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शिक्षा एवं बेरोजगारी
डॉ० जी० एल० चपलोत परियोजना अर्थशास्त्री, जिला ग्रामीण विकास एजेन्सी, नारनौल (हरियाणा)
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शिक्षा एवं बेरोजगारी - दोनों शब्द एक दूसरे सर्वथा भिन्न हैं । न केवल ऊपरी रूप से देखने पर अपितु सभी दृष्टियों से देखने पर भी इन दोनों में नाम मात्र भी रिश्ता नहीं जान पड़ता किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि दोनों अत्यन्त घनिष्ट सम्बन्धी हैं और समय पड़ने पर और अनुकूल परिस्थितियों के आने पर प्रबल वेग से एक साथ ही फूट पड़ते हैं । इस तथ्य - 'जैसे-जैसे औद्योगिक विकास होता जाता है, कृषि पर निर्भर व्यक्तियों की जनसंख्या क्रमशः कम होते-होते उद्योग की तरफ उन्मुख होती है' को प्रमाणित करने के लिए आंकड़ों की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । इसी प्रकार यह भी एक सर्वमान्य सत्य है कि शिक्षितों की संख्या का बेरोजगारी से सीधा सम्बन्ध है जिसके उत्तरदायी कारण एवं प्रभावों का विवेचन आगे किया जा रहा है किन्तु इस के पहले यह जान लेना आवश्यक है कि हमारी शिक्षा कैसी है और इसका आधार क्या है। इस पर चिन्तन आवश्यक है ।
शिक्षा का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं होकर बालकों के सर्वांगीण विकास से है जो मानसिक, शारीरिक, नैतिक एवं चारित्रिक विकास से सम्बन्ध है । शिक्षा आर्थिक विकास एवं सामाजिक आधुनिकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उत्पादन के स्रोत में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। यह विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए आवश्यक संस्थान तथा योग्यता के व्यक्तियों को उपलब्ध कराती है । जनमानस में समुचित अभिरुचि, कुशलता तथा व्यक्तित्व की विशेषताओं को जमा कर विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करती है । सुविज्ञ एवं शिक्षित नागरिकता की रचना करके शिक्षा इसे सुनिश्चित करती है, में उन आधारभूत संस्थानों, जिन पर कि देश का आर्थिक एवं सामाजिक कल्याण निर्भर करता है, में किस प्रकार की कार्य प्रणालियाँ सफल सिद्ध होंगी। शिक्षा व्यक्ति को वैयक्तिक समृद्धि तथा सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिए प्रमुख साधन भी प्रदान करती है ।
शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति उसके उपयोगी होने में है। इसलिए शिक्षा एकांगी न होकर सर्वतोन्मुखी होनी आवश्यक है किन्तु हमारी शिक्षा प्रणाली केवल पुस्तकीय ज्ञान तक ही सीमित रही है। वर्तमान शिक्षा पद्धति भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना का परिचायक है जो कि लार्ड मैकाले के मस्तिष्क की देन है । इस पद्धति का प्रचलन इस कि देश में अंग्रेजी प्रशासन के संचालन के लिए अंग्रेजी जानने वाले अतः शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था इस प्रकार की गई कि सभी शिक्षित बना रहा । फलस्वरूप इस शिक्षा प्रणाली ने इतने लिपिक तैयार कर
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उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए किया गया था भारतीय लिपिक अथवा मुनीम तैयार हो सके भारतीयों का लक्ष्य सरकारी नौकरी करना ही दिये हैं कि स्वतन्त्र भारत में इन सबको स्थान देना कठिन हो गया है।
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड
