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'सत्य क्या है?" यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर हजारों-लाखों वर्षों से विचार होता आया है। इस प्रश्न पर विचार करने वाला कौन है ? मनुष्य । मानव जाति निरंतर सत्य की खोज करती है, सत्य को जानने के लिए उत्सुक रही है।
स्याद्वाद की लोकमंगल दृष्टि
(जैनाचार्य श्री आनंदऋषिजी महाराज)
आज भी सत्य का जिज्ञासु एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहाँ सभी प्रकार के आचार, विचार, बोली व देशवाले व्यक्तियों के आने जाने का तांता लगा हुआ है वहाँ आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से वह एक ही प्रश्न पूछता है - 'सत्य क्या है?' और हरेक आदमी अलगअलग उत्तर देता हुआ आगे बढ़ता जाता है। एक कहता है कि सत्य पूर्व में है, तो दूसरा कहता है कि नहीं, सत्य तो पश्चिम में है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति सत्य को अपनी दृष्टि से परखता है। और जिस दृष्टि से देखता है, जिस रूप में देखता है, उसे सत्य मानने लगता है। परिणामतः उसके लिए झगड़ने लग जाता है। वह कहता है - 'सत्य तो मेरे पास हैं, आओ मैं तुम्हें सत्य को दिखाता हूँ" मानो विश्व में उसके सिवाय सत्य किसीके पास है ही नहीं
मानव की यह कितनी विचित्र मनोवृत्ति है कि वह जो कहता है, वही सत्य है। जो वह जानता है, वही सत्य है। वास्तव में मानव की इस मान्यता में सत्य दृष्टि नहीं, बल्कि उसका अहंकार छिपा हुआ है। किसी को धन का और किसी को प्रतिष्ठा का। परिणामतः उसने अपने अहंकार को ही सत्य का रूप दे दिया है और उसके लिए वाद-विवाद, संघर्ष करने तथा लड़ने और मरने-मारने पर भी आमादा हो जाता है।
संसार में जितने भी संघर्ष, हुए हैं, युद्ध हुए हैं या हो रहे हैं, भाई-भाई में द्वेष और घृणा फैली, पिता-पुत्र में शत्रुता के भाव पैदा हुए या परिवार के परिवार उजड़ गये, तो इन सबका मूल कारण क्या है? मूल बीज बहुत छोटा-सा है जिसने विनाश के वट वृक्ष का रूप ले लिया और यह है 'जो मेरा है वही सत्य है।' जब भी इस आग्रह का भूत सिर पर सवार हुआ तो विग्रह पैदा हो गया। हजारों-लाखों मनुष्यों को विचारान्ध सत्ताधारियों ने अपने दुराग्रह, कदाग्रह पर अड़कर मौत के घाट उतार दिया इससे संत-महात्मा भी अछूते नहीं रहे और उन्हें भी शूली पर लटका दिया गया। इतिहास इसका साक्षी है।
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शांति का मार्ग
संसार अपनी जलती देह को क्षीरोदक से शीतल करने के लिए बेचैन है, लेकिन तन को शीतल करने से पहले उसे मन को भी शीतल बनाना पड़ेगा और मन को शीतल करने का अमोघ उपाय दुराग्रह के त्याग में है, दूसरों को झुलसाने की क्रूरता से बचने में है, सत्य की राह पाने में है। सत्य की राह पर आए हुए व्यक्ति की
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना
सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह किसी भी स्थिति में दुराग्रह या हठ नहीं करता है।
श्री आनंदऋषिजी महाराज
