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श्वेताम्बर परम्परा में रामकथा
श्वेताम्बर आगम साहित्य में जहाँ कृष्ण के जीवनवृत्त का पर्याप्त का निराकरण बताया गया है । यह बात सुस्पष्ट है कि यह रामकथा का रूप से उल्लेख हआ है, वहाँ राम के सम्बन्ध में मात्र उनके एवं उनके उपदेशात्मक जैन संस्करण है और इसलिये इसमें यथासम्भव हिंसा, माता-पिता के नामोल्लेख से अधिक कुछ नहीं मिलता है । समवायांग घृणा, व्यभिचार आदि दुष्प्रवृत्तियों को न उभार कर सद्प्रवृत्तियों को ही के ५४ वें समवाय में तो २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव और उभारा गया है । इसमें वर्ण व्यवस्था पर भी बल नहीं दिया है। यहाँ ९ वासुदेव, ये ५४ उत्तमपुरुष होते हैं, इतना मात्र उल्लेख है, वहाँ शम्बूक-वध का कारण शूद्र का तपस्या करना नहीं है । चन्द्रहास खड्ग इनके नामों का भी उल्लेख नहीं है । यद्यपि समवायांग के ही १५८ वें की सिद्धि के लिये बांसों के झुरमुट में साधनारत शम्बूक लक्ष्मण के सूत्र में बलदेवों और वासुदेवों के वर्तमान भव के नाम, पूर्व भव के द्वारा अनजान में ही मारा जाता है । लक्ष्मण उस पूजित खड्ग को उठाते नाम, वासुदेवों के निदान-कारण और निदान नगरों के नाम और उनके हैं और परीक्षा हेतु बाँसों के झुरमुट पर चला देते हैं, जिससे शम्बूक माता-पिताओं के नाम आदि का उल्लेख है । यहाँ आठवें बलदेव का मारा जाता है । इस प्रकार जहाँ वाल्मीकि रामायण में शम्बूक वध की नाम पद्म (पउम), आठवें वासुदेव का नाम नारायण और इनके पिता का कथा वर्ण-विद्वेष का खुला उदाहरण है, वहाँ पउमचरिय का शम्बूक वध नाम दशरथ (दसरह) बताया गया है; इसी आधार पर हम इनका अनजान में हुई एक घटना है । पुन: कवि ने राम के चरित्र को उदात्त सम्बन्ध राम-लक्ष्मण से जोड़ सकते हैं । इसमें लक्ष्मण की माता को बनाये रखने हेतु शम्बूक और रावण का वध राम के द्वारा न करवाकर केकई और राम की माता को अपराजिता कहा गया है।
लक्ष्मण के द्वारा करवाया है। बालि के प्रकरण को भी दूसरे ही रूप में श्वेताम्बर परम्परा में रामकथा का प्रथम स्वतन्त्र ग्रंथ, विमलसूरि प्रस्तुत किया गया है। बालि सुग्रीव को राज्य देकर संन्यास ले लेते हैं। का पउमचरिय है । ग्रन्थकार ने वीर-निर्वाण सम्वत् ५३० (ई० सन् ४ दूसरा कोई विद्याधर सुग्रीव का रूप बनाकर उसके राज्य एवं अन्त:पुर या ६४) में इसकी रचना करने का उल्लेख किया है । इस प्रकार लेखक पर कब्जा कर लेता है । सुग्रीव राम की सहायता की अपेक्षा करता है के स्वयं के निर्देश के अनुसार यह प्रथम शताब्दी का ग्रन्थ है । यद्यपि और राम उसकी सहायता कर उस नकली सुग्रीव का वध करते हैं। जैकोबी, प्रो० ध्रुव, पं० परमानन्द शास्त्री आदि कुछ विद्वान् इसे परवर्ती यहाँ भी सुग्रीव के कथानक में से भ्रातृ-द्रोह एवं भ्रातृ-पत्नी से विवाह मानते हैं, फिर भी इसे ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद का नहीं माना की घटना को हटाकर उसके चरित्र को उदात्त बनाया गया है । इसी जा सकता है । वाल्मीकि रामायण के बाद रामकथा के स्वतन्त्र ग्रन्थ के प्रकार कैकेयी भरत हेतु राज्य की मांग राम के प्रति विद्वेष के कारण रूप में इसका स्थान प्रथम है । वस्तुत: यह राम-कथा का जैन संस्करण नहीं, अपितु भरत को वैराग्य लेने से रोकने के लिये करती है। राम भी है । ग्रन्थ की अन्त:साक्षियों से सिद्ध होता है कि यह श्वेताम्बर परम्परा पिता की आज्ञा से नहीं अपितु स्वेच्छा से ही वन को चल देते हैं ताकि की रचना है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि इसमें जैन-मुनि वे भरत को राज्य पाने में बाधक नहीं रहे । इस प्रकार कैकेयी के के लिये 'सियम्बर' शब्द का प्रयोग हुआ है । सम्भवत: श्वेताम्बर शब्द व्यक्तित्व को भी ऊँचा उठाया गया है । न केवल यही अपितु सीताहरण के प्रयोग का यह प्राचीनतम उल्लेख है। ग्रंथ की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत के प्रकरण में भी मृगचर्म हेतु स्वर्ण मृग मारने के सीता के आग्रह की है, जो श्वेताम्बर परम्परा में आगमेतर ग्रन्थों की भाषा रही है । दिगम्बर घटना को स्थान न देकर राम एवं सीता के चरित्र को निर्दोष और परम्परा के ग्रन्थों का प्रणयन शौरसेनी प्राकृत में हुआ है । सबसे अहिंसामय बनाया गया है । रावण के चरित्र को उदात्त बनाने हेतु यह उल्लेखनीय बात यह है कि ग्रन्थकार के समक्ष वाल्मीकि रामायण के बताया गया है कि उसने किसी मुनि के समक्ष यह प्रतिज्ञा ले रखी थी साथ समवायांग का वह मूलपाठ भी रहा होगा जिसमें लक्ष्मण (नारायण) कि मैं किसी परस्त्री का उसकी स्वीकृति के बिना शील भंग नहीं करूंगा। की माता को केकई बताया गया था। लेखक के सामने मूल प्रश्न यह इसलिये वह सीता को समझा कर सहमत करने का प्रयत्न करता है, था कि आगम की प्रामाणिकता को सुरक्षित रखते हुए, वाल्मीकि के बलप्रयोग नहीं करता है । मांस-भक्षण के दोष दिखाकर सामिष भोजन साथ किस प्रकार समन्वय किया जाये । यहाँ उसने एक अनोखी सूझ से जन-मानस को विरत करना भी जैनधर्म की मान्यताओं के प्रसार का से काम लिया, वह लिखता है कि लक्ष्मण की माता का पितृगृह का ही एक प्रयत्न है । ग्रन्थ में वानरों एवं राक्षसों को विद्याधरवंश के मानव नाम तो कैकेयी था, किन्तु विवाह के पश्चात दशरथ ने उसका नाम बताया गया है, किन्तु यह भी सिद्ध किया गया है कि वे कला-कौशल परिवर्तन कर उसे 'सुमित्रा' नाम दिया । पउमचरिय में भरत की माता को और तकनीक में साधारण मनुष्यों से बहुत बढ़े-चढ़े थे । वे पाद'केगई' कहा गया है । वाल्मीकि रामायण से भिन्न इस ग्रंथ की रचना विहारी न होकर विमानों में विचरण करते थे । इस प्रकार इस ग्रंथ में का मुख्य उद्देश्य काव्यानन्द की अनुभूति न होकर, कथा के माध्यम से विमलसूरि ने अपने युग में प्रचलित रामकथा को अधिक युक्ति संगत धर्मोपदेश देना है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्रेणिकचिंता नामक दूसरे उद्देशक और धार्मिक बनाने का प्रयास किया है। में इसका उद्देश्य रामकथा में आई असंगतियों तथा कपोल-कल्पनाओं विमलसूरि के पउमचरिय के बाद रामकथा का एक विवरण हमें
