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संस्कृत की शतक-परम्परा
.. पद्य-संख्या-सूचक रचनामों की परम्परा संस्कृत में बहुत प्राचीन तथा समृद्ध है। प्राकृत, अपभ्रश तथा कतिपय वर्तमान प्रादेशिक भाषाओं की भाँति संस्कृत में अष्टक, दशक, पञ्चविशंति, द्वात्रिशिका, पञ्चाशिका, सपृति, शतक, सपृशती, सहस्र अथवा साहस्री संज्ञक कृतियों का विपुल तथा वैविध्यपूर्ण साहित्य विद्यमान है। इनमें से कुछ विधानों ने तो जनमानस को इतना मोहित किया कि समय-समय पर विभिन्न कवियों ने वैसी अनेक रचनाए लिखीं हैं। हिन्दी में प्रायः इन समस्त साहित्यांगों ने व्यापक ख्याति अजित की है । संस्कृत में अष्टकों तथा शतकों का प्रचुर निर्माण हुआ है। प्राचीन-पर्वाचीन प्रतिभाशाली प्रख्यात कवियों ने अपनी कृतियों से साहित्य के इस पक्ष को पुष्ट तथा गौरवान्वित किया। स्तोत्र, चरित वर्णन, नीति इतिहास, छन्द, कोश, आयुर्वेद, सदाचार, शृङ्गार, वैराग्य आदि जीवनोपयोगी सभी विषयों तथा पक्षों पर सैकड़ों शतकों की रचना हई है। छठी शताब्दी ईस्वीं से प्रारम्भ होकर शतक-रचना की परम्परा, किसी न किसी रूप में, आज तक अजस्र प्रचलित है। कतिपय वैदिक सूक्तों में भी मन्त्र-सख्या शत अथवा शताधिक है। किन्तु इस साहित्याङ्ग के विकास में उसका विशेष योग प्रतीत नहीं होता, यद्यपि वैदिक मन्त्रों की भांति अधिकांश प्राचीन शतकों के पद्य भी पूर्णतः प्रसङ्ग मुक्त एवं स्वतः सम्पूर्ण है। कुछ आधुनिक शतक अवश्य ही सम्बन्ध-सूत्र से स्पूत, हैं भले ही वह सूक्ष्म अथवा अदृश्य हो । सोमेश्वर-रचित रामशतक (१३ वीं शताब्दी) में यह कथा-तारतम्य अधिक मांसल है। इस प्रकार, संस्कृत-शतकों में प्रसङ्ग-स्वातन्त्र्य से प्रबन्ध रूपता की ओर उन्मुख होने की प्रवृत्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है।
संस्कृत तथा हिन्दी शतक-साहित्य के सम्बन्ध में श्री जा० विश्वमित्र का कथन है कि "भारतीय साहित्य की परम्परामों के मूलस्रोत संस्कृत-साहित्य में शतकों की संख्या एक शत से अधिक नहीं है। अन्य प्रान्तीय भाषाओं में भी इस साहित्यांग का समृद्ध रूप (संख्या और साहित्यिक महत्त्व की दृष्टि से) प्राप्त नहीं है। हिन्दी-साहित्य में शतकों की संख्या ऊँगलियों पर गिनी जा सकती है।" १ । परन्तु वास्तविकता इससे सर्वथा भिन्न है। हिन्दी के २२० शतकों की सूची सम्मेलन पत्रिका, भाग ५२, संख्या १-२ में प्रकाशित हो चुकी है। संस्कृत-शतकों की संख्या भी सौ तक सीमित नहीं । गत दो वर्षों को खोज से मुझे १०६ शतकों की जानकारी प्राप्त हुई है, जिनमें अधिकतर प्रकाशित हैं । इसके अतिरिक्त जैन कवियों के ५३ संस्कृत शतकों का विवरण श्री अगरचन्द नाहटा ने अपने एक सद्यः प्रकाशित लेख में दिया है । बौद्ध शतक अलग हैं । अधिक खोज से विभिन्न सम्प्रदायों के विद्वानों द्वारा रचित संस्कृत शतकों की संख्या तीन सौ के करीब
