Book Title: Sugan Battishi
Author(s): Samaypragnashreeji
Publisher: ZZ_Anusandhan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229370/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 पाठक रुघपति-कृत सुगणबत्तीशी ॥ अनुसन्धान ३२ 'सुगणवत्तीसी' नामनी मारवाडी भाषानी आ रचना, खरी रीते वैराग्यप्रेरक रचना छे. बुढापो एटले के वृद्धावस्था केटली वसमी होय छे, अने ते अवस्थामां माणसे केवी तो लाचारी तथा पराधीनता वेठवी पड़े छे, तेनुं हृदयवेधक बयान आ बत्तीसीमां थयुं छे. कोई एक वृद्ध मनुष्य पोतानी लाचारीनुं स्वमुखे वर्णन करतो जाय अने श्रोताओ दिग्मूढ बनीने ते सांभळता होय, तेधुं वातावरण आ वर्णन थकी नीपजाववामां कर्ताने धारी सफलता सांपडी शकी छे. आपणे थोडी वानगी चाखीए: सं. सा. समयप्रज्ञाश्री 'हुं जाणतो हतो के मने लाखेणी हीरो जड्यो छे, पण ए तो साव खोटो नीकयो ! में 'आ मारी ज छे' एम मानीने सरस युवती साथे लग्न कर्यां, ते घर पर कबजो लई लीधो घरवाळी बनीने अने पछी ( मारा ) धन पर मालिकी - हक जामतां ज मारा तरफथी मों फेरवी लीधुं !' (क. २-३). पहेला तो ए मने जमाड्या विना जमती पण नहीं एवीं पतिपरायण हत्ती, पण (धो हक हाथमां आवतां) हवे ते बधुं वीसरी बेठी छे ! (क. ४) हवे मारे माटे वे टंके मकाईनी खाटी घाटडी ज होय छे; मेवा मीठाई तो तेना पुत्र-पौत्रो माटे ज होय (क.५ छोकरा तो मारा ज; में ज मोटा कर्या ने हवे पोतानो धन-भाग ने छूटा थई गया छे; बहुओ पण मूळे खानदान हती, पण धन हाथमां आवतां ज पोताना पति (मारा पुत्रो) ने लई जुदी जती रही छे: मारा माटे ए दिशा बंध ! (क. ६--७) पहेलां तो ५ -७ गाऊनो पंथ रमतमां चाली नाखतो; ने हवे तो घरना आंगणा सुधी चालवानुं य अशक्य दीसे छे ! (क. १०). जीभ, नाक, कान, आंख बधी इन्द्रियोनी शक्ति ओसरी चुकी छे (क. ११-१४). घरना दरवाजे बेठो रहुं छं. मारी सत्ता बधी गुमावी बेठी लुं. हवे 'तमे शुं जमशो ? शुं पहेरशी ?' एटलं पण कोई पूछतुं नथी मने ! (क. १५). वाते वाते मारो साथ शोधनाएं स्वजनाने आजे तो मारी सामे जोतां ज सूग थाय छे ! (क. १६). संसारनी आ स्वार्थी रीत हुं न समज्यो लोभने लीधे, अने में जिनवाणी न ज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ June-2005 सांभळी ! (क. १७). हवे तो गोळमां पडेली माखी जेवो के पाणीमां डूबाडेल कंबल जेवो मारो घाट थयो छे ! हुं नोकळी शकुं नहिज. (क. १९-२०). 'नाजनुं धन नाजमां, व्याजनुं व्याजमां अने राजनुं राजमां' एवं ऊखाणुं तो सांभळेलु, पण लोभनो मार्यो हुं तेने अवगणतो ज रह्यो ! (क. २३). आम वैराग्यबोधक उपदेश छेक सुधी वर्णवायो छे, जे जीवनना वास्तवर्नु भान करावी जाय छे. ३२मी कडीमां 'सुगण- सुगुण जनने' समजाववा माटे आ वत्रीशी रची होवार्नु रचयिता रुघपति पाठक जणावे छे. 'पाठक रघुपति' ए मूळ नाम छे. ते स्थानकवासी अथवा तेरापंथी परम्पराना होय तेम अनुमान थाय छे. लेखन वर्ष सं. १८८६ छे, एटले ते पूर्वेनी आ रचना छे. मने जडेल एक पानांनी आ प्रत उपरथी आवड्युं तेवू सम्पादन करीने मोकल्युं छे. भूलचुक होय तो ध्यान दोरवा विद्वान् पुरुषोने प्रार्थना करूं छु. सुगणबत्तीसी ॥ सुगण बूढापो आवियौ, लखीयो नही भाई। रात दिवस दंधै रह्यो, केई कीध कमाई ॥१॥ सु. माहरी कर कर मानतो. मद धरतो मोटो । जांण्यो थी हीरो लाखरो, नींकलियो खोटो ॥२॥ सु० तरुणी परणी हाथरी, घरणी घर हेर्यो । धन ऊपर मन धारियौ, मासु मन फेर्यो ॥३॥ सु० जीम्यां विण नही जीमती, पति-भगति नारी । जी-जी करती जीमती, विधि तेह विसारी ॥४॥ सु० स्यं पालै बेटा पोतरा. मनगमत मेवे । मोनै खाटी घाठडी, दोय टंकै देवै ॥५|| सु० मोटा बेटा माहरा, मोसुं हुआ मोटा । ले ले धन लोंठापणे, सहु हूआ जूवा ||६|| सु० कुलवंती बेटाबहू धन दे दे आंणी । ले बेटा अलगी रही, कीधी दिस कांणी ॥७॥ सु० छोटो मो भेलो रह्यो, तेहनी पिण नारी । बोलै ओछा बोलडा, अजे नाई बारी ।।८।। सु० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 सागी वय बालक तणी, फिर पाळी आई । कहितां लागे कारिमौ, लकडी पकडाई ॥ सुर पांच सात कोसां तणी, कदे पंथ न गणीयां ! आज समो घरि अंगणी, मोसुं जाय न मिणीयां ॥ १० ॥ सु गाहा दूहा गीतडा, पढता अणपारे । हिवणां ते मुझ जीभडी, अप्यर न उचार ॥ ११ ॥ सु सुरंभ तेल चंपेलरी, करि देतो परिष्या । हिवणां लेखे माहरड़, सहि लागे सरिखा ||१२|| सु० नय हुं नग परखतो, निरखी घरनारी । दूरी ठीक न का पडे, मिटी ज्योति करारी || १३|| सु० राग रंग सुणतां समो, सुरसुं कहि देतो । कान लग्यो वातां करें, तौही होय न चेतो ||१४|| सुब् बारोडी बैठो रहुं, खिलवत सहु खोई स्युं खास्यों स्यों ओढस्यों, युं न कहै कोई ॥ १५ ॥ सु० सेंग संबंधी आपणा, पल पलमै मिलता । सूगालो हिव देखने, ते जायै टलता ||१६|| सु० स्वारथी यै संसाररी, मैं पैठ न जांणी । अनुसन्धान ३२ लोभ तर्णं बस लागर्ने, न सुणी जिनवांणी ॥ १७॥ सु० गति सारै मति ऊपजै, रागादिक रोधी । कोइक पछतावो करै, बुधवंत सुबोधी ॥१८॥ सु० सुघडपणै सुलइयो नही, भ्रम भूलो भाई । गुलमें माखी गड रही, नीकलन न पाई ॥ १९ ॥ सु० मौडी खबर पड़ी मुनें, कांई हिव कीजै । कांबल अतिभारण हुई, ज्युं ज्युं जलभीजै ॥२०॥ सु० पोसै पडकमण समै, न सक्यो परवारी । घर घर हुं रुलतो फिर्यो, क्रम बांध्या भारी ||२१|| सु० नाज तणौ धन नाजमै व्याजै व्याज अडायो । राज कमायो राजमै, नीसरण न पायो ||२२|| सु० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ June-2005 21 ए ओखाणो आगलौ, श्रवणे थौ सुणीयो । पिण तीन लालच लग्यां, गिणती नही गिणीयो ॥२३॥ स० कीधौ लोकारै कोयै, में पाप कमायो । आडो म्हार आवसी, चेती चितमाहे ॥२४॥ सु० पायो थौ माणसपणौ, निकमां नीगमीयौ । जाणे काग उड़ावतां, चिंतामण गमीयौ ।।२५।। सु० ममता लाग में कियौ, हं कहितौ माहरो । सो तो दीसै पारको, में पाप वधार्यो |२६|| सु० पाप कमायो पापर, लेखै सहु लागे । दरमाटी लागी दरै, स्युं सुणतो आगइ ॥२७॥ सु० ध्रम लेखै खरच्यो नही, में पइसौ हाथे । हिवणां सहु परवस थयो, स्युं चलसी साथे ॥२८॥ सु० धरम सखाई जीवरा, ते में हिव जांण्यो । पिण जाण्यां कासू हिवै, पहिली न पिछोण्यो ।।२९।। सु० एक घंडी आधी घडी, जिनवरने जापै । सरदहणा सुध राखतां, भवभ्रमणसु भाजै ॥३०॥ सु० इण भवमें अनुमोदनां, करतां निसतारो । ए श्रीजिनवर वचन छै, सिद्धांत संभारो ॥३१।। सु० सुगुणांने समझावणी, बत्तीसी एह ।। पाठक श्रीरुघपति कहै, सुणज्यो ससनेह ॥३२।। सु० इति श्रीसुगणबत्तीसा संपूर्ण ।। सं. १८८६ फा. व. ५ ।। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनसन्धान 32 कडी क्र. चरण क्र. اللہ , हेर्यो یہ ليه م >> सुगणबत्तीसी-शब्दकोश शब्द अर्थ दंधै धंधामां थी-' स्त्री-पत्नी हाथ कर्यु-कबजे कर्यु घाठडी मक्काई-छाशनी वानगी मो भेलो मारी भेगो मिणीयो मपावं (आंगणा सुधी जवू अशक्य) अणपारे अपार/घणां सुरंभ सुरभि-सुगंध सुरसुं सूर सहित के सूर उपरथी कर्म सरदहणा सदहणा-श्रद्धा निसतारों निस्तार करो / तरी जाव बारोडी बारी पासे/ बारणे रोत (?) ه م ه ه कम . ل م ا पैठ नाज م (?) . ل ओखाणो निकमां दरमाटी ऊखाणु नकामुं / व्यर्थ दरनी माटी سه