इसके लिए श्रमण भगवान महावीर ने एक दृष्टि दी विचार दिया कि सत्य शाश्वत है, लेकिन यह मत कहो कि मेरा ही सत्य, सत्य है। एकान्त आग्रह सत्य नहीं है और न वह सत्य का जनक है। जबतक यह दृष्टि नहीं हो जाएगी कि 'यत्सत्यं तन्मदीयम्', तब तक सत्य की खोज नहीं कर सकोगे और न सत्य के दर्शन कर पाओगे। यदि सत्य को पाना है, शांति प्राप्त करनी है और समाधिस्थ होना है, तो सर्वप्रथम सत्य को देखने का चश्मा बदलो अनाग्रह दृष्टि अपनाओ। अनाग्रह दृष्टि किसी पक्ष विशेष से आबद्ध न होने का नाम है। जब अनामह दृष्टि होगी तो सत्य स्वयं प्रतिभासित हो जाएगा, उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास, परिश्रम नहीं करना पड़ेगा।
इस अनाग्रह दृष्टि का नाम ही स्यादवाद अनेकान्तवाद है। यह सत्य को अनंत मानकर चलता है। फलत: जहाँ भी, जिस किसी से भी सत्य मिलता है, अनाग्रह एवं विनम्र भाव से उसे अपना लेता
है।
अब प्रश्न है कि भगवान महावीर ने सत्य प्राप्ति के लिए स्याद्वाद अनेकान्तवाद का संकेत क्यों किया? सामान्यतः इसका उत्तर है कि सत्य अनंत है. अतः उसकी न तो शब्दों से हो अभिव्यक्ति हो सकती है और न शब्द-प्रधान विचारों से ही वह तो एकमात्र विशुद्ध ज्ञानालोक में ही प्रतिभासित होता है फिर भी जो उस सत्य को एकांत आग्रह एवं मतान्धता से आबद्ध करते हैं, वे स्वयं अपनी भी हानि करते हैं और दूसरों को भी हानि पहुँचाते हैं।
आग्रहशीलता आदि के बारे में भगवान महावीर के कथन का निष्कर्ष यह है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और
दूसरों की निन्दा में तत्पर हैं, ऐसा करने में ही पांडित्य समझते हैं,
वे इस संसार में चक्कर लगाते रहते हैं।
सर्थ सर्थ पसंसंता गरÈता परं वयं । जे उ तत्व विउस्सन्ति संसारे ते विठस्सिया ।
सूत्रकृतांग ९/९/२/२३॥
लोकव्यवहार अनेकान्तात्मक है
भगवान महावीर के ऐसा कहने का कारण यह है कि विश्व के मौलिक तत्त्वों और उनके आधार पर प्रचलित व्यवहार में एकान्त
चलित चक्र संसार का कायम रहता कौन ? जयन्तसेन सरल बनो, रह तन मन से मौन ॥
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देखने में नहीं आता है। मौलिक तत्त्वों के बारे में उन्होंने सूत्र दिया इस प्रकार व्यावहारिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक आधारों से यह - उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवइ वा - तत्त्व उत्पत्ति, विनाश और स्पष्ट हो जाता है कि विश्व की संरचना विविध विरोधों का समन्वित धौव्य युक्त है। पदार्थ रूप से रूपांतरित होते हुए भी अपने अस्तित्व, रूप है और वे सब उसके धर्म हैं, स्वभाव हैं। उनके अतिरिक्त विश्व स्थायित्व से विहीन नहीं हो जाता है। हमारे जीवन और लोकव्यवहार का अन्य कोई रूप नहीं है। ये विरोध प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं, किंतु परस्पर का ताना-बाना भी इन त्रिपदों से गूंथा हुआ है। म
सापेक्ष हैं। उनका आधार एक है और वे आधार के प्रति एकनिष्ठ लोकव्यवहार में एक व्यक्ति के साथ अनेक संबंधों का जुड़ना हैं। इस तथ्य को स्वीकार करने पर वैचारिक संघर्ष और विवाद के काल्पनिक नहीं है। जैन साहित्य में कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता का लिए अवकाश ही नहीं रह जाता है। आख्यान प्रसिद्ध है, जन्मतः भाई-बहन थे लेकिन भाग्य दुर्भाग्य से लोकजीवन में स्यादवाद का योगदान अठारह संबंध, नाते वाले बन गए। वे सभी संबंध अपेक्षादृष्टि से लोकजीवन में अनेकान्तवाद-स्याद्वाद का