Book Title: Shatdravya me Pudgal Dravya
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Z_Nanchandji_Maharaj_Janma_Shatabdi_Smruti_Granth_012031.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/212085/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિવય પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાબ્દિ સ્મૃતિગ્રંથ 'पद्रव्य में पुद्गल द्रव्य' महासतीजी श्री धर्मशीलाजी M. A. साहित्यरत्न Ph. D. जैन दर्शन में षट्द्रव्य, सात तत्त्व और नव पदार्थ माने गये हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये षट्द्रव्य हैं और जीव, अजीव, आस्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष यह सात तत्व हैं । इन सात तत्त्वोंमें पुण्य और पाप का समावेश करने से नवपदार्थ बन जाते हैं। इन्हीं नत्र का अंतरभाव जैन दर्शन के षद्रव्य में किया जा सकता है। पृथ्वी, अप, तेज, वायु इन चार द्रव्यों का समावेश पुद्गल द्रव्यों में होता है । षट्द्रव्य, सात तत्त्व और नवपदार्थमें मुख्य दो तत्त्व हैं । जीव और अजीब । इन्हीं के वियोग और संयोगसे सब तत्त्वों की रचना होती है। जीव का प्रतिपक्षी अजीव है। जीव चेतनवान, ज्ञान-दर्शन युक्त है तो अजीव अचेतन है । जीव और अजीव के अनेक भेद-प्रभेद हैं । परंतु हमें सिर्फ अजीव के प्रकारों में से पुद्गल - प्रकार पर विचार करना है । अजीव के पांच प्रकार हैं । (१) पुद्गल (Matter of energy ), ( २ ) धर्म (Medium of motion for soul and matter), (३) अधर्म (Medium of rest ), ( ४ ) आकाश (Space) और (५) काल (Time) । इन पांचों को रुपी और अरुपीके अंतर्गत समाविष्ट किया जाता है। पुद्गल रुपी हैं और धर्म, अधर्म आकाश और काल अरुपी हैं । रुपी को मूर्त और अरुपी को अमूर्त कहते हैं । छः द्रव्य में सबसे अधिक महत्वपूर्ण द्रव्य पद्गल और जीव हैं । अब पुद्गल पर ही कुछ विचार करेंगे । पुद्गल शब्द जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। विज्ञान जिसे (Matter) कहता हैं, न्याय वैशेषिक जिसे भौतिकतत्व कहते हैं, उसे ही जैन दर्शन ने पुद्गल कहा है । जो वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त है वह पुद्गल है। पुद्गल की व्याख्या उमास्वातिने तत्त्वार्थ सूत्र में अ. ५ सू. २३ में इसी प्रकार की है । 'स्पर्शरसगंधवर्णवन्तः पुद्गलाः' कुंदकुंदाचार्यने भी प्रवचन सार अ. २. गा. ४० में भी यही बात कही है । "वर्णरसगंधस्पर्शा विद्यन्ते पुद्गलस्य सूक्ष्मत्वात् । पृथिवीपर्यन्तस्य च शब्दः स पुद्गलचित्रः ।। ४० ।।” बौद्ध साहित्य में 'पुद्गल' शब्द 'आलयविज्ञान' 'चेतनासंतति' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पुद्गल परमाणु अनंत है । पुद्गल द्रव्य का शुद्ध स्वरुप परमाणु है। जिसका विभाजन नहीं होता उसे परमाणु कहते हैं। परमाणु शाश्वत है, नित्य है, ध्रुव है। जैन परिभाषा अनुसार अच्छेद्य, अभेद्य, अग्राहय, अदाह्य और अविभागी पुद्गल को परमाणु कहते हैं । तत्त्वार्थाधिगम सूत्रमें उमास्वातिने पुद्गल के २ प्रकार कहे हैं । “अणवः स्कन्धाश्व" अ. ५, सू. २५ पुद्गल अणु (Atomic) और स्कंध (Compound) रुप से दो प्रकार हैं । अणु अत्यंत सूक्ष्म होने से