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शहडोल जिले को प्राचीन जैन कला और स्थापत्य'
डा० राजेन्द्र कुमार बंसल कामिक प्रबन्धक, अमलाई पेपर मिल्स, अमझाई, शहडोल
शहडोल जिले को भौगोलिक एवं प्राकृतिक स्थिति तथा महत्व'
शहडोल जिला, रीवा संभाग (मध्य प्रदेश) का एक प्रमुख ऐतिहासिक एवं उद्योग प्रधान जिला है। इसके पूर्व में सुरगुजा, पश्चिम में जबलपुर, उत्तर में सतना एवं सीधी तथा दक्षिण में मण्डला एवं बिलासपुर जिले है । इस जिले का अधिकांश भाग वन, पहाड़, कंदरा, गुफा, नदी, नाले, घाटी, जल-प्रपात एवं प्राचीन टीलों से आच्छादित है। प्रकृति ने वरदहस्त से इसे प्राकृतिक सौन्दर्य के उपहार प्रदान किये है। आधुनिक युग का काला सोना अर्थात् कोयला जिले के भूगर्भ में विशाल मात्रा में भरा पड़ा है। कोयले के अलावा यहाँ अग्निरक्षक मृत्तिका, बाक्साइट, गारनेट, जिप्सम, कच्चा लोहा, चूना, पत्थर, ताँबा एवं अभ्रक आदि खनिज सम्पदा विपुल मात्रा में उपलब्ध है । औद्योगिक महत्व के अतिरिक्त इस, जिले का धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व भी है।
पुण्य सलिला नर्मदा, सोन एवं जुहिला के उद्गम-स्थल का सौभाग्य इसी जिले में मेकल की पर्वत श्रेणियों को प्राप्त है। अमरकंटक का उल्लेख मत्स्य पुराण के १८६ एवं १८८ वें अध्याय में हुआ है । महाकवि कालीदास ने भी मेघदूत में आम्रकूट के नाम से अमरकंटक का उल्लेख किया है। इसी कारण अमरकंटक पौराणिक काल से मानव की उदात्त एवं धार्मिक भावनाओं का प्रेरणास्थल बना हुआ है।
प्राकृतिक वैभव तो जिले को उदारतापूर्वक मिला ही है, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं कलात्मक वैभव की दष्टि से भी यह जिला अत्यन्त समृद्ध एवं सम्पन्न रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस जिले के पुरातत्वीय वैभव एवं प्राचीनता की जडें प्रागैतिहासिक काल की परतों की गहराई में छिपी है। इस जिले को पाषाणकालीन मानव के आश्रयदाता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। जिले के गजवाही ग्राम के समीप "लिखनामाड़ा" नामक स्थल है। यहाँ एक डोगरी में हाल की छापें है जो गेरुआ रंग की है जिसे स्थानीय लोकदेवता के रूप में पूजते हैं। वस्तुतः ये छापें हाल की सामान्य छान होकर दोहरो ज्यामितिक रेखाओं से घिरे कई चतुर्भज या चकयन्त्र है जो श्री देवकूमार मिश्र द्वारा पाषाण कालोन चित्रित शैलाश्रय निरूपित किये गये हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
वैदिक सभ्यता के आदि ग्रन्थ ऋग्वेद में नर्मदा नदो एवं विन्ध्याचल का नामोल्लेख नहीं है। अमरकंटक पुराण काल में प्रसिद्ध हुआ। नन्द-मौर्य काल के पश्चात् विन्ध्यक्षेत्र सातवाहन राजाओं के अन्तर्गत रहा । बांधवगढ़ के निकटवर्ती स्थानों में कुषाणकालोन ताम्र मुद्रायें एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय को स्वर्ण मुद्रायें मिलीं। इसमें यह ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में इनका राज्य रहा होगा।
ईसा की सातवीं शताब्दि के मध्य में वामराज ने डाहल मंडल में कलचुरी साम्राज्य की नींव डाली। बाद में इसकी राजधानी त्रिपुरी बनी । यह राजवंश त्रिपुरी के चेदो या कलचुरी के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। इसी राजवंश के अधीन शहडोल जिला ईसा की १२ वों शताब्दि तक रहा। इस राजवंश के पतन के साथ १३ वीं शताब्दो से जिले
