Book Title: Unmukta Samvad ki Amogh Drushti Syadwad
Author(s): Vishwas Patil
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्मुक्त संवाद की अमोघ दृष्टि : स्याद्वाद (डा. श्री विश्वास पाटील) आर्य और अनार्य जातियों की संस्कृति के संघर्ष की कहानी दुरभिसंधि निकालो और दूसरे के दृष्टिकोण के विषय को भी वैदिक कालसे भी पुरानी है । उपनिषदों एवं बौद्ध तथा जैन ग्रंथों सहिष्णुतापूर्वक खोजो, वह भी वहीं लहरा रहा है।" के अध्ययन से यह अनुमान लगाना आसान है कि ईसा पूर्व की र अनेकांतवाद जैनधर्म की वैचारिक क्रांति है, इससे वैचारिक छठी शताब्दी के आसपास का काल भारत में बौद्धिक बेचैनी, सहिष्णुता और भावनात्मक एकता के साथ धर्मनिरपेक्षता के बीज शंका-कुशंका तथा मानसिक कोलाहल का काल था । जीवन-मृत्यु, अंकुरित होते हैं | 'अनेके अन्ताः धर्मा, यस्मिन् स अनेकान्तः ।' सृष्टि-ग्रहमण्डल, ईश्वर-अनीश्वर जैसे अनगिनत प्रश्न थे । भारत प्रत्येक पदार्थ अनेक विशेषताओं के कारण अनेकांत रूप में माना में आगे चलकर दर्शन की जो छह शाखाएँ विकसित हुईं, उनके जाता है। मूल में भी यही बौद्धिक आन्दोलन था। अहिंसा और अनेकांत दोनों जैन संस्कृति के अद्भुत तत्त्व मा वैदिक परम्परा वेदनिंदक को नास्तिक मानती थी । ईश्वर की हैं । अहिंसा आचारपक्ष से संबंधित है जब कि अनेकान्त विचारपक्ष सत्ता नकारने वाले को नास्तिक कहने की परम्परा तो बहुत बाद में से जुड़ा है । अनेकान्त में 'अनेक' और 'अंत' ये दो शब्द आते चली । पाणिनि के कालतक भी परलोक की सत्ता को न हैं । 'अनेक' याने एकाधिक और 'अंत' याने दृष्टि ! इसे ही माननेवाला नास्तिक कहलाता था । इस दृष्टि से देखनेपर हम यह अनेकांतवाद, स्याद्वाद, अपेक्षावाद, कथंचिद्वाद आदि विविध मान सकते हैं कि न तो जैन या बौद्ध परम्परा ही नास्तिक है, नामों से जाना जाता है। इस सिद्धान्त की विशेषता यह है कि वह क्योंकि दोनों मत परलोक की सत्ता को मानते हैं और दोनों मतों किसी पदार्थ के एक ही धर्म को एकांततः न स्वीकार कर उसके का विश्वास है कि विश्व वहीं पर समाप्त नहीं हो जाता, जहाँतक हरसंभव पहलुओं को आत्मसात कर चलता है । वह 'ही' के वह दिखलाई पड़ता है। स्थानपर 'भी' के प्रयोग का आग्रही है । 'ही' एकांत है और 'भी' वैदिक परम्परा के संदर्भ में बुद्ध और महावीर का नाम प्रचंड अनेकांत ! जैन धर्म की यह मान्यता है कि प्रत्येक पदार्थ अनंत क्रांतिकारी के रूप में लिया जाना चाहिए । दोनों ने प्रचलित धर्मात्मक है । वह अनन्त गुणधर्मों से युक्त है। व्यवस्था के विरुद्ध बुलंदी भरे स्वर में क्रांति की घोषणा की । दोनों ना जैन दर्शन ने ज्ञान का वर्गीकरण पाँच प्रकार से किया है - की दिशा एक थी - लेकिन शैली भिन्न ! बुद्ध घोर क्रांतिकारी, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्यायज्ञान और केवलज्ञान ! महावीर चरम समन्वयवादी | बुद्ध ने हिंसा को नकारा, यज्ञ की' अनेकांत एक ज्ञानात्मक उपलब्धि है - अनुभूति है, वह जब वाणी सत्ता को अस्वीकार किया, यहाँतक कि वेद और ईश्वर के के माध्यम से प्रकट होती है तब - स्याद्वाद कहलाती है । अस्तित्व तक को झुठला दिया । महावीर ने मौलिक राह स्याद्वाद में पदार्थगत विरोधी धर्मोंका तर्कसंगत समन्वय होता है । अपनायी । उन्होंने अनेकान्तवाद के रूप में समन्वय की चिन्तनधारा चित्त में निर्मलता आती है । वस्तु का सम्यक् बोध होता है । का सूत्रपात किया । अभिव्यक्ति की नयी सरणियाँ जन्म लेती हैं। मन, चित्त, बुद्धि और 4 महावीर की कार्यदिशा का स्वरूप यह है - "हाँ, हाँ, जहाँ वाणी की एकतानता का व्यक्त मनोहारी रूप ही स्याद्वाद है जो खड़े होकर आप देख रहे हो, जीवन का वही रूप दिखाई देता है, परम्परा से पुष्ट तो है ही, नए सन्दर्भो से सम्पृक्त होकर और भी जो आप कह