Book Title: Shabda Prayogoni Pagdandi
Author(s): H C Bhayani
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दप्रयोगोनी पगदंडी चाउरि, गब्दिका, गर्त हरिवल्लभ भायाणी मोनिअर-विलिअम्झना संस्कृत-अंग्रेजी कोशमां 'चतुर', 'चातुर' अने 'चातुरक' शब्दो प्राचीन संस्कृत कोशोमा 'नानुं गोळ ओशीकुं' एवा अर्थमां अने 'गल्ल-चातुरी' शब्द 'गालमसूरियु' एवा अर्थमा आप्या छे. हकीकते आ शब्दरूपो देश्य शब्द 'चाउरि' एटले 'गादी' उपरथी बनावी काढेला संस्कृत शब्दरूपो छे. 'चाउरि' शब्द पुष्पदंतना अपभ्रंश महाकाव्य 'महापुराण'मां वपरायो छे अने त्यां प्राचीन टिप्पणमां 'गादीति देशी' ए रीते ते देश्य शब्द होवानुं अने तेनो अर्थ 'गादी' थतो होवार्नु जणाव्युं छे. जुओ रत्ना श्रीयान् कृत 'ए क्रिटिकल स्टडी ओव महापुराण ओव पुष्पदंत' (१९६२, पृ. २३१, क्रमांक ९४३; पृ. ३२०, क्रमांक १३९४). जूनी गुजराती कृतिओमां 'चाउरि' शब्द 'गादी'ना अर्थमां वारंवार वपरायो छे. जेम 'चाउरि' उपरथी 'चातुर', 'चातुरी' एवो संस्कृत शब्द घडी कढायो, तेम 'गादी' उपरथी कृत्रिम रीते घडी काढेलो 'गब्दिका' जैन प्रबंधादिना संस्कृतमां मळे छे. 'गादी' के 'गद्दी' घणी अर्वाचीन भारतीय-आर्य भाषाओमां मळे छे. तेना मूळ तरीके 'गर्द' एवं रूप अटकळी शकाय. वैदिक शब्द 'गत' ' रथनी बेठक'नुं ए रूपांतर होवानुं समजी शकाय (जुओ, टर्नरनो भारतीयआर्यनो तुलनात्मक कोश, क्रमांक ४०५३). 'गाडी' शब्दनुं मूळ ए 'गर्न/गर्द' मां ज छे. (२) प्रा. छेअ- 'अंत, हानि' संस्कृत 'छेद-' उपरथी प्राकृतमा 'छेअ-' नियम प्रमाणे थाय छे. पण प्राकृतमां तेनो अर्थविस्तार थयो छे. 'छेद, कापो' उपरांत 'छेडो, न्यूनता' एवा अर्थमां पण ते वपरायो छे ('पाइअसद्दमहण्णवो'). प्रभाचंद्राचार्य कृत 'प्रभावक चरित' (इ.स. १२७८) मां आपेल बप्पभट्टिसूरिचरितमां, छोडी गयेला बप्पभट्टिसूरिने राजा आम नागावलोक [39] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यारे संदेशो मोकले छे, त्यारे बप्पभट्टिसूरि तेना प्रत्युत्तर रूपे जे गाधाओ मोकले छे, तेमां एक अपभ्रंश दोहा नीचे प्रमाणे छे : हंसा जहिं गय तहिं जि गय, महिमंडणा हवंति । छेहउ ताहं महासरहं, जे हंसेर्हि मुच्चति ॥ अर्थ : 'हंसो ज्यां पण जाय छे त्यां तेओ धरतीने शोभावे छे. हानि तो ते महान सरोवरने थाय छे जेने हंसो छोडी जाय छे.' (आ एक अन्योक्ति छे.) आ ज दोहा गणपति कृत 'माधवानल कामकंदला प्रबंध'मां (ई.स. १५२८) नजीवा पाठांतरे उद्धृत थयो छे (३, ९१). त्यां 'छेहउ'ने बदले पाछळनुं रूपांतर 'छेह' मळे छे. हेमचंद्राचार्यना 'सिद्धहेम'मां उदाहरण तरीके आपेल एक दोहामां (८४- ३९०) 'तं छेअउ नहु लाहु ( = ए तो हानि छे. लाभ नथी') ए प्रमाणे 'छेअ - ' शब्द 'न्यूनता, हानि'ना अर्थमां मळे छे. 