Book Title: Shikshan me Srujanatmakata
Author(s): Bhagwatilal Vyas
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षण में सृजनात्मकता 0 प्रो० भगवती लाल व्यास (हिन्दी विभाग, लोकमान्य तिलक शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, रा०वि० डबोक (उदयपुर) मनुष्य अपने जिन विशिष्ट गुणों के कारण पशु से पृथक समझा जाता है, सृजनात्मकता उनमें से एक है। इस क्षेत्र में हुए अनुसन्धानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी सीमा तक सृजनशील है। सृजनात्मकता मानव के आविर्भाव काल से ही सतत प्रवहमान है किन्तु औपचारिक रूप से शिक्षा एवं मनोविज्ञान के क्षेत्र में सृजनात्मकता सम्बन्धी चिन्तन और शोध का इतिहास तीन दशकों से अधिक पुराना नहीं है। सन् १९५६ में जे० पी० गिलफोर्ड ने अपने मॉडल स्ट्रक्चर आफ इन्टेलेक्ट द्वारा चिन्तन के दो आयामों---एकदेशीय तथा बहुदेशीयकी स्थिति स्पष्ट करते हुए सृजनात्मकता का सम्बन्ध बहुदेशीय चिन्तन से बतलाया था। बहुदेशीय चिन्तन का आशय ऐसे चिन्तन से है जिसमें व्यवित किसी समस्या पर लीक से हट कर सोचता है। गिलफोर्ड ने समस्या समाधान विषयक इस चिन्तन को ही सृजनात्मक चिन्तन कहा है । वस्तुतः मानव सभ्यता के विकास एवं प्रगति के मूल में यही सृजनात्मक चिन्तन रहा है क्योंकि मानव जीवनपर्यन्त समस्याओं से घिरा रहता है तथा उनका समाधान अपने ढंग से करता है। इस समस्या समाधान में जितनी नवीनता होगी वह व्यक्ति उतना ही प्रतिभासम्पन्न कहा जायगा। गिलफोर्ड के बाद सजनात्मकता की दिशा में कई विद्वानों ने उल्लेखनीय कार्य किया है। इनमें होरेन्स, टेलर, ट्यूमिन, मसलो, थार्नडाइक, रोजर्स, मूनी, मेडनिक, थर्सटन, बर्नर, वर्दमियर आदि विदेशी तथा सुरेन्द्रनाथ त्रिपाठी, बकर मेहदी, एम० के० रैना, टी० एन० रैना आदि भारतीय विद्वानों के नाम गिनाये जा सकते हैं। परिभाषा का संकट सृजनात्मकता की दिशा में इतना कार्य हो जाने पर भी इसकी कोई सर्वसम्मत परिभाषा दे पाना कठिन है क्योंकि सृजनात्मकता के घटकों के सम्बन्ध में सभी विद्वान एकमत नहीं हैं। अनास्तासी और शेफर ने सृजनात्मकता को एक बहुपक्षीय सम्प्रदाय कहा है। राल्फ हालमेन के अनुसार मानव जीवन का आशय विकास तथा व्यक्ति की अनिवार्य विशेषताओं का प्रत्यक्षीकरण है । यह स्वप्रत्यक्षीकरण अथवा आत्मसिद्धि ही सृजनात्मकता की समकक्ष है। इसी प्रकार टारेन्स, टेलर, सिम्सन आदि विद्वानों ने भी मानव-अस्तित्व तथा सृजनात्मकता के बीच एक अनिवार्य सम्बन्ध को स्वीकार किया है। टेलर ने सृजनात्मकता की लगभग एक सौ परिभाषाओं की एक बृहद् सूची भी प्रस्तुत की है परन्तु संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सृजनात्मकता मानव जीवन की सृजनात्मक अभिव्यक्ति है। सृजनात्मकता तथा मेधा कई वर्षों तक सृजनात्मकता तथा मेधा के एक ही वस्तु होने की भ्रान्ति बनी रही किन्तु इस दिशा में हुए 1 Guilford J. P. : An Informational Theory of Creative Thinking. Educational Trends-Vol. 8 No. 1-4, Jan-Oct, 1973. Regional College of Education. Ajmer. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षण में सृजनात्मकता ३६ ...........................................0000000000000000000000000 अनुसंधानों ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि ये दोनों भिन्न वस्तुएँ हैं । जो कार्य सृजनशील व्यक्ति आसानी से कर पाता है शायद मेधावी व्यक्ति के लिए उन्हें कर पाना सम्भव न हो। इसी प्रकार एक उच्च सृजनशील व्यक्ति की तुलना बीस कम सृजनशील व्यक्तियों से नहीं की जा सकती। फागन ने इस सम्बन्ध में अपने शोधकार्य द्वारा मेधा और सृजनशीलता के सम्बन्ध में बहुत निम्न सहसम्बन्ध की सृष्टि की है। सामान्य जीवन में भी हम देखते हैं कि सृजनशील व्यक्तियों की शैक्षिक अपलब्धियाँ नगण्य प्रकार की होती हैं। सृजनात्मकता के घटक जे० पी० गिलफोर्ड ने अपने स्ट्रक्चर आफ इन्टेलेक्ट में सृजनात्मक चिन्तन के अन्तर्गत प्रवाहिता, अनाग्रह, मौलिकता, विस्तार एवं संवेद्यता को सम्मिलित किया है।' प्रवाहिता जैसा कि प्रवाहिता शब्द से ध्वनित होता है, यह वह विशिष्ट योग्यता है जो चिन्तन के निर्बाध प्रवाह को इंगित करती है। गिलफोर्ड ने अपने अध्ययन में इसके चार प्रकारों का वर्णन भी किया है। वे हैं१. शाब्दिक प्रवाहिता ३. वैचारिक प्रवाहिता और २. अभिव्यक्तिपरक प्रवाहिता ४. साहचर्यात्मक प्रवाहिता। अनाग्रह शार्टर आक्सफार्ड इंगलिश डिक्शनरी के अनुसार अनाग्रह का शाब्दिक अर्थ है "अनाग्रही होने की क्षमता अर्थात अनुकूलन की क्षमता, कठोरता एवं कट्टरता से मुक्त होना तथा त्वरित एवं वैविध्यपूर्ण क्रियान्वयन ।" गिलफोर्ड के अनुसार अनाग्रह के भी दो प्रकार हैं १. स्वतःस्फूर्त अनाग्रह और २. अनुकूल अनाग्रह। मौलिकता मौलिकता से हमारा अभिप्राय सामान्यत: उस अभिव्यक्ति से है जो सामान्य से अथवा लीक से हटकर अपनी अलग पहचान देती है। संवेद्यता इसके अन्तर्गत व्यावहारिक समस्याओं को पहचानने की योग्यता, कमियाँ या बुराइयाँ आदि समझते हुए सुधार के उपाय सुझा सकने की क्षमता सम्मिलित है। विस्तार वस्तुओं को व्याख्यायित, परिभाषित, पुनर्परिभाषित करने की क्षमता विस्तार के अन्तर्गत आती है। सृजनात्मकता के सम्बन्ध में कुछ निष्कर्ष सृजनात्मकता के सम्बन्ध में अब तक हुए चिन्तन-मनन, शोध, अनुसंन्धानों आदि के परिणामों को ध्यान में रखते हुए हम निम्नांकित निष्कर्षों पर पहुँचते हैं - १. प्रत्येक व्यक्ति में सृजनात्मकता होती है। २. प्रत्येक व्यक्ति में सृजनात्मकता की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। ३. सृजनात्मकता के विभिन्न घटकों का विकास प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न होता है। ४. सृजनात्मकता का शिक्षण सम्भव है। ५. सृजनात्मकता का मापन सम्भव है। ६. उपयुक्त पर्यावरण प्रदानकर सृजनात्मकता को बढ़ाया जा सकता है। - 1 Taylor C. W. : Creativity - Progress and Potential, McGraw Hill Book Co. New York 1964. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : तृतीय खण्ड ७. सृजनशील व्यक्तियों के प्रति लोग सहज ही आकृष्ट होते हैं। ८. सृजनात्मकता का उत्पादन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। ६. सृजनात्मकता से सम्बद्ध गतिविधियाँ समाजोपयोगी होनी चाहिए। सृजनात्मकतासम्पन्न व्यवितयों के व्यक्तित्व-लक्षण सृजनात्मकतासम्पन्न व्यक्तियों के व्यक्तित्व-लक्षणों का पता लगाने के लिए गेजल्स तथा जेक्सन द्वारा सन् १६५८ में, मेक्नान द्वारा सन् १९६० में तथा टारेन्स द्वारा सन् १९६२ में अध्ययन किये गये । इसी प्रकार के अध्ययन रेड, किंग तथा विकवायर (१९५६) तथा डा० एम० के० रैना ने भी किये । प्रस्तुत निबन्ध के लेखक ने भी १९७३ में इस विषय पर कार्य किया। इन अध्ययनों में से पाल