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हालांकि कुछ सीमा तक आज भी हमारी शिक्षा सिद्धान्त एवं साहित्यप्रधान अवश्य है जो केवल कुछ साहित्यकारों एवं शिक्षाविदों की स्वतन्त्र विचारधारा तथा भारतीय संस्कृति के कारण है। इसके द्वारा विद्यार्थियों को ज्ञान तथा संस्कृति तो प्रदान की जाती है परन्तु उनके व्यक्तित्व एवं चरित्र के निर्माण का कोई प्रयत्न नहीं किया जा रहा है।
विश्वविद्यालयी स्तर तक केवल पुस्तकीय ज्ञान ही दिया जाता रहा है जिसमें विद्यार्थियों के जीवन सम्बन्धी व्यावहारिक ज्ञान का अभाव है और यही कारण है कि आजकल हमारी प्रचलित शिक्षा पद्धति के विरुद्ध देश के लगभग सभी भागों में आवाज उठाई जा रही है। आजकल विद्यार्थियों को जीवशास्त्र, समाजशास्त्र, नागरिकशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कानून तथा मनोविज्ञान की बड़ी-बड़ी पुस्तकें तो अवश्य पढ़ाई जाती हैं किन्तु वे व्यावहारिकता में इसके ज्ञान से बहुत दूर रहते हैं। जीवन प्राप्त करके कुछ भी उपक्रम का साहस तथा आत्म-विश्वास प्राप्त नहीं होता । साहित्य के अध्ययन मात्र में वह जीविकोपार्जन की कला नहीं सीख सकता।
प्रचलित शिक्षा प्रणाली के मुख्य तीन स्तर प्रारम्भिक, माध्यमिक तथा विश्वविद्यालय की शिक्षा, ये भी त्रुटिपूर्ण हैं । कुछ ही स्थानों को छोड़कर न तो प्रारम्भिक शिक्षा को अनिवार्य ही बनाया गया है और न ही इस देश के निवासियों के आर्थिक स्तर को देखते हुए निःशुल्क शिक्षा की ही व्यवस्था की गई है । यद्यपि अब शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन प्रायोगिक दृष्टि से अवश्य किये जा रहे हैं तथापि ये प्रणालियाँ भी अपने आप में पूर्ण नहीं हैं।
विदेशों में शिक्षा की ओर अत्यन्त ध्यान दिया जाता है। रूस में विद्यार्थियों को नि.शुल्क पढ़ाया जाता है और पुस्तकें भी राष्ट्र की ओर से ही मिलती हैं, विद्यार्थियों को सब प्रकार की सुविधाएँ दी जाती हैं, उससे उनकी बुद्धि के पूर्ण विकास में सहायता मिलती है। तकनीकी शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। हमारी शिक्षा पद्धति 'आधी तीतर और आधी बटेर' है। न तो हमने पूर्णतया भारतीय शिक्षा पद्धति ही अपनाई है और न यूरोपीय ही।
. बेरोजगारी की समस्या बहुत पुरानी है। तेजी से बढ़ती जा रही जनसंख्या की समस्या से भी विकासोन्मुख देश पीड़ित है, यहाँ यह समस्या अपना विकराल रूप धारण करती जा रही है । यदि इस समस्या का समाधान समय रहते नहीं किया गया और केवल पलायनवादी प्रवृत्ति से काम लिया गया तो देश का भविष्य क्या हो सकता है इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। रोजगारों का सृजन, श्रमबल की वृद्धि के साथ अभी तक गति नहीं बनाए रख सका है। शिक्षित तथा तकनीकी योग्यता-प्राप्त व्यक्तियों के बीच व्याप्त बेरोजगारी की स्थिति निरन्तर चिन्ता का विषय बनी हुई है । अभी हाल ही में प्रकाशित अनुमान के अनुसार बेरोजगारों की संख्या बढ़ते-बढ़ते एक करोड़ नौ लाख और चौबीस हजार तक पहुंच गई है।
१६७६ की तुलना में १९७७ में जहाँ बेरोजगारों की संख्या ११.६ प्रतिशत बढ़ी है, वहीं रोजगार में लगाये जाने वाले व्यक्तियों का अनुपात ६.७ प्रतिशत से घटकर ४.६७ प्रतिशत रह गया है। पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या का प्रतिशत भी १६७६ की तुलना में गत वर्ष बड़ा ही है ।
यह एक वर्ष की प्रगति के आंकड़े हैं। बेरोजगारों की सेना यदि इसी गति बढ़ती रही तो यह प्रतिशत आगे बढ़ता ही जायेगा । दस वर्ष के बाद इसका क्या विकराल स्वरूप प्रकट होगा, यह कल्पना करते ही रोंगटे खड़े होना एक स्वाभाविक बात है।