१. द्रष्टव्य-सम्मेलन-पत्रिका, भाग ४६, संख्या ४ में प्रकाशित लेख तेलगु भाषा में शतक-काव्य की परम्परा ।
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पहुँचेगी । प्राप्त १०६ शतकों का विवेचन यहाँ प्रस्तुत किया जाता है । इनमें कुछ तो प्रादेशिक भाषात्रों के शतकों के संस्कृत अनुवाद हैं कुछ मात्र संकलन है, परन्तु अधिकांश कृतियाँ मौलिक हैं। विषय - वैविध्य, संख्या तथा साहित्यिक गरिमा की दृष्टि से संस्कृत-साहित्य का यह अंग नितान्त रोचक तथा महत्त्वपूर्ण है ।
प्राचीनतम उपलब्ध शतक संज्ञक रचनाए भर्तृहरि ( ५७० - ६५१ ) के ३१-३) नीति, शृङ्गार तथा वैराग्य शतक हैं। नीतिशतक में उन उदात्त सद्गुणों का चित्रण हुआ है जिनका अनुशीलन मानव-जीवन को उपयोगी तथा सार्थक बनाता है । भर्तृहरि की नीति परक सूक्तियाँ लोकव्यवहार में पग-पग पर मानव का मार्गदर्शन करती है । यहां शतक प्रणेता, वस्तुतः लोककवि के रूप में प्रकट हुआ है जो अपनी तत्त्वभेदी दृष्टि से मानव प्रकृति का पर्यवेक्षण तथा विश्लेषण कर उसकी भावनाओंों को वाणी प्रदान करता है । शृङ्गार शतक काम तथा कामिनी के दुनिवार आकर्षण २ तथा आसक्ति की सारहीनता का रंगीला चित्र प्रस्तुत करता है | प्रकर्षण तथा विकर्षण के दो ध्रुवों के बीच भटकने वाले असहाय मानव की दयनीय विवशता का यहाँ रोचक वर्णन हुआ है । वैराग्य शतक में संसार की भंगुरता, धनिकों की हृदयहीनता तथा प्रव्रज्या की शान्ति तथा आनन्द का अकन है ।
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प्रो० कोसम्बी के मतानुसार नीति, शृङ्गार तथा वैराग्य सम्बन्धी भर्तृहरि विरचित प्रमाणिक पद्य मूलतः शतकाकार विद्यमान नहीं थे । उन्हें इस रूप में प्रस्तुत करना कवि को अभीष्ट भी नहीं था ४ | डॉ० विष्टरनिटज शृङ्गार शतक को तो भर्तृहरि की प्रामाणिक तथा सुसम्बद्ध रचना मानते हैं उनके विचार से इसमें वैयक्तिकता के स्वर ग्रन्य दो शतकों की अपेक्षा अधिक मुखर हैं। नीति तथा वैराग्य शतक, लिपिकों के प्रमाद के कारण, सुभाषित संग्रह बन गये हैं, जिनमें भर्तृहरि के प्रामाणिक मूल पद्यों की संख्या बहुत कम है ५ । निस्सन्देह विभिन्न संस्करणों में तथा एक संस्करण की विभिन्न प्रतियों में इन शतकों की पद्य संख्या अनुक्रम तथा पाठ में पर्याप्त वैभिन्य । पर इनके रूप के अस्तित्व को चुनौती देने की कल्पमा साहसपूर्ण प्रतीत होती है, क्योंकि परवर्ती समग्र शतक - साहित्य की प्रेरणा का मूलस्रोत ये शतक ही हैं ।
इनका प्राकार तथा परिमाण कुछ भी रहा हो, शतकत्रयी को देश-विदेश में अनुपम लोकप्रियता प्राप्त हुई है । अगणित पाण्डुलिपियाँ, संस्करण, टीकाएं तथा अनुवाद इस ख्याति के ज्वलन्त प्रमाण हैं । इण्डिया ग्राफिस तथा ब्रिटिश संग्रहालय के सूची पत्रों से भर्तृहरि के शतको के शताधिक मुद्रित संस्करणों, रूपान्तरों तथा अनुवादों के अस्तित्व की सूचना मिलती है ।