उनका उपयोग नहीं किया जा सकता। जो पुद्गल द्रव्य कारणरूप है, कार्यरुप नहीं वह अंत्य द्रव्य है । वही परमाणु है। उसका दूसरा विभाग नहीं होता है । उसका आदि, मध्य और अंत नही होता है। ऐसे अविभागी पुद्गल परमाणु को 'अणु कहते हैं । पुद्गल द्रव्य का दूसरा प्रकार स्कंध है। दो अणुओं से स्कंध बनता है । दो-तीन संख्याता असंख्याता और अनंत परमाणुके पिंड को ( समूह को ) भी स्कंध कहते हैं । द्वयणुक आदि स्कन्धों का विश्लेषण (Analysis) करने पर अणु आदि उत्पन्न होते हैं । अणु आदिके समूह ( Synthesis) से द्वयणुक आदि होते हैं । कभी-कभी स्कन्ध की उत्पत्ति विश्लेषण और संघात दोनों के प्रयोगसे होती है । ३६२ For Private Personal Use Only तत्त्वदर्शन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ }પૂજ્ય ગુરૂદેવ કવિલય પં. નાનાસજી મહારાજ જન્મશતાલિદ સ્મૃતિગ્રંથ अणु और स्कंध ये दोनों ही पुद्गलोंकी विशेष अवस्थाओंके नाम हैं। द्वयणुकादि स्कंधोंका विश्लेषण करनेपर अंत में पुद्गलों की अणु अवस्थामें पहुँचते हैं। अणुओंको मिलाने पर पुद्गलोंकी स्कन्ध अवस्थामें पहुँचते हैं । . पुद्गल वह है जिसमें पूरण और गलन ये दोनों संभव हैं। इसीलिए एक दूसरे स्निग्ध, रुक्ष, गुणयुक्त स्कन्धसे मिलता है वह पूरण हैं। एक स्कन्ध से कुछ स्निग्ध, रुक्ष, गुणोंसे युक्त परमाणु विच्छिन्न होते हैं वह गलन है । "पूरयन्ति गलन्तीती पुद्गलाः” पूरण और गलनक्रिया जिसमें है वह पुद्गल हैं । (माधवाचार्य-सर्व दर्शन संग्रह) पुद्गल में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण ये चारों ही गुण एक साथ रहते हैं। इन चारोंमें से किसीमें एक, किसीमें दो, किसीमें तीन ऐसा नहीं हो सकता। यह बात सत्य है कि, किसी में एक गुण की प्रमुखता होती है जिससे वह इन्द्रियगोचर हो जाता है और दूसरे गुण गौण होते हैं जिससे इन्द्रिचगोचर नहीं हो पाते। इन्द्रियगोचर नहीं होने से हम किसी गुणका अभाव नहीं मान सकते। आजके वैज्ञानिक हायड्रोजन और नायट्रोजन को वर्ण, गंध और रसहीन मानते हैं। यह कथन गौणता को लेकर है। दूसरी दृष्टि से इन गुणों को सिद्ध कर सकते हैं । जैसे ‘अमोनिया' एकांश हायड्रोजन और तीन अंश नायट्रोजन रहता है। अमोनियामें गंध और रस ये दो गुण हैं। इन दोनो गुणों की नवीन उत्पत्ति नहीं मानते क्योंकि यह सिद्ध है कि असत् की कभी भी उत्पत्ति नहीं हो सकती और सत् कभी भी नाश नहीं हो सकता इसलिए जो गुण अणु में होता है वही स्कन्ध में आता है। हायड्रोजन और नायट्रोजनके अंश से अमोनिया निर्मित हुआ है । इसलिए रस और गंध जो अमोनियाके गुण हैं बे गुण उस अंशमें अवश्य ही होने चाहिए। जो गुप्त गुण थे वे प्रकट हुए हैं। पुद्गलमें चारो गुंण रहते हैं। चाहे वे प्रकट हो या अप्रकट हो । पुद्गल तिन्हों कालोमें रहता है इसलिए सत् है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है। जैन दृष्टिसे कितनेही पुद्गल स्कन्ध संख्यात प्रदेशोंके, कितनेही असंख्यात प्रदेशोंके और कितने ही अनंत प्रदेशोंके होते हैं। सबसे बड़ा स्कन्ध अनंत प्रदेशी होता है और सबसे लघु स्कन्ध द्विप्रदेशी होता है। अनंत प्रदेशी स्कन्ध एक आकाश प्रदेशमें भी समा सकता है। और वही स्कन्ध संपूर्ण लोक में भी व्याप्त हो