Book Title: Vicharshuddhi ki Niv Aharshuddhi
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार शुद्धि की नींव आहार शुद्धि (आचार्य श्रीराजेन्द्रसूरिजी महाराज) (जैनाचार्य श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य) जैन दर्शन में विचार शुद्धि व आचार शुद्धि का बड़ा महत्व है, विचार शुद्धि के लिये आहार शुद्धि अत्यावश्यक है। जिससे तन-मन का आरोग्य सुरक्षित रहता है, आत्म साधना सुन्दर बनती है। फलतः अणाहारी पद की प्राप्ति सुलभ बनती है। सर्वज्ञ भगवान ने २२ प्रकार के अभक्ष्यों के निषेध का आदेश दिया है। वस्तुत: वह युक्तियुक्त है। जिन दोषों के कारण इन पदार्थों को अभक्ष्य कहा गया है वे निम्नानुसार हैं: १. कन्दमूलादि बहुत से पदार्थों में अनंत जीवों का नाश होता है। मांस मदिरा आदि पदार्थों में द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के असंख्य त्रस जीवोंका नाश होता है। इस प्रकार यह भोजन महा हिंसावाला होता है, इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने इसे अभक्ष्य माना है। २. अभक्ष्य पदार्थों के खानपानसे आत्माका स्वभाव कठोर और निष्ठुर बन जाता है। आत्मा के हितपर आघात होता है। आत्मा तामसी बनती है। हिंसक वृत्ति भड़कती है। ६. अनंत जीवोको पीड़ा देनेसे अशाता वेदनीयादि अशुभ कर्मों का बंध होता है। ७. धर्म विरुद्ध भोजन है। ८. जीवन स्थिरता हेतु अनावश्यक है। ९. शरीर, मन, आत्माके स्वास्थ्य की हानि करता है। १०. जीवनमें जड़ता लाता है। धर्म में रुचि उत्पन्न नहीं करता है। ११. दुर्गति की आयु के बंधका निमित्त है। १२. आत्मा के अध्यवसायको दूषित करता है। १३. काम व क्रोध की वृद्धि करता है। १४. रसवृद्धि के कारण भयंकर रोगों को उत्पन्न करता है। १५. अकाल असमाधिमय मृत्यु होती है। १६. अनंत ज्ञानी के वचनपर विश्वास समाप्त हो जाता है। इन समस्त हेतुओको दृष्टि में रखते हुए अभक्ष्यता को भली भाँति समझकर अभक्ष्य पदार्थों का त्याग करना उचित है। अभक्ष्य-अनंतकाय आहार का सम्बन्ध जितना शरीर के साथ है ठीक उतना ही मन एवम् जीवन के साथ भी है। जैसा अन्न- वैसा मन और जैसा मन-वैसा ही जीवन। साथ ही जैसा जीवन वैसा ही मरण (मृत्यु)। आहारशुध्दि से विचारशुद्धि और विचारशुद्धि से व्यवहारशुद्धि आती है। दूषित अभक्ष्य आहार ग्रहण करने से मन और विचार दूषित होते हैं, साथ ही समय की मर्यादा टूट जाती है, खण्ड-खण्ड हो जाती है। शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। मन विकारों का गुलाम और तामसी बन जाता है। अतः सात्विक गुणमय जीवन व्यतीत करनेके लिए एवम् अनेकाविध दोषों से बच जाने हेतु भक्ष्य-अभक्ष्य आहार के गण-दोषों का परिशीलन करना अवश्यक है। अभक्ष्य आहार के दोष - कंदमूलादि में अनंत जीवों का नाश होता है। मक्खन, मदिरा, मांस, शहद और चलित रस आदि में अगणित त्रस जंतुओं का नाश होता है। फलतः उनके भक्षण से मनुष्य अत्यंत