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[ खण्ड
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त्रिपुरी के कलचुरी शासक और उनकी कला
कला एवं स्थापत्य के विकास की दृष्टि से शहडोल का कलचुरी काल ही विशेष रूप से उल्लेखनीय है । कलचुरी शासक साहित्य, कला एवं धर्मप्रेमी थे । उन्होंने राजकोष से अनेक कलात्मक शैव मन्दिरों का निर्माण किया । उनके काल में कला एवं कलाकारों को राज्य का संरक्षण प्राप्त था 13 अमरकंटक का स्वर्ण मन्दिर ११ वीं सदी में राजा कर्ण द्वारा बनवाया गया। इसी प्रकार, भेड़ाघाट का वैद्यनाथ मन्दिर राजा नरसिंहदेव द्वारा निर्मित किया गया । इनके काल में जैन, वैष्णव एवं शैव मन्दिरों एवं मूर्तियों का निर्माण भी राजकीय संरक्षण में हुआ । भेड़ाघाट, कारीतलाई, बिलहरी, त्रिपुरी, पनागर, नोहटा, रीठी, सोहागपुर, सिंहपुर, अमरकंटक, मऊबेला, बैजनाथ, मड़ई एवं रीवा के निकट चिद्रेह, गुर्गी, मंहसांव आदि ऐसे स्थान है जहाँ कलचुरी कला का उन्मुक्त विकास हुआ । इन स्थानों से प्राप्त मूर्तियाँ कलचुरी कला के प्रतीकात्मक उत्कृष्ट नमूने कहे जा सकते हैं ।
कलचुरी-कालीन जैन स्थापत्य कला
यह एक रोचक तथ्य है कि यद्यपि कलचुरी शासक गण शैव मतावलम्बी थे, परन्तु उनकी यह शैव श्रद्धा जैनधर्म के विकास में बाधा नहीं बनी । कलचुरी कालीन अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि उस काल में जैन मन्दिर निर्मित हुये थे । तीर्थंकरों एवं उनके शासन देवी-देवताओं के स्थापत्य अवशेषों से ज्ञात होता है कि उस काल में जैन मं को राजकीय एवं व्यक्तिगत, दोनों ही संरक्षण प्राप्त थे। उनकी प्रजा का एक प्रभावशाली वर्ग जैन धर्मावलम्बी था । इस काल में शहडोल जिले के सोहागपुर या उसके आस-पास जैन मन्दिर विद्यमान थे । पुरातत्वीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि कलचुरी नरेशों के काल में जैनधमं अतिसमृद्ध अवस्था में था । जैन धर्मावलम्बियों द्वारा इस काल में अनेक भव्य जैन मन्दिर, धर्मशालाएं, स्तूप, स्मारक एवं साधुओं के लिये गुफाएँ आदि निर्मित कीं। शहडोल जिले के सोहागपुर, सिंहपुर, अनुपपुर, पिपरिया, अरा ( कोतमा ), सिंहवाड़ा, अर्जुली, मऊग्राम, बिरसिंहपुर पाली, उमरिया, सीतापुर, बरबसपुर, पथरहटा, चिटोला, विक्रमपुर, अंतरिया, झगरहा, बघवापरा, चुआ, पावगाँव, लखबरिया, सिलहरा, आदि स्थानों में जैन स्थापत्य एवं मूर्तिकला के अवशेष रूप में तीर्थंकरों एवं उनके शासन देवी-देवता ( यथ-यक्षियों) की मूर्तियाँ विपुल मात्रा में उपलब्ध हुई हैं। सोहागपुर की गढ़ी में या उसके आस-पास जैन मन्दिर विद्यमान थे। इस तथ्य की पुष्टि सोहागपुर के ठाकुर के महल में संग्रहीत अनेक जैन मूर्तियों से होती है । इसमें शासन देवी-देवताओं मूर्तियाँ भी सम्मिलित हैं । इस महल के निर्माण में अधिकांश रूप से जैन मन्दिरों के अलंकृत अवशेषों का उपयोग किया। " रोवा राज्य गजेटियर के अनुसार पाली के एक हिन्दू मन्दिर (बिरासनी देवी) में अनेक प्राचीन जैन प्रतिमाएँ थीं। शहडोल नगर के पांडव नगर, राजाबाग, सोहागपुर गढ़ी, जिलाध्यक्ष कार्यालय, कोतवाली, शक्तिपीठ एवं दुर्गा मन्दिर, शाहंशाह आश्रम, बाण गंगा एवं विराट मन्दिर में जैनकला के अवशेष एवं खण्डित मूर्तियाँ अभी भी विद्यमान है ।