क्या योगदान हो घटित हुए। जब इन प्रतीतिसिद्ध नातों का अपलाप नहीं किया जा सकता है? मोटे तौर पर योगदान के रूप होंगे - - सकता, तब अनन्तधर्मात्मक वस्तु में विद्यमान धर्मों के कथन के लिए (2) विवाद पराडमखता स्याद्वाद - अनेकान्तवाद का विरोध कैसे सम्भव है? अपनी एकान्तिक दृष्टि से हम कुछ भी मान लें, लेकिन सत्य को समझने के लिए (३) वैचारिक समन्वय और सह-अस्तित्व की स्थापना। वस्तु में अनन्त धर्मों की स्थिति को मानकर चलना ही पड़ेगा -
लोक विभिन्न रुचि वाला है। जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में इसके यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्। (प्रमाणवार्तिक २/२९०) दर्शन होते हैं। एक परिवार के ही सदस्यों में देखें तो सभी में रुचि
आंशिक सत्य को ही जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तब वैभिन्य दिखाई देता है। खानपान से लेकर आध्यात्मिक दृष्टिकोण तक संघर्ष पैदा होना अवश्यम्भावी है। सत्य न केवल उतना है, जितना किसी भी बात में पूर्ण रूप से एकरूपता नहीं है। सभी को अपने हम जानते हैं अपितु वह तो अपनी पूर्ण व्यापकता लिए हुए है। वैयक्तिक विचार पहलू पर आसक्ति है लेकिन उन पहलुओं में भिन्नता इसीलिए मनीषी चिन्तकों को कहना पड़ा कि उसे तर्क, विचार, बुद्धि होने पर भी वे विवाद का कारण नहीं बनते हैं। क्योंकि वे सभी
और वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता है। (नैषातर्केण मतिरापनेया। सदस्य मिल-जुलकर रहना चाहते हैं और अपनी विचार-विभिन्नता को - कठोपनिषद्) (नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन एक उच्च सीमा में आबद्ध रखते हैं जिससे उनकी पारिवारिक अस्मिता - मुण्डकोपनिषद्) सव्वे सरा निपत्तंते तक्का तत्थ न विज्जइ) - प्रभावित नहीं होती। आचारांगसूत्र) मानव बुद्धि सत्य को जानने में समर्थ अवश्य है, किन्तु परिवार में तो हम विवाद पराङ्मुखता के लिए वैचारिक दृष्टि पूर्णता प्राप्त किये बिना उसे पूर्ण रूप से नहीं जान सकती है। स्थिति को संयमित रखते हैं, लेकिन धार्मिक क्षेत्र में उसे स्वच्छन्द विहार के में जब तक हम अपूर्ण हैं, हमारा ज्ञान अपूर्ण है, तब तक अपूर्ण लिए छोड़ देते हैं। फलस्वरूप विभिन्न सम्प्रदाय बनते हैं। जैन धर्म ज्ञान से प्राप्त उपलब्धि को पूर्ण नहीं कहा जा सकता। उसे आंशिक स्याद्वाद का मुखर प्रवक्ता होकर भी उसके अनुयायी कई संप्रदायों सत्य कहा जाएगा और सत्य का आंशिक ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त में विभाजित हुए। इन संप्रदायों ने धर्म को विवाद का केन्द्रबिंदु बना ज्ञान का निषेध नहीं कर सकेगा। इसलिए यह दावा करना मिथ्या दिया। इस विवाद को दूर करने का एक ही उपाय है कि आग्रह से होगा कि मेरी दृष्टि ही सत्य है, मेरे पास ही सत्य है।
एक कदम नीचे आ जायें। जब एकांगिक दृष्टिकोण, विवाद और ऐसी स्थिति में संघर्ष को समाधान व समन्वय में परिणत करने आग्रह नहीं होगा तभी भित्रता में समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते का एक ही मार्ग है कि सत्य को खण्ड-खण्ड न करके अखण्ड रहने हैं। दें और वस्तुगत अनंत धर्मों को जानने के लिए अपनी क्षमता के स्याद्वाद ने यही काम किया है। उसने आग्रह को एक कदम अनुसार विभेद भी कर लें लेकिन उनका विभाजन न कर दें, जिससे नीचे ला दिया। उसने विभिन्न संप्रदायों की समाप्ति का प्रयास नहीं वस्तु का यथार्थ स्वरूप बना रहे। तब दो भिन्न दृष्टियों के पारस्परिक किया किंतु समन्वय के सूत्र में बांधकर सुंदर बना दिया। साधना विरोधी तथ्य भी एक साथ सत्य हो जाएंगे। वे तथ्य सत्य के प्ररूपक पद्धतियों में यह अच्छी है या यह बुरी का निर्णय न देकर वैयक्तिक
