Book Title: Vastutva ki Kasoti
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229024/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुत्व की कसौटी भारतीय दर्शनों में केवल नित्यत्व, केवल अनित्यत्व, नित्या निस्य – उभय, और परिणामिनित्यत्व इन चारों वादों के मूल भगवान् महावीर और बुद्ध के पहिले भी देखे जाते हैं पर इन वादों की विशेष स्पष्ट स्थापना और उस स्थापना के अनुकूल युक्तिबादका पता, उस पुराने समय के साहित्य में नहीं चलता । बुद्धने प्राचीन अनित्यत्वकी भावनाके ऊपर इतना जोर दिया कि जिससे आगे जाकर क्रमशः दो परिणाम दर्शन क्षेत्र में प्रकट हुए। एक तो यह कि अन्य सभी बाद उस अनित्यत्व अर्थात् क्षणिकत्ववादके विरुद्ध कमर कसकर खड़े हुए और सभी ने अपना स्थापन अपने ढङ्ग से करते हुए क्षणिकत्व के निरास का प्रबल प्रयत्न किया। दूसरा परिणाम यह श्राया कि खुद बौद्ध परम्परा में क्षणिकत्ववाद जो मूल में वैराग्यपोषक भावनारूप होनेसे एक नैतिक या चारित्रीय वस्तुस्वरूप था उसने तत्त्वज्ञानका पूरा व्यापकरूप धारण किया । और वह उसके समर्थक तथा विरोधियों की दृष्टिमें अन्य तात्त्विक विषयोंकी तरह ताविकरूपसे ही चिन्ताका विषय बन गया । बुद्ध, महावीर के समय से लेकर अनेक शताब्दियों तकके दार्शनिक साहित्य में हम देखते हैं कि प्रत्येक वादकी सत्यताकी कसौटी एकमात्र बन्धमोक्ष-व्यवस्था और कर्म फलके कर्तृत्व-भोक्तृत्वको व्यवस्था रही है'। केवल अनित्यत्ववादी बौद्धों अपने पक्षी यथार्थताके बारेमें दलील यही रही कि श्रात्मा आदिको केवल नित्य मानने से न तो बन्धमोक्षको व्यवस्था ही घट सकती है और न कर्मफलके कर्तृत्व-भोक्तृत्वका सामानाधिकरण्य ही । केवल नित्यत्ववादी श्रौपनिषद आदि दार्शनिकोंकी भी ( ब्र० शाङ्करभा० २२.१६ ) बौद्धवादके बिरुद्ध यही दलील रही । परिणामिनित्यत्ववादी जैनदर्शनने भी केवल नित्यत्व और केवल व वादके विरुद्ध यही कहा कि आत्मा केवल नित्य या केवल अनित्य मात्र हो तो संसार - मोक्षकी व्यवस्था, कर्मके कर्ताको ही कर्मफल मिलने की १ ' तदेवं सत्वभेदे कृतहानमकृताभ्यागमः प्रसज्यते सति च सवोत्पादे निरोधे च कर्मनिमित्तः सत्त्वसर्गः प्राप्नोति तत्र मुक्त्यर्थो ब्रह्मचर्यवासो न स्यात् । न्यायभा• ३.१.४ । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ व्यवस्था, मोक्षोपाय रूपसे दान आदि शुभ फर्मका विधान और दीक्षा आदिका उपादान ये सब घट नहीं सकते। भारतीय दर्शनोंकी तास्तिक चिन्ताका उत्थान और खासकर उसका पोषण एवं विकास कर्मसिद्धान्त एवं संसारनिवृत्ति तथा मोक्षप्रासिकी भावनामैसे फलित हश्रा है। इससे शुरूमैं यह स्वाभाविक था कि हर एक दर्शन अपने वादकी यथार्थतामें और दसरे दर्शनोंके वादको अयथार्थतामें उन्हीं कर्मसिद्धान्त