प्रारम्भ में जैन साधु अधिकतर वनों कन्दराओं में रहते थे और भ्रमणशील होते थे । कलचुरी काल में इस क्षेत्र में श्रमण साधुओं का उन्मुक्त विहार होता था और वे निर्भय होकर नगरों से दूर एकान्त वनों में आत्मसाधना करते थे। क्षेत्र निरीक्षण के मध्य मुझे कनाड़ी ग्राम में एक जैन गुफा मिली। इसके अतिरिक्त, जिले में लखबरिया एवं सिलहरा (भालूमाड़ा) में भी गुफाएँ हैं । यहाँ जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ एवं कलावशेष हैं । इससे प्रकट होता हैं कि ये गुफाएँ भी जैन साधुओं के आश्रम स्थल हेतु निर्मित की गयी होगी ।
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पुरातत्त्वीय सर्वेक्षण के आलोक में जैन कला
सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वविद श्री बैगलर ने सन् १८७३ में शहडोल जिले का पुरातत्त्वीय सर्वेक्षण किया था। उनके प्रतिवेदन के अनुसार सोहागपुर के महल एवं इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में जैन मन्दिरों के अवशेष, तीर्थकर मतियाँ एवं शासन देवी-देवताओं की अनेकों प्रतिमा बिखरी थीं। उनके अनुसार सोहागपुर प्रक्षेत्र १०-११ वीं शताब्दि में जैन धर्मावलम्बियों का विशाल केन्द्र रहा होगा । जैन कला से सम्बन्धित उनके प्रतिवेदन अवलोकनीय है। (१) सोहागपुर का महल (गढ़ी)
सोहागपुर के महल में जैन तीर्थंकर एवं जैन देवी-देवताओं की अनेकों मूर्तियाँ विद्यमान थीं। ये मूर्तियाँ दीवालों में लगी थीं। महल के प्रवेश द्वार के बाहर भी अनेक जैन मूर्तियां थीं। महल के प्रांगण की दीवाल पर १२ हाथों वाली देवी की मूर्ति थी जिसके ऊपर एक जैन नग्न मूर्ति बैठी थी। प्रतिमा के नीचे चिड़िया का चिह्न था । मस्तक पर एक विशाल नाग अपना फन फैलाये था। मूर्ति का लेख अपठनीय था। यह मूर्ति भागवान् पाश्वनाथ एवं उनकी शासनदेवी पद्मावती की है। इस मूर्ति के निकट एक बहुत भव्य जन सिंहासन (पेडेस्टल) एवं अन्य जैन मूर्तियां थीं। वर्तमान में, इस महल में चार तीर्थंकरों के अधिष्ठान शेष है, जिनका पंजीयन हा (२) ११वीं सदी के विराटेश्वर मन्दिर को निर्माण शैली
लाल, पीले एवं गहरे कत्थई रंग के बलुआ पत्थरों से निर्मित यह मन्दिर सोहागपुर गढ़ी से लगभग एक किलोमोटर दूर स्थित है । बैंगलर ने इस मन्दिर को खजुराहों के समकालीन ११वीं सदो की निरूपित किया है। इसकी विशाल शिखर पत्थर क्षरण के कारण पीछे की ओर झुकती जा रही है । इसकी सुरक्षा हेतु तत्काल समुचित उपाय अपेक्षित है।
स्थापत्य कला एवं शैली की दृष्टि से बैगलर ने इस मन्दिर को खजुराहो के जवारी मन्दिर के अनुरूप निरूपित किया। इसका विशाल शिखर खजुराहो के जैन मन्दिरों की शैली एवं स्थापत्य कला के अनुरूप है। बैंगलर इस मन्दिर की भव्यता, कलात्मकता और शैली से बहुत प्रभावित हुआ और उसने इस मन्दिर के विस्तृत अध्ययन का सुझाव दिया । इस मन्दिर के महामंडप में दो जैन तीर्थंकर की प्रतिमाएं भी संग्रहीत हैं । (३) १०वीं सदी के दो जैन मन्दिर