यूरोप का भर्तृहरि से सर्वप्रथम परिचय नीति तथा वैराग्य शतकों के डच अनुवाद के माध्यम से सन् १६५१ में हुआ, जो अब्राहम रोजर ने पालघाट के ब्राह्मण पद्मनाभ की सहायता से किया था । इस
२. तावदेव कृतिनामपि स्फुरत्येष निर्मल विवेक दीपकः ।
यावदेव न कुरङ्गचक्षुषां ताड्यते चटुल लोचनाञ्चलैः !! शृङ्गार
३. सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिनृप इव । वैराग्य
४. शतकत्रयादि- सुभाषित-संग्रह की भूमिका, पृष्ठ ६२
५. History of Indian Literature, Vol. III, Part I, P. 156
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संस्कृत की शतक - परम्परा
अनुवाद के आधार पर थामस ने दोनों शतकों का फ्रेंच रूपान्तर प्रस्तुत किया (एम्सम, १६७० ) । भर्तृहरि के समस्तं पद्यों का प्राचीनतम मुद्रित संस्करण विलियम कैरी का है, जो हितोपदेश के संग से रामपुर से १८०३-४ ई० में प्रकाशित हुआ था इसकी एक प्रति इण्डिया प्रॉफिस में सुरक्षित है। इसके पश्चात् भारत तथा विदेशों में शतकत्रय के अनेक संस्करण तथा देशी-विदेशी भाषात्रों में अनेक अनुवाद प्रकाशित हुए। बॉन व्होलेन ने बलिन से इसका सम्पादन (१८३३ ई०) तथा जर्मन में अविकल पद्यानुवाद किया (१८३५ ई०) । हरिलाल द्वारा सम्पादित शतकत्रय दिवाकर प्रेस बनारस से १८६० में प्रकाशित हुए । भर्तृहरि का यह प्राचीनतम भारतीय संस्करण है घलवर- महाराज के संग्रह में सुरक्षित पाण्डुलिपि इसी की विकृत प्रति है । हिन्दी में भर्तृहरि का सर्वाधिक लोकप्रिय अनुवाद राणा प्रतापसिंह कृत पद्यानुवाद है (१८ वीं शताब्दी) शृङ्गारशतक का गद्यानुवाद हिन्दी में सब से प्राचीन है (१६२७) ।
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भर्तृहरि के शतकों के आधुनिक समीक्षात्मक सस्करणों का प्रारम्भ कान्तानाथ तैलंग के संस्करण से हुआ, जो सन् १८६३ में बम्बई से प्रकाशित हुआ था । अब भी इन शतकों के सामूहिक अथवा स्वतन्त्र प्रकाशन और अनुवाद होते रहते हैं । परन्तु सर्वोत्तम तथा स्तुत्य कार्य प्रो० कोसम्बी ने किया। उन्होंने ३७७ हस्तलिखित प्रतियों तथा उपलब्ध संस्करणों के पर्यालोचन के आधार पर भर्तृहरि के समस्त उपलब्ध पद्यों का परम वैज्ञानिक संस्करण विस्तृत भूमिका सहित प्रकाशित किया है ( भारतीय विद्या भवन, बम्बई, १९४७)
शतकत्रय पर विभिन्न समय में अनेक टीकाएं लिखी गई। जैन विद्वान् धनसार की टीका प्राचीनतम है (१४७८ ई०) । इन शतकों की सबसे प्राचीन प्राप्य प्रति भी एक जैन विद्वान्, प्रतिष्ठा सोमगरिण, द्वारा की गयी थी ( १४४० ई० )