कितने व्यक्तियों के नाम रोजगार के विभिन्न कार्यालयों में पंजीकृत हैं, कितनों को रोजगार प्राप्त हुआ, इसका विवरण पेज ४६ की तालिका से स्पष्ट है
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वर्ष
१६७० १९७३
१६७४
१६७५
१९७६
पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या
४५.२
६१·५
नियोजन स्थिति ( संख्या लाखों में)
५१.८
५४.४
५६.२
रोजगार उपलब्ध
करवाया गया
४.५
५.२
४.०
४०
५०
शिक्षा एवं बेरोजगारी
४
४०.७
८२.२
८४.३
६३.३
६७८
+0+0+0+8
रोजगार के लिए प्रत्याशी
यद्यपि ये आंकड़े कुछ वर्षों पहले के हैं किन्तु इनसे स्पष्ट है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था में केवल ४-५ लाख व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध करवाने की क्षमता ही रही है। यदि इसकी तुलना जनसंख्या की वृद्धि दर से की जाये तो यह कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं है । जनगणना के महापंजीकार ने १९७२ में जो विशेषज्ञ समिति स्थापित की, उसने १६७१ की जनगणना के आधार पर १६८१ तक की जनसंख्या के बारे में संकेत दिये हैं। इसके अनुसार जनसंख्या की वृद्धि की दर जो आंकी गई है वह है १६.७६ प्रति हजार व्यक्ति किन्तु भारतीय रिजर्व बैंक बुलेटिनअनुपूरक- अक्टूबर, १९७७ के अनुसार यह वृद्धि दर २२ प्रति हजार व्यक्ति आंकी गई है, लगभग एक करोड़ से भी ज्यादा । कहाँ तो एक वर्ष में एक करोड़ की जनसंख्या में वृद्धि और कहाँ ४.५ लाख की रोजगार देने की क्षमता के आंकड़े । इस तथ्य के सन्दर्भ में रोजगार उपलब्ध करवाये गये व्यक्तियों की संख्या को यदि देखा जाये तो स्थिति विपरीत प्रतीत होती है। भविष्य का परिणाम स्पष्ट है।
इस शोचनीय स्थिति को अनुभव कर भूतपूर्व जनता सरकार ने आने वाले दस वर्षों में सभी को रोजगार पर लगा देने का आश्वासन दिया था किन्तु वह स्वयं देखते-देखते सत्ता से च्युत हो गई। वर्तमान इन्दिरा सरकार ने भी बेरोजगारी की समस्या से निजात पाने के लिए अनेक कार्यक्रम हाथ में लिये हैं, किन्तु भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रकाशित आँकड़ों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होगा कि पिछले कुछ समय से रोजगार उपलब्ध करवाये गये व्यक्तियों की संख्या में गिरावट आ रही है। यह एक शोचनीय स्थिति है ।
समस्या का समाधान
रोजगार दो प्रकार का हो सकता है— वेतनभोगी रोजगार तथा स्वरोजगार । केवल वेतन भोगी रोजगार अकेले ही इस स्थिति का मुकाबला पूरी तरह से नहीं कर सकता है क्योंकि इनके सृजन के लिए बहुत बड़े पैमाने पर निवेश के कार्यक्रम अपनाने पड़ते हैं जिनके लिए बहुत पूंजी की आवश्यकता रहती है। इसलिए जितना सम्भव हो सके उतने अधिक स्वरोजगार के अवसरों के सृजन के प्रयत्न करना आवश्यक है। विशेष रूप से कृषि, लघु उद्योग, व्यापार तथा वाणिज्य के क्षेत्रों में स्व-रोजगार की अभी बहुत क्षमता है ।
शिक्षा तथा रोजगार के बीच निकटतम सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि विद्यार्थियों की अभिरुचियों, कुशलताओं तथा व्यक्तित्व की उच्च विशेषताओं को सुनिश्चित किया जाय । आवश्यकता इस बात की भी है कि उचित पाठ्यक्रम और उपयुक्त शिक्षण पद्धतियों को अपनाकर विद्यार्थियों में ऐसे गुणों को भर दिया जाये जो सभी प्रकार के व्यवसायों से सम्बन्ध रखते हैं और अन्ततः उन्हें अधिक रोजगार प्राप्त करने और पर्यावरण के अधिक अनुकूल बनाने और उन्हें रोजगार में लग जाने में अधिक समर्थ बनायें। साथ ही यह भी आवश्यक है कि विद्यार्थियों को पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ उनके जीवनोपयोगी गुणों का विकास किया जाये। इसके लिए ऐसी संस्थाओं की आवश्यकता रहेगी जो चरित्र निर्माण, त्याग, अनुशासन और नैतिकता की शिक्षा दे सके। आजकल विद्यार्थी वर्ग क्यों