टारेन्स द्वारा उच्च सृजनात्मकतासम्पम्न व्यक्तियों पर किये गये अध्ययनों से जिन व्यक्तित्व-लक्षणों का पता चलता है उन्हें वे अपनी पुस्तक में इस प्रकार वर्णन करते हैं१. गहन अनुराग २४. लड़ाकू तथा निषेधात्मक वृत्ति अपनाना । २. सिद्धान्तों के प्रति आदरभाव २५. विचित्र आदतों को अंगीकार करना। ३. सदैव किसी न किसी चीज से कुण्ठित अनुभव २६. परिश्रमी तथा उद्यमी। करना। २७. दूसरों के विचारों को ग्रहण करने में उदार । ४. रहस्यों के प्रति आकर्षण । २८. अध्यवसायी। ५. कठिन कार्यों को करने का प्रयत्न । २६. कुछ अवसरों पर पीछे हटना। ६. आलोचना में रचनात्मक रुख । ३०. मानसिक गम्भीरतासम्पन्न होना । ७. साहसिकता ३१. कार्य के प्रति निश्चयात्मक रुख अपनाना । ८. विवेक बुद्धि तथा दृढविश्वास । ३२. पुरोगमिता का पक्षधर होना । ६. स्वास्थ्य सम्बन्धी मान्यताओं की उपेक्षा । ३३. भाग्यवादी होना (कुछ सीमा तक)। १०. विशिष्ट होने की आकांक्षा । ३४. अपने कार्य के प्रति ईमानदार । ११. संकल्प का धनी होना । ३५. अनावश्यक विस्तार से अरुचि । १२. जीवन मूल्यों में भिन्नता होना । ३६. अधिकार एवं शक्ति के प्रति अपरिग्रही १३. असन्तोष भाव । १४. प्रभुत्वाकांक्षी होना । ३७. अटकलबाजी (सट्टेबाजी) के प्रति रुचि । १५. छिद्रान्वेषी होना। ३८. साहसपूर्ण अस्वीकृति प्रकट करना। १६. दूसरों से भिन्न समझे जाने का भय नहीं होना । ३६. किसी सीमा तक असंस्कृत व्यवहार कर बैठना । १७. जो कुछ हो रहा है उसे पूरी तरह ठीक न ४०. कहने की बजाय करने में अधिक विश्वास समझना। होना। १८. एकान्तप्रियता। ४१. चंचलता तथा अस्थिरता। १६. अन्तर्मुखता ४२. हठी होना। २०. कार्य करने का असामान्य समय चुनना। ४३. दृष्टिसम्पन्न होना। २१. व्यापार एवं व्यवहारकुशलता का अभाव । ४४. खतरे मोल लेने की प्रवृत्ति (चुनौती झेलना)। २२. गलतियाँ करना। ४५. बहुमुखी प्रतिभासम्पन्नता । २३. ऊब महसूस न करना । ४६. अकृत्रिम तथा सहज व्यवहार का धनी होना। 1 2 Vyas B. L. : Personality Traits of Creative Children (M. Ed. Dissertation) 1973. Torrance E. P. : Guiding Creative Talent, Englewood Cliffs. N. J. Prentice Hall, 1962. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा में सृजनात्मकता ४१ . 'सृजनात्मकता का विकास कैसे करें ? जैसा कि पूर्ववर्ती अनुच्छेदों में स्पष्ट किया जा चुका है सृजनात्मकता का विकास सम्भव है क्योंकि यह किसी न किसी मात्रा में प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान रहती है। विद्यालय तथा कक्षा में विभिन्न विषयों के अध्यापन के दौरान सृजनात्मकता के विकास हेतु उपयुक्त अवसर ढूंढ़े जा सकते हैं। इस दिशा में विदेशों में कई प्रयोग किए गए हैं । टारेन्स द्वारा किये गए एक प्रयोग से निम्नांकित सिद्धान्त निरूपित किये जा सकते हैं :-१ १. कक्षा में बालकों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के प्रति चाहे वे प्रश्न कितने ही असामान्य क्यों न हों अध्यापक का रुख आदरपूर्ण होना चाहिए क्योंकि प्रश्न ही वह माध्यम है जिसके द्वारा बालक अपने अप्रकट को प्रकट करता है। २. बालकों द्वारा कक्षा में व्यक्त किए गए विचारों को प्रोत्साहित करना चाहिए। ३. बालकों को यह अनुभूति प्रदान करनी चाहिए कि उनके द्वारा पूछे गए प्रश्न अथवा व्यक्त किए गए विचार अध्यापक की दृष्टि में मूल्यवान हैं। ४. सृजनात्मकता योग्यता के विकास