'तूटवुं' अने 'तोटो' साधे 'छिंदइ' अने 'छेअउ' सरखावतां 'हानि, न्यूनता' एवं अर्थपरिवर्तन समजी शकाशे. 'छेअ- 'मां हकारनो आगम थतां 'छेह' एवं रूप थयुं छे. 'छेअ-' शब्द 'छेडो' एवा अर्थमां देश्य शब्द तरीके हेमचंद्राचार्ये 'देशीनाममाला' मां (३, ३८) आप्यो छे. आ अर्थ 'छेक', 'छेडो', 'छेल्लुं', 'छेवाडो' अने 'छेवट' ए गुजराती शब्दोमां जळवायो छे. सं. 'छेद' - प्रा. छेअ+क्क, गुज. छेक (सरखावो सं. स्थित-, प्रा. ठिअ+क्क, गुज. ठीक). सं. छेद-, प्रा. छेअ-, अप. छेह+डउ, गुज. छेडो. सं. छेद- प्रा. छेअ-, गुज. छेअ-, छेह + इल्लउं छेहिल्लउं, छेल्लुं. छेदपाटक-, छेअवाडअ-, छेवाडुं ('अगवाडुं', 'पछवाडुं', 'मुवाडुं', अने 'छेवाडुं' मां मूळ 'पाटक' पुंल्लिंगने बदले नपुंसकलिंग छे, 'पाडो', 'वाडो'मां मूळ प्रमाणे पुंलिंग छे.) सं. छेदपृष्ठ-, प्रा. छेअउट्ठ, गुज. छेउठ, छवट ए रीते उक्त शब्दोनुं रूपपरिवर्तन समजावी शकाय . [40] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातीमां 'छेह देवो'='विश्वासघात करखो' एमां जे 'छेह' छे तेमां 'छेह'नो 'हानि' अर्थ बदलाईने 'विश्वासघात' एवो अर्थ थयो हशे के केम ते विचारणीय छे. छो, अछो, भले 'छो' एटले 'भले' ('छो जतो', 'जाय', 'छो करे'). बृगुको.मां तेनुं मूळ आप्युं नथी. प्रा. 'अच्छ'-('होवू') धातुनुं आज्ञार्थ त्री. पु. एक व, 'अच्छउ' ('एम) हो', '(एम ज) भले रहेतुं', 'रहेवा देवा दो' एवी अर्थछायाओमां जाणीतुं छे. पछी 'छड' अने 'छो'. __'अछो अछो वानां करवां' एटले 'कोईकने माटे आदर सत्कार रूपे घj घणुं करवू'. तेमां पण कां तो 'अच्छउ अच्छउ' 'एम हो', ‘एम हो' अथवा 'रहेवा दो, रहे दो, बेसो बेसो' (बीजो पु. ब.व.) एवा मूळ अर्थ उपरथी अतिथिनी साथेना व्यवहारमा वारंवार ए प्रमाणे आदरथी कह्या करवू ते परथी थयेलो रूढिप्रयोग छे. __ 'छो जतो', छो जाय', 'छो करें' वगैरे अने 'भले जतो', 'भले जाय', "भले करे' एकार्थक छे. बगको.मां आ 'भले'ना मूळ तरीके सं. 'भद्र-' उपरथी थयेल प्रा. 'भल्ल' अने पछी गुज. 'भलं'नुं करण-विभक्त एक व.नुं रूप आप्युं छे.पण बीजो एक विकल्प पण विचारी शकाय. 'भले भले' ए प्रशंसासूचक उद्गारना मूळमां रहेलो 'भद्र' मंगळवाची छे. आपणी मध्यकालीन वर्णमाळा-मातृका-नो आरंभ 'भले'थी थतो तेनी ६ एवी आकृति जैन हस्तप्रतोमां जाणीती छे. भले, पछी शून्य (मींडु) अने पछी बे ऊभी रेखाए वर्णमाळाने आरंभे मंगळसूचक चिह्मे तरीके मुकातां. ___ हीराणंदसूरिरचित 'स्थूलिभद्रकाक' मां 'भले'नुं बावन अक्षरोने आरंभे मंगळ स्थान होवान का छे : भले भलेरी अक्खरहं बावन्नहं धुरि एह । जाखल-सेखल ('यक्षप्रतिमा, नागप्रतिमा)' नेमिचन्द्र भंडारी कृत 'षष्टिशतक प्रकरण' (१२मी सदीनो अंत-१३मीनो [41] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरंभ) उपरना सोमसुंदर-सूरिना बालावबोधमां (इ.