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
संघदास गणी (छठी शताब्दी) की वसुदेवहिंडी में मिलता है। वसुदेवहिंडी से भी प्रकाशन हो चुका है । हेमचन्द्र सामान्यतया तो विमलसूरि की की रामकथा कुछ प्रसंगों के संदर्भ में पउमचरिय की रामकथा से भिन्न रामकथा का ही अनुसरण करते हैं, किन्तु उन्होंने सीता के वनवास का है और वाल्मीकि रामायण के निकट है । इसकी विशेषता यह है कि कारण, सीता के द्वारा रावण का चित्र बनाना बताया है। यद्यपि उन्होंने इसमें सीता को रावण और मन्दोदरी की पुत्री बताया गया है, जिसे एक इस प्रसंग के शेष सारे कथानक में पउमचरिय का ही अनुसरण किया पेटी में बन्द कर जनक के उद्यान में गड़वा दिया गया था, जहाँ से हल है, फिर भी सौतियाडाह के कारण राम की अन्य पत्नियों ने सीता से चलाते समय जनक को उसकी प्राप्ति हुई थी। इस प्रकार यहाँ सीता की रावण का चित्र बनवाकर, उसके सम्बन्ध में लोकापवाद प्रसारित किया, कथा को तर्कसंगत बनाते हुए भी उसका साम्य भूमि से उत्पन्न होने की ऐसा मनोवैज्ञानिक आधार भी प्रस्तुत कर दिया है । इस प्रसंग में भद्रेश्वर धारणा के साथ जोड़ा गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि संघदासगणी सूरि की कहावली का अनुसरण करते हैं । चौदहवीं शताब्दी में धनेश्वर ने रामकथा को कुछ भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है। अधिकांश श्वेताम्बर ने शत्रुजय माहात्म्य में भी रामकथा का विवरण दिया है । सोलहवीं लेखकों ने विमलसूरि का ही अनुसरण किया है। मात्र यही नहीं दिगम्बर शताब्दी में देवविजय गणी ने रामचरित्र पर संस्कृत में एक स्वतन्त्र ग्रंथ परम्परा में पद्मपुराण के रचयिता रविसेन (७वीं शताब्दी) और अपभ्रंश लिखा है । इसी प्रकार मेघ विजय (१७वीं शताब्दी) ने लघुत्रिषष्टि में भी पउमचरिउ के रचयिता यापनीयस्वयम्भू ने भी विमलसूरि का ही पूरी रामकथा का संक्षिप्त विवरण दिया है । इन ग्रंथों के अतिरिक्त जिनरत्न तरह अनुकरण किया है । पद्मपुराण तो पउमचरिय का ही विकसित सिद्धांत कोष में और भी कुछ श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा रचित रामकथा संस्कृत रूपान्तरण मात्र है । यद्यपि उन्होंने उसे दिगम्बर परम्परा के सम्बन्धी ग्रंथों का उल्लेख उपलब्ध है । इन प्राकृत और संस्कृत की अनुरूप ढालने का प्रयास किया है ।
रामकथाओं के अतिरिक्त अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी में भी श्वेताम्बर आठवीं शताब्दी में हरभिद्र ने अपने धूर्ताख्यान में और नवीं आचार्यों ने रामकथा सम्बन्धी साहित्य लिखा है । इस सम्बन्ध में अभी शताब्दी में शीलाङ्काचार्य ने अपने ग्रंथ 'चउपन्नमहापुरिसचरिय' में अति भी व्यापक सर्वेक्षण और शोध की आवश्यकता है। संक्षेप में रामकथा को प्रस्तुत किया है । भद्रेश्वर (११वीं शताब्दी) की सोलहवीं शताब्दी में उपकेशगच्छ के वाचक विनय समुद्र ने कहावली में भी रामकथा का संक्षिप्त विवरण उपलब्ध हैं। तीनों ही राजस्थानी में पद्मचरित लिखा था । सम्प्रति स्थानकवासी जैन मुनि ग्रन्थकार कथा विवेचन में विमलसूरि की परम्परा का पालन करते हैं। शुक्लचंदजी ने भी 'शुक्ल जैन रामायण' के नाम से हिन्दी पद्य में यद्यपि भद्रेश्वरसूरि ने सीता के द्वारा सपत्नियों के आग्रह पर रावण के पैर रामकथा लिखी है । संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी हनुमान का चित्र बनाने का उल्लेख किया । ये तीनों ही रचनाएँ प्राकृत भाषा में चरित्र, अंजना सुन्दरी चरित्र और सीता चरित्र के रूप में अनेकों खण्ड हैं। १२वीं शताब्दी में हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति काव्य भी उपलब्ध हैं । सम्प्रति आचार्य तुलसी के द्वारा रचित अग्निपरीक्षा में तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में संस्कृत भाषा में रामकथा को प्रस्तुत तो बहुचर्चित है ही। इस प्रकार रामकथा के विकास में श्वेताम्बर जैन किया है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में वर्णित रामकथा का स्वतन्त्र रूप आचार्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
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भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार
सामान्यतया जैन लेखकों ने अपनी काल गणना को शक संवत् से समीकृत करके यह माना है कि महावीर के निर्वाण के ६०५ वर्ष और पाँच माह पश्चात् शक राजा हुआ। इसी मान्यता के आधार पर वर्तमान में भी महावीर का निर्वाण ई.पू. ५२७ माना जाता है। आधुनिक जैन लेखकों में दिगम्बर परम्परा के पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार एवं श्वेताम्बर परम्परा के मुनि श्री कल्याण विजयजी आदि ने भी वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ वर्ष में माना है। लगभग ७वीं शती से कुछ अपवादों के साथ इस तिथि को मान्यता प्राप्त है। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम "तित्योगाली "४ नामक प्रकीर्णक में और दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम “तिलोयपण्णाति ५ में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख मिलता है कि महावीर के निर्वाण के ६०५ वर्ष एवं ५ माह के पश्चात् शक नृप हुआ। ये दोनों ग्रन्थ ईसा की ६७वीं शती में निर्मित हुए है। इसके पूर्व किसी भी ग्रन्थ में महावीर के निर्वाणकाल को शक संवत् से समीकृत करके उनके अन्तर को स्पष्ट किया गया हो यह मेरी जानकारी में नहीं है किन्तु इतना निश्चित है कि लगभग ६-७वीं शती से ही महावीरनिर्वाण शक पूर्व ६०५ में हुआ था, यह एक सामान्य अवधारणा रही है। इसके पूर्व कल्पूसत्र की स्थविरावली और नन्दीसूत्र की वाचक वंशावली में महावीर की पट्टपरम्परा का उल्लेख तो है किन्तु इनमें आचार्यों के कालक्रम की कोई चर्चा नहीं है। अतः इनके । आधार पर महावीर की निर्वाण तिथि को निश्चित करना एक कठिन समस्या है। कल्पसूत्र में यह तो उल्लेख मिलता है कि अब वीरनिर्वाण के ९८० वर्ष वाचनान्तर से ९९३ वर्ष व्यतीत हो चुके है।' इससे इतना ही फलित होता है कि वीरनिर्वाण के ९८० या ९९३ वर्ष पश्चात् देवर्द्धिक्षमाश्रमण ने