विद्यमान विराट मन्दिर के पूर्वीखण्ड के विस्तृत मैदान में बंगलर ने मन्दिरों के भग्नावशेषों एवं खण्डहरों को देखा। नवीन सोहागपुर नगर के निर्माण में इन अवशेषों का उपयाग खदान के रूप में किया गया। बैगलर ने आठ मन्दिरों के समूह को. देखा जिनमें दो मन्दिर निश्चित हो जैन थे। जैन मन्दिर के निकट एक मूर्ति रखी थी जिस पर 'श्रीचन्द्र' अंकित था। इस आकृति पर हिरण का चिह्न था। एक अन्य मूर्ति के पादमूल पर कुछ शब्द अंकित थे जो धारदार शस्त्रों के खरोंच दिये गये थे। बैंगलर के अनुसार यह जैन मन्दिर दसवीं सदी के आसपास का होगा। इन आठ मन्दिरों में दो वैष्णव, दो शैव के थे। दो मन्दिरों को पहिचाना नहीं जा सका था। उत्तर खण्ड में एक विशाल मन्दिर का स्मारक था जिसके चारों ओर आरंग एवं भेड़ाघाट के चौसठ योगिनी मन्दिरों जैसी छोटो-छोटी कोठरियां थीं, मन्दिर थे जिसके दोनों ओर दो बावली थी। लगता है कि यह तपस्त्रियों का उपासना-गृह या यात्रियों का आश्रम स्थल रहा होगा। (४) प्राचीन जैन भग्नावशेषः जैन मूति एवं स्तूप स्मारक
उत्तर की ओर भग्न मन्दिरों के दो समूह थे। इन समूहों के मध्य एक एकांकी टीला था जिससे समोप जैन मूर्तियां थीं। एक मूर्ति के पीछे कुछ अंकित था। इसके दक्षिण-पूर्व में विशाल मन्दिरों का समूह था जिसमें अनेक
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[खण्ड भुजाओं वाली एक देवी की मूर्ति थी। इसके मस्तक पर एक बैठी हुयी मूर्ति थी जो किसी जैन तीर्थकर की थी। यह एकांकी टोला किसी जैस मन्दिर का खण्डहर रहा होगा।
__बैगलर ने बावली के किनारे एज अर्द्धजन स्तूप, खण्डित मूर्तियों सहित देखा। इसके अलावा अन्य अनेक जैन मूर्तियों के अवशेष बावली के किनारे विद्यमान थे। उस समय बैंगलर ने यहाँ २१ स्मारक देखे । एक स्मारक में जैन शिल्प कला से उत्कृष्ट नमूने लगे थे ओर कुछ जैन मूर्तियाँ बिखरी पड़ी थीं। व्यक्तिगत निरीक्षण
नगर में नवनिर्मित तीर्थंकर महावीर संग्रहालय हेतु मूर्तियों के संग्रह के लिये लेखक द्वारा वर्ष १९७८ में सिंहपुर, मऊ (व्यौहारी), कनाड़ी, सोहागपुर, बिरसिंहपुर, चिटोला, विक्रमपुर, अमरकंटक आदि स्थानों का निरीक्षण किया गया। इन स्थानों में जैन कला को दृष्टि से सिंहपुर, कनाड़ी एवं मऊ का उल्लेख करना यथोचित होगा। (१) कनाड़ी को जैन गुफा
___ कनाड़ी ग्राम शहडोल से लगभग ६० किमी० दूर शहडोल-रीवा मार्ग पर स्थित टेटका ग्राम से ८ किमी० दूर जंगल में स्थित है। यहाँ कुलहरिया नाले के किनारे बलुआ पत्थर को चट्टान काटकर गुफायें निर्मित की गयो थीं । चट्टान को काट कर एक एक आंगन बनाया गया जिसके तीन ओर गुफायें थीं। इनमें से एक गुफा विद्यमान है जिसकी छत टूट चुकी है। यह गुफा बालू से भरी हुई है । मुख्यद्वार के दोनों ओर दो जैन पद्मासन मूर्तियाँ उत्कीर्ण है । मूर्तियों के ऊपर नागफण विद्यमान है जिसके मुद्रानुसार ये मूर्तियां जेन तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ को है। यह गुफा जैन शैल गुहा का सुन्दर उदाहरण है। गुफा की सफाई को जाने पर अन्य पुरातत्त्वीय जानकारी मिलने की सम्भावना है। (२) मऊ ग्राम के १०.११ वीं सदी के भग्नावशेष
यह ग्राम ब्योहारी कस्बे से ६ किमो० दूर बर्धरा नाले के किनारे शहडोल-रीवा मार्ग पर स्थित है। ग्राम से लगभग एक किमी दूरी पर १५-२० प्राचीन टोले भग्नावस्था में विद्यमान है जो प्राचोन गाया को अपने अन्दर संजोये हैं । सोहागपुर के समान मऊ ग्राम भी १०-११ वीं शताब्दि में मन्दिर नगर कहलाता होगा। यहाँ पर जैन, वैष्णव एवं शैव मत की मूर्तियाँ प्राप्त होती रही है। सतना दि० जैन मन्दिर में भगवान् शान्तिनाथ की कार्योत्सर्ग मुद्रा में एक विशाल मूर्ति है जो मऊ ग्राम की अमूल्य धरोहर है। पहले ग्रामवासी उसे भीमबाबा की मूर्ति के नाम से पूजते थे । मऊ ग्राम की अन्य मनोहारी मूर्तियाँ ब्यौहारी के जैन मन्दिरों में स्थापित की गयीं। भग्न मन्दिरों के टोलों के समीप खेतों की सतह पर लाल मूतियाँ एवं मृद् खण्डों के अवशेष फैले हैं। उत्खनन एवं टीलों की सफाई में अनेक पुरावशेष मिलने की सम्भावना है । जनश्रुति के अनुसार साधुओं का बड़ा संघ यहाँ के पाषाणों में समाधिस्थ हो गया था।
