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'यसुदेवहिण्डी' में वर्णित साध्वियाँ
विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव....
ज्ञान, तप, धर्म, प्रवचन तथा कुपथगामियों को सत्पथ के के शरीर में श्वेतकुष्ठ हो गया था। इसलिए, अपने पिता के साथ वे उपदेश के माध्यम से भारतीय लोकजीवन के उदात्तीकरण में सुधर्मा नामक साधु के निकट प्रव्रजित होकर, समाधिमरण साध्वियों या श्रमणियों की भूमिका सातिशय महत्त्वपूर्ण रही है। द्वारा कालधर्म प्राप्त करके रिष्टाभ विमान में ब्रह्म के सामानिक इसलिए, प्राकृत की बृहत्कथा 'वसुदेवहिण्डी' के प्रणेता लोकजयी वरुणदेव हो गई। फिर, स्थितिक्षय के कारण वहाँ से च्युत होकर कथाकार आचार्य संघदासगणी ने अपनी इस कथाकृति में वे दक्षिणार्द्धभरत के गजपुर नगर में शत्रुदमन राजा के रूप में साध्वियों की लोक-कल्याणकारी जीवनचर्या का साग्रह वर्णन उत्पन्न हुई। पुनः पुरुषभव में रहते हुए वे शत्रुघ्न नामक साधु के किया है।
निकट प्रव्रजित हो गई। (अट्ठारहवाँ प्रियंगुसुन्दरीलम्भ) वसुदेवहिण्डी (रचनाकाल : ईसा की तृतीय-चतुर्थ शती) ३. कण्टकार्या - साध्वी कण्टकार्या का दीक्षापूर्व नाम वसुदत्ता में कुल चौदह आर्याओं या साध्वियों की चर्चा हुई है, जिनके था। वे उज्जयिनी के गृहपति वसुमित्र की पुत्री थीं। उनका नाम हैं-अजितसेना, कनकमाला, कण्टकार्या, गुणवती, जिनदत्ता, विवाह कौशाम्बी के सार्थवाह धनदेव से हुआ था। उन्हें अपने प्रियदर्शना, ब्रह्मिलार्या, रक्षिता, विपुलमति, विमलाभा, सुप्रभा, स्वच्छन्द आचरण के कारण अनेक दारुण यातनाएँ झेलनी पड़ी सुव्रता, सुस्थितार्या और ह्रीमती। यहाँ प्रत्येक आर्या के संबंध थीं। फलतः उन्हें निर्वेद हो आया और अंत में उज्जयिनी-विहार में संक्षिप्त परिचर्चा उपन्यस्त है।
के लिए निकली सुव्रता साध्वी के चरणों में धर्मप्रवचन सुनकर १. अजितसेना - पुष्कर द्वीप के पश्चिमार्द्ध में शीतोदा नदी के अपने एक जीवनरक्षक पितृकल्प सार्थवाह की अनुमति से वे दक्षिण सलिलावती नाम का विजय था। वहाँ उज्ज्वल और प्रव्रजित हो गई। उसका दीक्षानाम कण्टकार्या रखा गया था। उन्नत प्राकारवाली बारह योजनलंबी और नौ योजन चौडी (धाम्मल्लचरित) वीतशोका नाम की नगरी थी। उस नगरी में चौदह रत्नों का ४. गणवती - आर्या गुणवती अतिशय विदुषी साध्वी थीं। अधिपति तथा नौ निधियों से समृद्ध कोषवाला रत्नध्वज नाम उन्होंने ग्यारह अंगों में पारगामिता प्राप्त की थी। जम्बुद्वीप स्थित का चक्रवर्ती (राजा) रहता था। उसके अतिशय दर्शनीय रूपवाली भारतवर्ष के वैताढ्य पर्वत की उत्तरश्रेणी के नित्यालोक नगर दो रानियाँ थी--कनकश्री और हेमामालिनी। कनकश्री के के विद्याधर राजा अरिसिंह और उसकी रानी श्रीधरा के गर्भ से कनकलता और पद्मलता नाम की दो पुत्रियाँ थीं तथा हेममालिनी उत्पन्न पुत्री यशोधरा (बाद में राजा सूर्यावर्त की रानी) को के पद्मा नाम की