रुचि, क्षमता, देशकाल की विभिन्नता को ध्यान में रखकर यही कहा ___आधुनिक विज्ञान ने भी अपने अनुसंधान से ही सिद्ध किया है कि - कि वस्तु अनेकांतात्मक है। प्रत्येक वैज्ञानिक सत्य का शोधक है। पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । इसीलिए यह दावा नहीं करता है कि मैंने सृष्टि के रहस्य का और युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः॥ वस्तु तत्व का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है। वैज्ञानिक सापेक्षवाद का
(षड्दर्शन समुच्चय टीका) सिद्धान्त यही तो कहता है कि हम केवल सापेक्षित सत्यों को जान मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि मुनिगणों सकते हैं, निरपेक्ष सत्य तो पूर्ण दृष्टागम्य है। अत: दूसरों के ज्ञात के प्रति द्वेष लेकिन यह आकांक्षा है कि जो भी वचन युक्ति-युक्त हो सत्यों को असत्य नहीं कहा जा सकता है और सापेक्षित सत्य अपेक्षाभेद उसे ग्रहण करूँ। स्याद्वाद के उक्त सूत्र का प्रयोग जीवन के प्रत्येक से सत्य हो सकते हैं। स्याद्वाद की भी यही दृष्टि है।
क्षेत्र में किया जा सकता है।
होंगे।
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना
अंजलि जल ज्यों जा रहा, क्षण क्षण जीवन काल । जयन्तसेन सुपथ चलो, पग पग पर सम्भाल ॥
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स्याद्वाद का दूसरा उपयोग वैचारिक सहिष्णुता के लिए हो को कबीर के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है - सकता है। एक ही प्रकार की जीवन प्रणाली, एक ही प्रकार की लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल। आचार-विचार की साधना-पद्धति न तो व्यवहार्य है और न संभव लाली देखन जो गई मैं भी हो गई लाल॥ ही। यह तो संघर्ष का कारण बनेगी। जन-जीवन पीड़ित होता रहेगा।
इसी कारण स्याद्वाद का उपासक जिस दृष्टिकोण को देखता यही स्थिति मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देखी जा सकती है।
है या विचार को सुनता है, या चिन्तन की शैली को परखता है, मानवीय वृत्तियों की विभिन्नता का उन्मूलन नहीं किया जा सकता उसमें अपने ही किसी अंश को पाता है। विभिन्न दिखने वाले अंश है, केवल उन वृत्तियों का मार्गान्तरीकरण हो सकता है। इसके लिए
भी स्वयं उसके चिंतन के किसी न किसी आयाम से मेल खाते हैं। आवश्यक होती है वैचारिक सहिष्णुता। विश्व का महान शक्तिशाली
अत: वह उनका विरोध करे तो कैसे करे? वे विभिन्न प्रतीत होने अन्यतम व्यक्ति भी सभी प्राणियों की रुचि को शक्ति, भय और
वाले विचार भी तो उसकी समग्र चिंतन काया के ही तो अंश हैं। प्रलोभन से एक नहीं कर सकता है, न ही सभी को एक ही मार्ग
अगर उनको तिरस्कृत कर दिया तो वह स्वयं समत्वयोगी न होकर का अनुगामी बना सकता है और न अधार्मिकजनों को धार्मिक बना
