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यशपाल जैन
वर्तमान युग को एक और
गांधी की आवश्यकता मनुष्यों के मेल से समाज की रचना होती है और समाज मिलकर राष्ट्र का निर्माण करते हैं। राष्ट्रों से विश्व बनता है। इस प्रकार कह सकते हैं कि विश्व की आधारमूलक ईकाई मनुष्य है। गांधी का ध्यान इसी तथ्य की ओर गया। उन्होंने कहा कि यदि मनुष्य अपने को सुधार लेगा तो समाज, राष्ट्र और विश्व अपने आप सुधर जाएंगे। अत: मानव के परिष्कार के लिए उन्होंने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि एकादश व्रतों का प्रावधान किया और उनके पालन का आग्रह रखा। इतना ही नहीं उन्होंने सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका में मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष हेतु सत्याग्रह, निष्क्रिय प्रतिरोध, अनशन, आत्मपीड़न आदि अभिनव अस्त्रों का आविष्कार किया। उनका वह संघर्ष इक्कीस वर्ष तक चला। अंत में विजय गांधी की हुई। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि भौतिक बल से कहीं श्रेष्ठ और शक्तिशाली आत्मिक बल है।
दक्षिण अफ्रीका में विजयी होकर जब वह भारत आये और राजनीति के मंच पर आसीन हुए तो उन्होंने उन्हीं अस्त्रों का उपयोग किया, जिनका उपयोग वह काले-गोरों की लड़ाई में करके आये थे। सन् 1917 के चम्पारन सत्याग्रह से लेकर सन् 1942 के भारत-छोड़ो आंदोलन तक उन्होंने जितने छोटे-बड़े आंदोलन चलाये उनकी धुरी सत्य-अहिंसा रहे। सन् 1922 में चौरीचौरा में हिंसा होने पर उन्होंने देश व्यापी असहयोग-आंदोलन को स्थगित कर दिया। इतना ही नहीं, पांच दिन
का उपवास भी किया। कहने का तात्पर्य यह है कि वे भारत में "राम-राज्य" की स्थापना करना चाहते थे। उनके लिए राजनैतिक स्वतंत्रता का महत्व था किन्तु उससे भी अधिक महत्व मानव की शुचिता और मानवीय मूल्यों का था।
पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस में भारत आजाद हुआ। सारे देश में खुशियां मनाई गई, लेकिन गांधीजी के लिए वह खुशी का दिन नहीं था। उनकी इस स्पष्ट घोषणा के बावजूद कि उनके जिस्म के दो टुकड़े हो जायेंगे, लेकिन भारत एक और अखण्ड रहेगा, देश का विभाजन हुआ। पाकिस्तान बना और दोनों देशों में आबादी की अदला-बदला हुई। भारत से लाखों मुसलमान पाकिस्तान गये और पाकिस्तान से लाखों हिन्दू भारत आये। जिन मानवीय मूल्यों ने उनके बीच भाई-चारे की गहरी जड़ें जमाई थीं, वे आहत हो गये। भाई से भाई बिछड़ गया। यह स्थिति गांधीजी के लिए असह्य थी।
जिस समय लाल-किले पर आजादी का तिरंगा झंडा फहराया जा रहा था, गांधीजी मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र नोआखाली में पैदल घूमघूम कर दुखियों के आंसू पोछ रहे थे। उन्होंने भारत के नये शासकों और भारत की जनता से आजादी के दिन प्रार्थना करने और उपवास रखने का आह्वान किया। उन्होंने अंत समय तक यह आशा नहीं छोड़ी कि वह दिन आये बिना नहीं रहेगा, जबकि भारत और पाकिस्तान एक होंगे। उन्होंने दो राष्ट्र के सिद्धांत को कभी स्वीकार नहीं किया। __ जैसा कि हमने ऊपर कहा गांधीजी मानवीय मूल्यों के उपासक थे। वे नैतिक मूल्यों को सबसे अधिक महत्व देते थे। उन्होंने अनेक अवसरों पर कहा था कि मेरे लिए वह राजनीति त्याज्य है, जिसमें नीति का समावेश न हो अर्थात् नीतिविहीन राजनीति उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखती थी।
देश स्वतंत्र हुआ, लेकिन उसे गांधीजी ने लम्बी यात्रा का पहला पड़ाव माना। उन्होंने कहा, “मंजिल अभी दूर है। जब तक एक भी आंख में आंसू है, मेरे संघर्ष का अंत नहीं हो सकता।" ।
अपने उत्सर्ग के एक दिन पूर्व उन्होंने एक लेख लिखा, जिसे उनका "अंतिम वसीयतनामा" माना जाता है। उस लेख में उन्होंने कहा कि भारत को राजनैतिक आजादी तो मिल गई, लेकिन सामाजिक, आर्थिक