प्रस्तुत ग्रन्थ की यह अन्तिम वाचना प्रस्तुत की । इसी प्रकार स्थानांग ७, भगवतीसूत्र' और आवश्यकनिर्युक्ति' में निह्नवों के उल्लेखों के साथ वे महावीर के जीवनकाल और निर्माण से कितने समय पश्चात् हुए हैं यह निर्देश प्राप्त होता है। यही कुछ ऐसे सूत्र हैं जिनकी बाह्य सुनिश्चित समय वाले साक्ष्यों से तुलना करके ही हम महावीर की निर्वाण तिथि पर विचार कर सकते हैं।
महावीर की निर्वाण तिथि के प्रश्न को लेकर प्रारम्भ से मत वैभिन्य रहे हैं। दिगम्बर परम्परा के द्वारा मान्य तिलोयपण्णत्ति में यद्यपि यह स्पष्ट उल्लेख है कि वोरनिर्वाण के ६०५ वर्ष एवं ५ मास पश्चात् शक नृप हुआ, किन्तु उसमें इस सम्बन्ध में निम्न चार मतान्तरों का भी उल्लेख मिलता है। "
१. वीर जिनेन्द्र के मुक्ति प्राप्त होने के ४६१ वर्ष पश्चात् शक
४. वीर जिन के मुक्ति प्राप्त करने के ६०५ वर्ष एवं ५ माह पश्चात् शक नृप हुआ।
इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम की "धवला" टीका में भी महावीर के निर्वाण के कितने वर्षों के पश्चात् शक (शालिवाहन शक ) नृप हुआ, इस सम्बन्ध में तीन मतों का उल्लेख हुआ है९११. वीरनिर्वाण के ६०५ वर्ष और पाँच माह पक्षात् २. वीरनिर्वाण के १४७९३ वर्ष पश्चात्
३. वीरनिर्वाण के ७९९५ वर्ष और पाँच माह पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में आगमों की देवर्द्धि की अन्तिमवाचना भगवान महावीर के निर्वाण के कितने समय पश्चात् हुई, इस सम्बन्ध में स्पष्टतया दो मतों का उल्लेख मिलता है-प्रथम मत उसे वीरनिर्वाण के ९८० वर्ष पश्चात् मानता है, जबकि दूसरा मत उसे ९९३ वर्ष पश्चात् मानता है । १२
श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहणकाल को लेकर भी दो मान्यतायें पायी जाती है। प्रथम परम्परागत मान्यता के अनुसार वे वीरनिर्वाण संवत् २१५ में राज्यासीन हुए १३ जबकि दूसरी हेमचन्द्र की मान्यता के अनुसार वे वीरनिर्वाण के १५५ वर्ष पश्चात् राज्यासीन हुए। १४ हेमचन्द्र द्वारा प्रस्तुत यह दूसरी मान्यता महावीर के ई.पू. ५२७ में निर्वाण प्राप्त करने की अवधारणा में बाधक है । १५ इस विवेचन से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि महावीर का निवार्ण तिथि के सम्बन्ध में प्राचीनकाल में भी विवाद था।
चूँकि महावीर की निर्वाण तिथि के सम्बन्ध में प्राचीन आन्तरिक साक्ष्य सबल नहीं थे, अतः पाश्चात्य विद्वानों ने बाह्य साक्ष्यों के आधार पर महावीर की निर्वाण तिथि को निश्चित करने का प्रयत्न किया, परिणामस्वरूप महावीर की निर्वाण तिथि के सम्बन्ध में अनेक नये मत भी प्रकाश में आये। महावीर की निर्वाण तिथि के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार हैं
१. हरमन जकोबी १६ ई.पू. ४७७ - इन्होंने हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व के उस उल्लेख को प्रामाणिक माना है कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण के १५५ वर्ष पश्चात् राज्यासीन हुआ और इसी आधार पर महावीर की निर्वाण तिथि निश्चित की।
२. जे. शारपेन्टियर १० ई.पू. ४६७२. जे. शारपेन्टियर १७ ई.पू. ४६७ - इन्होंने भी हेमचन्द्र को आधार बनाया है और चन्द्रगुप्त मौर्य के १५५ वर्ष पूर्व महावीर का निर्वाण माना। ३. पं. ए. शान्तिराज शास्त्री १८ ई.पू. ६६३ इन्होंने शक संवत् को विक्रम संवत् माना है और विक्रम सं. के ६०५ वर्ष पूर्व महावीर का निर्वाण माना।
नृप हुआ।
२. वीर भगवान् के मुक्ति प्राप्त होने के ९७८५ वर्ष पश्चात् ४. प्रो. काशीप्रसाद जायसवाल १९ - इन्होंने अपने लेख आइडेन्टीफिकेशन आफ कल्की में मात्र दो परम्पराओं का उल्लेख किया है। महावीर की
शक नृप हुआ।
३. वीर भगवान् के मुक्ति प्राप्त होने के १४७९३ वर्ष पश्चात् निर्वाण तिथि का निर्धारण नहीं किया है।
शक नृप हुआ।
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५. एस. व्ही. वैक्टेश्वर १० ई.पू. ४३७- इनकी मान्यता अनन्द
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
विक्रम संवत् पर आधारित है। यह विक्रम संवत् के ९० वर्ष बाद वर्ष पश्चात् हुआ था। ज्ञातव्य है कि “दीघनिकाय" के इस प्रसंग में जहाँ प्रचलित हुआ था।
निर्ग्रन्थ ज्ञातृपूत्र आदि छहों तीर्थंकरों को अर्धवयगत कहा गया, वहाँ गौतम ६. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार२१ ई.पू. ५२८- इन्होंने अनेक तर्को बुद्ध की वय के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया है।२९ के आधार पर परम्परागत मान्यता को पुष्ट किया।
किन्तु उपरोक्त तथ्य के विपरीत “दीघनिकाय" में यह भी सूचना ७. मुनि श्री कल्याणविजय२२ ई.पू. ५२८- इन्होंने भी परम्परागत मिलती है कि महावीर बुद्ध के जीवनकाल में ही निर्वाण को प्राप्त हो मान्यता की पुष्टि करते हुए उसकी असंगति के निराकरण का प्रयास गये थे। “दीघनिकाय" के वे उल्लेख निम्नानुसार हैंकिया है।
ऐसा मैंने सुना-एक समय भगवान् शाक्य (देश) में वेधन्जा ८. प्रो. पी.एच.एल इगरमोण्ट २३ ई.पू. २५२- इनके तर्क का आधार नामक शाक्यों के आम्रवन प्रासाद में विहार कर रहे थे। जैन परम्परा में तिष्यगुप्त की संघभेद की घटना का जो महावीर के उस समय निगण्ठ नातपुत्त (=तीर्थंकर महावीर) की पावा में जीवनकाल में उनके कैवल्य के १६वें वर्ष में घटित हुई, बौद्ध संघ में हाल ही में मृत्यु हुई थी। उनके मरने पर निगण्ठों में फूट हो गई थी, तिष्यरक्षिता द्वारा बोधि वृक्ष को सुखाने तथा संघभेद की घटना से जो दो पक्ष हो गये थे, लड़ाई चल रही थी, कलह हो रहा था। वे लोग एकअशोक के राज्यकाल में हुई थी समीकृत कर लेना है।