क्रूर-कठोर और घातकी होता है। मन विकारग्रस्त और तामसी बनता है। शरीर रोग का केन्द्रस्थान बन जाता है। क्रोध, काम, उन्माद की अग्नि अनायास ही भड़क उठती है। आशाता वेदनीय कर्मों का बंधन होता है। नरकगति, तिर्यंच गति, दुर्गतिमय आयुष्य का बंधन होता है, मन कलुषित बन जाता है और जीवन अनाचार का धाम। साथ ही अभक्ष्य आहार के कारण उपार्जित पाप जीव को असंख्य अनंत भवयोनि में भटकाते रहते हैं। शद्ध-सात्विक भक्ष्य आहार - इसके भक्षण से जीव अनंत जीव एवम् त्रस जंतुओं के नाश से बाल-बाल बच जाता है शरीर निरोगी सुन्दर और स्वस्थ बनता है। मन निर्मल, प्रसन्न, सात्विक बनता है। फलस्वरूप जीव कोमल एवम् दयालु बनता है। सद्विचार और सदाचार का विकास होता है। सद्गति सुलभ हो जाती है। त्याग-तपादि संस्कारों का बीजारोपण होता है। जीवन-मरण समाधिमय बन जाता है। उत्तरोत्तर मनशुद्धि के कारण जीवनशुद्धि और उसके कारण शुभध्यान के बलपर परमशुद्धिरूप... मोक्ष... अणाहारी पद सुलभ बन जाता है। परिणामतः पुनः-पुन: अध:पतन से आत्मा की सुरक्षा, बचाव के लिए बावीस अभक्ष्यों का परित्याग करना परमावश्यक अभक्ष्य के बावीस प्रकार १ से ५ पंचुबरि (पाँच प्रकार के फल) ६ से ९ चउविगई १० हिम (बर्फ) ११ विष १२ करगेअ (ओला) १३ सव्वमट्टीअ (मिट्टी) १४ राइ भोअणगं चिय (रात्रि-भोजन) १५ बहुबीअ (बहुबीज) १६ अणंत (अनंतकाय-जमीकंद) १७ संघाणा (अचारादि) १८ घोलवड़ा (द्विदल) श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना १५ राग द्वेष हो चित्त में, उपजे निशदिन पाप । जबन्तसेन अनुचित यह, देता नित सन्ताप. Melibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ वायंगण (बैगन) वनस्पतिजन्य भी नहीं होता। वह मुर्गी के गर्भ में रक्त व वीर्यरससे २० अमुणिअ नामईं पुप्फ फलाई (अनजाने फल-पुष्प) बढ़ता है। अत: वह शाकाहार नहीं है। मांस भक्षण में अत्यन्त जीव २१ तुच्छ फलं हिंसा जानकर उसका त्याग करना हितावह है। २२ चलिअरसं (चलितरस) वज्जे बावीसं॥ (मक्खन) - मक्खनको मही (छाछ) मेंसे बाहर निकालने के बाद (१ से ५) उदुंबर-गूलर आदि फल - (१) वटवृक्ष (२) पीपल (३) उसमें उसी रंगके त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। मक्खन खानेसे जीव पिलंखण (४) काला उदुंबर और (५) गूलर। इन पाँचों के फल विकार वासनासे उत्तेजित होता है। चारित्र्यकी हानि होती है। बासी अभक्ष्य हैं। इनमें अनगिनत बीज होते हैं। असंख्य सूक्ष्म त्रस जीव मक्खन में हर पल रसज जीवोंकी उत्पत्ति होती रहती है। इसे खानेसे भी होते हैं। इन्हें खानेसे न तृप्ति मिलती है न शक्ति और यदि इन अनेक बीमारियाँ भी हो जाती हैं। अत: मक्खन खानेका त्याग करना फलोंमें के सूक्ष्म जीव मस्तिष्क में प्रवेश कर जाएं तो मृत्यु भी हो ही श्रेयस्कर है। सकती है। जीव तंतुओके कारण रोगोत्पत्ति की तो शतप्रतिशत आशंका इसतरह शहद, मदिरा, मांस और मक्खन ये चारों विकार भावों होती