विषमता का विश्वामित्र हो जाएगा। इसीलिए स्यावादी सहिष्णु होता सकता है। ऐसी स्थिति में तो यही संभव है -
है। वह रागद्वेष रूप आत्मा के विकारों पर विजय प्राप्त करने के लिए योऽपि न सहते हितमुपदेशं तदुपरि मा कुलं को रे।
सतत प्रयत्नशील रहता है। दूसरों के विचारों को सुनता है, सिद्धांतों निष्कलया किं परजनतप्त्या कुरुषे निज सुखलोपं रे॥ का सम्मान करता है और अपने विचारों के साथ सामंजस्य के आधार
-शान्तसुधारस भावना का अन्वेषण करता है एवं माध्यस्थभाव से संपूर्ण विरोधों का समन्वय जो तुम्हारी हितकारी शिक्षा को नहीं सुनता, उस पर कोप मत करता है। करो, उसे भला-बुरा मत कहो। व्यर्थ में दूसरे पर कोप करने से स्वयं जैनाचार्यों ने उक्त कथन को अपने कृतित्व द्वारा भी अभिव्यक्त अपना सुख और शांति को भंग करोगे। सदाचरण से तो करने वाले किया है। जैनाचार्यों की अमीदृष्टि में 'अयं निजः परोवा' की विकृत को ही लाभ मिलेगा। यह वृत्ति तभी उत्पन्न हो सकती है जब मन भावना नहीं थी। वे तो गुणग्राही, समन्वयशील एवं उदारहृदय के में माध्यस्थ वृत्ति उत्पन्न हो जाये और माध्यस्थ वृत्ति की जननी है साकाररूप थे। इसीलिए वे अपने बौद्धिक प्रागल्भ्य को विशेषणरूप वैचारिक सहिष्णुता। वैचारिक सहिष्णुता तभी संभव है जब अन्य दर्शनों को भी विकासोन्मुखी बनाने हेतु विनियोजन करने में अनेकान्तदृष्टि, स्याद्वाद वृत्ति का आश्रय लिया जाएगा। इसीलिए सक्षम हो सके। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने वैचारिक सहिष्णुता के लिए स्याद्वाद
पर के प्रति माध्यस्थ भाव रखने, सहिष्णुता प्रदर्शित करने के के अवलंबन की ओर संकेत करते हुए कहा है -
लिए स्याद्वाद का अवलंबन आवश्यक है। विचारों की अभिव्यक्ति यस्य सर्वत्र समतानयेषु तनयेष्विव।।
एक श्लाघनीय कला है लेकिन 'ही' के साथ वह आग्रह, वितंडा का तस्यानेकान्तवादस्य क्वन्यूनाधिकशेमुषी॥
रूप ले लेती है और 'भी' के रहने पर माध्यस्थरूपता। इस 'भी' का तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यतां।
नाम अनेकांत दृष्टि - स्याद्वाद है, जो सत्य के किसी न किसी अंश मोक्षोद्देशविशेषण यः पश्यति स शास्ववित्॥
को उद्घाटित करता है। माध्यस्थमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिद्धयति।
परिवार के अन्य-अन्य सदस्यों के अपने-अपने दृष्टिकोण होते स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम्॥
हैं जो विवाद का कारण बन जाते हैं। इन विचारों के समाधान का माध्यस्थसहितं होकपद्ज्ञानमपिप्रभा।
एक ही उपाय है कि जब तक सहिष्णु दृष्टि से एक दूसरे की स्थिति शास्त्रकोटिर्वथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना।
को समझने का प्रयास नहीं किया जाये, तब तक संघर्ष समाप्त नहीं
- अध्यात्मवाद ६९-७२ हो सकता है। हम दूसरे के संबंध में कोई विचार करें और निर्णय सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन पर द्वेष नहीं करता है। वह लें. उससे पहले स्वयं उस स्थिति में खड़े हों। दूसरे की भूमिका में संपूर्ण नय रूप दर्शनों को इस प्रकार की वात्सल्यदृष्टि से देखता है स्वयं को खड़ा करने से ही उसके बारे में सम्यक प्रकार से जाना जा जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्र को देखता है। क्योंकि अनेकान्तवादी सकता है। सह-अस्तित्व का यही आधार है। अनेकांतवाद यही तो की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं होती है। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने कहता है कि दो अंतों के बीच एक ऐसा सेतु बनाओ जिससे परस्पर का वही अधिकारी है जो स्याद्वाद का अवलंबन लेकर संपूर्ण दर्शनों