ग्रामवासियों ने कुछ मूर्तियाँ संग्रहित की है। इसमें एक तीर्थकर फलक वाली तथा ६५ सेमी० के शीर्ष युक्त जैन मूर्ति है जो १०-११ वा सदी को है । प्राप्त सूचनानुसार मऊ के निकट ३०-४० वर्ष पूर्व सैकड़ों जैन अजैन मूर्तियाँ थीं जो धीरे-धीरे लुप्त होती गयीं। (३) सिंहपुर
शहडोल से १५ किमी० दूरी पर दक्षिण दिशा में सिहपुर ग्राम है। ईसा की १०वीं से १३वीं सदी में सिंहपुर एवं उसके निकटवर्ती ग्राम विभिन्न संस्कृतियों एवं कला के केन्द्र रहे। तालाब के किनारे एक भव्य मन्दिर जीर्ण-शोणं अवस्था में अभी भी विद्यमान है। यह मन्दिर पंचमढ़ी के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर का प्रमुख द्वार अत्यन्त कलात्मक एवं मनोहारी है। उसके द्वार की धरणी (ऊपरी हिस्सा) में दरार आ जाने के कारण यह असुरक्षित हो गया है। इस
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मन्दिर को जर्णोद्वार अजोली ग्राम के प्राचीन पुरावशेषों से किया गया। मन्दिर में एक गढ़ी के अवशेषों में जैन तीर्थंकरों एवं उनके शासन देवी-देवताओं को अनेक भव्य एवं कलात्मक मूर्तियाँ थीं। कालान्तर में इनमें से अधिकांश को निष्कासित कर तालाब पर डाल दिया गया ताकि उनका उपयोग (दुरुपयोग) कल्हाड़ी घिसने, कपड़ा धोने एवं लड़कों को पानी में कूदने के काम में हो सके और इन मूर्तियों के स्थान पर मन्दिर में अन्य देवताओं की मूर्तियाँ प्रस्थापित कर दी गयी है।
पंचमढ़ी मन्दिरों को अनेक पुरातत्वविद् जैन मन्दिर मानते हैं। मन्दिर से भगवान् आदिनाथ के साथ खड्गासन एवं पद्मासन चौबीसी बनी हुई है। इस मन्दिर में और भी कई स्थानों पर शासन देवियों के ऊपर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं । मन्दिर के पृष्ठ भाग में भगवान आदिनाथ और पाश्वनाथ की खड्गासन प्रतिमायें है । (४) राजाबाग संग्रहालय, सोहागपुर
सोहागपुर के कुंवर मृगेन्द्र सिंह का वर्तमान निवास "राजाबाग" कलचुरीकालीन स्थापत्य एवं मूर्तिकला : का एक समृद्ध संग्रहालय है । पुरातत्व की दृष्टि से एक शताब्दि पूर्व जो स्थिति सोहागपुर के महल (गढ़ी) की थी, वही स्थिति आज राजाबाग की है। प्राप्त जानकारी के अनुसार, राजाबाग में जैन कला की १३ मूर्तियाँ एवं अधिष्ठान है । इनमें तीर्थंकर की मूर्तियाँ, जैन शासन देवी-देवता एवं अधिष्ठान सम्मिलित है ।
इन मूर्तियों में प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ की मूर्ति उल्लेखनीय है । यह मूर्ति सफेद चलुआ पत्थर पर उत्कीर्ण की गयी है । यह ६८ सेमी० ऊँची है और ११-१२वीं सदी की है । अलंकृत पादपीठ पर प्रधान शासन देवो चन्द्रेश्वरी पद्मासन मुद्रा में है । वृषभचिन्ह सहित ऋषभदेव पद्मासन मुद्रा में ध्यानस्थ है । उनके धुंघराले केश उष्णोबद्ध है जो कन्धो पर लटक रहे है। हृदय पर श्रीवत्स का चिह्न है और गले में त्रिवलय है । पृष्ठभाग में अष्टदल कमल की आभायुक्त प्रभामण्डल है । मूर्ति के दाये-बांये