और नैतिक आज़ादियां अभी प्राप्त करनी हैं और चूंकि इन आजादियों में तड़क-भड़क नहीं है इसलिए हमारा रास्ता पहले की निस्बत ज्यादा कठिन है। उन्होंने कांग्रेस को भंग करके उसके स्थान पर "लोक सेवक संघ" की स्थापना करने की बात कही। लेकिन उनकी यह बात भारत के कर्णधारों के गले नहीं उतरी। वे मानते थे कि जिस कांग्रेस के झंडे के नीचे कोटि-कोटि नर-नारियों ने असीम साहस से एकत्र होकर स्वतंत्रता प्राप्त की थी, उसी झंडे के नीचे देश के नव-निर्माण का कार्य सम्पन्न होगा। ___ गांधी दृष्टा थे। उन्होंने जो कहा था, उसके पीछे एक भारी सत्य निहित था। सत्ता के साथ अनिवार्यत: मद जुड़ा रहता है। इसलिए वह
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ४४
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देश का मुंह सत्ता की ओर से मोड़ कर सेवा की ओर करना चाहते थे। पर वह न होना था, न हुआ। गांधीजी आजादी के चन्द दिनों के बाद चले गये।
उनके जाने के पश्चात् सारी स्थिति बदल गई। गांधी ने खरे मनुष्य को ऊंचा स्थान दिया था और भावी भारत का अधिष्ठान मानवता को माना था, किन्तु देश के नेताओं का ध्यान शासन सम्भालने और भारतवासियों की दरिद्रता को दूर करने की ओर था। विदेशी सत्ता ने भारत को चूस कर भीतर से खोखला कर दिया था।
इस स्थिति को सम्भालने के लिए नये शासकों ने नई नीति अपनाई। जहां गांधी ने मनुष्य को बिठाया था, वहां उन्होंने राजनीति और अर्थ को बैठाया। परिणाम यह हुआ कि मानव की धुरी टूटी और उस स्थान पर राजनीति तथा अर्थ का वर्चस्व स्थापित हुआ। इस वर्चस्व को राजनीति के ही नहीं, अन्य सभी क्षेत्रों में स्वीकार किया गया। सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अनुभव करने लगा कि यदि उसके हाथ में सत्ता और पैसा नहीं है तो समाज में उसका अस्तित्व ही नहीं है। इसीसे लोगों ने आंख मूंद कर सत्ता और पैसे के पीछे दौड़ लगाई। इसका परिणाम जो होना था, वही हुआ। पद और पैसे को ऊंचा स्थान मिला और इंसान दोयम दर्जे पर आ गया। देश के मूल्य बदल गये, परिस्थितियां बदल गई, परिवेश बदल गये। नैतिक मूल्यों का स्थान भौतिक मूल्यों ने ले लिया। जब पदार्थ मूल्यवान बन जाता है तो मनुष्य के विवेक पर पर्दा पड़ जाता है।
इस स्थिति ने देश में अनेक व्याधियों को जन्म दिया। इन व्याधियों में सबसे बड़ी व्याधि भ्रष्टाचार है। आज कोई भी क्षेत्र उससे अछूता नहीं है। राजनीति तो उससे पूरी तरह आक्रांत है ही, समाज व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, धर्म संगठन आदि सभी क्षेत्र उसके शिकार हो रहे हैं। राजनीति का इतना बोल-बाला है कि उसने सब कुछ अपने प्रभाव के घेरे में समेट लिया है। किसी युग में धर्म राजनीति की अगुआई करता था, आज धर्म राजनीति का अनुचर बन गया है।
गांधी ने स्वतंत्र भारत के लिए नये मूल्यों की संहिता बनाई थी। उन्होंने कहा था कि जो सच्चा सेवक है. वही देश का सर्वोच्च शासक होगा। उन्होंने कहा था कि स्वतंत्र भारत में उच्च और निम्नवर्ग नहीं रहेंगे। उन्होंने कहा था कि देश के सभी निवासी समष्टि के हित में व्यष्टि का हित मानेंगे और वे अपने स्वार्थ से अधिक देश के हित को वरीयता प्रदान करेंगे।
प्राचीन काल से भारतीय मनीषा ने घोष किया था- "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया" यानी सब सुखी हों, सब नीरोग हों। इसी में से गांधी का सर्वोदय का दर्शन उपजा था। सबकी भलाई के लिए उन्होंने कुछ मूल-भूत सिद्धांत निश्चित किये। इन सिद्धांतों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत सत्ता के विकेन्द्रीकरण का था। वह नहीं चाहते थे कि सत्ता इने-गिने व्यक्तियों की मुट्ठी में केन्द्रित हो। उन्होंने कहा कि अणु बम के इस युग में यदि सत्ता एक स्थान पर केन्द्रीभूत रहेगी तो एक बम उसे सहज ही नष्ट कर देगा। लेकिन यदि सत्ता जन-जन
में बंटी रहेगी तो कोई कितने बम गिरायेगा?