एक पुत्री थी। इसी पद्मा ने अजितसेना आर्या उन्होंने प्रव्रज्या प्रदान की थी। दीक्षा के बाद रानी यशोधरा आर्या के निकट धर्मोपदेश सुनकर कर्मक्षय के निमित्त व्रत स्वीकार गुणवती से ग्यारह अंगों में कुशलता प्राप्त करके तपोविद्या में किया और बासठ उपवास करके निदान (शुभानुष्ठान के फल लीन हो गई। (सोलहवाँ बालचन्द्रालम्भ) की अभिलाषा) के साथ मृत्यु को प्राप्त कर सौधर्म कल्प में ५.जिनदत्ता - साकेतनगर के राजा हरिवाहन की पत्नी सनन्दा महर्द्धिक (महावैभवशालिनी) देवी के रूप में उत्पन्न हुई।
की चार पुत्रियों-श्यामा, नन्दा, नन्दिनी और नन्दमती ने एक (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्भ)
साथ जिनदत्ता साध्वी के सान्निध्य में प्रव्रज्या ली थी। आर्या २. कनकमाला - श्रमणी होने के पूर्व साध्वी कनकमाला जिनदत्ता को साकेतनगर में पर्याप्तजनसमादर प्राप्त था। (अट्ठारहवाँ सौधर्मकल्प से च्युत होकर मथुरा नगरी के निहतशत्रु राजा की प्रियंगुसुन्दरीलम्भ) रानी रत्नमाला की पुत्री के रूप में उत्पन्न हई थीं। उनके पुनर्भव
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- चतीन्द्र सूरि स्मारकालय - जैन आगम एवं साहित्य ६. प्रियदर्शना - गणिनी प्रियदर्शना गजपुर (हस्तिनापुर) की रहती थीं। वहाँ के जनसमादृत इभ्य ऋषभदत्त का पुत्र जम्बु लोकप्रतिष्ठ साध्वी थीं। गजपुर के युवराज अजितसेन (बाद में कुमार सुधर्मास्वामी (भगवान महावीर का पट्टधर शिष्य) से राजा) की पुत्री सुदर्शना ने (पूर्वजन्म में श्वायोनि में उत्पन्न) दीक्षित हुआ था और बाद में वह उनका जम्बुस्वामी के नाम से साध्वी प्रियदर्शना से प्रव्रज्या प्राप्त की थी और श्रामण्य का प्रमुख शिष्य हो गया था। जम्बुस्वामी की माता धारिणी और पालन करके देवलोक की अधिकारिणी हो गई थीं। साध्वी उनकी आठ पत्नियों (पद्मावती, कनकमाला, विनयश्री, धनश्री, प्रियदर्शना अपने नाम के अनुसार ज्ञानदीप्त ज्योतिर्मय रूप से कनकवती, श्रीसेना, ह्रीमती और जयसेना) ने एक साथ सुव्रता मण्डित थीं। (पीठिका)
का शिष्यत्व स्वीकार किया था। (कथोतात्ति) ९. ब्रह्मिलार्या - साध्वी ब्रह्मिलार्या इक्ष्वाकुवंश की कन्याओं (ख) पूर्वोक्त कण्टकार्या (साध्वी सं. ३) की दीक्षागुरु को दीक्षित करने की अधिकारिणी के रूप में सत्प्रतिष्ठ गणिनी का नाम सुव्रता था। वह जीवस्वामी ( जीवंतसामी) की थीं। उन्होंने दक्षिर्णाद्धभरत के पुष्पकेतु नगर के राजा पुष्पदन्त अनुयायिनी भिक्षुणी प्रमुख (गणिनी या गणनायिका) थीं। उज्जयिनी और रानी पुष्पचूला की विमलाभा तथा सुप्रभा नाम की पुत्रियों -विहार के क्रम में उन्होंने मार्गभ्रष्टा सार्थवाहपत्नी वसुदत्ता को को शिक्षित और दीक्षित किया था। दोनों ही अपने तपोबल से दीक्षित करके उसे कण्टकार्या, दीक्षानाम दिया था। भगवतीस्वरूपा हो गई थीं। (अट्ठारहवाँ प्रियंगुसुन्दरीलम्भ) (धम्मिल्लचरित) ८. रक्षिता - साध्वी