दसूरे को वचन-रूपी वाणों से बेधते हुए विवाद करते थे-“तुम इस ९. वी.ए. स्मिथ २४ ई.पू.५२७- इन्होंने सामान्यतया प्रचलित धर्मविनय (धर्म) को नहीं जानते, मैं इस धर्मविनय को जानता हूँ। तुम अवधारण को मान्य कर लिया है।
भला इस धर्मविनय को क्या जानोगे? तुम मिथ्या प्रतिपन्न हो (तुम्हारा १०. प्रो. के. आर. नारमन२५ लगभग ई.पू. ४००- भगवान समझना गलत है), मैं सम्यक् -प्रतिपन्न हूँ। मेरा कहना सार्थक है और महावीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण करने हेतु जैन साहित्यिक स्त्रोतों तुम्हारा कहना निरर्थक। जो (बात) पहले कहनी चाहिये थी वह तुमने पीछे के साथ-साथ हमें अनुश्रुतियों और अभिलेखीय साक्ष्यों पर भी विचार कही और जो पीछे कहनी चाहिये थी, वह तुमने पहले की। तुम्हारा वाद करना होगा। पूर्वोक्त मान्यताओं में कौन सी मान्यता प्रामाणिक है, इसका बिना विचार का उल्टा है। तुमने वाद रोपा, तुम निग्रह-स्थान में आ गये। निश्चय करने के लिये हम तुलनात्मक पद्धति का अनुसरण करेंगे और इस आक्षेप से बचने के लिये यत्न करो, यदि शक्ति है तो इसे सुलझाओ। यथासम्भव अभिलेखीय साक्ष्यों को प्राथमिकता देंगे।
मानो निगण्ठों में युद्ध (बध) हो रहा था। भगवान महावीर के समकालिक व्यक्तियों में भगवान बुद्ध, निगण्ठ नातपुत्त के जो श्वेत-वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य थे, वे भी बिम्बसार, श्रेणिक और अजातशत्रु कुणिक के नाम सुपरिचित हैं। जैन निगण्ठ के वैसे दुराख्यात (ठीक से न कहे गये), दुष्प्रवेदित (ठीक से स्रोतों की अपेक्षा इनके सम्बन्ध में बौद्ध स्रोत हमें अधिक जानकारी प्रदा न साक्षात्कार किये गये), अ-नैर्याणिक (पार न लगाने वाले), अन्करते हैं। जैन स्रोतों के अध्ययन से भी इनकी समकालिकता पर कोई उपशम-संवर्तनिक (न-शान्तिगामी), अ-सम्यक् -संबुद्ध-प्रवेदित (किसी सन्देह नहीं किया जा सकता है। जैन आगम साहित्य बुद्ध के जीवन वृत्तान्त बुद्ध द्वारा न साक्षात् किया गया), प्रतिष्ठा (नीव)-रहित भिन्न-स्तूप, के सम्बन्ध में प्राय: मौन हैं, किन्तु बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में महावीर आश्रयरहित धर्म में अन्यमनस्क हो खिन और विरक्त हो रहे थे।३०
और बुद्ध की समकालिक उपस्थिति के अनेक सन्दर्भ हैं। किन्तु यहाँ हम इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर त्रिपिटक साहित्य उनमें से केवल दो प्रसंगों की चर्चा करेंगे। प्रथम प्रसंग में दीघनिकाय का में महावीर को अधेड़वय का कहा गया है, वहीं दूसरी ओर बुद्ध के वह उल्लेख आता है जिसमें अजातशत्रु अपने समय के विभिन्न धर्माचार्यों जीवनकाल में उनके स्वर्गवास की सूचना भी है। इतना निश्चित है कि से मिलता है। इस प्रसंग में अजातशत्रु का महामात्य निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र के दोनों बातें एक साथ सत्य सिद्ध नहीं हो सकती। मुनि कल्याणविजय जी सम्बन्ध में कहता है-“हे देव! ये निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र संघ और गण के स्वामी आदि ने बुद्ध के जीवनकाल में महावीर के निर्वाण सम्बन्धी अवधारणा हैं, गण के आचार्य हैं, ज्ञान, यशस्वी तीर्थंकर हैं, बहुत से लोगों के को भ्रान्त बताया है, उन्होंने महावीर के कालकवलित होने की घटना को श्रद्धास्पद और सज्जन मान्य हैं। ये चिरप्रव्रजित एव अर्धगतवय (अधेड़) उनकी वास्तविक मृत्यु न मानकर, उनकी मृत्यु का प्रवाद माना है। जैन हैं।२६ तात्पर्य यह है कि अजातशत्रु के राज्यासीन होने के समय महावीर आगमों में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि उनके निर्वाण के लगभग १६ लगभग ५० वर्ष के रहे होंगे क्योंकि उनका निर्वाण अजातशत्रु कुणिक के वर्ष पूर्व उनकी मृत्यु का प्रवाद फैल गया था जिसे सुनकर अनेक जैन राज्य के २२वें वर्ष में माना जाता है। उनकी सर्व आयु ७२ वर्ष में से २२ श्रमण भी अश्रुपात करने लगे थे। चूँकि इस प्रवाद के साथ महावीर के वर्ष कम करने पर उस समय वे ५० वर्ष के थे-यह सिद्ध हो जाता है।२७ पूर्व शिष्य मंखलीगोशाल और महावीर एवं उनके अन्य श्रमण शिष्यों जहाँ तक बुद्ध का प्रश्न है वे अजातशत्रु के राज्यासीन होने के ८वें वर्ष में के बीच हुए कटु-विवाद की घटना जुड़ी हुई थी। अत: दीघनिकाय का निर्वाण को प्राप्त हुए, ऐसी बौद्ध लेखकों की मान्यता है।२८ इस आधार प्रस्तुत प्रसंग इन दोनों घटनाओं का एक मिश्रित रूप है। अत: बुद्ध के पर दो तथ्य फलित होते हैं- प्रथम महावीर जब ५० वर्ष के थे, तब बुद्ध जीवनकाल में महावीर की मृत्यु के दीघनिकाय के उल्लेख को उनकी (८०-८) ७२ वर्ष के थे अर्थात् बुद्ध, महावीर से उम्र में २२ वर्ष बड़े थे। वास्तविक मृत्यु का उल्लेख न मानकर गोशालक के द्वारा विवाद के पश्चात् दूसरे यह कि महावीर का निर्वाण, बुद्ध के निर्वाण के (२२-८=१४) १४ फेंकी गई तेजोलेश्या से उत्पन्न दाह ज्वार जन्य तीव्र बीमारी के फलस्वरूप
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भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार
फैले उनकी मृत्यु के प्रवाद का उल्लेख मानना होगा।
चूँकि बुद्ध का निर्वाण अजातशत्रुकुणिक के राज्याभिषेक के आठवें वर्ष ३१ में हुआ, अतः महावीर का निर्वाण २२वें वर्ष में ३२ हुआ होगा। अतः इतना निश्चित है कि महावीर का निर्वाण बुद्ध के निर्वाण के १४ वर्ष बाद हुआ। इसलिये बुद्ध की निर्वाण की तिथि का निर्धारण महावीर की निर्वाण तिथि को प्रभावित अवश्य करेगा।
सर्वप्रथम हम महावीर की निर्वाण तिथि का जैनस्त्रोतों एवं अभिलेखों के आधार पर निर्धारण करेंगे और फिर यह देखेंगे कि इस आधार पर बुद्ध की निर्वाण तिथि क्या होगी ?
महावीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण करते समय हमें यह देखना होगा कि आचार्य भद्रबाहु और स्थूलभद्र की महापद्मनन्द एवं चन्द्रगुप्त मौर्य से, आचार्य सुहस्ति की सम्प्रति से, आर्य मंक्षु (मंगू), आर्य नन्दिल, आर्च नागहस्ति, आर्यवृद्ध एवं आर्य कृष्ण की अभिलेखों में उल्लेखित उनके काल से तथा आर्य देवर्द्धिक्षमाश्रमण की वल्लभी के राजा ध्रुवसेन से समकालीनता किसी प्रकार बाधित नहीं हो। इतिहासविद् सामान्यतया इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि चन्द्रगुप्त का राज्यसत्ताकाल ई.पू. २९७ तक रहा है। ३३ अतः वही सत्ताकाल भद्रबाहु और स्थूलीभद्र का भी होना चाहिये। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि चन्द्रगुप्त ने नन्दों से सत्ता हस्तगत की थी और अन्तिम नन्द के मन्त्री शकडाल का पुत्र स्थूलीभद्र था। अतः स्थूलीभद्र को चन्द्रगुप्त मौर्य का कनिष्ठ समसामयिक और भद्रबाहु को चन्द्रगुप्त मौर्य का वरिष्ठ समसामयिक होना चाहिये चाहे यह कथन पूर्णतः विश्वसनीय माना जाये या नहीं माना जाये कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन दीक्षा ग्रहण की थी फिर भी जैन अनुश्रुतियों के आधार पर इतना तो मानना ही होगा कि भद्रबाहु और स्थूलीभद्र चन्द्रगुप्त मौर्य के समसामयिक थे। स्थूलीभद्र के वैराग्य का मुख्य कारण उसके पिता के प्रति नन्दवंश के अन्तिम शासक महापद्यनन्द का दुर्व्यवहार और उनकी घृणित हत्या मानी जा सकती है । ३४ पुनः स्थूलीभद्र भद्रबाहु से नहीं, अपितु सम्भूतिविजय से दीक्षित हुए थे। पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना के समय वाचना प्रमुख भद्रबाहु और स्थूलीभद्र न होकर सम्भूतिविजय रहे हैं- क्योंकि उस वाचना में ही स्थूलीभद्र को भद्रबाहु से पूर्व ग्रन्थों का अध्ययन कराने का निश्चय किया गया था अत: प्रथम वाचना नन्द शासन केही अन्तिम चरण में कभी हुई है। इस प्रथम वाचना का काल वीरनिर्वाण संवत् माना जाता है। यदि हम एक बार दोनों परम्परागत मान्यताओं को सत्य मानकर यह मानें कि आचार्य भद्रबाहु वीरनिर्वाण सं. १५६ से १७० तक आचार्य रहे ३५ और चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण सं. २१५ में राज्यासीन हुआ तो दोनों की सम-सामयिकता सिद्ध नहीं होती है। इस मान्यता का फलित यह है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यासीन होने के ४५ वर्ष पूर्व ही भद्रबाहु स्वर्गवासी हो चुके थे। इस आधार पर स्थूलीभद्र चन्द्रगुप्त मौर्य के लघु सम-सामयिक भी नहीं रह जाते हैं। अतः हमें यह मानना होगा कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण के १५५ वर्ष पश्चात् ही राज्यासीन हुआ । हिमवन्त स्थाविरावली ३५ एवं आचार्य हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्व ७ में भी यही तिथि मानी गई है। इस आधार पर भद्रबाहु और स्थूलिभद्र की
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चन्द्रगुप्त मौर्य से सम-सामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। लगभग सभी पट्टावलियाँ भद्रबाहु के आचार्यत्वकाल का समय वीरनिर्वाण १५६१७० मानती हैं। ३८ दिगम्बर परम्परा में भी तीन केवली और पाँच । श्रुतकेवलि का कुल समय १६२ वर्ष माना गया है । भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवलि ये अतः दिगम्बर परम्परानुसार भी उनका स्वर्गवास वीरनिर्वाण सं. १६२ मानना होगा। १९ इस प्रकार दोनों परम्पराओं के अनुसार भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की सम-सामयिकता सिद्ध हो जाती है। मुनि श्री कल्याणविजयजी ने चन्द्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहु की सम-सामयिकता सिद्ध करने हेतु सम्भूतिविजय का आचार्यत्वकाल ८ वर्ष के स्थान पर ६० वर्ष मान लिया। इस प्रकार उन्होंने एक ओर महावीर का निर्वाण समय ई.पू. ५२७ मानकर भी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की समसामयिकता स्थापित करने का प्रयास किया । ४०. 'किन्तु इस सन्दर्भ में आठ का साठ मान लेना उनकी अपनी कल्पना है, इसका प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं है। ४१ सभी श्वेताम्बर पट्टावलियाँ वीरनिर्वाण सं. १७० में ही भद्रबाहु का स्वर्गवास मानती हैं। पुनः तित्योगाली में भी वहीं निर्दिष्ट है कि वीरनिर्वाण संवत् १७० में चौदह पूर्वो के ज्ञान का विच्छेद (क्षय) प्रारम्भ हुआ। भद्रबाहु ही अन्तिम १४ पूर्वधर थे- उनके बाद कोई भी १४ पूर्वधर नहीं हुआ। अतः भद्रबाहु का स्वर्गवास श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. १७० में और दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. १६२ ही सिद्ध होता है और इस आधार पर भद्रबाहु एवं स्थूलीभद्र की अन्तिम नन्द एवं चन्द्रगुप्त मौर्य से सम-सामयिकता तभी सिद्ध हो सकती है जब महावीर का निर्वाण विक्रम पूर्व ४१० तथा ई.पू. ४६७ माना जाये । अन्य अभी विकल्पों में भद्रबाहु एवं स्थूलीभद्र की अन्तिम नन्दराजा और चन्द्रगुप्त मौर्य से समकालिकता घटित नहीं हो सकती है। "तित्योगाली पइत्रयं" में भी स्थूलीभद्र और नन्दराजा की समकालिकता वर्णित है। ४२ अतः इन आधारों पर महावीर का निर्वाण ई. पू. ४६७ ही अधिक युक्ति संगत लगता है।