स. १४४०) मूळ गाथाना जक्ख-सिक्ख शब्दनो अर्थ जूनी गुजरातीमां 'जाखल'-सेखल एवो कर्यो छ (पृ. ८३, पं. २, १६). आमां जाख एटले 'यक्ष' अने सेख एटले 'शेषनाग', 'नाग'. आना विवरण रूपे 'गोत्रज पितर प्रमुख' एम कर्दा छे. संदर्भ एवो छे के लेखक कहे छे : वेश्या, भाट, पुरोहित, डोम (लोकगायक), यक्ष, नाग वगेरमा जे आसक्त होय, तेमना भक्त होय तेओने ते फोली खाय छे. एटले तेमनी पूजाथी दूर रहे. जिनधर्ममां स्थिर रहेवू. सं. यक्ष, प्रा. जक्ख, जू. गुज. जाख. सं शेष, अर्धतत्सम सेख. तेमनी प्रतिमा, मूर्तिनो अर्थ दर्शाववा तेमने ल प्रत्यय लाग्यो छे, जाखल = 'यक्षप्रतिमा'. सेखल = 'नाग प्रतिमा'. यक्ष परथी अर्वाचीन भारतीय-आर्य भाषाओमां ऊतरी आवेला शब्दो माटे जुओ टर्नरनो भारतीयआर्य भाषाओनो तुलनात्मक कोश. __ मूळ वस्तुनी मूर्त अनुकृति सूचवतो ल के ल प्रत्यय पूतळ (सं. पुत्र, प्रा. पुत्त, जू. गुज. पूताल), नागलां (नाग+ल) 'नागनी आकृति' भेंसलो (भेंसोल) 'पाडनी आकृतिनो खड़क' अने कदाच ढीगली जेवामां मळे छे. (संदर्भ : 'षष्टिशतक प्रकरण'. संपा. भो. ज. सांडेसरा. १९५३. प्राचीन 'गूर्जर काव्य संचय' (संपा. ह. भायाणी, अ. नाहटा. १९७५)).. ___ जूनी गुज.मां 'जाखु' (="यक्ष') पाल्हणकृत 'आबूरास'मां मळतो होवानुं सांडेसराए नोंध्युं छे. ते उपरांत देपालकृत 'कयवन्ना-विवाहलु' (१५मी शताब्दी)मां पण ते वपरायो छे. कडी ६. ('प्राचीन गूर्जर काव्य संचय', शब्दकोशमां). कच्छना गाम-नाम 'जखौ' (सं. 'यक्षकूप)मां पण ते शब्द सचवायो छे. आवा हेतु माटे बीजा प्रत्ययो पण वपराता. जेम के गुज. दांत-दांतो, पाय-पायो, हाथ-हाथो, कान-कानो, नाक-नाकुं, जीभजीभी, माथु-मथाळु, मोढुं-मोढियुं, घर-घरं, वगैरे वगैरे. आमां ककार वगेरे प्रतिकृति-वाचक छे. 'सिद्धहेम' (७-१-११०) उपरनी मध्यम वृत्ति-अवचूरिमां कहेल छ के 'हस्तिनः प्रतिकृतयो हस्तिकाः-रामेकडा [42] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति लोकरूढिः।' एटले के 'हाथी- रमकईं लोकोमा 'हस्तिक' (='हाथियो') कहेवाय. तणी 'दोरडी' इ. स. १३५५मां रचेल तरुणप्रभाचार्यना 'षडावश्यक-बालावबोध-वृत्ति'मां सम्यक्त्वना अतिचारथी निवृत्त थवानो उपदेश आपतां जे अतिचारो कह्या छे, तेमांनो एक अतिचार ते धर्माचरणना फळ विशे संदेह. आने माटेनो खास शब्द छे 'विचिकित्सा'. एना उदाहरण तरीके वृत्तिमा वाणिया अने चोरनी कथा आपेली छे. मित्रे आपेलो आकाशगामिनी विद्यानो मंत्र साधवा महेश्वरदत्त काळी चौदशनी राते श्मशानमां गयो, अने जेनी नीचे अग्निकुंड छे तेवी वृक्षनी डाळीए लटकता बांधेला शीकामां बेसी ते मंत्रनो जाप करवा लाग्यो. जाप पूरो करीने ते एक एक 'तणी' खड्गनो प्रहार करी