(४) मयूर का सूर्यशतक (सातवीं शताब्दी) स्तोष-साहित्य की प्रग्रणी कृति है। इसमें क्रमशः सूर्य की किरणों, उसके अश्वों, सारथि, रथ तथा बिम्ब की अत्यन्त प्रौढ़ तथा अलंकृत शैली में स्तुति की गई है । शतक का प्रत्येक पद्य प्राशी: रूप है । कल्याण, धन प्राप्ति अथवा शत्रु एवं प्रपत्तियों के विनाश की कामना शतक में सर्वत्र की गई है। अन्तिम पद्य (१०१ ) में सूर्यशतक की रचना का मुख्य प्रयोजन 'लोकमंगल' बतलाया गया है (श्लोका लोकस्य भुत्यै शतमिति रचिताः श्री मयूरेण भक्त्या ) । संग्रधरा वृत्तों में रचित शतकों की परम्परा का प्रवर्तन सूर्यशतक से ही हुआ है ।
सूर्यशतक के सात संस्करण ज्ञात हैं, तथा भिन्न-भिन्न समय में इस पर २२ टीकाएं लिखी गयी। सूर्य शतकं का सर्वप्रथम अनुवाद डा० कार्लो वर्नंहीमर ने इतालवी भाषा में किया जो 'सूर्य शतक डि मयूरे ' नाम से १६०५ में प्रकाशित हुआ। क्वेनबास ने The Sanskrit Poems of Mayura में सूर्य शतक, मयूराष्टक तथा बाणकृत चण्डीशतक का सम्पादन तथा अंग्रेजी में अनुवाद किया (१९१७) । इसके पश्चात् सूर्यशतक रमाकान्त त्रिपाठी के हिन्दी अनुवाद सहित, १९६४ में चौखम्बा भवन, वाराणसी प्रकाशित हुआ ।
६. R. P. Dewhurst ने इसे उत्तर प्रदेश इतिहास समिति की शोध पत्रिका की प्रथम जिल्द । १९१७ ) में प्रकाशित किया था।
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श्री रमाकान्त त्रिपाठी ने स्वसम्पादित सूर्यशतक की भूमिका में चार अन्य सूर्यशतकों का उल्लेख किया है । (५) गोपाल शर्मन् कृत सूर्यशतक कलकत्ता से १८७१ ई० में प्रकाशित हुआ था । अॉफेक्ट के कैटालोगस कैटालोगोरियम में इसका उल्लेख हुआ है। (६) श्रीश्वर विद्यालङ्कार के सूर्यशतक की एक पाण्डुलिपि राजेन्द्रलाल मित्र को प्राप्त हुई थी। सम्भवतः यह अभी तक अप्रकाशित है। (७) तीसरा सूर्यशतक राघवेन्द्र सरस्वती नामक किसी कवि की रचना है। पीटरसन को इसकी एक हस्तलिखित प्रति भी मिली थी । एक हस्तलिखित प्रति महाराज-अलवर की पुस्तकालय में विद्यमान है। (८) एक अन्य सूर्यशतक लिङ्ग कवि की कृति है । विलियम टेलर को इसकी एक पाण्डुलिपि उपलब्ध हुई, जिसमें मूल पाठ के साथ टीका भी है।
मयूर के जामाता बाण का (8) चण्डीशतक एक अन्य प्राचीन प्रसिद्ध स्तोत्र काव्य है । बाग ने अपने श्वसुर द्वारा प्रवर्तित स्रग्धरा-परम्परा को चण्डीशतक में पल्लवित किया। इसके १०२ स्रग्धरा पद्यों में भगवती चण्डी की, विशेषत: उनके चरण की, जिससे उन्होंने महिषासुर का वध किया था, प्रशस्त स्तुति हुई
शितक की भांति इसका भी प्रत्येक पद्य प्राशी रूप है । गद्य सम्राट बाग की दुरुह तथा कृत्रिम शैली चण्डीशतक में पूर्ण वैभव के साथ प्रकट हुई है । बाण की यह काव्यकृति उनके गद्य के समान दुर्बोध तथा दुर्भेद्य है। चण्डीशतक काव्य माला के चतुर्थ गुच्छक में प्रकाशित हो चुका है। क्वेकेनबास ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया है।