पुनः आर्य सुहस्ति और सम्प्रति राजा की समकालीनता भी जैन परम्परा में सर्वमान्य है । इतिहासकारों ने सम्प्रति का समय ई.पू. २३१२२१ माना है। ४३ जैन पट्टावलियों के अनुसार आर्य सुहस्ति का युग प्रधान आचार्यकाल वीरनिर्वाण सं. २४५ - २९१ तक रहा है। यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ को आधार बनाकर गणना करें तो यह मानना होगा कि आर्य सुहस्ति ई.पू. २८२ में युग प्रधान आचार्य बने और ई.पू. २३६ में स्वर्गवासी हो गये। इस प्रकार वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ में मानने पर आर्य सुहस्ति और सम्प्रति राजा में किसी भी रूप में समकालीनता नहीं बनती है किन्तु यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानते हैं तो आर्य सुहस्ति का काल ४६७ - २४५ ई.पू. २२२ से प्रारम्भ होता है। इससे समकालिकता तो बन जाती है- यद्यपि आचार्य के आचार्यत्वकाल में सम्प्रति का राज्यकाल लगभग १ वर्ष ही रहता है। किन्तु आर्य सुहस्ति का सम्पर्क सम्प्रति से उसके यौवराज्य काल में, जब वह अवन्ति का शासक था, तब हुआ था और सम्भव है कि तब आर्य सुहस्ति संघ के युग प्रधान आचार्य न होकर भी प्रभावशाली मुनि रहे हों। ज्ञातव्य है कि
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________________ 652 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आर्य सुहस्ति स्थूलीभद्र से दीक्षित हुए थे। पट्टावलियों के अनुसार नहीं है। क्योंकि इस आधार पर ई.पू.५२७ की परम्परागत मान्यता ई.पू. स्थूलिभद्र की दीक्षा वीरनिर्वाण सं. 146 में हुई थी और स्वर्गवास 467 की विद्वन्मान्य मान्यता दोनों ही सत्य सिद्ध नहीं होती है। अभिलेख वीरनिर्वाण 215 में हुआ था। इससे यह फलित होता है कि चन्द्रगुप्त एवं पट्टावली का समीकरण करने पर इससे वीरनिर्वाण ई.पू. 360 के मौर्य के राज्याभिषेक के 9 वर्ष पूर्व अन्तिम नन्द राजा (नव नन्द) के लगभग फलित होता है। इस अनिश्चितता का कारण आर्य मंगु के काल को राज्यकाल में वे दीक्षित हो चुके थे। यदि पट्टावली के अनुसार आर्य सुहस्ति लेकर विविध भ्रान्तियों की उपस्थिति है। की सर्व आयु 100 वर्ष और दीक्षा आयु 30 वर्ष मानें तो वे वीरनिर्वाण जहाँ तक आर्य नन्दिल का प्रश्न है, हमें उनके नाम का उल्लेख सं. 221 अर्थात् ई.पू. 246 (वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानने पर) में भी नन्दिसूत्र में मिलता है। नन्दिसूत्र में उनका उल्लेख आर्य मंगु के पश्चात् दीक्षित हुए हैं। इससे आर्य सुहस्ति की सम्प्रति से समकालिकता तो सिद्ध और आर्य नागहस्ति के पूर्व मिलता है।५० मथुरा के अभिलेखों में नन्दिक हो जाती है किन्तु उन्हें स्थूलीभद्र का हस्त-दीक्षित मानने में 6 वर्ष का (नन्दिल) का एक अभिलेख शक-संवत् 32 का है। दूसरे शक सं. 93 अन्तर आता है क्योंकि उनके दीक्षित होने के 6 वर्ष पूर्व ही वीरनिर्वाण के लेख में नाम स्पष्ट नहीं है, मात्र “न्दि" मिला है।५१ आर्य नन्दिल से 215 में स्थूलीभद्र का स्वर्गवास हो चुका था। सम्भावना यह भी हो का उल्लेख प्रबन्धकोश एवं कुछ प्राचीन पट्टावलियों में भी है-किन्तु कहीं सकती है कि सुहस्ति 30 वर्ष की आयु के स्थान पर 23-24 वर्ष में पर भी उनके समय का उल्लेख नहीं होने से इस अभिलेखीय साक्ष्य के ही दीक्षित हो गये हों। फिर भी यह सुनिश्चित है कि पट्टावलियों के उल्लेखों आधार पर महावीर के निर्वाणकाल का निर्धारण सम्भव नहीं है। के आधार पर आर्य सुहस्ति और सम्प्रति की समकालीनता वीरनिर्वाण अब हम नागहस्ति की ओर आते हैं- सामान्यतया सभी ई.पू. 467 पर ही सम्भव है। उसके पूर्व ई.पूर्व. 527 में अथवा उसके पट्टावलियों में आर्य वज्र का स्वर्गवास वीरनिर्वाण सं.५८४ में माना गया पश्चात् की किसी भी तिथि को महावीर का निर्वाण मानने पर यह है। आर्य वज्र के पश्चात् 13 वर्ष आर्य रक्षित, 20 वर्ष पुष्यमित्र और समकालीनता सम्भव नहीं है। 3 वर्ष वज्रसेन युगप्रधान रहे अर्थात् वीरनिर्वाण सं. 620 में वज्रसेन . इस प्रकार भद्रबाहु और स्थूलिभद्र की महापद्मनन्द और का स्वर्गवास हुआ। मेरुतुंग की विचारश्रेणी में इसके बाद आर्य निर्वाण चन्द्रगुप्त मौर्य से तथा आर्य सुहस्ती की सम्प्रति से समकालीनता 621 से 690 तक युगप्रधान रहे।५२ यदि मथुरा अभिलेख के हस्तहस्ति वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानने पर सिद्ध की जा सकती है। अन्य सभी ही नागहस्ति हों तो माधहस्ति के गुरु के रूप में उनका उल्लेख शक सं.५४ विकल्पों में इनकी समकालिकता सिद्ध नहीं होती है। अत: मेरी दृष्टि में के अभिलेख में मिलता है अर्थात् वे ई.सन् 132 के पूर्व हुए हैं। यदि महावीर का निर्वाण ई.पू. 467 मानना अधिक युक्तसंगत होगा। हम वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानते हैं तो उनका युग प्रधान काल ई. सन अब हम कुछ अभिलेखों के आधार पर भी महावीर के निर्वाण 154-223 आता है। अभिलेख उनके शिष्य को ई.सन् 132 में होने समय पर विचार करेंगे की सूचना देता है यद्यपि यह मानकर सन्तोष किया जा सकता है कि मथुरा के अभिलेखों४४ में उल्लेखित पाँच नामों में से नन्दिसूत्र युग प्रधान होने के 22 वर्ष पूर्व उन्होंने किसी को दीक्षित किया होगा। स्थविरावली४५ के आर्य मंगु, आर्य नन्दिल और आर्य हस्ति (हस्त यद्यपि इनकी सर्वायु 100 वर्ष मानने पर तब उनकी आयु मात्र 11 वर्ष हस्ति)- ये तीन नाम तथा कल्पसूत्र स्थविरावली४६ के आर्य कृष्ण और होगी और ऐसी स्थिति में उनके उपदेश से किसी का दीक्षित होना और आर्य वृद्ध ये दो नाम मिलते हैं। पट्टावलियों के अनुसार आर्य मंगु का उस दीक्षित शिष्य के द्वारा मूर्ति प्रतिष्ठा होना असम्भव सा लगता है। युग-प्रधान आचार्यकाल वीरनिर्वाण संवत् 451 से 470 तक माना गया किन्तु यदि हम परम्परागत मान्यता के आधार पर वीरनिर्वाण को शक है।४७ वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानने पर इनका काल ई.पू. 16 से ई० संवत् 605 पूर्व या ई. पू.५२७ मानते हैं तो पट्टावलीगत उल्लेखों और सन् 3 तक और वीरनिर्वाण ई.पू. 527 मानने पर इनका काल ई.पू. अभिलेखीय साक्ष्यों में संगति बैठ जाती है। इस आधार पर उनका युग 76 से ई.पू. 57 आता है। जबकि अभिलेखीय आधार पर इनका काल प्रधान काल शक सं.१६ से शक सं.