सकता है। पुद्गल परमाणु लोक में सभी जगह है। (उत्तराध्ययन अ. ३६-गा. ११) कागज के ढेर को आग लगने पर कागज नष्ट हो जाते हैं और राख उत्पन्न होती है । परन्तु इस उत्पत्ति और विनाशमें अथवा कागजको पर्यायों के नाश और राख की पर्यायों की उत्पत्तिमें परमाणु अपने रुपमें विद्यमान हैं । पर्यायें बदल गई, नाम और रुप-रंग बदल गया परन्तु परमाणु में अन्तर नहीं आया। इसलिए पुद्गल द्रव्य परमाणु के शुद्ध रुप में सदा सर्वदा बना रहता है। परमाणु शब्द रहित है। शब्द की उत्पत्ति दो पुद्गल स्कन्धों के संघर्ष से होती है। परमाणु स्कन्ध से रहित है। इसलिए वह शब्द से भी रहित है । वह एक है तो भी मूर्त हैं क्यों कि उसमें वर्ण, गंध, रस स्पर्श हैं। ये चारों गुण उसके एक प्रदेशमें रहते हैं । इसलिए परमाणु मूर्त है, साकार है। पुद्गल स्कन्धों का निर्माण परमाणुओंके समूह से होता है। यदि परमाणु मूर्त नहीं होगा तो उससे बने हुए पुद्गल स्कन्ध भी मूर्त नहीं हो सकते क्योंकि अमूर्त द्रव्य मूर्तद्रव्य नहीं बना सकता और मूर्त अमूर्त के रुपमें परिणमन नहीं हो सकता क्योंकि एक द्रव्य अपने स्वभाव को छोडकर परभावरुप दूसरे द्रव्यमें परिणत नहीं हो सकता। __ द्रव्यसंग्रहमें आचार्य नेमोचंद्रने लिखा है कि "पुद्गल एक अविभाग परिच्छेद्य परमाणु आकाशके एक प्रदेशको घेरता है। उसी प्रदेशमें अनंतानंत पुद्गल परमाणु भी स्थित हो सकते हैं।" परमाणु के बिभाग नहीं होते, हिस्से नहीं होते, परमाणु परस्पर जुड़ सकते हैं और पृथक् भी हो सकते हैं। किन्तु उसका अंतिम अंश अखंड है। परमाणु शाश्वत् परिणामी, नित्य, स्कंधकर्ता और भेता भी है। परमाणु कारण रुप है, कार्यरुप नहीं । वह अंतिम द्रव्य हैं । परमाणु पुद्गळ का एक विभाग है। कन्धों की स्थिति न्यून से न्यून एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात काल है। (भगवती सू ५/७) "स्कन्ध और परमाणु संतति की दृष्टि से अनादि अनंत है और स्थितिकी दृष्टिसे सादि-सान्त है।” (उत्तराध्ययन ३६/१३) अधिक से अधिक असंख्यात माल तरध्यन षद्न्य में पुदगल द्रव्य Jain Education Interational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - 'પચ ગદેવ ફવિવય પં. નાનયતજી મહારાજ જન્મશતાહિદ સ્મૃતિગ્રંથ जैन दार्शनिकों ने प्रकृति और ऊर्जाको पुद्गल पर्याय माना है। विज्ञान यही मानता है की, छाया, तम शब्द आदि य हैं । अंधकार और प्रकाश का लक्षण अभावात्मक न मानकर दृष्टि देश, प्रतिबंधकारक और विरोधी माना है। आधुनिक विज्ञान भी प्रकाशके अभाव रुप को अंधकार नहीं मानता । अंधकार पुद्गल की पर्याय है। प्रकाश पुद्गल से पृथक उसका अस्तित्व है। छाया पुद्गल की ही एक पर्याय है। प्रकाश का निमित्त पाकर छाया होती है। प्रकाश को आतप और उद्योत के रुपमें दो भागोंमें विभक्त किया है। सूर्यका चमचमाता उष्ण प्रकाश " आता" है। और वंद्रमा, जुगनू आदि का शीत प्रकाश "उद्योत" है। शब्द भी पौद्गलिक है। हम को जितने भी पदार्थ नेत्रोंसे दिखते हैं, स्पर्श होते हैं, चखनेमें आते हैं और सुनाई देते हैं, वे सब पुदगल पदार्थ है। शुद्ध पुद्गल परमाणु तो अतिसूक्ष्म होने मे इन्द्रियगोचर होता ही है। परंतु पुद्गल स्कन्धों में भी बहुत स्कन्ध ऐसे सूक्ष्म होते हैं जो