तोडतो हतो. चोथी 'तणी' छेदवानो ज्यारे वारो आव्यो त्यारे तेना मनमां संदेह प्रगट्यो, 'विद्या सिद्ध थाय के न थाय, पण माएं मृत्यु तो चोकस थाय'. एटले ते फरी फरी शीकुं बांधीने फरी फरी छेल्ली घडीए संदेह करतो. एटलामां पाछळ पकडवा आवती वारथी नासतो एक चोर श्मशानमा पेठो, अने झाड पर वारंवार चडताऊतरता महेश्वरदत्तने जोई तेणे कडं के 'तुं मने मंत्र आप अने तेना बदलमां आ धन तुं ले.' महेश्वरदत्ते साटुं कबूल कर्यु अने चोरने मंत्र शीखव्यो. चोरे शीका पर चडी एक ज घाए चारेय 'तणी' छेदी आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करी. ____ अहीं 'तणी' एटले जेना वड़े शीकुं झाडनी डाळीए बांध्युं छे ते चार दोरडी. 'षडावश्यक-बालावबोधवृत्ति'ना संपादक सद्गत डो. प्रबोध पंडिते भूलथी 'तणी'नो अर्थ 'घासनुं तणखलुं कर्यो छे. गुजराती कोशोमां 'तणी'नो 'बळदनी नाथे बांधेली दोरी' अने 'तंबुनी दोरी' एवा अर्थ आपेला छे. मोनिअर-विलिअम्झना संस्कृत-अंग्रेजी कोशमां संस्कृत 'तनिका' ('दोरडी')नो प्रयोग माघना 'शिशुपालवध (५, ६१)मांथी नोंध्यो छे. 'तनिका' शब्द 'तन्'='ताणवू' धातु परथी सधायो छे. सं. 'तन्तु', 'तन्ति', गुज. 'तंति', 'तांतो', 'तांतणो'ना मूळमां पण ए ज धातु छे. अहीं ए पण नोंधq [43] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसप्रद छे के, 'दोरडी' शब्द परथी बनावी काढेलो संस्कृत 'द्विरटिका' (- दोरडी) जंभलदत्तनी 'वेतालपंचविंशतिका' मां वपरायो छे. वृक्ष उपर लटकता शबनी 'द्विरटिका' कापीने विक्रमराजा तेने नीचे धरती पर नाखे छे. ए कृतिना संपादक डो. एमेनोने आ गुजराती 'दोरडी' ए शब्दना मूळमां छे तेनी गंध पण क्यांथी होय ? दो नुं संस्कृत रूपं द्वि अने बाकी रहेल रडीनुं कर्यु संस्कृत रटिका ! (६) प्रा. तोडहिआ 'एक प्रकारनो ढोल' १. उद्योतनसूरीए 'कुवलयमाला' (इ.स. ७७९) मां आपेल अनेक रमणीय, वास्तविक, तादृश्य शब्दचित्रोमा एक स्थळे जे सुंदर संध्यासमयना व्यवहारनुं वर्णन करेलुं छे (पृ. ८२-८३) तेमां विविध देवस्थानोमां थई रहेली प्रवृत्तिनी विगतो आपेली छे. तेना समयना भिन्नमाल जेवा नगरोना जीवननो आमां वास्तविक आधार होय एम मानी शकीए. यज्ञमंडपोमां मंत्रोच्चार साधे तल, घी, अने समिध होमवानो ततडाट, ब्राह्मणशाळामां वेदपाठनो गंभीर घोष, शिवालयोमां मनहर आक्षिप्तिकानुं गान, धार्मिको ( व्रती संन्यासीओ) ना मठोमां डमरुनाद, कापालिकोना धर्मस्थानमां घंय अने डमरुनुं वादन, शेरीओना चोकना शिवमंदिरोमां 'तोडहिआ' वाद्योनो घोंघाट, अग्रहारोमा 'भगवद्गीता' नुं पठन, जिनालयोमां गुणमहिमाना स्तोत्रोच्चार, बुद्धविहारोमा करुणापूर्ण वचनोना उद्गार, चंडीमंदिरोमां प्रचंड घंटानाद, कार्तिकेयना देवळोमां मोर, कूकडा, चकलांनो कलबलाट, उन्नत मृदंगवादन साथै सुंदरी ओथी गवाता मधुर गीत आवा प्रकारना ध्वनिओ संभळाता हता. ( आक्षिप्तिका विशेनी नोंधमां में 'कुवलयमाला'ना आ संदर्भनो उपयोग कर्यो छे. जुओ Indological Studies, पृ. ८२). २. उपर्युक्त वर्णनमां 'तोडहियां - पुक्करियइं' (अथवा पाठांतरे 'चुक्करियई' ) एवो जे प्रयोग छे, तेमां तोडहियानो एक वाद्य तरीके निर्देश छे. 