पुष्पमाल लिये विद्याधर तथा चामरधारी इन्द्र है । मस्तक के ऊपर छत्र है। छत्र पर दुंदुभिक एवं शचि देवी बैठी है। मस्तक के दांये-बांये दो-दो तीर्थंकर प्रतिमाएँ पद्मासन मुद्रा में ध्यानरत है। यह मूर्ति सौम्य-मुद्रायुक्त, आकर्षक एवं वीतराग भाव सम्पन्न है। इस मूर्ति के समीप भ० शांतिनाथ का शिलापट्ट है . जिसमें भगवान् शांतिनाथ को कार्योत्सगं मुद्रा में दर्शाया है । इस पर हिरण चिह्न अंकित है । हृदय पर श्रीवत्स का चिह्न है । केश धुंघराले एवं उष्णीबद्ध है। मूर्ति आजानुबाहु एवं प्रभावोत्पादक है । इसके दांये-बांये यक्ष-यक्षिणो की अलंकृत अलंकृत प्रतिमाएं है। (५) राजकीय संग्रहालय धुबेला में शहडोल का पुरातत्व
राजकीय संग्रहालय धुबेला में जैन तीर्थंकरों एवं उनके शासन देवी देवताओं की ५० से अधिक प्रतिमाएं है । इनमें से कलचुरी कालीन प्रतिमाएँ मूलतः रीवा राज्य के विभिन्न स्थानों से संग्रहीत की गयी है । व्यक्तिगत निरीक्षण के अनुसार २२ प्रतिमायें शहडोल जिले से संग्रहीत की गयी प्रतीत होती है जो लाल बलुए पत्थर से निर्मित है । इनमें अधिकतर ऋषभनाथ, नेमीनाथ, पार्श्वनाथ तीर्थंकरों एवं गोमेध, अम्बिका, चक्रेश्वरी एवं ब्रह्मा यक्ष-यक्षियों की प्रतिमाएँ है जो पद्मासन एवं कार्योत्सर्ग मुद्रा में है । इन प्रतिमाओं में बाइसवें तीर्थंक र नेमीनाथ की मूर्ति उल्लेखनीय है जो शहडोल जिले की जैन कलचुरी कला का सफल प्रतिनिधित्व करती है। यह मूर्ति ११४ सेमी. ऊँची है जिसमें तीर्थकर नेमीनाथ को पद्मासन मुद्रा में एक उच्च पाद पोठ पर ध्यानस्थ बैठे हुये दर्शाया गया है। प्रतिमा के ऊपर तोन पक्तियों में ध्यान मुद्रा में इक्कीस तीर्थकर बैठे हुये हैं । छत्र के दोनों ओर दो हाथी पुष्प वृद्धि कर रहे है जिनके दोनों ओर एक-एक तीर्थकर कार्योत्सर्ग मुद्रा में अंकित है। प्रतिमा के अलंकृत पादपीठ पर नेमीनाथ का लांछन शेख अंकित है । पादपीठ के किनारों पर तीर्थकर के उपासक गोमेध एवं यक्षिणी अंविका की अलंकृत मूर्तियां प्रदर्शित है। यक्षी अंबिका की खड़ी मुद्रा में अलंकृत आकृति उल्लेखनीय है । समग्र रूप से यह मूर्ति प्रभावक, कलात्मक नैसर्गिक सौन्दर्य एवं सजीवता से ओत-प्रोत है।
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[ खण्ड
विरला पुरातत्व संग्रहालय, भोपाल में भी शहडोल जिले के अंतरा (सिंहपुर) नामक ग्राम से लाल बलुये पत्थर से निर्मित अंबिका की मूर्ति संग्रहोत की गयी है। इसकी ऊंचाई १०५ सेमो० है । यह मूर्ति जैन तीर्थकर नेमीनाथ की उपासिका शासन देवी है । अंबिका ललितासन में द्वि-पंक्तिबद्ध कमल के ऊपर विराजमान है । इसके बांये हाथ में प्रियंकर (कनिष्ठपुत्र) उसकी गोदी में बैठा है । ज्येष्ठ पुत्र शुभंकर पाद पीठ पर खड़ा हुआ है। शुभंकर के बांये हाथ में आम्र फल है और दायां हाथ ऊँचा उठा है । अंबिका का दाया हाथ खंडित है । मस्तक पर मुकुट, कान में कुण्डल, गले में कपूरहार, हाथ में कड़ा, मेखला एवं ऊँगलो में अंगुठी आदि आभूषण से यह मूर्ति अलंकृत है । प्रतिमा वस्त्रयुक्त है जिसको लहरें पैरों में कलात्मक रूप से दर्शायी गयी है । अंग का ऊपरी भाग निर्वस्त्र है। कंधों पर उत्तरीय दर्शाया गया है । आम्रफलों के गुच्छे और आभामंडल दोनों ओर अंकित है । प्रतिमा के दोनों ओर हार लिये परिचारिका प्रदर्शित है । अम्बिका का वाहन सिंह पादपीठ के बायीं ओर दर्शाया गया है ।