में सहायक क्रियाकलाप तत्काल मूल्यांकनीय नहीं होते अत: ऐसे क्रियाकलापों के लिए पर्याप्त समय देना चाहिए। ५. मूल्यांकन में कारण एवं परिणाम को संयुक्त करके देखा जाना चाहिए। सृजनात्मकता से सम्बद्ध विपरीत विचारधारा कल्याणकारी एवं लाभप्रद होने के साथ-साथ कभी-कभी भयंकर भी हो सकती है अतः इस दिशा में आवश्यक निरीक्षण, निर्देशन एवं परामर्श की आवश्यकता है । हरबर्ट जे० क्लासमेयर ने इस सम्बन्ध में निम्नांकित सिद्धान्त निरूपित किए हैं :-२ १. विभिन्न साधनों के माध्यम से मौलिक अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करना । २. समरूपता के स्थान पर नम्यता (अनाग्रह) को प्रोत्साहित करना । ३. सृजनात्मकता को प्रदर्शित करने के लिए आवश्यक समय देना । ४. छात्रों की उत्पादन-क्षमता को प्रोत्साहित करना। हिन्दी शिक्षण में सृजनात्मकता सृजनात्मकता के विकास की दृष्टि से अन्य विषयों की तुलना में भाषा अध्यापक कदाचित् अधिक लाभप्रद स्थिति में है। भाषा शिक्षक यदि अपने कक्षा-शिक्षण में जागरूक रहे तो वह निश्चय ही हर स्तर पर अपने छात्रों में सृजनात्मकता के विकास हेतु महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकता है। इसके लिए आवश्यक होगा कि : १. कक्षा का वातावरण प्रजातान्त्रिक हो । २. अध्यापक स्वयं सृजनात्मकतासम्पन्न हो । ३. छात्रों के अटपटे एवं असंगत उत्तरों के प्रति धैर्य का परिचय दे। ४. उच्च सृजनात्मकता-सम्पन्न बालकों को विशेष निर्देशन देने को प्रस्तुत रहे। ५. विद्यालय-वातावरण में भी सृजनात्मकता को स्थान मिले। ६. प्रधानाध्यापक तथा अन्य अध्यापक बन्धुओं का सहयोग प्राप्त हो। ७. अनुभवों की विविधता के लिए अवसर जुटाए जावें । 2 Torrance, E. P.: Rewarding Creative Behaviour, N. J. Prentice Hall Inc. Eoglewood Cliffs, 1965. Sharma, S. (Dr.): Hindi Shikshan men Srijanatmak Datta Karya'- A workshop ReportDeptt. of Extension Services, V. B. Teachers' College Udaipur, Rajasthan 1975. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड ८. दण्ड के स्थान पर पुरस्कार की नीति का अनुसरण किया जाए। ९. दायित्व निभाने के बजाय दाईत्व निभाने का रुख अपनाया जावे। सृजनात्मक अभिव्यक्ति विकास के कतिपय अभ्यास कार्य १. शीर्षक देना, दिए हुए शीर्षक में परिवर्तन सुझाना । २. संक्षिप्तीकरण एवं विस्तृतीकरण ।। ३. विधा-परिवर्तन (नाटक से कहानी, कहानी से नाटक, कविता से कहानी, कहानी से कविता आदि )। ४. नए-नए उपमा, रूपक आदि । ५. अपूर्ण कथा को पूर्ण करवाना । ६. समस्यामूलक प्रश्न (विशेष परिस्थिति में अनुभूति)। ७. कल्पनापरक प्रश्न (असंभव संभावनाओं से युक्त)। ८. शब्दों के खेल (छोटी कक्षाओं में) आदि । उपर्युक्त विवेचन के प्रकाश में अब कतिपय उदाहरणों द्वारा हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि हिन्दी-शिक्षण के समय छात्रों में सृजनात्मकता का विकास कैसे किया जाय ? प्राथमिक कक्षाओं में (कक्षा ३ के उदाहरण) कक्षा ३ में प्रायः बालकों को लिखकर तथा बोलकर अपनी भावाभिव्यक्ति करने की कुशलता का यत्किंचित् विकास हो जाता है अतः हम इसी कक्षा की पाठ्य-पुस्तक से कुछ उदाहरणों पर विचार करेंगे१. 