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स्वतंत्रताका अर्थ
व्यावहारिक या सांसारिक किसी भी क्षेत्रमें स्वतंत्रताका निरपेक्ष अर्थ खोजना शक्य नहीं है। इसलिए जब हम स्वतंत्रताके अर्थके विषय में विचार करते हैं तब उसमें सापेक्ष दृष्टिसे ही विचार करना पड़ता है । देश स्वतंत्र हुआ है, हमने स्वतंत्रता प्राप्त की है, आदि कहना और उसका प्रचलित सामान्य अर्थ लेना कठिन नहीं है । इसी प्रकार स्वतंत्रताप्राप्तिके निमित्त होनेवाले ऊपरी फेरफार समझना और उसके निमित्त होनेवाले उत्सवको सफल बनानेमें दिलचस्पी लेना भी सहज है । परन्तु यह स्वतंत्रता हमारे जीवनको किस भाँति स्पर्श करती है, प्रत्येक व्यक्तिके जीवन के किन किन बन्द दरवाजोंको खोलती है और इस स्वतंत्रताजनित मुक्तिमेंसे किस प्रकारकी कर्त्तव्य-परतंत्रता अनिवार्य हो जाती है, यह समझना ज्यादा कठिन है और यही स्वतंत्रता का वास्तविक हृदय है ।
स्वतंत्रता प्राप्ति होनेका यह अर्थ तो स्पष्ट है कि हमें अंग्रेजी हुकूमत की परतंत्रता या विदेशी शासनकी गुलामी से मुक्ति मिली है। इसके साथ यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि हम लोग इस विदेशी शासन के पहले गुलाम थे य नहीं । अगर गुलाम नहीं थे तो किस अर्थमें और थे तो किस अर्थ में ? इसके साथ यह प्रश्न भी उठता है कि विदेशी शासनने इस देशपर गुलामी ही लादी और पोषी या स्वतंत्रता के बीज भी बोये ? ये प्रश्न और इसी तरहके दूसरे प्रश्न हमें भूतकालपर दृष्टि डालने के लिए बाध्य करते हैं। यूरोपके भिन्न भिन्न देशोंसे जिस समय विदेशी आये उस समयकी और जब अंग्रेजी शासन स्थापित हुआ उस समयकी स्थितिका विचार किया जाय और उसकी तुलना अँग्रेजी शासनके स्थापित होनेके बाद के समय से की जाय, तो हमें यह समझने में सरलता हो जायगी कि दोनोंकी स्थिति में कैसा और कितना
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धर्म और समाज
अन्तर था | इसके साथ यह भी समझना सरल हो जायगा कि अंग्रेजी शासनने किन किन विषयोंमें हमपर गुलामी लादी या उसका पोत्रण किया और किन किन विषयोंमें पुरानी गुलामीके बन्धनों का उच्छेद किया या वे ढीले 'किये। साथ ही साथ हमें यह भी समझमें आ जायगा कि विदेशी शासनने हमारी इच्छित स्वतंत्रताके बीजोंका इच्छा या अनिच्छासे, जानकर या बिना जाने, कितने परिणाममें वपन किया जिसके परिणामस्वरूप हमने स्वतंत्रता प्राप्त की और उनकी कृतार्थता एक या दूसरे रूपमें अनुभव की ।