है। अत: इन पाँचोंका त्याग करना चाहिए। के वर्धक और आत्मगुणों के घातक हैं। अतः इन का हमेशा के लिए (६) शहद - कुंता, मक्खियाँ, भवरे आदिकी लार एवं वमनसे शहद त्याग करना चाहिए। तैयार होता है। मधुमक्खी फूलसे रस चूसकर उसका छत्ते में वमन (१०) बर्फ (हिम) - छाने अनछाने पानीको जमाकर या फ्रीज में करती है। छत्तेके नीचे धुंआ करके वहाँ से मधुमक्खियोंको उड़ाया रखकर बर्फ बनाया जाता है। जिसके कणकणमें असंख्य जीव हैं। जाता है। तत्पश्चात् उस छत्तेको निचोड़कर शहद निकाला जाता है। बर्फ जीवन निर्वाह के लिए भी आवश्यक नहीं है। अत: बर्फ से निचोड़नेकी इस क्रिया में कई अशक्त मधुमक्खियाँ एवं उनके अंडे बननेवाले शर्बत, आइसक्रीम, आइसफुट आदि सभी पदार्थ अभक्ष्य नष्ट हो जाते हैं और सभीकी अशुचि शहद में मिल जाती है तथा हैं। इनके भक्षण से मंदाग्नि, अजीर्ण आदि रोगों की उत्पत्ति होती उसमें अनेक प्रकार के रसज जीवों की भी उत्पत्ति होती है। इस तरह है। बर्फ आरोग्य का दुश्मन है। फ्रीज का पेय पदार्थ भी हानिकारक शहद अनेक जीव के हिंसाका कारण होनेसे खाने में इसका त्याग करना होता है। अतः इनका त्याग भी उपयोगी होता है। ही श्रेयस्कर है। दवाई के प्रयोग में घी, दूध, शक्कर, मुरब्बा आदि (११) जहर (विष) - जहर खनिज, प्राणिज, वनस्पतिज और मिश्र से काम चल सकता है, अतः शहद का उपयोग दवा लेने तक में ऐसे चार प्रकार का होता है। संखिया, बच्छनाग, तालपुर, अफीम, न करना हितावह है। हरताल धतूरा आदि सभी विषयुक्त रसायन हैं, जिन्हें खानेसे मनुष्य (७) शराम (मदिरा)- मदिरा शराब, सुरा, द्राक्षासव, ब्रांडी, भांग, की तत्काल मृत्यु भी हो सकती है। ये अन्य जीवोंका भी नाश करते वाईन आदिके नामसे पहचानी जाती है। शराब बनाने के लिए गुड़, हैं। श्रम, दाह, कंठशोध इत्यादि रोगों को उत्पन्न करते हैं। बीड़ी, अंगूर, महुआ आदिको सड़ाया जाता है, उबाला जाता है। इसतरह तम्बाकू, गांजा, चरस, सिगरेट आदि में जो विष है वह मनुष्य के उसमें उत्पन्न अनगिनत त्रस जीवों की हिंसा होती है तथा शराब तैयार शरीर में प्रवेश करके अल्सर, केन्सर, टी.बी. आदि रोगोंको उत्पन्न होनेके बाद भी उसमें अनेक त्रस जीव उत्पन्न होते हैं और उसीमें करता है। विष स्व और पर का घातक है। अत: त्याज्य है। मरते हैं। शराब पीने के बाद मनुष्य अपनी सुध-बुध भी खो बैठता (१२) ओला - ओले में कोमल और कच्चा जमा हुआ पानी है, है। धनकी हानि होती है और काम, क्रोध की वृद्धि होती है। पागलपन जो वर्षाऋतु में गिरता है। उसके खानेका कोई प्रयोजन नहीं है। बर्फ प्रगट होता है। आरोग्य का विनाश होता है। अविचार, अनाचार, में जितने दोष होते हैं, उतनेही इसमें भी होते हैं, ऐसा जानकर इसका व्यभिचार का प्रादुर्भाव होता है। आयुष्यको धक्का लगता है। विवेक, त्याग करना चाहिए। संयम, ज्ञानादि गुणोंका नाश होता है। फलतः जीवन बरबाद होता (१३) मिट्टी - मिट्टी के कणकणमें असंख्य पृथ्वीकाय