'जो मैं कहीं मेघ बन जाता'-कविता आप बच्चों को पढ़ा चुके हैं। अब इसी आधार पर 'जो मैं कहीं फूल बन जाता' शीर्षक पर विचार कीजिए। २. ऐसे अधिक से अधिक शब्द लिखिए जिसके अन्त में "ता" आता हो । ३. ऐसे अधिक से अधिक वाक्य बनाइये जिनमें निम्नांकित शब्द-समूहों का उपयोग होता हो(अ) आँधी-ओले-वर्षा (इ) पानी-बाँध-सिंचाई (आ) बादल-बिजली-नदी (ई) दश-हित-सुख उच्च प्राथमिक कक्षाओं में (कक्षा ७ एवं ८ के उदाहरण) निबन्ध (काल्पनिक शीर्षक) . (अ) यदि पेड़-पौधे बोलने लगें। (इ) यदि सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो जाए। (आ) यदि मकान चलने-फिरने लगे। (ई) यदि आपके पढ़ने की भेज बोलने लगे। कहानी (अ) दी हुई रूप-रेखा के आधार पर कहानी का विकास । (आ) अधूरी कहानी को पूरा करना। विधा रूपान्तरण (अ) 'नंगे पैर' कहानी को एकांकी के रूप में लिखिए। (कहानी से एकांकी) (आ) 'अद्भुत बलिदान' एकांकी को कहानी के रूप में लिखिए । (कहानी से एकांकी) (इ) "पूजन' कविता को संवाद के रूप में लिखिए। (कविता से एकांकी) (ई) वीर जननी के हृदयोद्गार' शीर्षक लेख को एकांकी के रूप में लिखिए । (लेख से एकांकी) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा में सृजनात्मकता -. .-.-.-. -. -. -.-.- -. -.-. -.-.-. -. -.- .. नाध्यमिक कक्षाएं (कक्षा 6 के उदाहरण) 1. यदि ताजमहल की नींव में पड़ा हुआ कोई पत्थर बोलने लगे। (नींव की ईंट) 2. यदि बंशीधर पंडित अलोपीदीन से रिश्वत ले लेता तो कहानी का अन्त किस प्रकार होता ? (नमक का दारोगा)। 3. 'नमक का दारोगा' शीर्षक के स्थान पर कोई अन्य शीर्षक सुझाइये / (नमक का दारोगा) 4. जब दीपावली का त्यौहार आता है। 5. 'दीपावली के दीए' की आत्मकथा / 6. “भुलक्कड़ भाई साहब' की तरह 'फक्कड़ भाई साहब' शीर्षक पर एक लेख लिखिये / 7. श्री रेवतदान कल्पित ने वर्षा की उपमा बीनणी (दुल्हन) से दी है। आप वर्षा के लिए और कौन-कौन सी उपमाएँ सुझा सकते हैं ? 8. 'मरतु प्यास पिंजरा पर्यो सुआ समय के फेर / ' पंक्ति को ध्यान में रखते हुए बताइये कि यदि पिंजरे ___ में बन्द तोता बोल पाता तो अपनी व्यथा-कथा किस प्रकार सुनाता ? 6. 'कैकेयी का पश्चात्ताप' शीर्षक कविता में कवि ने कैकेयी द्वारा राम के समक्ष उसका पश्चात्ताप प्रकट करवाया है / यदि दशरथ उस समय जीवित होते और उन्हें भी अपना पश्चात्ताप प्रकट करना होता तो वे किन शब्दों में प्रकट करते ? 10. 'जसोदा कहाँ लौ कीजै कानि?'-पद में सूरदास ने गोपियों द्वारा यशोदा को कृष्ण की करतूतों का उलाहना दिलवाया है / यदि उस समय कृष्ण वहाँ उपस्थित होते तो अपनी सफाई किन शब्दों में देते ? अधिक से अधिक मुहावरे लिखिए तथा उनका स्वरचित वाक्यों में प्रयोग कीजिए(अ) मुँह से सम्बन्धित (इ) नाक से सम्बन्धित (आ) मूंछ से सम्बन्धित (ई) जानवरों से सम्बन्धित उपर्युक्त उदाहरणों में विस्तारभय से बानगी के तौर पर कुछ ही पाठ्यांशों पर विचार किया जा सका है किन्तु इसी तरह अन्य पाठ्यांशों पर सभी अध्यापक बन्धु स्वयं विचार कर सकते हैं। उपसंहार / उपर्युक्त पंक्तियों से स्पष्ट हो गया होगा कि यदि हम अपने दैनन्दिन शिक्षण में जागरूकता का परिचय दें तो बालकों में सृजनात्मकता के विकास की दृष्टि से अपरिमित कार्य किया जा सकता है। पाठ्य पुस्तक लेखकों, सम्पादकों तथा प्राश्निकों को भी इस दृष्टि से सोचना छात्रों के लिए हितकर सिद्ध हो सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि अनुभवों की विविधता यदि हम भौतिक धरातल पर उपलब्ध न कर सकें तब भी वैचारिक धरातल पर तो ऐसा किया ही जा सकता है, किया ही जाना चाहिए।