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अँग्रेजी शासनकी स्थापनाके पहले देशका आर्थिक जीवन स्वतंत्र था । अर्थात् देशका कृषि उत्पादन, उसका बँटवारा, उद्योग-धंधे, कला-कारीगरी सभी व्यवसाय देशाभिमुख थे । इससे भयंकर से भयंकर दुष्कालोंमें भी पेट भरना ब्रिटिश शासन कालके सुकालके समय से सहज था । मानव जीवन के • मुख्य आधाररूप पशु-जीवन और वनस्पति- जीवन क्रमशः समृद्ध और हरेभरे थे जिनका ह्रास ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद उत्तरोत्तर होता गया और आज क्षीण अवस्थामें पहुँच गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि देशकी जनसंख्या काफी होते हुए भी जीवन को दृष्टिसे मानव समाज रक्त मांस और वीर्यहीन होकर सिर्फ हड्डीका ढाँचा भर रह गया है । अंग्रेजी शासन के पहले 'देशकी धार्मिक, सामाजिक और शिक्षाकी स्थितिका और उसके बादकी स्थितिका मिलान किया जाय तो पहले हमारी स्थिति एकदेशीय थी । देशमें धार्मिक वातावरण व्यापक और धन विपुल था, लेकिन उस वातावरण में जितनी परलोकाभिमुखता और भ्रामक क्रियाकाण्डकी प्रचुरता थी उतनी ही ऐहिक जीवन के सुलगते हुए और तत्काल हल माँगनेवाले प्रश्नोंके प्रति उदासीनता और पुरुषार्थ-हीनता थी ।
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श्रद्धाकी अति और अंधानुकरण, बुद्धि और तर्कके प्रकाशको सरलतासे अवरुद्ध कर देता था। समाज में स्त्री शक्ति उपेक्षित और सुषुप्त थी । उसको स्वातंत्र्य था तो सिर्फ गृह- संसारके जीवनको उज्ज्वल या क्षुब्ध करनेमें। वर्णव्यवस्थाका समग्र बल जाति-पांतिके असंख्य घेरोंमें तथा चौका-चूल्हे और ऊँच-नीच - की भावनाओंमें ही समाया हुआ था । ब्राह्मण और अन्य गुरुवर्ग और उनका पोषण करनेवाले इतर सवर्णोंकी जितनी महत्ता और महनीयता थी उतनी
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स्वतंत्रताका अर्थ
ही दलित और अस्पृश्य कहे जानेवाले लोगोंकी क्षुद्रता और निन्दनीयता रूढ हो गई थी। जीवनमें महत्त्वका भाग अदा करनेवाले विवाहके संबंध ऐच्छिक या गुणाश्रित शायद ही होते थे। गाँवोंमें ही न्याय करनेवाली और समाधान करानेवाली पंचायत व्यवस्था और महाजनोंकी पुरानी संस्थाओंमें सेवाके बदले सत्ताने जोर पकड़ लिया था ।
समस्त देश में शिक्षा सस्ती और सुलभ थी । लेकिन वह उच्च गिने जानेवाले वर्ण और वर्गको ही दी जाती थी और उन्हीं के लिए कुलपरंपरागत थी। दूसरी ओर देशका एक बहुत बड़ा भाग इससे बिल्कुल वंचित था और स्त्री-समाज तो अधिकांश विद्या और सरस्वतीकी पूजा में ही शिक्षा की इतिश्री समझता था । शिक्षा के अनेक विषय होनेपर भी वह ऐहिक जीवनमें उचित रस उत्पन्न नहीं करती थीं, क्योंकि उसका उद्देश्य परलोकाभिमुख बन गया था । उसमें सेवा करनेकी अपेक्षा सेवा देनेके भावोंका अधिक पोषण' होता था | ब्रह्म और अद्वैतकी गगनगामी भावनाएँ चिन्तनमें अवश्य थी परन्तु व्यवहार में उनकी छाया भी दृष्टिगोचर न होती थी । वैज्ञानिक शिक्षाका अभाव तो न था लेकिन वह सिर्फ कल्पनामें ही थी, प्रयोगके रूपमें नहीं ।