८५ के बीच आता है और ऐसी शक सं. 52 (हुविष्क वर्ष 52) अर्थात् ई.सन् 130 आता है४८- अर्थात् स्थिति में शक सं.५४ में उनके किसी शिष्य के उपदेश से मूर्ति प्रतिष्ठा इनके पट्टावली और अभिलेख के काल में वीरनिर्वाण ई.पू. 527 मानने होना सम्भव है। यद्यपि 69 वर्ष तक उनका युग प्रधानकाल मानना सामान्य पर लगभग 200 वर्षों का अन्तर आता है और वीरनिर्वाण ई.प 467 मानने बुद्धि से युक्ति संगत नहीं लगता है। अत: नागहस्ति सम्बन्धी यह पर भी लगभग 127 वर्ष का अन्तर तो बना ही रहता है। अनेक पट्टावलियों अभिलेखीय साक्ष्य पट्टावली की सूचना को सत्य मानने पर महावीर का में आर्य मंगु का उल्लेख भी नहीं है। अत: उनके काल के सम्बन्ध में निर्वाण ई.पू.५२७ मानने के पक्ष में जाता है। पट्टावलीगत अवधारणा प्रामाणिक नहीं है। पुन: आर्य मंगु का नाम मात्र जिस पुनः मथुरा के एक अभिलेखयुक्त अंकन में आर्यकृष्ण का नाम नन्दीसूत्र स्थविरावली में है और यह स्थविरावली भी गुरु-शिष्य परम्परा की सहित अंकन पाया जाता है। यह अभिलेख शक संवत् 95 का है।५३ सूचक नहीं है। अत: बीच में कुछ नाम छूटने की सम्भावना है जिसकी पुष्टि यदि हम आर्यकृष्ण का समीकरण कल्पसूत्र स्थविरावली में शिवभूति के स्वयं मुनि कल्याणविजयजी ने भी की है।४९ इस प्रकार आर्य मंगु के बाद उल्लिखित आर्यकृष्ण से करते है५४ तो पट्टावलियों एवं अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर महावीर के निर्वाण काल का निर्धारण सम्भव विशेषावश्यक भाष्य के आधार पर इनका सत समय वीरनिर्वाण सं.६०९
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________________ भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार 653 के आस-पास निश्चित होता है५५ क्योंकि इन्हीं आर्यकृष्ण और शिवभूति निर्वाण काल को ई.पू. 467 मानने की ही पुष्टि करते हैं। ऐसी स्थिति के वस्त्र सम्बन्धी विवाद के परिणामस्वरूप बोटिक निह्नव की उत्पत्ति हुई में बुद्ध निर्वाण ई.पू. 482. जिसे अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों ने मान्य थी और इस विवाद का काल वीरनिर्वाण संवत् 609 सुनिश्चित है। किया है, मानना होगा और तभी यह सिद्ध होगा कि बुद्ध के निर्वाण के वीरनिर्वाण ई.पू.४६७ मानने पर उस अभिलेख काल का 609- लगभग 15 वर्ष पश्चात् महावीर का निर्वाण हुआ। 467=142 ई. आता है। यह अभिलेखयुक्त अंकन 95+ ७८=१७३ई. का है। चूंकि अंकन में आर्यकृष्ण को एक आराध्य के रूप में अंकित सन्दर्भ करवाया गया है। यह स्वाभाविक है कि उनकी ही शिष्य परम्परा के किसी 1. (अ) णिव्वाणे वीर जिणे छव्वाससदेसु पंचवरिसेसु। पणमासेसु आर्य अर्ह द्वारा ई.सन् 173 में यह अंकन उनके स्वर्गवास के 20- गदेसु संजादो सगणिओ अहवा।।-तिलोयपण्णत्ति, 4/1499. (ब) पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया। परिणिव्वुअस्सअरिहतो सो उण्णण्णो सगो राया।।-तित्थोगाली सकता है, अन्य किसी विकल्प से इसकी संगति बैठाना सम्भव नहीं है। पइन्नय, 623 मथुरा अभिलेखों में एक नाम आर्यवृद्धहस्ति का भी मिलता 2. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहास पर विशद है। इनके दो अभिलेख मिलते हैं। एक अभिलेख शक सं.६० (हुविष्क प्रकाश, श्री वीरशासन संघ, कलकत्ता, 1956, पृ. 26-44, वर्ष 60) और दूसरा शक सं. 79 का है।५६ ईस्वी सन् की दृष्टि से 45-46 ये दोनों अभिलेख ई.सन् 138 और ई.सन् 157 के हैं। यदि ये वृद्धहस्ति 3. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, ही कल्पसूत्र स्थविरावली के आर्यवृद्ध और पट्टावलियों के वृद्धदेव हों प्रकाशक क.वि. शास्त्र समिति, जालौ (मारवाड़), पृ. 159 तो पट्टावलियों के अनुसार उन्होंने वीरनिर्वाण 695 में कोरंटक में प्रतिष्ठा 4. तित्थोगाली पइन्नयं (गाथा 623), पइण्णयसुत्ताई, सं. मुनि करवाई थी।५७ यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू 467 मानते हैं तो यह काल पुष्यविजय, प्रकाशक श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, 695-467-218 ई. आता है। अत: वीरनिर्वाण ई.पू. 527 मानता 400036 पर इस अभिलेखीय साक्ष्य और पट्टावलीगत मान्यता का समीकरण ठीक 5. तिलोयपण्णत्ति, 4/1499 सं. प्रो. हीरालाल जैन, जैन बैठ जाता है। पट्टावली में वृद्ध का क्रम २५वाँ है। प्रत्येक आचार्य का संस्कृतिरक्षक संघ शोलापुर, औसत सत्ता काल 25 वर्ष मानने पर इनका समय वीरनिर्वाण ई.पू. मानने 6. कल्पसूत्र, 147, पृ. 145, अनुवादक माणिकमुनि, प्रकाशकपर भी अभिलेख से वीरनिर्वाण 625 आयेगा और तब 625- सोभागमल हरकावत, अजमेर 467=158 संगति बैठ जायेगी। 7. ठाणं (स्थानांग), अगुंसुत्तााणि भाग 1, आचार्य तुलसी, अन्तिम साक्ष्य जिस पर माहवीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण जैनविश्वभारती, लाडनूं 7/141 किया जा सकता है, वह है महाराज ध्रुवसेन के अभिलेख और उनका 8... भगवई, 9/222-229 (अंगसुत्ताणि भाग २-आचार्य तुलसी, काल। परम्परागत मान्यता यह है कि वल्लभी की वाचना के पश्चात् जैनविश्वभारती लाडनूं) सर्वप्रथम कल्पसूत्रकी सभा के समक्ष वाचना आनन्दपुर (बडनगर) में 9. आवश्यकनियुक्ति, 778-783 (नियुक्तिसंग्रह-सं. विजयजिनसेन महाराज ध्रुवसेन के पुत्र-मरण के दुःख को कम करने के लिये की गयी। सूरीश्वर, हर्षपुष्पामृत, जैनग्रन्थमाला, लाखा बाखल, सौराष्ट्र, यह काल वीरनिर्वाण सं. 980 या 993 माना जाता है।५८ ध्रुवसेन के 1989) अनेक अभिलेख उपलब्ध हैं। ध्रुवसेन प्रथम का काल ई.सं. 525 से 10. तिलोयपण्णति, 4/1496-1499 550 तक माना जाता है।५९ यदि यह घटना उनके राज्यारोहण के द्वितीय 11. धवला टीका समन्वित षट्खण्डागम, खण्ड-४ भाग-१, पुस्तक वर्ष ई. सन् 526 की हो तो महावीर का निर्वाण 993-526=469 9 पृ० 132-133 ई.पू. सिद्ध होता है। 