'आचाराङ्गसूत्र' परनी शीलांकाचार्यनी वृत्तिमां 'आचाराङ्ग' मां एक स्थाने प्रयुक्त (सागरानन्दसूरि-संपादन, पृ. २७५, सू. १६८, जैन आगम ग्रन्थमाला वाळा संपादनमां पृ. २४१, सू. ६७२) भिक्षुकने जे शब्दध्वनिओथी दूर रहेवा कह्युं छे, तेमां ते [44] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भमां निर्दिष्ट विविध वाद्यध्वनिओमां खरमुहि-वाद्यनो पण निर्देश छे, खरमुहि शब्दनो तोहाडिका (सागरा०) के तोडहिका, तोट्टहिका (जैन आ.) एवो अर्थ आप्यो छे. 'कुवलयमाला' वाळो प्रयोग जोतां तोहाडिका अने तोट्टहिका ए भ्रष्ट पाठो छे. तोडहिका (=तोडहिआ) ए साचं स्वरूप छे. 'पाइअसद्दमहण्णवो'मां तोडहिआ शब्द 'आचाराङ्ग २, १२ एवा निर्देश साथे आपेलो छे ते आ शीलांकाचार्ये कहेलो खरमुहि नो अर्थ ज होय. 'देशी शब्दकोश'मां (पृ. २३७)मात्र 'कुवलयमाला'नो संदर्भ ज आप्यो छे. 'निशीथचूर्णि' अनुसार खरमुखी एटले एवं काहला-वाद्य, जेना मुखस्थाने गधेडाना मों जेवू लाकडानुं मुख बनावेलुं होय छे ('आचाराङ्ग', जैन आ., पृ. २४१). 'देशीनाममाला' (२, ८२)मां गहब्भ शब्द 'कर्णकटु ध्वनि' एवा अर्थमां आपेलो छे. पासम.मां तेनो प्रयोग 'समराइच्चकहा'मां होवानो निर्देश छे. 'कुवलयमाला मां एक स्थाने (पृ. ६७, पं. ७) मांगलिक स्तुति अने 'जय जय'ना घोषना घोंघाटना अर्थमां, तो बीजा एक स्थाने (पृ. ६८, पं. ३०) प्रचंड राक्षसना अट्टहास्यना घोर शब्द माटे गद्दब्भ वपरायो छे. एक अटकळ एवी करी शकाय के खरमुखी-वाद्यनो घोंघाट ('पुकार' के 'चुंकार') अने गधेडाना भुंकवाना शब्द परथी आ गद्दब्भ (गार्दभ्य) शब्द प्रचारमां आव्यो होय. (संदर्भ : आचाराङ्गसूत्र, संपा. सागरानन्दसूरि. पुनर्मुद्रण १९७८). ,, जैन आगम ग्रन्थमाला, २ (१), १९७७. कुवलयमाला. उद्योननसूरिकृत. संपा. आ. ने. उपाध्ये. १. १९५९. भाग २. १९७०. देशीनाममाला. हेमचंद्राचार्यकृत. देशी शब्दकोश. संपा. मुनि. दुलहराज. १९८८. पाइअसद्दमहण्णवो. संपा. ह. शेठ. १९६३. Indological Studies. H. C. Bhayani, १९९३ . दुली 'काचबो' हेमचंद्राचार्ये दुली शब्द 'काचबो' एवा अर्थमां देश्य शब्द तरीके 'देशीनाममाला' (पृ. ४२)मां नोंध्यो छे. तेमना 'अभिधान-चिन्तामणि'(१३५३)मा [45] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलेय 'काचबो' अने दुली 'काचबी' ए संस्कृत शब्दो तरीके आप्या छे. प्राकृतकोशमा डुली एवं शब्दरूप पण मळे