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राजकीय स्थिति विना नायककी सेनाकी भाँति छिन्नभिन्न हो रही थी । पिता-पुत्र, भाई-भाई और स्वामी सेवकमें राज्य सत्ताका लोभ महाभारत और गीता में वर्णित कौरव-पाण्डवों के गृह कलहको सदा सजीव रखता था । संपूर्ण देशकी तो बात ही क्या एक प्रांत में भी कोई प्रजाहितैषी राजा शायद ही टिक पाता था । तलवार, भाला और बंदूक पकड़ सके और चला सके, ऐसा कोई भी व्यक्ति या अनेक व्यक्ति प्रजाजीवन में गड़बड़ी उत्पन्न कर देते थे । परदेशी या स्वदेशी आक्रमणोंका सामना करनेके लिए सामूहिक और संगठित शक्ति निर्जीव हो चुकी थी । यही कारण था कि अंग्रेज भारतको जीतने और हस्तगत करनेमें सफल हुए ।
अंग्रेजी शासन के प्रारम्भसे ही देशकी संपत्ति विदेशमें जानी शुरू हो गई । यह क्रिया शासनकी स्थिरता और एकरूपताकी वृद्धिके साथ इतनी बढ़ गई: कि आज स्वतंत्रता प्राप्ति के उत्सवको मनानेके लिए भी आर्थिक समृद्धि नहीं रही । अंग्रेजी शासनका सबसे अधिक प्रभाव देशकी आर्थिक और औद्योगिक स्थितिपर पड़ा । यह सच है कि अंग्रेजी शासनने भिन्न भिन्न कारणोंसे रूढः
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धर्म और समाज
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और संकीर्ण धर्म-बलको पोषा है और उन्हें टिकाया भी है लेकिन साथ ही साथ इस शासनकी छायामें उन्हें वांछनीय वेग भी मिला है । भ्रमका स्थान विचारोंने, परलोकाभिमुख जड़ क्रियाकाण्डका स्थान जीवित मानव-भक्तिने काफी अंशों में ले लिया है । अंग्रेजी शासन कालमें तर्कवादको जो बल मिला है उससे जितना अनिष्ट हुआ है उससे कहीं ज्यादा श्रद्धा और बुद्धिका संशोधन हुआ है । ऊपरसे विचार करनेपर मालूम होता है कि अंग्रेजी शासन आनेके बाद जो नई शिक्षा और नई शिक्षा संस्थाओंका प्रादुर्भाव हुआ उससे पुरानी शिक्षाशैली और संस्थाओंको धक्का लगा । लेकिन अगर बारीकी से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि नई शिक्षा और शिक्षण संस्थाओंद्वारा ही भारतमें क्रान्तिकारी उपयोगी फेरफार हुए हैं । परदेशी शासनका हेतु परोपकारी था, या अपने स्वार्थी तंत्रको चलानेका था, यह प्रश्न व्यर्थ है । प्रश्न इतना ही है कि विदेशी शासनद्वारा प्रचलित शिक्षा, उसके विषय और उसकी शिक्षणसंस्थाएँ पहलेकी शिक्षाविषयक स्थितिसे प्रगतिशील हैं या नहीं ? तटस्थ विचारकका अभिप्राय प्रायः यही होगा कि प्रगतिशील ही है । इस शिक्षासे और विदेशियोंके सहवास तथा विदेश यात्रा से सामाजिक जीवन में काफी अन्तर पड़ गया है, इसे कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता | दलितों और अस्पृश्योंको जीवनके प्रत्येक क्षेत्र में बराबरी का दर्जा देने और उनको ऊँचा उठानेकी भावना प्रत्येक सवर्ण में दिनप्रतिदिन चल पा रही है । उसकी गति सेवाकी दिशा में चढ़ती जा रही है । अंग्रेजी शासनकी स्थापनाके बाद ही सम्पूर्ण देशकी अखंडता और एकरूपताकी कल्पना की जाने लगी है । उसके पहले सांस्कृतिक एकता तो थी लेकिन राजकीय