12. कल्पसूत्र (मणिकमुनि, अजमेर), सूत्र 147, पृ० 145 इस प्रकार इन पाँच अभिलेखीय साक्ष्यों में तीन तो ऐसे अवश्य 13. तित्थोगालीपइन्नयं (पइण्णयसुत्ताई), 621 / / हैं जिनसे महावीर का निर्वाण ई.प. 467 सिद्ध होता है। जबकि दो ऐसे 14. एवं च श्री महावीर मुक्तैर्वर्षशते, पंच पंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्त्रपः।। हैं जिनसे वीरनिर्वाण ई.पू. 527 भी सिद्ध हो सकता है। एक अभिलेख परिशिष्टपर्व, हेमचन्द्र, सर्ग, 8/339 (जैनधर्म प्रसारक संस्था का इनसे कोई संगति नहीं है। ये असंगतियाँ इसलिए भी है कि पट्टावलियों भावनगर) में आचार्यों का जो काल दिया गया है उसकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध है 15. ज्ञातव्य है चन्दुगुप्त मौर्य को वीरनिर्वाण सं० 215 में राज्यासीन और आज हमारे पास ऐसा कोई आधार नहीं है जिसके आधार पर इस मानकर ही वीरनिर्वाण ई०पू० 527 में माना जा सकता है, किन्तु असंगति को समाप्त किया जा सके। फिर भी इस विवेचना में हम यह उसे वीरनिर्वाण 155 में राज्यासीन मानने पर वीरनिर्वाण ई०पू० पाते हैं कि अधिकांश साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्य महावीर के 467 मानना होगा। 16. Jacobi, V. Harman--Buddhas und Mahaviras Nirvana
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________________ 653 आ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 50 und diepolitischeEntwicklung Magadhas ZuJerier Zeit, 39. धवला टीका समन्वित षट्खण्डागम, खण्ड-४, पुस्तक-९ 557. पृ०१३२,१३३ 17. Charpentier Jarl-- Uttaradhyayanasutra, Introduction 40. (अ) मुनि कल्याणविजय- पट्टावलीपरागसंग्रह, पृ०५२ मुनिजी p.13-16. द्वारा किये गये अन्य परिवर्तनों के लिये देखें पृ० 4918. अनेकान्त, वर्ष 4 किरण 10, शास्त्री ए शान्तिराज-- भगवान महावीर के निर्वाण सम्वत् की समालोचना (ब) मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण, संवत् और जैन कालगणना. 19. Indian Antiquary, Vol. XLVI, 1917, July 1917, Page पृ० 137 151-152, Swati Publications, Delhi, 1985. 41. ज्ञातव्य है कि मुनिजी द्वारा एक ओर सम्भूति विजय के काल को 20. The Joumal of the royal Asiatic Society, 1917, आठ वर्ष से साठ वर्ष करना और दूसरी ओर मौर्यों के इतिहास Vankteshvara, S.V.--The Date of Vardhamana, p. 122- सम्मत 108 वर्ष के काल को एक सौ साठ वर्ष करना केवल 130. अपनी मान्यता की पुष्टि का प्रयास है। 21. मुख्तार जुगलकिशोर--"जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद 42. तित्थोगालीपइन्नयं--पइण्ण सुत्ताई। 793, 794 प्रकाश", श्री वीरशासन पृ० 26-56 43. डॉ० रामशंकर त्रिपाठी प्राचीन भारत का इतिहास, पृ० 139 / 22. मुनि कल्याणविजय-- वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, 44. (अ) जैनशिलालेख संग्रह, भाग 2, क्रमांक 41, प्रकाशक क०वि० शास्त्र समिति जालौर, वि०स० 1987 54,55,56,59,63 / / 23. Eggermont, P.H.L.-- "The Year of Mahavira's Decease". __आर्यकृष्ण (कण्ह) के लिये देखें-- V.A. Smith-- 24. Smith, V.A.--The Jaina Stupa nad other Antiquities of Thejain Stupa and other Antiquities of Mathura, Mathura, Indological Book House, Delhi, 1969, p. 14. p.24 25. Norman, K.R.--Observations on theDates of theJina and 45. नन्दीसूत्र रथविरावली, 27, 28, 29 the Buddh. 46. कल्पसूत्र स्थविरावली (अन्तिम गाथ भाग) गाथा 1 एवं 4 26. दीघनिकाय, सामअफलसुत्तं, 2/1/7 47. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन काल गणना, 27. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैनकालगणना, जालौर, पृ० 122, आधार- युगप्रधान पट्टावलियाँ। पृ०४-५ 48. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, लेख क्रमांक 54 28. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण और जैनकालगणना, पृ० 1 49. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, 29. दीघनिकाय, सामञफलसुत्तं, 2/2/8 जालौर, पृ० 121 एवं 131 30. दीघनिकाय, पासादिकसुत्तं, 6/1/1 50. नन्दीसूत्र स्थविरावली, 27, 28 एवं 29 31. वही, 51. जैन शिलालेखसंग्रह, भाग, 2, लेखक्रमांक 41, 67 32. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैनकालगणना पृ०५ 52. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैनकालगणना, 33. (अ) Majumbar, R.C. Ancient India, p. 108 जालौर, पृ० 106 टिप्पणी (ब) डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी-- प्राचीन भारत का इतिहास पृ०१३९ 53. V.A Smith, The Jian Stupa and other Antiquities of 34. तित्थोगाली पइन्नयं, 78 (पइण्णय सुत्ताई, महावीर विद्यालय, Matura, p. 24 बम्बई) 54. कल्पसूत्र स्थविरावली (अन्तिम गाथा भाग), गाथा 1 35. विविधगच्छीय पट्टावलीसंग्रह (प्रथम भाग) जिनविजय जी 55. विशेषावश्यकभाष्य 36. वीरनिर्वाण सम्वत् और जैन काल गणना मुनि कल्याणविजय, 56. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग 2, लेख क्रमांक 56, 59 पृ०१७८ 57. मुनि जिनविजय, विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह, प्रथम भाग, 37. परिशिष्ट पर्व, हेमचन्द्र, 8/339 पृ०१७ 38. (अ) पट्टावलीपरागसंग्रह--मुनि कल्याणविजयजी 58. कल्पसूत्र (सं माणिकमुनि, अजमेर) 147 (ब) विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह-- प्रथमभाग सम्पादक-- 59. गुजरात नो राजकीय अने सांस्कृतिक इतिहास ग्रन्थ 3, वी० जे० जिनविजय, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीइ, भारतीय इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद-९, पृ० 40 विद्याभवन, बम्बई, प्रथम भाग पृष्ठ 17