विरुद्ध एक दूसरे से भिन्न दिखने वाले भी अपना-अपना अस्तित्व में समानता का भाव रखता है। माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ रहस्य
पृथक्-पृथक् रखकर परस्पर सहयोगी बन जाएँ। है, यही धर्मवाद है। माध्यस्थभाव रहने पर शास्त्र के एक पद का
उक्त आध्यात्मिक स्थिति की तरह पारिवारिक क्षेत्र भी है। ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों के पढ़ जाने से भी कोई
स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा विविध दृष्टियों का समन्वय होता है। विविध लाभ नहीं है।
दृष्टियों की भिन्नता शाब्दिक प्रक्रिया के कारण है, वह भावात्मक स्यादवाद आत्मा में समत्वयोग का इतना व्यापक विस्तार कर मिलता है। देता है कि स्व-पर का भेद ही नहीं रहता है। समत्वयोगी के स्वरूप
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन थ/वाचनालय
द्वार प्रगति का है खुला, कर लो दूर कषाय । जयन्तसेन विपुल विभव, जीवन भर सुख पाय linelibrary.org
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________________ प्रजातंत्र तभी सफल हो सकेगा जब स्याद्वादी दृष्टिकोण को सहयोग आवश्यक है। हितमित पर-पक्ष को सुनो, उसकी बात में भी स्वीकार किया जाएगा। विरोधी पक्ष की बात इसलिए अग्राह्य नहीं सत्य समाया हुआ है। जीवन सबके लिए समान रूप से इष्ट है। मानी जानी चाहिए कि वह अल्पमत में है। विरोधी पक्ष को उतनाही यदि इसको न माना जाएगा, तो विश्व में निर्बलों को जीने का अधिकार मान देना चाहिए जितना अपने पक्ष को सम्माननीय माना जाता है। ही नहीं रहेगा। इसलिए जीवन-विकास के लिए इन तीनों में ही विपक्ष विरोधी ही नहीं है, किन्तु उसकी धारणाओं में भी किसी रूप स्याद्वाद की जीवनस्पर्शी व्याख्या समाई हुई है। स्याद्वाद सिर्फ से सत्य का अंश है। इससे अपने दोषों के निराकरण का अवसर विचार नहीं है, किन्तु आचार-व्यवहार भी है, जो अहिंसा और अपरिग्रह मिलता है। यह तभी संभव है जब वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय के रूप में विकसित हुआ है। के द्वारा ही प्रजातंत्र का भविष्य उज्ज्वल बन सकता है। उनके लिए विश्व मंगलकारी स्याटवाट तात स्याद्वाद-अनेकांतवाद के सिवाय अन्य कोई आधार नहीं हो सकता जा भगवान महावीर ने स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा यही सूत्र दिया है। कि एक पक्ष की सत्ता स्वीकार करते हुए दूसरे पक्ष को भी उसका व्यक्तिगत जीवन में स्याद्वाद सत्य कहने दो और सत्य को स्वीकार करो। स्याद्वाद दर्शन और चिंतन के क्षेत्र तक सीमित नहीं है अपितु पर स्याद्वाद संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल बनाता है। आचरण व प्रयोग का भी माध्यम है। व्यक्ति और समष्टि सभी के यह विशालता, उदारता ही पारस्परिक सौहार्द, सहयोग, सद्भावना लिए उपादेय है। शिष्ट और सामान्य नागरिक आचरण के तीन सूत्र एवं