प्रतिमा के ऊपर मध्य में तीर्थंकर नेमीनाथ ध्यानस्थ बैठे हैं जिनके दोनों ओर उड़ते विद्याधर युगल दर्शाये गये है । देवी की मूर्ति यद्यपि खंडित है किन्तु उसकी वृत्ताकार मुखाकृति, पुष्ट वक्ष और क्षीण कटिभाग, आभामय मुखमडल एव सौम्य मुद्रा आदि से इस प्रतिमा के कलात्मक सौन्दर्य में वृद्धि हुयी है । यह प्रतिमा ९-१० सदी की कलचुरी जैनकला का श्रेष्ठ नमूना है। (६) पार्श्वनाथ जैनमंदिर, शहडोल में जैन पुरातत्व
यह मंदिर शहडोल नगर के मध्य में स्थित है । मंदिर में अलंकृत तीन तोरण द्वार के अवशेषों सहित कुल बोस कलचुरी कालीन जैन पुरावशेष है। इनमें भगवान् आदिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर की मनोज्ञ मूर्तियाँ है जो पद्मासन ध्यानस्थ मुद्रा में हैं । एक छोटी मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में है । ये मूर्तियाँ ९-१० सदो की हैं जो सोहागपुर के प्राचीन जैन मंदिरों के भग्नावशेषों से संग्रहीत को गयी है । इनमें १२२ सेमी० ऊँचो भगवान् महावीर की अखंडित मूर्ति अतिशय युक्त कही जाती है जो मूलनायक के रूप में पूजनीय है । भगवान पार्श्वनाथ की सप्तफणों से युक्त १२२ सेमी० की कलात्मक मूर्ति भी उल्लेखनीय है जो ध्यानरत मुद्रा में है। इनके केश धुंघराले तथा उष्णीबद्ध है। हृदय पर श्रीवत्स का चिह्न है । यह इन्द्र, शासन देवी-देवता, लांछन एवं छत्र आदि से युक्त है । ये मूर्तियां दर्शक को सहज हो मोह लेती है । यहाँ भगवान् आदिनाथ की १०८ तीर्थकरोंयुक्त मूर्ति उल्लेखनीय है ।
यहाँ पद्मासन मुद्रा में जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव) ध्यानस्थ है। ऋषभ चिह्न के ऊपर शासन देवी चन्द्रेश्वरी अंकित है। शासन देवी के ऊपर पुष्प पत्रों से अलकृत पादपोठ आसन है और उसके दायें-बायें व्यक्ति उन्मुक्त मुद्रा में प्रदर्शित हैं । केश धुंघराले एवं उष्णीबद्ध हैं। हृदय पर श्रीवत्स का चिह्न एवं कण्ठ में त्रिवलय है। आदिनाथ नासाग्रदृष्टि किए हैं। पृष्ठ भाग पद्म मण्डल चक्र की आभा से शोभित है। पद्म मण्डल चक्र के ऊपर छत्र है जिसके दोनों ओर घटों को धारण किए हुए गजरत्नों द्वारा घटाभिषेक किया जा रहा है। घटों एवं गजों के नीचे चामरधारिणी गन्धर्व कन्यायें उत्कोण है । मूर्ति के दोनों ओर सौधर्म एवं ईशानेन्द्र हैं।
भगवान् आदिनाथ की बायीं ओर १८ एवं दायों ओर १९ तीर्थंकर पद्मासन मुद्रा में ६-६ पंक्तियों में दर्शाये गये हैं। प्रत्येक पंक्ति में ३-३ तीर्थकर है । गज के बायों ओर ६ एवं दायों ओर ७ तीर्थकर पद्मासन मुद्रा में है। मस्तक के ऊपर १५ तीर्थंकर कार्योत्सर्ग मुद्रा में प्रदर्शित हैं। इनके ऊपर तीन पंक्तियों में ३० तीर्थकर पद्मासन मुद्रा में दर्शाये गये हैं। इनके दोनों ओर ३.३ पंक्तियों में दो-दो तोथंकर पद्मासन मुद्रा में सुशोभित है। इस प्रकार मूल नायक सहित कुल १०८ तीर्थकर पद्मासन एवं कार्योत्सर्ग मुद्रा में प्रदर्शित है। यह मूर्ति ९-१० सदो की लाल बलुए पत्थर पर निर्मित है। यह बधवा ग्राम के आसपास के प्राप्त हुई है।
