Book Title: Vallabh Pravachan
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ-प्रवचन पूज्यपाद आचार्य भगवान् श्री १००८ श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराजश्रीजीके धर्मव्याख्यानोंकी पुस्तिकाका यह प्रथम भाग जिज्ञासु महानुभावोंके करकमलमें उपहृत किया जाता है । पूज्य आचार्य महाराजश्रीजीने ये व्याख्यान बीकानेर शहरमें चातुर्मासनिवासके समय जैन जनताके समक्ष दिये थे । आपके ये व्याख्यान केवल सामान्य जनताके लिये ही नहीं, अपितु उपयुक्त एवं ज्ञातव्य अनेकानेक विषयोंसे परिपूर्ण होनेके कारण विद्वानोंके लिये भो उपयुक्त हैं। श्री आचार्य भगवान् जैनदर्शन या जैनधर्मके अनुयायो होने पर भी आपकी व्याख्यानशैली उदात्त एवं व्यापक होनेसे जैनेतर प्रजाके लिये भी ये व्याख्यान जीवनकी प्रेरक सामग्रीरूप बन गये हैं। जैनदर्शन एक ऐसा महान् धर्मदर्शन है, जिसने परस्पर विरोधी मान्यता रखने वाले विश्वके समग्र दर्शनों को अपने उदरमें समाविष्ट कर लिये हैं। अर्थात् जैनदर्शन सर्वधर्मसमन्वयात्मक दर्शन है। ऐसे महान् दर्शनके रहस्यको पानेवाले महानुभाव आचार्यश्रीजीका ज्ञानगांभीर्य कितना व्यापक और विशाल था, इसका पता आपकी व्याख्यानशैलीसे चल जाता है। जैनधर्म एवं जैनधर्मानुयायी महानुभावोंकी आज क्या दशा है ? आज कहाँ पर खलना हो रही है ? इसके कारण और निवारणके उपाय क्या हैं ? इन बातोंका चिंतन आपके दिलमें रातदिन अविरत रूपसे चलता ही रहता था। जैनधर्मानुयायी श्रीसंघकी उन्नति और प्रगतिके लिये आज क्या करना आवश्यक है ? इसके लिये आप सदैव अप्रमत्त भावसे प्रवर्त्तमान थे और आपके अंतरमं भारी तमन्ना भी थी । आपने अपनी इस धर्मव्याख्यानमालामें प्रसंग-प्रसंग पर अनेक स्वरूपमें अपने * — वल्लभ-प्रवचन', प्रथम भाग (संपादक-मुनि नेमिचन्द्र प्रकाशक-श्री आत्मानन्द जैन महासभा, अम्बाला, ई. स. १९६७) की प्रस्तावना। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વિલા-પ્રવચન [ 191 संवेदन एवं सुझाव प्रकट किये हैं। आप अपने विचारोंमें एवं कार्योंमें इतने अचल धीर-वीर-गंभीर थे कि जैन प्रजाकी शिक्षा आदिके विषयमें, समर्थ साधुवर्गादिका भारी विरोध होने पर भी, आपने जीवन्त विचार एवं प्रयत्न किये हैं। और इनके मिष्ट फल जैन श्रीसंघको प्राप्त भी हुए हैं / ऐसे समर्थ प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व के स्वामी श्री आचार्य भगवानकी यह व्याख्यानमाला जैन प्रजाके लिये अवश्यमेव मार्गदर्शनरूप विशिष्ट पुस्तिका बन गई है। इस प्रथम विभागमें हरएक व्यक्तिके जीवनमें अत्यावश्यक दान-शील-तप-भावना-विषयक विविध दृष्टिकोणोंको सुलझाने वाले व्याख्यानोंका संग्रह है। इन व्याख्यानोंको एवं अन्यान्य प्रकाशित होनेवाले व्याख्यानोंको पढनेसे आपका व्यक्तित्व कितना महान् था और आपके अन्तस्तलमें जैनधर्म एवं जैन श्रीसंघकी प्रगतिके लिये कितना भारी आन्दोलन चल रहा था, इसका ख़याल आ सकता है / इतना ही नहीं, आपका धर्मदर्शन एवं समाजदर्शन कितना गहरा था, इसका भी पता चल जाता है; साथ-साथ स्वर्गस्थ गुरुदेव पूज्यपाद श्री 1008 श्री विजयानन्दसूरीश्वरजी महाराजश्रीजीके श्रीचरणों में निवास करके, उनके धर्मविचारोंको झेलकर आपने उन विचारोंकी कितनी और कैसी साधना एवं आराधना की है, इसका भी पता लग सकता है। ___ अन्तमें, मैं आशा करता हूँ कि - पूज्य आचार्य भगवानकी इस व्याख्यानमालासे हरएक महानुभाव लाभ उठावे / [ “वल्लभ-प्रवचन" भाग-प्रथमकी प्रस्तावना, अम्बाला, ई.स. 1967 ]