श्रादिकी दुहाई दें। पर जैसे-जैसे अध्यात्ममूलक इस दार्शनिक क्षेत्रमें तर्कवाद का प्रवेश अधिकाधिक होने लगा और वह क्रमश: यहाँ तक बढ़ा कि शुद्ध तकवादके सामने श्राध्यात्मिकवाद एक तरहसे गौण-सा हो गया तब केवल नित्यत्वादि उक्त वादोंको सत्यताकी कसौटी भी अन्य हो गई। तर्कने कहा कि जो अर्थक्रियाकारी है वही वस्तु सत् हो सकती है दूसरी नहीं । अर्थक्रियाकारित्व की इस तार्किक कसौटीका श्रेय जहाँ तक शात है, बौद्ध परम्पराको है। इससे यह स्वाभाविक है कि बौद्ध दार्शनिक क्षणिकत्व के पक्षमें उस कसौटीका उपयोग करें और दूसरे वादोंके विरुद्ध । हम देखते हैं कि हुश्रा भी ऐसा ही। बौद्धोंने कहा कि जो क्षणिक नहीं वह अर्थक्रियाकारी हो नहीं सकता और जो अर्थक्रियाकारी नहीं वह सत् अर्थात् पारमार्थिक हो नहीं सकता-ऐसी व्याप्ति निर्मित करके उन्होंने केवल नित्यपक्षमें अर्थक्रियाकारित्वका असंभव दिखानेके वास्ते क्रम और यौगपका जटिल विकल्पजाल रचा और उस विकल्पजालसे अन्तमैं सिद्ध किया कि केवल नित्य पदार्थ अर्थक्रिया कर ही नहीं सकता अतएव वैसा पदार्थ पारमार्थिक हो नहीं सकता ( वादन्याय पृ० ६)। बौद्धोंने केवलनित्यत्ववाद ( तत्त्व सं० का० ३६४ ) की तरह जैनदर्शनसम्मत परिणामिनित्यत्ववाद अर्थात् द्रव्यपर्यायात्मकवाद या एक वस्तुको द्विरूप माननेवाले वादके निरासमें भी उसी अर्थक्रियाकारित्वकी कसौटीका उपयोग किया-(तत्व सं० का० १७३८)। उन्होंने कहा कि एक ही पदार्थ सत् असत् उभयरूप नहीं बन सकता। क्योंकि एक ही पदार्थ अर्थक्रियाका करनेवाला और नहीं करनेवाला कैसे कहा जा सकता है। इस तरह बौद्धों के प्रतिवादी दर्शन वैदिक और जैन दो विभाग में बँट जाते हैं। १ 'व्वठियस्स जो चेव कुणइ सो चेव वेयए णियमा । अण्णो करे। अण्णो परिभुजह पजयणयस्स ।।'--सन्मति० १. ५२। 'न बन्धमोक्षौ क्षणिकैकसंस्थौ न संवृतिः सापि मृषास्वभावा । मुख्याहते गौणविधिर्न दृष्टो विभ्रान्तदृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ॥'-युक्त्य० का० १५ । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ वैदिक परम्परामैंसे, जहाँ तक मालूम है, सबसे पहिले वाचस्पति मिश्र और जयन्तने उस बौद्धोद्भावित अर्थक्रियाकारित्व की कसौटीका प्रतिवाद किया । यद्यपि वाचस्पति और जयन्त दोनोंका लक्ष्य एक ही है और वह यह कि क्षणिक एवं नित्य वस्तु सिद्ध करना, तो भी उन्होंने अर्थक्रियाकारित्व जिसे बौद्धोंने केवल नित्यपक्ष में असम्भव बतलाया था उसका बौद्ध सम्मत क्षणिकपक्षमै असम्भव बतलाते हुए भिन्न-भिन्न विचारसरणीका अनुसरण किया है । वाचस्पतिने सापेक्षत्व अनपेक्षत्वका विकल्प करके क्षणिक अर्थक्रियाकारित्वका सम्भव साबित किया ( तात्पर्य० पृ० ३५४-६ ), तो जयन्तने बौद्ध स्वीकृत क्रमयौगपद्यके विकल्पजालको ही लेकर बौद्धवादका खण्डन किया - ( न्यायम० पृ० ४५.