रक्षिता सत्रहवें तीर्थंकर कुन्थुस्वामी की (ग) मथुरा जनपद में सुग्राम नाम का गाँव था। वहाँ शिष्या थीं। कुन्थुस्वामी के साठ हजार शिष्यों में जिस प्रकार सोम नाम का ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी सोमदत्ता थी। स्वयम्भू प्रमुख थे, उसी प्रकार उनकी साठ हजार शिष्याओं में उसकी पुत्री का नाम गंगश्री था, जो परमदर्शनीय रूपवती थी। आर्या रक्षिता प्रमुख थीं। (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्भ)
वह निरंतर अर्हत्शासन में अनुरक्त रहती थी और कामभोग की ९. विपुलमति - जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में बहने वाली अभिलासा से विरक्त थी। सुग्राम में ही यक्षिल नाम का ब्राह्मण शीता महानदी के दक्षिणतट पर अवस्थित मंगलावती विजय रहता था। वह गात्रा
र रहता था। वह गंगश्री का वरण करना चाहता था, लेकिन गंगश्री की रत्नसंचयपुरी के राजा क्षेमंकर के पौत्र तथा राजा वज्रायुध ।
उसे नहीं चाहती थी। जब गंगश्री उसे नहीं मिली, तब उसने वरुण के पुत्र राजा सहस्रायुध की दो पुत्रवधुओं-कनकमाला और
नामक परिव्राजक के निकट परिव्राजकपद्धति से प्रव्रज्या ले ली। वसन्तसेना ने एक साथ साध्वी विपुलमति से प्रव्रज्या प्राप्त की
इधर गंगश्री भी सुव्रता आर्या के निकट प्रव्रजित हो गई। गंगश्री के थी। साध्वी विपुलमति हिमालय के शिखर पर रहती थीं। उनसे प्रव्रजित होने की सूचना मिलने पर यक्षिल ने भी जैन साधु की दीक्षित होने के बाद कनकमाला और वसन्तसेना निरंतर तप में
से पद्धति से प्रव्रज्या स्वीकार की। (अट्ठारहवाँ प्रियंगसन्दरीलम्भ)
पद्धात स उद्यत रहकर बहुजनपूज्या आर्या हो गईं। (इक्कीसवाँ केतमतीलम्भ) (घ) जम्बूद्वीप स्थित पूर्वविदेह के रमणीय विजय की १०.-११. विमलाभा और सप्रभा - जैसा पहले (साध्वी सं. सुभगा नगरी के युवराज बलदेव, अपर नाम अपराजित की ७ में) कहा गया, दक्षिणार्द्धभरत के पुष्पकेतु नगर के इक्ष्वाकुवंशी ।
विरता नाम की पत्नी से उत्पन्न सुमति नाम की पुत्री ने राजकुल राजा पुष्पदन्त और उसकी रानी पुष्पचूला से उत्पन्न दो पुत्रियों
की सात सौ कन्याओं के साथ सव्रता आर्या के निकट दीक्षा के नाम थे-विमलाभा और सुप्रभा। दोनों ही पुत्रियों ने साध्वी ग्रह
ग्रहण की थी। फिर, उसने तपः क्रम अर्जित करके केवल ज्ञान ब्रह्मिलार्या से दीक्षा ग्रहण की थी और बाद में दोनों ही प्रज्ञाप्रखर
प्राप्त किया और क्लेशकर्म का क्षय करके सिद्धि प्राप्त की। पण्डिता आर्याओं के रूप में लोकसमाद्रत हईं।
(इक्कीसवाँ केतुमतीलम्म) १२. सुव्रता - कथाकार आचार्य संघदास गणी ने सत्ता नाम १३. सुस्थितार्या - जम्बूद्वीप स्थित ऐरवतवर्ष के विन्ध्यपर की साध्वी की चार भिन्न संदों में चर्चा की है। जैसे
नगर में राजा नलिनकेतु राज्य करता था। उसकी रानी का नाम
था प्रभंकरा। एक दिन मेघपुंज को हवा में तितर-बितर होते देख (क) सुव्रता साध्वी मगध जनपद के राजगृह नगर में
