Book Title: Vartaman Yuga me Ahimsa ka Mahattva Author(s): Kameshwar Sharma Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/211887/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमानयुग में अहिंसा का महत्त्व श्री कामेश्वर शर्मा "नयन" आजकल विज्ञान के चकाचौंध में सारा भूमण्डल किंकर्तव्य विमूढ़ सा हो गया है। विज्ञान के उत्कर्ष के कारण भौतिकवाद का बिगुलनाद इतना प्रखर हो गया है कि आज का मनुष्य उससे अधिक कुछ सोच ही नहीं पाता। फलतः आये दिन मानवीय मूल्यों का इतना बड़ा अवमूल्यन हो चुका है, कि संसार किस कगार पर जा रहा है, किसी को पता नहीं। क्या भारत या संसार के अन्य बड़े या छोटे देश, सभी के सभी स्वतः जहां विज्ञान के चरमोत्कर्ष कूप में गिरते जा रहे हैं, मानव को भ्रम सा हो रहा है कि वह उन्नयन के शिखर पर पहुंच रहा है, पहुंच चुका है। परन्तु वास्तविकता इससे सर्वथा दूर, अतिदूर है । आज मनुष्य का मापदण्ड उसकी मानवीय महत्ता से हटकर भौतिक उपलब्धियों तक ही सीमित है। भूतत्वहीन मनुष्य की गणना मात्र रह गयी है। ऐसे समय के विपर्यय में पड़कर मानव-मन-मस्तिष्क और हृदय शून्य से दीख रहे हैं। ऐसी विषम स्थिति में जगद्गुरु भारत पुनः एक नये जागरण का सन्देश देने को उद्यत न होगा तो संसार का कल्याण कथमपि न होगा। हिंसा की विस्तृत क्रीड़ास्थली के रूप में सारे संसार के साथ भारत के लोग भी परिगणित होते जा रहे हैं। इन्हें पुनः अपने ऋषियों महर्षियों की बातें याद करनी हैं। आज भारत ही नहीं अपितु संसार के सभी देश विषम स्थिति से गुजर रहे हैं। भारत में भी धार्मिक अवहेलना, राजनैतिक भ्रष्टता, पारस्परिक प्रेम का अभाव, स्वार्थान्धता, प्राचीनता के प्रति विद्रोह, नवीनता का अन्धानुकरण तथा वृद्ध युवाजन की विचार-धाराओं का असन्तुलन-ये सभी अकल्याणकारी भाव सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं । इन सबका एक मात्र कारण है अध्यात्मिकता का अभाव, मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन, नैतिकता का पतन । केवल भौतिकवाद और आधुनिक विज्ञान द्वारा मानव कभी भी सच्चा सुख और शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता । विज्ञान की कुछ उपलब्धियों को कोई भी इनकार नहीं कर सकता किन्तु उसका यह अर्थ नहीं है कि मानवता की बलिवेदी पर विज्ञान के पौधे लहलहायें। ऐसा यदि होगा तो यह संसार शीघ्र ही विनाशलीला का क्षेत्र बनकर रह जाएगा। विज्ञान को सुन्दर रूप देने के लिए कला की कसीदाकारी अत्यावश्यक है। तभी तो किसी वैज्ञानिक ने भी कहा है कि विज्ञान कला के सद्भाव और अच्छी भावनाओं के द्वारा जटि त और मंडित होकर संसार में सदा आदर के साथ स्वीकृत होता है तभी वह संसार की शोभा बढ़ा सकता है। अन्यथा विज्ञान की चरम उन्नति के साथ ही संसार का सत्यानाश भी ध्र व है। विज्ञान चन्द्रलोक के धरातल का ज्ञान भले प्राप्त कर ले किंतु आधिदैविक और आध्यात्मिक रहस्यों का पता उसे नहीं लग सकता। ___ अतः भौतिकवाद और विज्ञान के साथ-साथ अध्यात्मवाद और धर्मनीति का समुचित समन्वय करके ही हम संसार के कल्याण की बातें सोच सकते हैं, उसे क्रियात्मक रूप दे सकते हैं। भारत धर्मप्राण देश है। यहां बिना धर्म के किसी भी प्रकार का आचरण हो ही नहीं सकता। सभी धर्मों में श्रेष्ठतम धर्म अहिंसा है। अतएव हमारे ऋषियों ने आदि काल से 'अहिंसा परमो धर्म:' का मन्त्र हमें दिया। अहिंसा के मार्ग पर चलकर हमारे मुनियों ने मन्त्र-द्रष्टा और स्रष्टा का काम किया था। आदि देव 'ऋषभ देव' से लेकर भगवान् महावीर तीर्थंकर तक ने इस अहिंसा का व्रतपालन कर संसार को मुक्ति का मार्ग दिखलाया। भगवान महावीर ने अठारह धर्मस्थानों में सबसे पहला स्थान अहिंसा का बतलाया है। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि सभी जीवों के साथ संयमनियम से व्यवहार रखना सबसे बड़ी अहिंसा है । यही अहिंसा सभी सुखों को देने वाली है : जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्यिम पठमं ठाणंमहावीरेणदेसियं अहिंसा निउणादिट्ठा, सब्बभूयसुसंजमो। जावन्ति लोए पाणा तसा अदुव भावए ते जाणमजाणं वा नहणे नोविधायए / अहिंसा की सूक्ष्मतम परिभाषा देते हुए भगवान महावीर ने कहा कि संसार में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन सबको क्या जाने या अनजाने न खुद मारे और न दूसरों से मरवाये / जो मनुष्य प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है या दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है वह संसार में अपने लिए वैर को ही बढ़ावा देता है : जावन्ति लोए पाणा तसा अदुवा थावए ते जाणमजाणं वा, न हणे सोवि घायए। संय तिवायए पाणे, अदुवऽन्ने हि घायए हणन्तं वाङणु जाणादू, वेरं वड्ढइ अप्पणो॥ महावीर भगवान् ने मन या वचन से भी किसी के प्रति अहित भावना तक को हिंसा कहा है। उन्होंने कहा है कि संसार में रहने वाले त्रस और स्थावर जीवों पर मनुष्य मन या वचन से और शरीर से किसी भी तरह दण्ड का प्रयोग न करेंगे: जगनिस्सिएहि भूएहितस नामे हि थावरे हिच / नोनेसिमारमें दंडे, मनसा वचसाकायसचेव // क्योंकि सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिए निग्रन्थ घोर प्राणी वध का सर्वथा परित्याग करते हैं : सब्वे जीवाहि इच्छंतिजीविउ न मरिजिउ / __ तम्ह पाणिवह घोर निग्गंधा वज्जयंतिणं / / भय और वैर से निवृत्त साधक जीवन के प्रति मोह ममता रखने वाले सब प्राणियों को सर्वत्र अपनी ही आत्मा के समान जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करें : अज्झत्यं सम्बओ सर्बदिस्स पाणेपियायए। न हणे पाणियो पाणे भयतेराओ उवारए॥ भगवान् महावीर ने अहिंसा को एक शब्द में कहा है-वह है संयम / उनका कहना है कि अहिंसक वह है जो हाथों का संयम करें, परों का संयम करें, वाणी का संयम करें और इन्द्रियों का संयम करें। अर्थात् संयम ही अहिंसा है और वह आत्मनिष्ठा से फलित होती है। मनुष्य का विवेक विचारशीलता और बुद्धि का विकास देखते हुए ऐसा लगता है कि उसमें अहिंसा की मात्रा कम है। इसका प्रमुख कारण है कि अहिंसा का ज्ञानी होना और साधक बनना दोनों में बड़ा अन्तर है। केवल पाण्डित्य से अहिंसा का पालन या संचालन नहीं हो सकता उसके लिए साधना करनी पड़ेगी। मनुष्य को सर्वप्रथम इसके लिए पौद्गलिक परिणामों से ऊपर उठना पड़ेगा। उसे अपने स्व-पर की भावना से ऊपर उठना है क्योंकि अहिंसा के विकास में यदि सबसे बड़ी बाधा है तो वह है 'स्व' और 'पर' का ज्ञान / जब तक धरती पर इन भावनाओं से ऊपर उठकर मनुष्य आत्मबली नहीं होगा उसे सच्ची अहिंसा का पालन करना नहीं आएगा। अहिंसा के लिए शरीर-वस्त्र से कहीं ज्यादा जरूरत है आत्मबल की। भगवान् महावीर में यदि आत्मबल नहीं होता तो वे संसार के एक मात्र प्रबल अहिंसक नहीं हुए होते। आत्मबल स्वयं साधना का फल है / यह अहिंसा की रुचि से बढ़ता है। इससे अहिंसा का विकास होता है / आत्मबल आने पर ही अहिंसक निर्भय रहता है। निर्भयता अहिंसा का प्राण है / भय से कायरता आती है। कायरता से मानसिक कमजोरी और उससे हिंसा वृत्ति बढ़ती है। वर्तमान युग में इसकी महती आवश्यकता है। आज का मानव अपने वैज्ञानिक सुसाधनों पर इतना अधिक विश्वास कर बैठा है कि उसके मन और मस्तिष्क में अहिंसक-भावनाओं की पृष्ठभूमि रहते हुए भी वह उस ओर अविश्वस्त होकर देखता है। उसे ज्ञान है किन्तु साधना कर नहीं पाता / अहिंसा साधना-साध्य है-यह बात सभी ऋषियों तत्त्वज्ञानियों और साधकों ने कही है। आज का संसार विनाश के कगार पर पहुंच चुका है। अपने वैज्ञानिक विश्वास के कारण उसे अपने पौद्गलिक स्वरूप तक का ही विलोकन होता है / वह सूक्ष्मतम अहिंसा के प्रभाव को नहीं पहचान रहा है। जिस दिन उसे अहिंसा के इस विशेष स्वरूप का ज्ञान ही नहीं, प्रयोग करना आ जायगा उसी दिन मानव का विकास होगा यह निश्चित है। भौतिकवादी दृष्टिकोण रखकर भी वर्तमान युग में महात्मा गांधी ने केवल अहिंसा के आंशिक प्रयोग से भारत की स्वाधीनता के संग्राम में लाभ उठाया। अतः पूर्णमानवीयता के ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र के कल्याण के लिए यदि कोई एक ही मार्ग है तो वह है अहिंसा का प्रयोगात्मक स्वरूप, जिसे अपनाने पर ही आज का मानव कल्प कल्पान्तर तक सच्चिदानन्द को प्राप्त कर चिरसुखी हो सकता है। आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