Book Title: Suvihitagrani Gandhish Sukhsagarji
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/212214/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहिताग्रणी गणाधीश सुखसागरजी का जीवन परिचय [ लेखक-अगरचन्द नाहटा ] महापुरुषों का नाम स्मरण ही महामाङ्गल्यप्रद माना ग्रन्थों को रचना की थी। आपके शिष्य धर्मानन्दजी के शिष्य जाता है । जन साधारण के जीवनस्तर को ऊँचा उठाने राजसागरजी से चरित्रनायक ने दीक्षा ग्रहण की थी और में महापुरुषों का जीवनचरित्र जितना उपयोगी होता है, उनके शिष्य ऋद्धिसागरजी के शिष्य के रूप में आप अन्य कोई भी साधन नहीं होता । शास्त्रवाक्य मार्ग दिखाते प्रसिद्ध हैं । हैं और उन आदर्शो के उदाहरण महापुरुष अपनी जीवनी स्वर्गीय मुनिवर्य श्रीसुखसागरजी का जन्म सं० १८७६ द्वारा उपस्थित करते हैं । अत: उनसे अधिक एवं सद्यः में सरस्वती पत्तन ( सरसा ) नामक स्थान में हुआ था । प्रेरणा मिलना स्वाभाविक है। यही कारण है कि प्रत्येक आपके पिताजीका नाम मनसुखलालजी व मातुश्री का नाम आस्तिक व्यक्ति महापुरुषों के नाम स्मरण, भक्ति एवं जेती बाई था। ओसवाल जाति के दूगड़ गोत्र के आप पूजादि द्वारा अपने को कृतकृत्य होने का अनुभव करता है। रत्न थे। आपके यौवनावस्था में प्रवेश से पूर्व ही माता __ जैन धर्म में समय-समय पर अनेक महापुरुष हुए हैं। पिता दोनों का वियोग हो गया । अत: अपनी बहन के जिनमें से कइयों का प्रभाव तो अपने समय तक ही अधिक आग्रह से ये जयपुर में आ गये, व गोलछा माणिकचन्दजी रहा और कइयों के दीर्घकाल तक उनके शिष्य सतंतिद्वारा लक्ष्मीचन्दजी की सहायता से किरियाणे का व्यापार करने लोकोपकार होता रहा है। यहाँ जिन महापुरुषों का परि- लगे। थोड़े समय में ही अपनी व्यवहार कुशलता से आप चय कराया जा रहा है वे द्वितीय प्रकार के हैं। उनकी उनके यहां मुनीम जैसे उत्तरदायित्व पूर्ण पद पर सुशोभित पुण्य परम्परा में आज भी दर्जन से अधिक साघव २०० हा गय । के लगभग साध्वियों का विशाल समुदाय विद्यमान है। बाल्यावरथा से ही आपकी रुचि धर्मध्यान की ओर जो कि स्थान-स्थान पर विहार कर स्वपरोपकार कर रहे विशेष थी। इसी से पिताजी के अनुरोध करने पर भी हैं। इन महापुरुष का शुभ नाम मुनिवर्य सुखसागरजी आपने विवाह करना स्वीकार नहीं किया था व सामायिक, था। श्वे. जैन समाज के सुविहित शिरोमणि जिनेश्वर- पूजा, तपश्चर्यादि में संलग्न रहते थे। सं० १९०६ में जयसूरिजी की संतति खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध है । इस पुर में मुनि श्रीराजसागरजी व ऋद्धिसागरजी का चातुर्मास गच्छ में १८वीं शती में जिनभक्तिसूरिजो आचार्य हो चुके हुआ। फलत: आपकी धर्मभावना के सींचन का शभन हैं। उनके शिष्य प्रीतिसागरजी के शिष्य अमृतधर्म के सुयोग प्राप्त हो गया । अपनी चढ़ती भावना से आपने शिष्य क्षमाकल्याणजी १६वीं शती के नामांकित विद्वानो में मुनिश्री से साध-धर्म स्वीकार करने को उत्कंठा प्रकट की। से है। आपने तत्कालीन शिथिलाचार से अपने को ऊंचा उन्होंने भी आपको वैराग्यवान व दीक्षा की उत्कट भावना उठाकर सुविहित मार्ग में नवचेतना का संचार किया था। वाला ज्ञात कर चातुर्मास होने पर भी आपके आग्रह को जनसाधारण के उपकार के लिये आपने अनेक उपयोगी स्वीकार किया। नियमानुसार अपने निकट सम्बन्धियों से Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NUG भद्रेश्वर (कच्छ) तीर्थ की दादाबाड़ी छोटा दादाजी, दिल्ली * श्रीइन्द्रदूगड़ चित्रित, श्रीजिनदत्त पूरिजी के जीवनवृत्त चित्र, कलकत्ता दादाबाड़ी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन प्रभाविका प्रवर्तिनी श्री विचक्षण श्री जी महाराज प्रवर्तिनीजी श्री वल्लभ श्री जी महाराज Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 126 ] चारित्र धर्म स्वीकार करने की अनुमति प्राप्तकर सांवत्सरिक आपका समुदाय हुआ। क्षमत क्षामणा के मांगलिक पर्व के दिन गुरुजी के पास एक बार आपने स्वप्न में मनोहर वाटिका में बछड़ों आपने दीक्षा ग्रहण की / दीक्षा का महोत्सव उपर्युक्त गोलछा के झुण्डसह गायों को विचरते हुए देखा जिसके फलस्वरूप परिवार ने किया। मुनिवर राजसागरजी ने प्रव्रज्या ग्रहण आपने भविष्य में साध्वी समुदाय का विस्तार होना बताया कराते हुए आपको मुनिश्री ऋद्धिसागरजी का शिष्य घोषित और आपकी यह भविष्यवाणी पूर्णरूपसे सिद्ध हुई / किया। जैनागमों के निरन्तर अध्ययन से आपके ज्ञान की वृद्धि ___ साध्वाचार को समुचित शिक्षा के अनन्तर मार्गशीर्ष हुई और जन साधारण के सुबोध के लिये आपने जीवाजीव, मास में आपको बड़ी दीक्षा भी हो गयी। अब आप जैन राशिप्रकाश (1910 में सैलाने से प्रकाशित) भाषा कल्पसिद्धान्त के विशेष अध्ययन में संलग्न हो गये और थोड़े ही सूत्र, 108 बोल, 62 मार्गणायंत्र, दशक, शतक, अष्टक समय में जेनागमों में दक्षता प्राप्त कर लो। एवं कई अन्य बोल-चाल के ग्रन्थों की रचना की। आगमवाचना के समय शास्त्रोक्त साधु जोवन से अपने इस प्रकार सुविहित मार्ग का पुनरुद्धार कर धर्मप्रचार अतः साध्वाचार को खप होने से आपने मुनि पद्मसागरजी पालन कर सं० 1942 के माघ वदि 4 शनिवार के प्रातः व गुणवन्तसागरजी के साथ गुरुजी से अलग होकर सं० काल फलौदी में अनशन द्वारा आप ध्यानपूर्वक स्वर्ग 1918 सिरोही में क्रिया-उद्धार कर लिया। तदनन्तर सुवि- सिधारे / हित मार्ग का प्रचार व तप संयम से अपनी आत्मा को . आप बड़े पुण्यशाली महापुरुष थे / यद्यपि आपकी भावित करते हुए सर्वत्र विहार करने लगे। अनुक्रम से विद्यमानता में 5 साधु व 14 साध्वियों का समुदाय ही तीर्थाधिराज शत्रुजय को यात्रा करके आप फलौदी हुआ पर वह क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हुआ और थोड़े समय पधारे। के अनन्तर ही साध्वियों की सं० 200 के लगभग पहुँच इधर साध्वीजी रूपधीजी की शिष्या उद्योतश्रीजी गई है। शिथिलाचार से सम्बन्ध विच्छेद कर सं० 1922 में फलौदी बीसवीं शती के खरतरगच्छीय विद्वान ग्रन्थकार व आयो / और आपको योग्य सुविहित गुरु जानकर आपसे क्रियापात्र योगिराज चिदानन्दजी ने शिवजीराम से अलग वासक्षेप लेकर आज्ञानुवर्तिनि हो गई। सं० 1924 में होकर पूज्य सुखसागरजी महाराज से अजमेर में उपस्थापना लक्ष्मी बाई दीक्षित होकर उनको लक्ष्मीश्रीजी के नाम से दोक्षा ग्रहण की थी। इससे उस समय आपके विशुद्ध शिष्या हो गयीं। सं० 1925 में भगवानदास श्रावक ने चारित्र की ख्याति कितनी अधिक थो, इसका भली भाँति गुरुश्री से दीक्षा ग्रहण की। और भगवानसागरजी के नाम परिचय मिलता है। से वे प्रसिद्ध हो गये। मुनि पद्मसागरजी फलौदी पधारने के ऐसे महापुरुष जैन संघ में अधिकाधिक अवतरित हों पूर्व ही अलग हो चुके थे अतः 3 साधु ओर 3 साध्वी का * यही हार्दिक अभिलाषा है /