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(१०) अमरुशतक (आठवीं शती का पूर्वार्ध) अमरु-रचित शृङ्गारिक मुक्तकों का संग्रह है जिनकी संख्या तथा क्रम में, विभिन्न संस्करणों में, पर्याप्त भेद है। सामान्यतः प्राचीनतम टीकाकार अर्जुन वर्मदेव (तेहरवीं शताब्दी) का पाठ शुद्ध तथा प्रम णिक माना जाता है । गीतिकाव्य के क्षेत्र में कालिदास के उपरान्त कदाचित् अमरु ही एक मात्र ऐसे कवि हैं, जिन्हें काव्य शास्त्रियों से भरपूर प्रशंसा मिली है । प्राचार्य प्रानन्दवर्धन ने अमरु के प्रत्येक मुक्तक को, रस-प्राचुर्य तथा भाव गाम्भीर्य की दृष्टि से, प्रबन्ध काव्य के समकक्ष माना है (मुक्तकेषु प्रबन्धेष्विव रसबन्धाभिनिवेशिनः कवयो दृश्यन्ते । यथा ह्यमरुकस्य कवेमुक्तकाः शृङ्गार रमस्यन्दिनः प्रबन्धायमानाः प्रसिद्धा एवं) सचमुच अमरु ने मुक्तक की गागर में रस का सागर भर दिया है। अमरुशतक में मदिरमानस प्रेमी युगलों के कोप-मनुहार, मान-मना वन, ईर्ष्या-प्रणय तथा शृङ्गार की अन्य मादक भंगिमानों का भाव भीना तथा चारु चित्रण हुया है।
भत हरि के शतकों की भाँति अमरुशतक भी रसिक समाज में बहुत विख्यात हुआ । इस शतक पर विभिन्न विद्वानों ने चालीस टीकाए' लिखीं तथा देश-विदेश में इसके अनेक सम्पादन और अनुवाद हुए । सन् १८०८ में 'एडिटियो प्रिन्सेप्स' में देवनागरी लिपि में प्रथम बार कलकत्ता से प्रमहशतक का 'कामदा' के साथ प्रकाशन हमा। १८७१ ई० में भाषा सञ्जीवनी प्रेस, मद्रास से इसका एक दाक्षिणात्य संस्करण प्रकाशित हया । इसमें वेमभूपाल की टीका थी । सन् १८८६ में निर्णय सागर प्रेस ने 'रसिक सञ्जीवनी' के साथ इस ग्रन्थ का पश्चिमी संस्करण प्रकाशित किया । जीवानन्द विद्यासागर द्वारा सम्पादित पौरस्त्य पाठ काव्यसंग्रह' के द्वितीय भाग में मुद्रिन हग्रा । रिचर्ड साइमन ने तब तक उपलब्ध समस्त सामग्री तथा पाण्डुलिपियों का मन्थन कर कील (जर्मनी) से अमरुशतक का १८६३ ई० में अतीव समीक्षात्मक संस्करण प्रकाशित किया। सुशील कुमार डे ने 'अवर हेरिटेज' के प्रथम-द्वितीय भाग में रुद्रदेव कुमार की टीका तथा अमरुशतक के मूल
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संस्कृत की शतक-परम्परा
पाठ का प्रकाशन किया ७ । श्री कमलेशदत्त त्रिपाठी ने सन् १९६१ में मित्र प्रकाशन गौरव ग्रन्थ माला के अन्तर्गत ललित हिन्दी भावानुवाद के साथ शतका सुन्दर संस्करण प्रकाशित किया ।
टीकाकार रविचन्द्र ने अमरु की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हुए उसकी कृति की शान्तरसपरक व्याख्या करने की दुश्चेष्टा की है। इस सन्दर्भ में म०म० दुर्गा प्रसाद का कथन है “स च शुचिरसस्यन्दिष्व-मरुश्लोकेषु परिशील्यमानेषु 'रहसि प्रौढवधूनां रतिसमये वेदपाठ इव सहृदयानां शिरःशूलमेव जनयति"।
