुक्तकमाधुरी' जेवां पुस्तकोमां संग्रहित कर्यो
छे.
१९४०मां 'प्रस्थान 'मां एमनो प्रथम लेख छपायो त्यारथी मांडी आ वर्षना नवेम्बर महिना सुधी एमनी विद्यायात्रा चालु रही. गुजरातीमां लखीने मातृभाषाने न्याल करी. भायाणीसाहेब पासे जेटली कुंडी साहित्यचर्चा थई शके एटली ज साहजिकताथी तेमना जन्मस्थळ महुवानी, अपभ्रंश भाषाना दुहानी के ए पछी प्राकृत संस्कृत मुक्तकोनी चर्चा थई शके.
आवा भायाणीसाहेबने रणजितराम सुवर्णचंद्रक, दिल्हीनो साहित्य अकादमीनो एवोर्ड, प्रेमानंद साहित्यसभानो चंद्रक, गुजरात साहित्य अकादमीनो
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226 एवोर्ड वगेरे अनेक एवोर्डथी नवाजवामां आव्या हता. जोके हकीकतमां तो भायाणीसाहेबने मळेला एवोर्डथी वास्तवमां एवोर्डने सन्मान हांसल थयु छ !
प्रकांड पांडित्य होवा छतां पंडिताईनो लेशमात्र भार नहीं. कोईपण विषय के ग्रंथ परत्वे गहन विचार करनारा एमना चहेरा पर सदाय गुलाबी हास्य फरकतुं होय ! आ सरस्वतीपुत्रनो विद्याप्रेम एटलो के कोई विद्यार्थी मार्गदर्शन माटे आवे तो पोताने गमे तेवू जरूरी काम बाजुए मूकीने एने भणाववा लागी जाय. नानकडी जिज्ञासा लईने जनार नवासवा विद्यार्थीने ए प्रेमथी आवकार आपता, पासे बेसाडता, एमनां पत्नी चंद्रकलाबहेन एमनुं आतिथ्य करता अने पुस्तकोनी दुनिया वच्चे बेठेला भायाणीसाहेब एना मुद्दाने पकडीने सांगोपांग चर्चा करता.
रात-दिवस एमने सतत एक ज चिंता घेरायेली रहेती के आपणा भाषा-वारसानु शुं थशे ? आ हस्तप्रतोनां ज्ञान- शुं थशे ? प्राचीननी उपेक्षा अने संशोधननी खंतनो अभाव एमने कोरी रहेतो हतो. एमनी आ वेदना ज्यारे प्रगट थती, त्यारे भायाणीसाहेबना अवाजमां जुदो रणको संभळातो, एमनी निखालस वेदना हृदयने तत्काळ स्पर्शी जती.
प्राकृत-अपभ्रंश साहित्यना विद्वान अने प्रकांड पंडित भायाणीसाहेबनी विदाय पछी आजे भाषा-साहित्य अने संशोधनना क्षेत्रने आवरी ले तेवी प्रतिभा देखाती नथी. विद्याक्षेत्रे रांक गुजरात एमनी विदायथी रंक बनी गयु. अभ्यासीओ अने विद्वानो साथे चर्चा चालती होय त्यारे भायाणीसाहेब एकाएक ऊभा थईने ए विषयमा प्रगट थयेखें कोई विशिष्ट के अद्यतन पुस्तक लई आवे. एनां पृष्ठो खोलीने एमांथी समजावे. वळी ए संशोधकने उपयोगी होय तो जरी लागती झेरोक्ष पण तेमणे करावी राखी होय. आवो हतो एमनो विद्याप्रेम.
लंडन के पेरिसनी युनिवर्सिटीमां तमे भारतीय भाषाना अभ्यासीने मळवा जाव तो तेओ गुजरातमां वसती बे व्यक्तिनी पृच्छा करे. एक ते श्रीदलसुखभाई मालवणिया अने बीजा श्रीहरिवल्लभ भायाणी.
लंडनमा तमे विद्वान प्रा. राईटने मळता हो अथवा पॅरिसमां डॉ.