एकता न थी । इसका सूत्रपात ब्रिटिश शासनकालमें ही हुआ है । छोटी बड़ी राजसत्ता के लिए आपसमें साँड़ोंके समान लड़नेवाले जमींदार, ठाकुर और राजामहाराजाओंको अंग्रेजी शासनने ही नकेल डालकर वशमें किया और जनताके जीवन में शान्ति स्थापित की । ब्रिटिशशासनने अपनी जड़ोंको मजबूत करनेके लिए इस देशमें जो कुछ किया है यद्यपि उसके अनिष्ट परिणाम भी कम नहीं है तो भी उसने लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया है और शिक्षा के दृष्टिबिन्दुको पूरा किया है । उसी प्रकार शिक्षण, व्यापार और प्रवासके लिए बड़े पैमानेपर जल और स्थलकी वाधाओंको दूर किया है। भारत और दूसरे देश जो ज्यादासे ज्यादा नजदीक आ गये हैं ।
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________________ स्वतंत्रताका अर्थ इसकी तुलनामें दूसरे अनिष्ट नगण्य हो गये हैं। ब्रिटिश शासनसे प्राप्त यह एक ही लाभ ऐसा है जिसमें स्वतंत्रताके सभी बीजोंक। समावेश हो जाता है। इस समय जो हमें स्वतंत्रता मिल रही है, उसके साथ साथ ब्रिटिश शासनमें पैदा हुए इष्ट और अनिष्ट दोनों तत्त्व हमें उत्तराधिकारमें मिल रहे हैं / अब अगस्तकी पन्द्रहवी तारीखके पश्चात् इमारे लिए स्वतंत्रताका क्या अर्थ हो सकता है, इसका विचार करनेका कर्तव्य हमारा है न कि अंग्रेजोंका / ऊपर की दृष्टिका अनुसरण करते हुए स्वराज्य प्राप्तिके मंगल-दिवसपर स्वतंत्रताका अर्थ संक्षेपमें इस प्रकार किया जा सकता है-(१) इतिहासका वफादार रहकर वर्तमान परिस्थितिका तटस्थ अवलोकन करके भावी मंगलनिर्माणकी दृष्टिसे जो अनेक फेरफार करने पड़ेंगे, उनको पूरा करने में पूर्ण उल्लास और रसका अनुभव करना, (2) जीवनके भिन्न भित्र क्षेत्रोंमें जो जुराइयाँ ओर कमियाँ है उनको दूर करने में कटिबद्ध होना, (3) प्रत्येक व्यक्ति या प्रजा अपनी प्राप्त-सिद्धिको सुरक्षित रक्खे और नई सिद्धियोंको प्राप्त करनेकी पूरी पूरी जबाबदारी उठानेकी और उसके लिए जीवन-दान करनेकी भावना पैदा करे। उपर्युक्त अर्थ हमें ईशावास्य ' के मूलमंत्रको मुद्रालेख बनानेके लिए प्रेरित करता है / वह मुद्रालेख यह है कि जो कोई व्यक्ति लम्बे और सुखी जीवनकी इच्छा करता है, उसे आवश्यक सभी कर्तव्योंको करना चाहिए। च्यक्ति और समष्टिके मधुर संबंध बनानेके लिए स्वकर्तव्यके फलका उपभोग त्यागपूर्वक करना चाहिए और दूसरोंके श्रमफलके लालचसे बचना चाहिए / 'ईशावास्य' के मंत्रका उक्त सार धर्म, जाति, अधिकार और संपत्तिके स्वामियोंसे स्वराज्यप्राप्तिके इस दिवसपर कहता है कि आप सत्ताके लोभसे अपने हकोंको आगे न रखकर मनताके हितमें अपना हित समझें / अगर इस तरह नहीं होगा तो यह अंग्रेजोंके शासनके समयसे भी ज्यादा भयंकर अराजकता पैदा करनेवाला होगा और हम विदेशी आक्रमणको आमंत्रण कर स्वयं ही गुलाम बन जायेंगे। 'प्रबुद्ध जैन' अनुवादकमोहनलाल खारीवाल