रहे हो, पर देखने की एकमात्र जगह वही तो नहीं है नयी दीप्ति के साथ उजागर होते हुए दिखाई देता है। जहाँ आप खड़े हो । लो, आओ मेरे पास और यहाँसे देखो कि हम स्याद्वाद और अनेकांतवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । आप जहाँ से देख रहे हो जीवन का वही सत्य नहीं है।" दोनों एक होते हुए भी उनमें सूक्ष्म अंतर है । अनेकांत है पदार्थों या भारत में विविध धर्म - सम्प्रदायों का उदय - विकास हुआ के यथार्थ स्वरूप को देखने - परखने की एक चिन्तनपद्धति, जब लेकिन अहिंसा-विचार को जितना महत्व जैन धर्म ने दिया उतना कि देखे - परखे हुए स्वरूप को व्यक्त करने की भाषापद्धति है किसीने भी नहीं दिया । जैन दर्शन शारीरिक, मानसिक अहिंसा के स्याद्वाद ! अनेकांत एक दार्शनिक साथ बौद्धिक अहिंसा का भी आग्रही है | यह बौद्धिक अहिंसा ही दृष्टि है, स्याद्वाद है उन्मुक्त संवाद अनेकान्तवाद है । अनेकांतवाद का दार्शनिक आधार यह है - की अमोघ भाषा ! अनेकांत में "प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण, पर्याय और धर्मों का अखंड पिंड है। तमाम दर्शनों का अन्तर्भाव हो जाता वस्तु को तुम जिस दृष्टिकोण से देख रहे हो, वस्तु उतनी ही नहीं है और स्याद्वाद उस सिद्धान्त का है । उसमें अनंत दृष्टिकोणों से देखे जाने की क्षमता है। उसका प्रतिपादन है । अहिंसा का विराट स्वरूप अनंत धर्मात्मक है । तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी विचारात्मक पक्ष अनेकांत है और मालूम होता है, उसपर ईमानदारी से विचार करो तो उसका इस चिन्तन की अभिव्यक्ति शैली का विषयभूत धर्म भी वस्तु में विद्यमान है | चित्त से पक्षपात की नाम स्याद्वाद है । "अनेकांतवाद श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (६८) क्षुद्रादर मानव सदा, करता है उत्पात । जयन्तसेन अनुभव यह, सोच समझ कर बात ॥ Jain Education Intematonal Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का संबंध विचारों से है किंतु स्याद्वाद उस विचार चिन्तन को जाता है / इस समूचे लोक की हरेक वस्तु के किसी भी एक धर्म अभिव्यक्त करने योग्य अहिंसामयी भाषा शैली की खोज़ करना है, के स्वरूप - प्रतिपादन में सात प्रकार के वचनों का प्रयोग होता है, दार्शनिक मतभेदों और विरोधों का शमन करना है / वादी-प्रतिवादी प्रयोग किया जाता है, प्रयोग किया जा सकता है / यही 'सप्तभंगी' दोनों को न्याय देना है / एक-दूसरे को टकराने से रोकना है। कहलाता है / प्रत्येक पदार्थ अनेकांतात्मक है और उसको प्रतिपादित जटिल से जटिल उलझनों को सुलझाने की क्षमता रखना है / " करनेवाली निर्दोषात्मक भाषा पद्धति स्याद्वाद है / इस भाषामें अनेकांतवाद का आधार है नयवाद ! नय - याने पदार्थ के स्वरूप / निश्चयात्मकता है / कोई भी भंग अनिश्चयात्मक नहीं है। को सापेक्ष दृष्टिकोण से समझना, वस्तुगत अनन्त गुणधर्मों को THE 'स्याद्' का हिंदी पर्याय 'शायद' माना जाता है, जिससे यह समझना नयवाद में पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को देखने परखने की अवनि निकलती है कि स्यादाट निश्चित तान का माध्यम नहीं हो सभी दृष्टियों और समस्त दर्शनोंका समावेश हो सकता है। मामला सकता / इसी बात को लेकर शंकराचार्य, शांतरक्षित, रामानुज, हमा स्याद्वाद का आधार - स्तम्भ है - सप्तभंगीवाद ! पदार्थगत राधाकृष्णन्, राहुल सांकृत्यायन, संपूर्णानंद आदि विद्वानोंने इस धर्म सापेक्ष होते हैं अतः उनका विवेचन - विश्लेषण भी सापेक्ष सिद्धान्त की कडी आलोचना की है। श्री. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यजीने होना बिल्कुल ही स्वाभाविक है / स्याद्वाद का सिद्धान्त जहाँ वस्तु अपने 'जैन दर्शन' नामक ग्रंथ में स्याद्वाद की इन आलोचनाओंका के धर्मों का विवेचन - विश्लेषण करता है वहाँ सप्तभंगीवाद अनन्त / जमकर खंडन किया है / महेंद्रकुमारजी 'स्याद' शब्द का अर्थ धर्मात्मक वस्तु के हर धर्म का विवेचन करने की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया 'शायद' नहीं मानते / उनकी मान्यता है कि "प्राकृत और पालि में प्रस्तुत करता है / सप्तभंगीवाद स्यावाद का विश्लेषण प्रस्तुत 'स्याद्' का 'सिया' रूप होता है | यह वस्तुके सुनिश्चित भेदों के करता है / वस्तु के यथार्थ स्वरूप के विवेचन - विश्लेषण में सात साथ प्रयुक्त होता रहा है / कोई ऐसा शब्द नहीं है जो वस्तु के प्रकार के वचनों का प्रयोग हुआ करता है, प्रयोग हो सकता है, पूर्णरूप का स्पर्श कर सके / हर शब्द एक निश्चित दृष्टिकोण से प्रयोग किए जा सकने की संभावना है | इस दृष्टि से उसके सात प्रयुक्त होता है और अपने विवक्षित धर्म का कथन करता है / इस भंग या प्रकार या पद्धतियां हैं / वे निम्नप्रकार की हैं - तरह, जब शब्द में, स्वभावताः विवक्षानुसार अमुक धर्म के स्यात् अस्ति घट: - कथंचित् घट है। प्रतिपादन करने की शक्ति है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि अविवक्षित शेष धर्मों की सूचना के लिए एक 'प्रतीक अवश्य हो, स्यात् नास्ति घट : - कथंचित् घट नहीं है। जो वक्ता और श्रोता को भूलने न दें / 'स्याद्' शब्द यही कार्य स्यात् अस्ति नास्ति घट : - कथंचित् घट है और नहीं है। करता है / वह श्रोता को विवक्षित धर्म का, प्रधानता से, ज्ञान स्यात् अवक्तव्य घट : - कथंचित् घट अवक्तव्य है। कराके भी अविवक्षित धर्मी के अस्तित्व का द्योतन कराता है / 'स्याद्' शब्द जिस धर्म के साथ लगता है, उसकी स्थिति कमजोर स्यात् अस्ति अवक्तव्य घट : - कथंचित् घट है और अवक्तव्य है। नहीं करके, वस्तुमें रहनेवाले तातिपक्षी धर्मकी सूचना देता है।" स्यात् नास्ति अवक्तव्य घट : - कथंचित् घट नहीं है और अवक्तव्य चिन्तन की अहिंसामयी प्रक्रिया का नाम अनेकांत है और उस चिन्तन को अभिव्यक्त करने की शैली कहलाती है स्यावाद ! स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य घट : अर्थात् अनेकांतवाद का संबंध मनुष्य के विचार से है, किन्तु, कथंचित् घट है, नहीं है और अवक्तव्य है। स्याद्वाद उस विचार के योग्य अहिंसायुक्त भाषा की खोज करता है / स्याद्वाद के अनुसार सच्चा अहिंसक यह नहीं कहेगा कि 'यह एक प्रश्न का समुचित उत्तर विविध सात पद्धतियोंसे दिया सत्य सिद्धान्त है / ' वह यही कहेगा कि 'स्याद् यह सत्यसिद्धान्त हिंदी, मराठी में आधा दर्जन से अधिक ग्रंथों का लेखन व सम्पादन | हिंदी, मराठी, गुजराती से अनुवाद कार्य भी। सिद्धहस्त लेखक, कुशल प्राध्यापक | साहित्यिक मित्रो के एक वर्ग से निरंतर संपर्क। सम्प्रति - स्नातकोत्तर हिंदी विभागाध्यक्ष, शहादा महाविद्यालय, शहादा. संपर्क : डॉ. विश्वास पाटील, 34 ब. कृष्णाम्बरी, सरस्वती कॉलोनी, शहादा (धुलिया) महाराष्ट्र - 425 401. 'स्याद्वाद' नाम के साथ वाद जुड़ा है जो अंग्रेजी ISM का पर्यायी है / मैं स्वयं स्याद्वाद को वाद नहीं - संवाद मानता हूं / इसमें वाद-विवाद छूट जाते हैं / हितकारी संवाद, समन्वयात्मक अभिव्यक्ति और 'सर्वेषां अविरोधेन / ' दृष्टि का परिचायक यह तत्त्व है / उन्मुक्त संवाद है इसमें ! सबके साथ, सब को लेकर, सबतक पहुंचने की संवादपद्धति है यह स्याद्वाद ! हम अपने कोषोंतक ही सीमित न रहें, ज्ञान की - अभिव्यक्ति की हर संभव जितनी पद्धतियाँ, प्रणालियाँ, सरणियाँ हो सकती हैं उनका सुकरता से स्वागत, सत्कार और स्वीकार करें यही इस दृष्टिकी विशेषता है। डॉ. विश्वास पाटील एम.ए., पी.एच.डी. शेष भाग (पृष्ठ 72 पर) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण क्षुद्र हृदय के मनुज से, कभी न करना प्रीत / जयन्तसेन निज हित की, यह है सच्ची रीत / /