कश्मीरी कवि भल्लट (आठवीं शती) का (११) शतक शिक्षाप्रद नीतिपरक मुक्तकों का संगह है। कविता विविध विषयों का स्पर्श करती है, किन्तु अन्योक्तियों का वाहुल्य है। भल्लट की कृति लालित्य तथा प्रसाद से परिपूरित है । ऐसी आकर्षक तथा भावपूर्ण अन्योक्तियां साहित्य में कम मिलती हैं ।
चिन्तामरिण ! किसी चक्रवर्ती सम्राट ने तुम्हें अपने मुकुट में धारण कर गौरवान्वित नहीं किया है, इस कारण तू विषाद मत कर । जगत में कोई शीश इतना पुण्यशाली कहां कि तुम्हारे परस का सौभाग्य पा सके।
चिन्तामणे भुवि न केनचिदीश्वरेण मूर्ना धृतोऽहमिति मा स्म सखे विषीदः । नास्त्येव हि त्वदधिरोहणपुण्यवीजसौभाग्ययोग्यमिह कस्यचिदुत्तमाङ्गम् ॥
पांच अन्य कश्मीरी कवियों ने अपनी रुचि तथा मान्यता के अनुसार शतको का निर्माण किया है। स्तोत्र काव्यों की शृङ्खला में ध्वनिकार प्राचार्य आनन्दवर्धन के (१२) देवीशनक का निजी स्थान है। देवी शतक के सौ पद्यों में भगवती दुर्गा की स्तुति हुई है। देवीशतक कवि की किशोर कृति प्रतीत होती है। सम्भवतः इसीलिये इसमें न भक्ति की ऊष्मा है, न भावों की उदात्तता, न कल्पनाओं की कमनीयता । देवीशतक की महत्ता काव्य-गुणों के निमित्त नहीं, कवि के व्यक्तित्व के कारण है।
कश्मीर नरेश शकर वर्मा (८८३-६०२ ई.) के सभाकवि वल्लाल का (१३) शतक, भल्लट शतक की भांति अन्योक्ति प्रधान है।
(१४) चारुचर्याशतक कश्मीर के प्रख्यात बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कवि क्षेमेन्द्र (११ वीं शती) की रचना है। शतक में जीवनोपयोगी सद्व्यवहार तथा लोकज्ञान का सन्निवेश है। प्रत्येक उपदेश को तत्सम्बन्धी पौराणिक ऐतिहासिक आख्यान का दृष्टान्त देकर पुष्ट किया है। उपकार करते समय प्रत्युपकार की कामना करना अशोभनीय है । कर्ण का दान 'शक्ति' प्राप्ति की याचना से दूषित हो गया था।
त्यागे सत्त्वनिधिः कुर्यान्न प्रत्युपकृतिस्पृहाम् । कर्णः कुण्डलदानेऽभूत कलुषः शक्तियाञ्चया ।।
७. देखिये श्री कमलेशदत्त त्रिपाठी द्वारा सम्पादित 'अमरुशतक' की भूमिका ।
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[ ३१३ चारुचर्याशतक काव्यमाला के द्वितीय गुच्छक तथा 'क्षेमेन्द्रलघुकाव्यसंगः' में मुद्रित हुआ है।
शिल्हन के (१५) शान्तिशतक की विशुद्ध धार्मिक रचना भर्तृहरि के वैराग्यशतक के अनुकरण पर हुई है । शान्तिशतक विशुद्ध धार्मिक रचना है, जिसमें जीवन की निस्सारता तथा वैराग्य एवं विरक्तों की चर्या का गौरवगान किया गया है। शतक के पद्यों में भर्तृहरि की प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनाई पड़ती है। शिल्हण का समय अज्ञात है। पिशेल ने शिल्हण को विक्रमाङ्क देवचरित के प्रणेता विल्हरण से अभिन्न मानकर उसकी स्थिति ११ वीं शती में निर्धारित की है।