छे. दुली अने डुली शब्दनो प्रयोग 'उपदेशपद'मां थयो होवानुं नोंध्यु छे. आ शब्दनो प्रयोग इसवीसन पूर्वे त्रीजी शताब्दी जेटलो तो जूनो छे ज. अशोकना तेना राज्याभिषेकना २६मा वरसे कोतसवेला स्तंभलेखोमां (रामपूर्वा, राधिआ, माथिआ) आपेल पांचमा धर्मशासनमा जे प्राणीओने अवध्य गणवानो आदेश आप्यो छे तेमनी सूचिमां दुडि (के दुळि) नो पण निर्देश मळे छे. अने अशोकलेखोना निष्णातोए तेनो 'मीठा जळनो नानो काचबो' एवो अर्थ को छे, गुज. शेळो हेमचंद्राचार्यकृत 'अभिधान-चिन्तामणि'मां शल्य, शलल, शल्यक अने श्वाविध् ए शब्दो 'साहुडी' के 'शेढी, शेढाळी'ना अर्थमा आपेला छे. साहुडी अने शेळो बने कांटवाळ प्राणी होईने तेमना वाचक शब्दोना अर्थ वच्चे गोयळो थवो स्वाभाविक छे. सं. जाहक, प्रा. जाहग शेळानो वाचक छे, पण प्राकृत कोशमां तेनो 'साहुडी' एवो अर्थ अपायो छे. शललः के तेनुं स्वार्थिक क वाळु रूप शललकः. तेमाथी लगोलग रहेला बे लकारमाथी पहेलानो लोप थतां प्राकृत भूमिकाए सयलओ एवं रूप सिद्ध थाय. लगोलग रहेला बे र के ण मांथी पहेलानो लोप करवानुं वलण नीचेनां दृष्टांतोमा प्रतीत थाय छे : सं. करीर, प्रा, कईर, गुज. केरडो. सं. शरीर, प्रा. सईर, गुज. सयर. सं. पंचानन, प्रा. पंचायण, जू. गुज. पंचायण. आ वलण अनुसार थयेल सयलओ उपरथी पछी सयलउ अने शेळो बन्या. एकारने प्रभावे स् तालव्य बन्यो. (९) सिऊरा मोहनलाल दलीचंद देशाईना 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास मां (पृ. ५५६, कंडिका ११) नोंध्युं छे के बादशाह अकबरना जीवन अने कार्यने [46] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगता अबुलफझलना ग्रंथ 'आयने अकबरी' मां (बीवरेजनो अंग्रेजी अनुवाद, पृ. 3, प्रकरण 45, पृ. 365) अकबरे फतेहपुर सिक्रीमा इ.स. १५७८मां स्थापेल एबादतखानामां घणा धर्मोना जे प्रतिनिधिओ धर्म संबंधी चर्चा चलवता हता, तेमां सुफी, दार्शनिको, सुन्नी, शीआ, ब्राह्मण, जती, सिऊरा, चार्वाक, नाझरेत वगैरेनो समावेश थतो हतो. विन्सेन्ट स्मिथे आ यादीमां जे 'सिऊरा' शब्द छे तेनी उपर नोंध आपतां 'सिऊरा' (="श्रमणो') एनो बीजाए करेलो 'बौद्धो' एवो अर्थ साचो नथी, पण ते श्वेतांबर जैनो हता एम कडं होवानु पण देशाईए नोंध्युं छे. ___ आ सिऊरा एटले तत्कालीन ऊर्दु के गुजराती भाषानो कयो मूळ शब्द ? तेनुं मूळ शुं ? सं. श्वेतपटः, 'प्रा. सेअवडो, तेना परथी जूनी गुजराती सेवडु विस्तारित सेवडउ, बहुवचन सेवडा. 'प्रबंधचिंतामणि मां शैव वामराशिए कहेलुं हेमचंद्राचार्यनी निंदारूप जे संस्कृत पद्य आप्यु छ (पृ. 92, पद्यक्रमांक 200) तेमां हेमडसेवड एवो प्रयोग करेल छे जेना मूळमां तत्कालीन बोलचालनो श्वेतांबरोने लगतो शब्दप्रयोग छे. आ सेवडा- अबुलफझले फारसी उच्चारण सिऊस एवं करेल छे. [47]