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________________ 5) शहडोल जिले की प्राचीन जैन कला और स्थापत्य 389 (7) दिगम्बर जैन मन्दिर, बुढ़ार दि० जैन मन्दिर बुढ़ार में एक अलंकृत तोरण द्वार के अवशेष सहित दस प्राचीन जैन कलाकृतियां हैं। इनमें तीन मूर्तियां सात फणों युक्त भगवान् पार्श्वनाथ की एवं दो अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियाँ कार्योत्सर्ग मुद्रा में है / एक मूर्ति में भगवान् पार्श्वनाथ का लांछन नाग पीठिका के रूप में कुण्डली मारे बैठा है / एक द्विमूर्तिका कलाकृति है जिसमें दो आजानुबाहु तीर्थकर कायोत्सर्ग मुद्रा में है / इनमें एक पद्मासन मुद्रा में है एवं दो अन्य छोटो मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियाँ लाल बलए पत्थर से निर्मित है जो कहीं कहीं खण्डित है। ये मूर्तियाँ 9-10 सदी से सम्बन्धित है, जिन्हें हरों, करकटी, सिरौजा, सीतापुर, अर्जुला आदि ग्रामों एवं लखबरिया गुफाओं से प्राप्त कर संग्रहीत किया गया है। निश्चित ही, उस काल में इन स्थानों पर जैन मन्दिर रहे होंगे। (8) तीर्थकर महावार संग्रहालय : शहडोल जिले के पुरावशेषों की सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु दो दशाब्दियों पूर्व शहडोल के तत्कालीन जिलाध्यक्ष श्री रामबिहारीलाल श्रीवास्तव की प्रेरणा एवं सहयोग से सिंहपुर एवं उनके निकटवर्ती क्षेत्रों से सैकड़ों जैन-अजैन मूर्तियाँ एवं कलावशेष एकत्रित कर राजेन्द्र क्लब, शहडोल के प्रांगण में संग्रहीत किये गए थे। राजकीय संरक्षण एवं सुरक्षा की व्यवस्था के अभाव में ये मूर्तियाँ शनैःशनैः लुप्त होती गयीं / वहाँ अब कुछ महत्वहीन अवशेष पड़े हैं। अन्तिम तीर्थंकर भ० महावीर का २५००वा निर्वाण महोत्सव सन् 1975 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया। उनकी पुण्य स्मृति में जिलाध्यक्ष शहडोल की अध्यक्षता में गठित जिला समिति ने तीर्थंकर महावीर संग्रहालय एवं उद्यान के निर्माण का संकल्प किया। फलस्वरूप नगर के मध्य में छत्तीस हजार वर्गफीट के भूभाग पर सार्वजनिक सहयोग से इसका निर्माण किया गया और महावीर के त्याग के मार्ग के अनुरूप उसे सर्व उपयोग हेतु जिला पुरातत्वीय संघ को समर्पित कर दिया गया। इस संग्रहालय में १०वीं-११वीं सदी के 35 पुरावशेष एवं मूर्तियां हैं। इनमें 59 सेमी ऊंची एक मूर्ति भगवान आदिनाथ की है जिसके दोनों ओर दो-दो तीर्थंकर क्रमशः पद्मासन एवं कार्योत्सर्ग मुद्रा में अंकित हैं / अलंकृत इन्द्र, गज विद्याधर आदि पूर्ववत् है / मूर्ति पुरातत्वीय महत्व की है। सन्दर्भ१. शहडोल सूचना एवं प्रकाशन विभाग, मध्यप्रदेश, भोपाल / la. Prof. S. R. Sharma, Some Aspects of Archaeological Works in M. P. (Hindi). Govt Degree College, Shahdol, English Section, Page 6. (1963-66). 2. Rewa State Gazetteer, Vol. IV, 1907, Page 18-87. 3 RK. Sharma. "Royal Patronage to Art of Kalchuri Dynasty", Prachya Pratibha, Bhopal, Vol. V, No. 2, July 1977, Page 21. 4. शिवकुमार नामदेव, भारतीय जैनकला को म०प्र० को देन, सन्मतिवाणी, इन्दौर, मई 75, पृ०१३ / 5. Rewa State Gazetteer, Vol. IV, 1907, Page 104. 6. डॉ. राकेशकुमार उपाध्याय, 'शहडोल जिले को पुरातत्त्वीय संपदा' दैनिक जनबोध, शहडोल, दिनांक 19-3-79, पृष्ठ 3 / 7. A.Cunnighm, A.S. I. R., Vol. VII, P. 239-46. 9. S. K. Dixit, A Guide to the State Museum-Dhabela, Nowgaon, P. 12. अवधेशप्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा, म०प्र०की जैन विद्या संगोष्ठी में पठित शोधपत्र का सार / 49