समन्वयका मूल प्राण है। उदारता, और सहयोग की भावना तभी हैं - सम्मान, सुरक्षा और संयम। बलवती बनेगी जब हमारा चिन्तन, कथन अनेकांतवादी होगा। विश्व स्याद्वाद द्वारा यही संकेत किया जाता है, आचार के लिए को अपने विकास के लिए स्याद्वाद का सरल मार्ग स्वीकार करना और विचार के लिए कि सद्विचार, सहिष्णुता एवं सत्प्रवृत्ति का पड़ेगा यही विश्व मंगल की आद्य इकाई है। (पृष्ठ 18 का शेष भाग) उपलब्धि तक पहुंचनेतक नहीं देती। इससे विपरीत वह मानव का मन उसके आत्मिक विकास का उपकरण बन सकता है। आध्यात्मिक मूल्यों का उपहास कर रहा है। भौतिक विकास के उपहार अतएव मानव के लिए पहली आवश्यकता यह है कि वह ने मानव को उपहास की ओर धकेल दिया है। मानव की यह चेतना अपने बारे में चिन्तन करना प्रारंभ करे, परचिन्तन को अनुत्साहित करे। शून्यता उसे अनन्त शक्तिवान आत्मा के प्रति अनास्था से ग्रस्त किए प्रात:काल उठकर स्वस्थ मस्तिष्क से विचार करे एवं निरंतर गुत्थी है। मानव, भौतिक सुखों में इतना लिप्त होता जा रहा है कि आत्मिक सुलझाने की कोशिश करे कि - 'मैं कौन हूँ?' 'मैं शरीर नहीं, सुखों के प्रयल के लिए उसे सोचने की फुर्सत ही नहीं है। पहली इन्द्रियां नहीं, भौतिक सुखों की ओर भटकनेवाला शरीर नहीं, मैं जरूरत यह है कि व्यक्ति का विवेक उसे जीवन की सही दिशा पर अनन्त शक्तिवाला आत्मा हूं। आत्मा का मूलस्थान दु:खों से भरा अग्रसर होने के लिए अन्तरित करे। मानव के हृदय के धरातल पर हुआ यह संसार नहीं बल्कि अनंत ज्ञान-दर्शन-सुखों आदि से युक्त अन्तप्रेरणा के बीज अकुंरित होने चाहिए। वैसी अन्तर्रेरणा की जाग्रति शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वरूप की प्राप्ति है। "मैं क्षणिक नहीं, अक्षय है।" जो शालीभद्र को असीम समृद्धि के मध्य 'मेरे नाथ' सुनकर हुई, जो "मैं भेड़ों की रेवड़का सदस्य नहीं अनंत शक्तियों से गर्जना करने इलाचीपुत्र को नट की तरह नृत्य करते हुए एवं भरत चक्रवर्ती को वाला सिंह हूं। मैं आत्मा हूं, मैं आत्मा हूं, मैं आत्मा हूं।" आरिसा भवन में दर्पण के सन्मुख अपने शरीर की ओर निहारते हुई। मधुकर मौक्तिक मोक्ष का द्वार बन्द नहीं है, बल्कि हमारे मन के द्वार बन्द हैं। मोक्ष पाने के लिए मन के द्वार खोलकर पंच परमेष्ठी भगवंतों को उसमें प्रवेश कराना है। यदि आप कहीं जाना चाहते हैं, तो वहाँ के रास्ते बन्द नहीं है; हाँ इतना अवश्य है कि आप सीधे वहाँ न पहुँच सकेंगे। आपको अपने गन्तव्य तक जाने के लिए कुछ 'जंक्शनों पर गाड़ियाँ बदलनी पड़ेंगी; तभी आप वहाँ तक पहुँच जाएँगे। हमारा लक्ष्य घर जाने का होना चाहिये। मोक्ष हमारा घर है। वहाँ जाने के लिए हम परमेष्ठी भगवंतों का अवलंबन लें और तदनुरूप साधना करते जाएँ। इस जन्म में न सही, किसी अन्य जन्म में; भरत क्षेत्र से न सही; महाविदेही क्षेत्र से; मोक्ष अवश्य प्राप्त हो सकता है। साधना/धर्माराधना कभी निष्फल नहीं होती। वह कभी-न-कभी तो हमें अपने मूल स्वरूप को प्रकट करने का अपूर्व अवसर प्रदान करती है। - जैनाचार्य श्रीमद् जयन्तसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद्जयतसनसूरिभिनदनमथावाचनाम कषाय, बुरी बला समझ, इससे इज्जत हान / जयन्तसेन निर्मल मति, सद्गति का पंथान // Jain Education Intemational