इसलिए उन्होंने शासन की बुनियाद पंचायत को माना। उन्होंने कहा कि हमारा शासन नीचे से ऊपर की ओर रहेगा। पंचायत को वह शासन की नींव बनाना चाहते थे। पक्की नींव पर ही पक्का भवन खड़ा रह सकता है। लेकिन सत्ता की होड़ ने सारी राजनैतिक शक्ति को मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सीमित कर दिया। सत्ता के साथ सारे साधन
और वैभव भी उनके हाथों में केन्द्रित हो गये। ___ गांधीजी आर्थिक समानता के पक्षपाती थे। वह जानते थे कि एक
ओर ढेर लगेगा तो दूसरी ओर अपने आप गड्ढा बन जायेगा। उन्होंने एक स्थान पर लिखा, “अगर धनवान लोग अपने धन को और उसके कारण मिलने वाली सत्ता को खुद राजी-खुशी से छोड़कर और सबके कल्याण के लिए, सबके साथ मिलकर बरतने को तैयार न होंगे तो यह सच समझिये कि हमारे मुल्क में हिंसक और खूखार क्रान्ति हुए बिना नहीं रहेगी।" उन्होंने धनपतियों से कहा कि वे अपनी नितांत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन को रखकर शेष धन को समाज की धरोहर मानें और उसके न्यासी बन कर रहें।
उन्होंने सांप्रदायिक एकता पर भी बल दिया। उन्होंने कहा “एकता का मतलब सिर्फ राजनैतिक एकता नहीं है। सच्चे मानी तो है वह दोस्ती, जो तोड़े न टूटे। इस तरह की एकता पैदा करने के लिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेस-जन, वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों, अपने को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी सभी कोमों का नुमाइंदा समझें।
उन्होंने मानव के परिष्कार के लिए ग्यारह व्रतों का प्रावधान किया। उनमें अन्य बातों के साथ सबसे अधिक बल मद्य-निषेध पर दिया। उनका मानना था कि शराब सब बुराइयों की जननी है। उन्होंने तत्कालीन सरकार से कानून बनाकर उस व्याधि को रोकने का जहां अनुरोध किया, वहां शराब की दुकानों पर धरने की भी व्यवस्था की। मुझे याद आता है कि धरने के लिए उन्होंने मुख्यत: बहनों को चुना, क्योंकि वे मानते थे कि जितना प्रेम, करुणा और संवेदनशीलता बहनों में होती है उतनी पुरुषों में नहीं। बहनें शराब की दुकानों पर खड़ी हो जाती थीं और जब कभी कोई शराब पीने के लिए वहां आता था तो वे हाथ जोड़कर रोकने का प्रयत्न करती थी, किन्तु यदि कोई सिरफिरा व्यक्ति उनकी बात नहीं मानता था तो वे दुकान के सामने लेट जाती थीं तब किसी की भी हिम्मत नहीं होती थी कि वह उनके सीने पर पैर रखकर दुकान के भीतर प्रवेश करे।
गांधीजी भारत को गांवों का देश मानते थे। उनका कहना था कि देश के चंद शहर लाखों गांवों की कमाई पर जीते हैं। इसलिए उन्होंने बार-बार कहा कि गांव उठेंगे तो देश उठेगा। गांवों का पतन होगा तो देश का पतन अवश्यम्भावी है। अत: उन्होंने नवयुवकों से आग्रह किया कि वे देहातों में जाएं और देहातियों के बीच उन्हीं की तरह रहकर उनके अभिक्रम को जागृत करें और गांवों की बुराई दूर करें, लेकिन दुर्भाग्य से आजादी के दिनों में शहर पनपे, गांव सूखे। आज
हीरक जयन्ती स्मारिका