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________________ 0 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड .. .... moooooooooooooooooooo......................... असन्तुष्ट है ? विश्वविद्यालयों में हड़तालें क्यों होती हैं ? इसका प्रमुख कारण है---अनुशासनहीनता, बुरा आचरण और असन्तोष / इस असन्तोष का प्रमुख कारण प्रचलित शिक्षा प्रणाली है जो मात्र बेरोजगारी पैदा करती है। कितनी ही बातें ऐसी हैं जो कि इस स्थिति के लिए उत्तरदायी है। हमारी शिक्षा प्रणाली की अपनी कुछ कमजोरियां हैं। हमारी सामाजिक परम्परायें ऐसी रही हैं कि इनमें मेहनत के काम को नीची निगाह से देखा जाता है जिससे कि लोगों में सफेदपोश नौकरियों के लिए एक धुन सी सवार हो गई है। इन सबसे ऊपर एक कारण यह भी रहा है कि हमारे उद्यमकर्ता अल्पविकसित क्षेत्रों में जहाँ कि बेरोजगारी के असन्तुलन पर और जोर पड़ गया है, जाने से कतराते हैं। यही नहीं हमारे परम्परागत लघु उद्योग समाप्त हो रहे हैं। इन उद्योगों में लगे व्यक्तियों की सन्ताने थोड़ी-बहुत पढ़-लिख जाती हैं तो वह अपने पैतृक व्यवसाय को हेय दृष्टि से देखने लगती हैं और वे नौकरी की तलाश में शहरों की ओर भागते हैं। इससे शहरों पर आबादी का भार बढ़ता है तथा गाँव खाली होते रहते हैं / शहरों में भी नौकरी के अवसर सीमित हैं और वे भी बिना सम्पर्क, रिश्वत व जेक-जरिये के उपलब्ध नहीं होते, फलत निराशा व्याप्त होती है और ऐसे निराश व्यक्ति अन्त में अपराध जगत् की ओर बढ़ते हैं। ट्रेन डकैती, डाकुओं की संख्या में वृद्धि और अन्य प्रकार के अपराधों में बेरोजगारी का बहुत बड़ा हाथ है। पैतृक व्यवसाय भी पूंजी के अभाव से नष्ट हो रहे हैं। उन्हें कच्चा माल समय पर उपलब्ध नहीं होता, फिर बाजार में प्रतिस्पर्धा इतनी है कि उस माल का टिके रहना नितान्त असम्भव है। आधुनिकीकरण की ओर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है / खादी ग्रामोद्योग बोर्ड, उद्योग विभाग, बैंक, वित्त निगम, सहकारी समतियाँ आदि के माध्यम से पैतृक उद्योग-धन्धों को विकसित करने के लिए पर्याप्त प्रयास भी किये गये हैं, लेकिन शिक्षित पीढ़ी की अरुचि के कारण ये प्रयास सफल नहीं हुए हैं। तेजी से बढ़ती हुई आबादी पर अंकुश लगाना भी बेरोजगारी के समाधान का एक रास्ता है, किन्तु इन सबके मूल में शिक्षा है। जब तक शिक्षा व्यवस्था व्यावहारिक नहीं होगी तथा वह छात्रों को पैतृक रोजगार की ओर उन्मुख नही करेगी, श्रम की महत्ता को नहीं समझायेगी तथा लोगों को स्वावलम्बन का पाठ नहीं पढ़ायेगी तब तक पेरोजगारी के आंकड़े बढ़ते ही रहेंगे। वास्तव में शिक्षा और बेरोजगारी में कुछ तालमेल बैठाने के लिए एक गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। इसके समाधान के लिए न केवल सरकार ही उत्तरदायी है बल्कि देश का युवावर्ग, विद्यार्थीवर्ग, उद्यमीवर्ग तथा संस्थाओं की भी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं। जब तक एक साथ मिलकर समाधान नहीं किया जाता तब तक किसी एक मात्र का प्रयत्न अधूरा ही रह जायेगा तथा उसका कोई लाभ भी नहीं होगा।