नेत्र और इंन्द्रियद्वारा जानने में नहीं आते और बहुतपे स्कन्ध स्थूल होते हैं जो कि इंद्रियसे जाने जाते हैं। उन इंद्रियगोचर स्कन्धोमें भी दो प्रकार है। १) कुछ स्कन्ध अन्न, फल आदि तो ऐसे हैं, जो जोभ, नेत्र, नाक, कान और स्पर्श उन पांचो इंद्रियो द्वारा छुने, चखने, सुंधनें, सुनने और दिखने में आते हैं। २) परन्तु वायु आदि ऐसे स्कन्ध होते हैं जो दिखाई नहीं देते परन्तु छुनेमें आते है। शब्दरुप पुद्गलस्कन्ध ऐसे होते हैं, जो सुनने में आते हैं, जिनका स्पर्श, रुप इंद्रियो पर आघात होता है परंतु आँखों से दिखाई नहीं देते। प्रकाश और अंधकाररुप पुद्गलस्कन्ध आँखों से दिखाई देते हैं परन्तु नाक, कान, जीभ इत्यादि इन्द्रियद्वारा नहीं जाने जाते। धूप और चांदतोष परिणत होने वाले पुद्गल स्कन्ध, शीत, गर्भ रुपसे छूने में तया देखने में आते हैं परन्तु उनको पकडकर व तो स्थानांतर किया जा सकता है और न अन्य इंद्रियों उनको जान सकती है। इस तरह पुद्गल द्रब्य अनेक प्रकारका है। पुद्गल द्रव्य के विविध प्रकारके परिणमन विविध प्रकारके निमित्त कारगो द्वारा हुआ करते हैं। ऑक्सिजन और हायड्रोजन गैसों के मिल जानेसे पानी बन जाता है। पानी को अति ठंडी वायुका या अमोनिया गेस का निमित्त मिल जानेसे बर्फ बन जाता है। अग्नि की तथा सूर्य किरणोंकी गर्मी के निमित्तसे पानी भाप बन जाता है। भापसे बादल बन जाते है । पार्थिव लकडी तथा सोना, चाँदी, लोह आदि पार्थिव धातुएँ अग्निके निमित्तसे जलकर राख हो जाती है। समस्त धातुएँ पिघलकर अन्य आकार प्रकारोमें परिगत होती हैं। इसमें भी अग्नि निमित कारण होती है। इस तरह पुद्गल द्रव्यके विविध प्रकारके परिणमन में विविध प्रकारके निमित्त कारण सहायक होते हैं। "कार्य द्वारा पुद्गल का लक्षण" शरीर, वाणी, मन, निःश्वास, उच्छवास, सुख, दुख, जीवन, मरण यह पुद्गलके उपहार कार्य हैं। उमास्वातिने 'तत्त्वार्थाधिगम' सूत्र में यही बात कही है। 'शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ।। १९ । 'सुख दुःख जीवित मरणोपग्रहाश्च ।' २० । अ. ५ सू. १९।२० आँखों से जो जो दिखता है वह सब पुद्गल द्रव्य है। पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि, वनस्पति इत्यादि का शरीर, भोगोपभोगो के सब साधन पुद्गल के बने हैं । कहने का मतलब इंद्रिय ग्राह्य जितने भी पदार्थ हैं वे सब वर्ण, गंव, रस, स्पर्शयुक्त होने से मूर्त हैं, रुपी हैं। पौगिलक है। लोकाकाशके जितने भाग को एक परमाणु अवगाहित करता है उतने भाग को 'प्रदेश' कहा जाता है। किन्तु पुद्गल की स्वाभाविक अवगाहन-पंकोच-शक्ति के कारण लोकाकाश के एक प्रदेश में 'अन्त-प्रदेशों' (अनन्त परमाणुओंसे बना हुआ) स्कन्ध ठहर सकता है। समग्र लोकाकाशमें (जो कि असंख्यात प्रदेशात्मक है) अनंतानंत प्रदेशो स्कन्ध विद्यमान हैं। इस प्रकार द्रव्य संख्या की दृष्टिसे पुद्गल द्रव्य अनंत हैं, क्षेत्र की दृष्टिसे स्वतंत्र परमाणु एक प्रदेशका अवगाहन करता है और स्वतंत्र स्कन्ध एक से लेकर असंख्यात प्रदेशोंका अवगाहन करता है तथा समग्र पुद्गल द्रव्य समस्त लोक में व्याप्त है। काल की दृष्टिसे अनादि अनंत है । स्वरुप की दृष्टिसे वर्ण-स्पर्श आदि गुणोंसे युक्त मूर्त है। पुद्गल के बीस गुण