राजा नलिनकेतु ने मेघ की भांति समृद्धि के उदय और विनाश
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________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - दिया और वह क्षेमंकर जिनवर के निकट प्रवजित हो गया। तब केले के थम्भ और बाँस की तरह निस्सार होता है, विघ्नबहुल उसकी प्रकृतिभद्र रानी प्रभंकरा भी मृदुता और ऋजुता से सम्पन्न और अल्पजीवी होता है, जिनके वैभव को सामान्यतया राजा, होकर चांद्रायण और प्रौषध व्रत करके आर्या सुस्थिता के समीप चोर, आग और पानी का भय बराबर बना रहता है। साथ ही, दीक्षित हो गई। (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्भ) जिनकी शारीरिक रचना पुरानी गाड़ी की नाईं ढीले जोड़ों वाली 14. ह्रीमती - सिंहपुर नगर के राजा सिंहसेन की पत्नी का नाम होती है, ऐसे पत्रचंचल शोभा वाले मनुष्य संकल्प-विकल्प के रामकृष्णा था। उसकी माता आर्या ह्रीमती लोकसमादर प्राप्त जल से परिपूर्ण मनोरथ-सागर के उस पार कैसे जा सकेंगे? साध्वी थीं। वे अपनी अनेक शिष्याओं के परिवार की अनुशासिका विगतप्राण स्थावर जंगम जीवों के शरीरांग कार्य करने में असमर्थ थीं। जब उनके जामाता राजा सिंहसेन की मृत्यु हो गई, तब होते हैं ऐसी स्थिति में मनुष्यभव प्राप्त करना प्रायश्चित के समान उन्होंने अपनी पतिहीना पुत्री को जिन शब्दों में अनुशासित किया, हो जाता है। इस प्रकार का शरीर स्वभावतः अशुचि और परित्याज्य वह अनुशासन जीव को उदात्त बनाने की दृष्टि से सदा मननीय होता है। तो, शरीर जब तक निरातंक (नीरोग) है, तप और संयम है। हीमती ने कहा-"पुत्री! धर्म के विषय में कभी प्रमाद न के साधन की सहायता से अपने को परलोकहित के लिए करो। मानव जीवन विनिपातों से भरा हुआ है-विनश्वर है। प्रियजन आपत कर दा।" का संयोग अवश्य ही वियोगान्त है। ऋद्धियाँ सन्ध्याकालीन इस प्रकार उपदेश देती हुई आर्या ह्रीमती के पैरों पर रानी रंगीन मेघ की भाँति स्थिर (देर तक टिकने वाली) नहीं हैं। रामकृष्णा गिर पड़ी और बोली "आपका कथन सुभाषित की प्राप्त करते, जिनकी आयु पल्योपम और सागरोपम के बराबर सुदीर्घकालीन होती है, जो अपनी मति और रुचि के अनुसार मनोहर शरीर का विकुर्वण (प्रतिरचना) कर सकते हैं, सर्वत्र अप्रतिहत गति से आ जा सकते हैं और फिर विनय-प्रणत यथायोग्य आदेशों को पूरा करने वाली, सदा अनुकूल रहने वाली तथा सकल कला प्रसंगों की मर्मज्ञा देवियाँ बड़ी निपुणता से जिनकी कहकर रानी ने गृहवास छोड़कर प्रव्रज्या ले ली और वह श्रमणी हो गई। (सोलहवाँ बालचंद्रालम्भ)। इस तरह साध्वियों के संबंध में उपर्युक्त आकलन से स्पष्ट है कि तत्कालीन सामाजिक जीवन को धर्म, दर्शन और में जैन आर्याओं के योगदान का ततोऽधिक सांस्कृतिक मूल्य है। बीमारियोटा का नतोशित IE andinionirbnbromidndiadmiwandroGdidroidrridnod-73 nitorinitariabrdniduirdwordGirirandibmirandirontrontrover