शम्भुकृत (१६) अन्योक्तिमुक्तालताशतक में १०८ नीतिपरक अलंकृत अन्योक्तियां संगृहीत हैं। कविता में विशेष आकर्षण नहीं है। शम्भु कश्मीर के प्रसिद्ध शासक हर्ष (१०८६-११०१ ई०) के सभाकवि थे। उनका 'राजेन्द्र कर्णपूर' आश्रयदाता की प्रशस्ति है।
(१७) चित्रशतक मयूर-रचित सूर्यशतक की परम्परा का स्तोत्रकाव्य है। इसमें विभिन्न देवीदेवताओं की विविध छन्दों में स्तुति की गई है। काव्य की यह विशेषता है कि प्रत्येक पद्य में 'चित्र' शब्द अवश्य पाया है। श्लोकों की कुल संख्या सौ है । सम्भवतः इसी कारण कवि ने इस गन्थ का नाम चित्र शतक रखा है । गन्थ को रचना का उद्देश्य अन्तिम पद्य में इस प्रकार बतलाया गया है
बालानामपि भूषणं परिगलदवर्णं यथा जायते प्राज्ञानां मनस: प्रमोदविधये चित्रं विहासास्पदम् तद्वत्काव्यमिदं भवेदय बुधः प्रोत्साहना नित्यशः
कर्तव्या चतुरोक्तिः शिक्षण पुरस्कारेण निर्मत्सरैः ।। महाराष्ट्रीय ज्ञानकोश के सम्पादक श्रीधर व्यंकटेश केतकर ने चित्रशतक के प्रणेता रामकृष्ण कदम्ब की स्थिति तेरहवों शताब्दी में निश्चित की है।
नागराजकवि का (१८) भावशतक काव्यमाला के चतुर्थ गुच्छक में प्रकाशित हुअा है। काव्यमाला के उक्त भाग के सम्पादक के अनुसार नागराज धारानगरी का नृपति था । उसके आश्रित किसी कवि ने इस शतक की रचना उसके नाम से की। नागराज इसका वास्तविक कर्ता नहीं है [नाग राजनामा धारा नगराधिपः कश्चित् महीपतिरासांत्, तन्नाम्ना तदाश्रितेन केनचित् कविना (भावेन !) शतकमेतनिमितामिति] शतक के अन्तिम पद्य में नागराज के शौर्य का जिस प्रकार वर्णन किया गया है, उससे भी उसका शासक होना प्रमाणित होता है ।
भावशतक के प्रत्येक पद्य में एक विशिष्ट भाव निहित है, जिसका स्पष्टीकरण पद्य के पश्चात् गद्य में प्रायः कर दिया गया है। कहीं कहीं पाठक के अनुमान अथवा कल्पना पर छोड़ दिया गया है। उदाहरणार्थ
८. द्रष्टव्य--Studies in Sanskrit and Hindi, July, 1967 (University of Rajasthan) .
में प्रकाशित श्री रमेशचन्द्र पुरोहित का लेख 'रामकृष्ण कदम्ब'-नव्ययुग के एक अज्ञात कवि तथा उनकी
अप्रकाशित रचनाए । पृष्ठ ७२-८२ । ६. सोऽयं दुर्जयदो जंगजनितप्रौढप्रतापानल
ज्वालाजालखिलीकृतारिनगरः श्रीनागराजो जयते । १०२
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संस्कृत की शतक-परम्परा
षण्मुखसेव्यस्य विभोः सर्वाङ्ग ऽलंकृतित्वमापन्नाः । पन्नागपतयः सर्वे वीक्षन्ते गणपति भीताः ।।
स्कन्दवाहनमयूरदर्शनमीताः शुण्डादण्डप्रवेशाय । नागराज के नाम से एक अन्य रचना (१६) "शृङ्गारशतक' भी प्रचलित है।' नागराज का समय अज्ञात है।