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________________ कोई भी व्यक्ति गांव में जाकर देख सकता है कि वहां की स्थिति कितनी भयावह है। गांवों के बहुसंख्यक निवासी न केवल गरीबी और गंदगी के शिकार हैं निरक्षरता, अंधविश्वास तथा रोग भी उन्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं। शहर के लोग मानते हैं कि गांवों के निवासी उनकी मेहरबानी पर जीते हैं। प्रत्येक उपक्रम में गांधीजी जहां साध्य को महत्व देते थे वहां साधनों की शुद्धता पर भी जोर देते थे। उनका कहना था, "लोग कहते हैं आखिर साधन तो साधन ही है।" मैं कहूंगा, "आखिर तो साधन ही सब कुछ है जैसे साधन होंगे वैसा ही साध्य होगा। साधन और साध्य को अलग करने वाली कोई दीवार नहीं है। वास्तव में सृष्टिकर्ता ने हमें साधनों पर नियंत्रण दिया है, साध्य पर तो कुछ भी नहीं दिया। लक्ष्य की सिद्धि ठीक उतनी ही शुद्ध होती है जितने हमारे साधन शुद्ध होते हैं। यह बात ऐसी है, जिसमें किसी अपवाद की गुंजाइश नहीं है। कोई असत्य से सत्य को नहीं पा सकता। सत्य को पाने के लिए हमेशा सत्य का आचरण करना ही होगा।" ___ गांधीजी शासन के लिए लोकतंत्र को सर्वोपरि मानते थे। लोकतंत्र में लोक पहले आता है “तंत्र" बाद में। लोक से उनका आशय लोक शक्ति से था। बिना लोक-शक्ति के सच्चा लोकतंत्र न स्थापित हो सकता है, न चल सकता है। इसी बात को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने सभी आंदोलनों के द्वारा जन-जन में चेतना पैदा करने का प्रयास किया। वह रचनात्मक कार्यों के द्वारा देश का अभ्युदय करना चाहते थे। उनका कहना था, “मैं ऐसी स्थिति लाना चाहता हूं जिसमें सबका सामाजिक दर्जा समान माना जाय"। रचनात्मक काम का यह अंग अहिंसापूर्ण स्वराज्य की मुख्य चाबी है। आर्थिक समानता के लिए काम करने का मतलब है पूंजी और मजदूरी के झगड़ों को हमेशा के लिए मिटा देना। इसका अर्थ यह होता है कि एक ओर से जिन मुट्ठी भर पैसे वालों के हाथ में राष्ट्र की सम्पत्ति का बड़ा भाग इकट्ठा हो गया है उनकी सम्पत्ति को कम करना और दूसरी ओर से जो करोड़ों लोग भूखे और नंगे रहते हैं, उनकी सम्पत्ति में वृद्धि करना, जब तक मुट्ठी भर धनवानों और करोड़ों भूखे रहने वालों के बीच बेइंतहा अंतर बना रहेगा, तब तक अहिंसा की बुनियाद पर चलने वाली राज्य-व्यवस्था कायम नहीं हो सकती। आजाद हिन्दुस्तान में देश के बड़े-से-बड़े धनवानों के हाथ में हुकुमत का जितना हिस्सा रहेगा उतना ही गरीबों के हाथ में भी होगा। और तब नई दिल्ली के महलों और उनकी बगल में बसी हुई गरीब मजदूर बस्तियों के टूटे-फूटे झोपड़ों के बीच जो दर्दनाक फर्क आज नजर आता है, वह एक दिन को भी नहीं टिकेगा।। गांधीजी की सारी प्रवृत्तियों का केन्द्रबिन्दु सत्य और अहिंसा थे। उन्हीं के आधार पर वह देश के नव निर्माण के आकांक्षी थे। दुर्भाग्य से आज देश मूल्यों के भयंकर संकट से गुजर रहा है। भ्रष्टाचार, महंगाई, आतंक, हिंसा, बलात्कार आदि व्याधियों ने नैतिक मूल्यों का हास कर दिया है। जिस देश में दूध और दही की नदियां बहा करती थीं, उस देश में आज शराब की नदियां बह रही हैं। काला बाजार उजले बाजार पर हावी हो रहा है और येन-केन-प्रकारेण सत्ता को हड़पने और पैसे से अपनी तिजोरियां भरने के लिए देशवासी लालायित हैं। सत्य और अहिंसा का गला घुट रहा है। हिंसा आज इसीलिए उग्र हो रही है क्योंकि अहिंसा निस्तेज हो गई है। अनीति आज इसीलिए फल-फूल रही है, क्योंकि नीति निष्प्रभ हो रही है। इसीसे हमें लगता है कि आज एक और गांधी की आवश्यकता है, लेकिन जिस गांधी ने देश को मानवीय मूल्यों के राज-मार्ग पर अग्रसर किया था, वह गांधी तो चला गया, अब वह आने वाला नहीं है, लेकिन अपने पीछे वह गांधी बहुत कुछ ऐसा छोड़ गया है जिस पर सामूहिक रूप से व्यवहार किया जाय तो गांधी पुनरुज्जीवित हो सकता है। उसी के लिए अब हमें संकल्पबद्ध होकर प्रयास करना चाहिए। सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / 46