है। स्पर्श-शीत, उष्ण, रुक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु और कर्कश । ३६४ तत्त्वदर्शन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VPh પ. નાનજી મહારાજ જન્મશતાદિ 2 रस--आम्ल, मधुर, कटु, कषाय और तिक्त / गन्ध–सुगन्ध और दुर्गन्ध / वर्ण-कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत / जैन साहित्यमें पुद्गल और परमाणुके स्वरूप और कार्य का स्क्ष्म से सूक्ष्म विवेचन है। जैन दर्शन के परमाणु सिद्धांतकी सचाई से प्रभावित होकर Dr. G. S. Mallinathan लिखते है कि "A student of science if reads the Jain treatment ot matter will be surprised to find many corresponding ideas. अर्थात एक विज्ञान का विद्यार्थी जब जैन दर्शनका परमाणु सिद्धांत पढता है तो विज्ञान और जैन दर्शनमें आश्चर्यजनक क्षमता पाता है। पण्डित माधवाचार्य का कथन है कि आधुनिक विज्ञान के सर्वप्रथम जन्मदाता भगवान महावोर थे। परमाणु पुद्गल वर्ण, गंध, रस, स्पर्श सहित होने से रुपी है। परंतु दृष्टिगोचर नहीं होते। ऐसे अनंत परमाणु पुदगल एकत्रित होने से स्कंध बनता है। वह भी कोई कोई दृष्टिगोचर नहीं होते है। जैसे कि भाषा का शब्द, गंध के पुद्गल, हवा के पुद्गल दृष्टिगोचर नहीं होते। परन्तु आज के विज्ञानने सिद्ध कर दिया है कि, वे पुदगल दृष्टिगोचर नहीं होते तो भी टेलिव्हिजन, रेडिओ, वायरलेस, टेलिफोन टेपरेकॉर्ड, टेलिप्रिंट, फोनोग्राफ के रेकार्ड में शब्दों को पकडकर संग्रहीत किया जाता है और वे शब्द सुनाई भी देते हैं। वे रुपी है इसलिए मशीन की सहायता से पकडे जाते हैं। यह जैन दर्शनने अनेक वर्षों पहले सिद्ध कर दिया है / जैन दर्शन के तत्त्व को विज्ञान के साथ में सिद्ध किया जाता है। अतः जैन तत्त्व विज्ञान-सिद्ध है। जैन दर्शन का त्रिविध साधना मार्ग -डॉ. सागरमल जैन जैन दर्शन में मोक्ष की प्राप्ति के लिये विविध साधना मार्ग बताया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् * दर्शन और सम्यक् चारित्र को मोक्ष मार्ग कहा गया है।' उतराध्ययन सूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक तप ऐसे चतुर्विध मोक्षमार्ग का भी विधान है, किन्तु जैन आचार्यों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में करके इस विविध साधना मार्ग को ही मान्य किया है। त्रिविध साधना मार्ग ही क्यों ? - सम्भवतः यह प्रश्न हो सकता है कि त्रिविध साधना मार्ग का ही विधान क्यों किया गया है ? वस्तुतः विविध साधना मार्ग के विधान में जैन आचार्यों की एक गहन मनोवैज्ञानिक सूझ रही हुई है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पहलु माने गये हैं। 1 ज्ञान 2 भाव और 3 संकल्प। चेतना के इन तीनों पक्षों के विकास के लिए त्रिविध साधना मार्ग के विधान का प्रावधान किया गया है। चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिये सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष के सही दिशा में नियोजन के लिए ज्ञान और संकल्षात्मक पक्ष के सही दिशा में नियोजन के लिये सम्यक् चारित्र का प्रावधान किया गया है। * विक्रम विश्वविद्यालय के जैन दर्शन सम्बन्धी सेमीनार में पठित निबन्ध / जैन दर्शन का त्रिविध साधना मार्ग 365