के जीव होते है। अत: इसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। हैं। इसके भक्षणसे पथरी, पांडुरोग, सेप्टिक, पेचिश जैसी भयंकर (८) मांस - यह पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसासे प्राप्त होता है। मांसमें बीमारियाँ होती हैं। किसी मिट्टी में मेंढक उत्पन्न करने की शक्यता अनंतकाय के जीव, त्रस जीव एवं समुर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती होती है। अत: उससे पेट में मेंढक उत्पन्न हो जाएँ तो मरणान्त वेदना है। इसके भक्षण से मनुष्य की प्रवृत्ति तामसी बनती है और वह क्रूर सहन करनी पड़ती है। एवं आततायी बनता है। केन्सर आदि भयंकर रोग भी होने की (१४) रात्रि-भोजन - यह नरकका प्रथम द्वार है। रातको अनेक संभावना रहती है। कोमलता एवं करुणा का नाश होता है। पंचेन्द्रिय सूक्ष्म जंतु उत्पन्न होते हैं तथा अनेक जीव अपनी खूराक लेने के जीवों के वधसे नरक गतिका आयुष्य बंधता है, जिससे नरकमें असंख्य लिए भी उड़ते हैं। रात्रि भोजन के समय उन जीवों की हिंसा होती वर्षोंतक अपार वेदना भोगनी पड़ती है। अनेक धर्मशास्त्र दया और है। विशेष यह है कि यदि रात्रि भोजन करते समय खाने में आ जाएँ अहिंसा धर्मका विधान करते हैं, उनका उल्लंघन होता है। तो जूं से जलोदर, मर्खी से उल्टी, चींटीसे मति मंदता, मकड़ीसे मांस खानेके त्यागकी तरह अंडे खानेकाभी त्याग करना चाहिए, कुष्ठ रोग, बिच्छुके काटेसे तालुवेध, छिपकली की लारसे गंभीर क्योंकि अंडे में पंचेन्द्रिय जीवों का गर्भ रस-रूप में रहता है, अत: बीमारी, मच्छर से बुखार, सर्पक जहरसे मृत्यु बालसे स्वरभंग आदि उसके खाने में भी मांस जितना दोष लगाता है। अंडे में कोलेस्टेरोल बीमारियाँ होती हैं तथा मरण तक आ सकता है। रात्रि-भोजन के से हृदयकी बीमारी होती है, किडनी के रोग होते हैं, कफ बढ़ता है समय नरक व तिर्यंच गतिका आयुष्य बंधता है। आरोग्य की हानि तथा टी.बी., संग्रहणी आदि रोगों का शिकार बनकर जीवन भर होती है। अजीर्ण होता है। काम वासना जागृत होती है। प्रमाद बढ़ता भुगतना पड़ता है। यह तर्कसिद्ध है कि अंडा निर्जीव नहीं होता तथा है। इसतरह इहलोक परलोक के अनेक दोषोंको ध्यान में रखकर श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना लोभ मोह अरु राग ही, उत्पादक हैं द्वेष । जयन्तसेन अनुचित यह, करना त्याग हमेश ॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनभर के लिए रात्रि-भोजन का त्याग लाभदायी है। त्याग रखना योग्य है। (15) बहुबीज - जिन सब्जियों और फलोंमें दो बीजोके बीच अंतर (19) बैंगन - बैंगन में असंख्य छोटे छोटे बीज होते हैं। उसके टोप न हो, वे एक दूसरेसे सटे हुए हों, गूदा थोड़ा और बीज बहुत हों, से डंठल में सूक्ष्म त्रस जीवभी होते हैं। बैंगन खानेसे तामसभाव खानेयोग्य थोड़ा और फेंकनेयोग्य अधिक हो, जैसे कवठका फल, जास्त होता है। वासना-उन्माद बढ़ता है। मन ढीठ बनता है। निद्रा खसखस टिंबरू, पंपोटा आदि। इनको खानेसे पित्त-प्रकोप होता है व प्रमाद भी बढ़ते हैं, बुखार व क्षयरोग होने की भी संभावना रहती और आरोग्य की हानि होती है। है। ईश्वर स्मरण में बाधक बनता है। पुराणों में भी इसके भक्षण का (16) अनंतकाय - जमीनकंद - जिसके एक शरीर में अनंत शरीर निषेध किया गया। हों उसे साधारण वनस्पति कहते हैं, जिसकी नसें, सांधे गाँठ, तंतु (20) अनजाना फल पुष्प- हम जिसका नाम और गुणदोष नहीं आदि न दिखते हों, काटने पर समान भाग होते हों, काटकर बोनेपर जानते वे पुष्प और फल अभक्ष्य कहलाते हैं, जिनके खाने से अनेक भी पुनः उग जाने से उसे अनंतकाय कहते हैं। जिसे खाने से अनंत रोग उत्पन्न होते हैं तथा प्राणनाश भी हो सकता है। अत: अनजानी जीवों का नाश होता है जैसे आलू, प्याज, लहसुन, गीली, हल्दी वस्तुएँ नहीं खानी चाहिए। अनजाना फल नहीं खाना इस नियमसे अदरख, मूली, शकरकंद, गाजर, सूरन कंद, कुँआरपाठा आदि 32 कचूल बचा और उसके सभी साथी किंपाक के जहरीले फल खानेसे अनंतकाय त्याज्य हैं। जिन्हें खानेसे बुद्धि विकारी, तामसी और जड़ मृत्युका शिकार बन गये। बनती है। धर्म विरुद्ध विचार आते हैं। (21) तुच्छ फल - जिसमें खाने योग्य पदार्थ कम और फेंकने योग्य (17) अचार - कोई अचार दूसरे दिन तो कोई तीसरे दिन और पदार्थ ज्यादा हो, जिसके खानेसे न तृप्ति होती है न शक्ति प्राप्त होती कोई चौथे दिन अभक्ष्य हो जाता है अचार में अनेक त्रस जंतु उत्पन्न है ऐसे चणिया बेर, पीलु, गोंदनी, जामुन, सीताफल इत्यादि पदार्थ होते हैं और अनेक मरते हैं। तुच्छ फल कहलाते हैं। इनके बीज या कूचे फेंकनेसे उनपर चीटियाँ जिन फलोंमें खट्टापन हो अथवा जो वैसी वस्तु में मिलाया गया आदि अनेक जीवजंतु आते हैं और झूठे होने के कारण समर्छिम हो ऐसे अचारमें तीन दिनोंके बाद त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। परंतु जीवभी उत्पन्न होते हैं। परोके नीचे आनेसे उन जीवों की हिंसाभी आम, नींबू आदि वस्तुओं के साथ न मिलाया हुआ गूदा, ककड़ी होती है। अत: इनके भक्षणका निषेध किया गया है। पपीता, मिर्च आदिका अचार दूसरे दिन अभक्ष्य हो जाता है। जिस (22) चलित रस - जिन पदार्थोंका रूप, रस, गंध, स्पर्श बदल अचार में सिकी हुई मेथी डाली गयी हो, वह भी दूसरे दिन अभक्ष्य गया हो या बिगड़ गया हो, वे चलित रस कहलाते हैं। उनमें बस हो जाता है। मेथी डाला हुआ अचार कच्चे दूध या दही के साथ। जीवोंकी उत्पत्ति होती है। जैसे - सड़े हुए पदार्थ, बासी पदार्थ, नहीं खाना चाहिए। चटनी के लिए भी इसीतरह समझना चाहिए। कालातीत पदाथ, फूलन आइ हुइ हा एस चालत रसक पदार्थ अभक्ष्य अच्छी तरह से धूप में न सुखाया हुआ आम, गदा, नींबू और मिर्ची हैं, जिन्हें खानेसे आरोग्यकी हानि होती है। असमय बीमारी आ सकती का अचार भी तीन दिनों के बाद अभक्ष्य हो जाता है। अच्छी तरहसे है और मृत्युभी हो सकती है। इस तरहके अभक्ष्य पदार्थों