३, ४६४ ) । भदन्त योगसेनने भी, जिनका पूर्वपक्षी रूप से निर्देश कमलशीलने तत्त्वसंग्रहपंजिकामें किया है, बौद्धसम्मत क्षणिकत्ववादके विरुद्ध जो विकल्पजाल रचा है उसमें भी बौद्धस्वीकृत क्रमयौगपद्यविकल्पचक्रको दी बौद्धों के विरुद्ध चलाया है ( तत्वसं० का० ४२८ से ) । यद्यपि भदन्त विशेषण होनेसे योगसेन के बौद्ध होनेकी सम्भावना की जाती है तथापि जहाँ तक बौद्ध परंपरा में नित्यत्व - - स्थिरवाद पोषक पक्ष के अस्तित्वका प्रामाणिक पता न चले तब तक यही कल्पना ठीक होगी कि शायद वह जैन, श्राजीवक या सांख्यपरिव्राजक हो । जो कुछ हो यह तो निश्चित ही है कि बौद्धोंकी अर्थक्रियाकारित्ववाली तार्किक कसोटीको लेकर ही बौद्धसम्मत क्षणिकत्ववादका खण्डन नित्यवादी वैदिक विद्वानोंने किया । क्षणिकत्ववाद के दूसरे प्रबल प्रतिवादी जैन रहे। उन्होंने भी तर्कयुगमैं क्षणिकत्वका निरास उसा अर्थक्रियाकारित्ववाली बौद्धोद्भावित तार्किक कसौटाको लेकर ही किया । जहाँ तक मालूम है जैन परंपरा में सबसे पहिले इस कसोटा के द्वारा क्षणिकत्वका निरास करनेवाले अकलङ्क' हैं । उन्होंने उस कसौटीके द्वारा वैदिकसम्मत केवल नित्यत्ववादका खण्डन तो वैसे ही किया जैसा बौद्धोंने j और उसी कसौटीके द्वारा क्षणिकत्ववादका खण्डन भी वैसे ही किया जैसा भदन्त योगसेन और जयन्तने किया है। यह बात स्मरण रखने योग्य है कि नित्यत्व या क्षणिकत्वादि वादोंके खण्डन - मण्डनमें विविध विकल्प के साथ अर्थक्रियाकारित्व की कसौटीका प्रवेश तर्कयुगमें हुआ तब भी उक्त वादके १ 'अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः । क्रमाक्रमाभ्यां भायामां सा लक्षणतया मता ॥' - लघी ० २.१ । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डन-मण्डनमें काम लाई गई प्राचीन बन्धमोक्षव्यवस्था श्रादि कसौटीका उपयोग बिलकुल शून्य नहीं हुआ, वह गौणमात्र अवश्य हो गया। . एक ही वस्तुकी द्रव्य-पर्यायरूपसे या सदसद् एवं नित्यानित्यादि रूपसे जैन एवं जैमिनीय श्रादि दर्शनसम्मत द्विरूपताका बौद्धोंने जो खण्डन किया, (तत्वसं० का 222, 311, 312) उसका जवाब बौद्धोंकी ही विकल्पजालजटिल अर्थक्रियाकारित्ववाली दलीलसे देना अकलङ्क आदि जैनाचार्योंने शुरू किया जिसका अनुसरण पिछले सभी जैन तार्किकोंने किया है। आ. हेमचन्द्र भी उसी मार्गका अवलम्बन करके पहिले केवलनित्यत्ववादका खण्डन बौद्धोंके ही शब्दोंमें करते हैं और केवलक्षणिकत्ववादका खण्डन भी भदन्त योगसेन या जयन्त आदिके शब्दों में करते हैं और साथ ही जैनदर्शमसम्मत द्रव्यपर्यायवादके समर्थनके वास्ते उसी कसौटीका उपयोग करके कहते हैं कि अर्थक्रियाकारित्व जैमवाद पक्षमें ही घट सकता है। ई. 1936] [प्रमाण मीमांसा