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227. मादाम काया के डॉ. नलिनी बलबीरने मळता हो तो ए बधा पोताना हृदयमां स्थापेला गुरुसम भायाणीसाहेबर्नु स्मरण करे. एमनुं प्रदान आंतरराष्ट्रीय ख्याति पाम्युं हतुं. लंडननी युनिवर्सिटीनी 'स्कूल ऑफ ओरिएन्टल ऐन्ड आफ्रिकन स्टडिझ' तरफथी तेमने मानार्ह एवा फेलोपदथी सन्मानित करवामां आव्या हता.
भायाणीसाहेब पासे हृदयविजयी हास्य हतुं, एमनुं खडखडाट हास्य वातावरणमां गुंजतुं रहेतुं. क्यारेक एटलुं बधुं हसे के एमनो चहेरो लालघूम बनी जतो. पण आ हास्यरसायणथी भायाणीसाहेब सहुना प्रिय बनता. ए हास्यने कारणे कोई समर्थ विद्वानने मळी रह्यानो सामी व्यक्तिनो भय के डर जतो.
आ महान भाषाविदने सतत एवी इच्छा रहेती के गुजरातमां प्राकृतअपभ्रंश भाषानी अकादमी स्थपाय. गुजराती भाषा जेमांथी ऊतरी आवी तेवी आ बे भाषाओनी घणी साहित्यिक समृद्धि उपेक्षित. रही छे. एमांय अपभ्रंश भाषानो अभ्यास गुजरातमां अवश्य थवो ज जोईए. आने माटे एमणे प्रयास कर्या हता. परंतु अविद्याना अरण्यमा विद्यानी आवी सूक्ष्म पण महत्त्वनी वात क्यांथी संभळाय ?
विद्यार्थी जुए एटले भायाणीसाहेबने वहाल फूटे. तेओ एना अभ्यासनी चिंता करे. विद्याभ्यास वधारवामां आर्थिक मूंझवण होय तो एने माटे आर्थिक व्यवस्था पण करी आपे. परिणामे आ विद्यापुरुषे विद्याना केटलाय दीवडाओमां तेल सींच्युं छे. एमनी आ विद्योपासनाने कारणे तेओनो विद्वान जैन आचार्यो साथे गाढ संपर्क रहेतो. जैन आचार्यो पण आवा ज्ञानी पुरुष साथे ज्ञानचर्चा करता. केटलाक जैन आचार्यो साथे तो एमने हृदयनो संबंध. आचार्यश्री विजयप्रद्युम्नसूरीश्वरजी अने आ. श्री विजयशीलचंद्रसूरीश्वरजी साथे तेओनी विद्याकीय प्रवृत्तिओ चालती ज होय. 'अनुसंधान' नामनुं संशोधनलेखो धरावतं एक उत्कृष्ट त्रैमासिक आ. श्री शीलचंद्रसरीश्वरजी-साथे रहीने संपादित करता हता अने गुजरातमां शास्त्रीय संशोधनोने प्रकाशमां लावता हता.
कोईनोय पत्र आवे तो एने तरत पोस्टकार्डथी प्रत्युत्तर पाठवे. वळी
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________________ 228 एक पोस्टकार्डमां वात अधूरी रहे तो ए अनुसंधानमां बीजुं पोस्टकार्ड अने जरूर होय तो त्रीजु पोस्टकार्ड पण लखे. 'एमनुं घर एटले अभ्यासीओनुं तीर्थ.' 'एक ज क्षणे ए गुरु अने गुरूणाम् गुरु होई शके छे.' एमनामां विद्वत्तानी भारोभार सौजन्य हतुं. जीवनना अंत सुधी ए कार्यरत रह्या. छेल्ले मुंबईनी नाणावटी होस्पिटलना बिछानेथी पण लखता हता ! 'वाग्व्यापार', 'शोध अने स्वाध्याय', 'शब्दकथा', 'अनुशीलनो', 'काव्यमां शब्द', 'व्युत्पत्तिविचार', 'रचना अने संरचना' जेवा विद्वत्तासभर ग्रंथोना संशोधक तरीके तेओ स्मरणीय रहेशे. एमनी छ दायकानी विद्यायात्रानो विराम ए विद्याप्रवृत्तिओना भावि सामे प्रश्नार्थरूप बनी जशे तो ?