को खानेका धूपमें सुखाने के बाद तेल, गुड़ आदि डालकर बनाया हआ अचार त्याग अवश्यही करना हितावह है। भी वर्ण, गंध रस और स्पर्श न बदले तबतक भक्ष्य होता है, बादमें मिठाई, खाखरे, आटा, चने, दलिया आदि पदार्थोंका काल अभक्ष्य हो जाता है। फूलन आने के बाद अचार अभक्ष्य माना गया / कार्तिक सुदी 15 से फागुन सुदी 15 दरमियान ठंडमें 30 दिनोंका, है। गीले हाथ या गीला चम्मच डालनेसे अचार में फूलन आजाने के फागुन सुदी 15 से आषाढ़ सुदी 15 के दरमियान ग्रीष्म ऋतुमे 20 कारण वह अभक्ष्य हो जाता है। अत: अनेक त्रस जंतुओंकी हिंसासे दिनोंका और अषाढ़ सुदी 15 से कार्तिक सुदी 15 के दरमियान 15 बचने के लिए अचार का त्याग करना लाभदायी है। दिनोंका होता है। तत्पश्चात ये सब अभक्ष्य माने जाते हैं। आर्द्रा नक्षत्र (18) द्विदल - जिसमें से तेल न निकलता हो, दो समान भाग होते के बाद आम, खिरनी अभक्ष्य हो जाते हैं। फागुन सुदी 15 से कार्तिक हों और जो पेड़ के फलरूप न हो ऐसे दो दलवाले पदार्थों को दही सुदि 15 तक आठ महिने खजर, खारक, तिल, मेथी आदि भाजी, या कच्चे दूध में साथ एकत्र मिलाने से तुरन्त द्वीन्द्रिय जीवों की धनिया पत्ती आदि अभक्ष्य माने जाते हैं। उत्पत्ति हो जाती है। जीवहिंसा के साथ आरोग्य भी बिगड़ता है। कबासी पदार्थ दूसरे दिन और दही दो रातके बाद अभक्ष्य माना जाता है। अत: अभक्ष्य है। जैसे - मूंग, मोठ, उड़द, चना, अरहर, वाल, उपरोक्त 22 अभक्ष्य पदार्थों के अतिरिक्त पानीपूरी, भेल, खोमचोंपर चँवला, कुलथी, मटर, मेथी, गँवार तथा इनके हरे पत्ते, सब्जी, आटा मिलनेवाले पदार्थ, बाजारू आटे के पदार्थ, बाजारू मावेसे बने पदार्थ, व दाल और इनकी बनी हुई चीजें, जैसे मेथीका मसाला, अचार, सोड़ा, लेमन, कोकाकोला, औरैन्ज जैसे बोतलोंमें भरे पेय तथा जिन कढ़ी, सेव, गाँठिये, खमणढोकला पापड़, बूंदी, बड़े, भजिए आदि पदार्थों में जिलेटीन आता हो ऐसे सब पदार्थ अभक्ष्य हैं। पदार्थों के साथ दही या कच्चा दूध मिश्रित हो जानेपर अभक्ष्य हो खानेसे पहले चिंतन कर लेना चाहिए कि अमुक पदार्थ के जाते हैं। श्रीखंड, दही, मठी के साथ दो दल वाली चीजें नहीं खाना खानेसे आत्मा एवं शरीर की कोई हानि तो नहीं हो रही है? हानिकारक चाहिए। दूध या दहीको अच्छी तरहसे गरम करने के बाद उसके साथ 1 पदार्थों को त्यागना शुद्ध और ऊँचे जीवन के लिए अत्यंत हितावह दो दलवाले खाने में कोई दोष नहीं है। भोजनके समय ऐसे खाद्य पदार्थों का विशेष ध्यान रखना जरूरी है। होटल के दहीबड़े आदि अभक्ष्य पदार्थों का और विशेषवर्णन गुरुगम से तथा अभक्ष्य कच्चे दहाक बनते है अत: व अभक्ष्य कहलात है। इसतरह इनका अनंतकाय विचारा 'आहार शद्धि प्रकाश आदि ग्रंथों से जानना चाहिये। 17 श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन संथ/वाचना Jain Education international बाहर से अनुनय करे, भीतर राखे देव / जयन्तसेन कुटिल की, इसी नीति से क्लेश /