काव्यमाला के पञ्चम गुच्छक में पञ्चशती के अन्तर्गत पांच स्रोतकाव्य-(२०-२४) कटाक्षशतक, मन्दस्मितशतक, पादारविन्दशतक, प्रायशतक तथा स्तुतिशतक- प्रकाशित हुए। कटाक्ष, मन्दस्मित तथा आर्याशतक में सौ-सौ पद्य हैं, शेष दो में १०१ । इनका रचयिता मूककवि है, जो नाम की अपेक्षा उपाधि प्रतीत होती है। प्रथम तीन शतकों में काञ्ची की अधिष्ठात्री देवी कामाख्या के कटाक्ष, स्मित तथा चरणकमलों की स्तुति की गई है । अन्य दो में देवी की सामान्य स्तुति है । मूक कवि का स्थितिकाल अज्ञात है । जीवानन्द ने इन शतकों को कलकत्ता से प्रकाशित करना प्रारम्भ किया था, किन्तु पांचवां शतक उपलब्ध न होने के कारण, संख्यापूर्ति के निमित्त, उन्हें इस श्रेणी में (२५) माहिषशतक प्रकाशित करना पड़ा। विभिन्न हस्तलिखित प्रतियों में शतकों का क्रम भिन्न-भिन्न है।।
मुककवि की रचना साधारण कोटि की है। कहीं-कहीं अनुप्रास का विलास अवश्य अवलोकनीय है। कुछ पद्य उद्धृत किये जाते हैं।
आर्याशतक :
मधुरधनुषा महीधरजनुषा नन्दामि सुरभि बाणजुषा । चिवपूषा काञ्चिपुरे केलिजुषा बन्धूजीवकान्तिमूषा ।।७।। प्रणतजनतापवर्गा कृतरणसर्गा ससिंहसंसर्गा । कामाक्षि मुदितभर्गा हरिपुवर्गा त्वमेव सा दुर्गा ।।७।।
स्तुतिशतक :
कवीन्द्रहृदये चरी परिगृहीतकाञ्चीपुरी निरूटकरुणाझरी निखिललोकरक्षाकरी। मनः पथदवीयसी मदनशासनप्रेयसी महागुरणगरीयसी मम दृशोऽस्तु नेदीयसी ।।४।।
अन्योक्तिपरक काव्यों की परम्परा में भट्ट वीरेश्वर का (२६) अन्योक्तिशतक रोचक कृति है। भ्रमर, चन्दन, भेक, पिक आदि परम्परामुक्त प्रतीकों को लेकर भी कवि ने सुन्दर अन्योक्तियों की रचना की है। भ्रमर को यदि चम्पक-कलि से अनुराग नहीं, तो क्या हानि ! वे मृगनयनी बालाएं कुशल रहें जो केलिगृह की देहली पर बैठकर उसे अपना कर्णाभूषण बनाती हैं।
१०.
Winternitz : History of Indian Literature, Vol. III, partI, Foot Note l,P 163.
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त्वं चेच्चम्पककोरके न कुरुषे प्रमाणमेतावता का हानिर्नहि तस्य कृत्यमपि रे किञ्चित्पुनीयते । तेनैवास्य तु वैभवं मधुप हे यद भूषयन्ति स्फुट
केलीमन्दिर देहलीपरिसरे कर्णेषु वामभ्र वः ।। कवि वीरेश्वर द्रविडनरेश मौद्गल्य हरि का पुत्र था।११ उसका समय अज्ञात है। वीरेश्वर का शतक काव्यमाला ५ में प्रकाशित हो चुका है।
(२७) रामशतक रामायणीय इतिवृत्त पर आधारित प्राचीनतम परिज्ञात प्रबन्धात्मक शतक है। मयूर ने जिस स्रग्धरात्मक शतक-परम्परा का प्रारम्भ किया था, रामशतक में उसका सफल निर्वाह हमा है। इसके सौ छन्दों में भगवान राम की अभिराम स्तुति है। १०१ वां पद्य भी हैं, पर वह स्रोत का भाग नहीं । इस उपजाति में कवि सोमेश्वर ने आत्मपरिचय दिया है
विश्वम्भरामण्डलमण्डनस्य श्रीराम भद्रस्य यशः प्रशस्तिम् । चकार सोमेश्वरदेवनामा यामार्धनिष्पन्नमहाप्रबन्धः ।।
रामशतक में रामजन्म से लेकर अयोध्या-पागमन तथा राज्याभिषेक तक की समूची कथा संक्षेपतः निबद्ध है । स्तुति रामकथा के अनुसार आगे बढ़ती है। स्रग्धरा जैसे दीर्घ तथा जटिल छन्द का प्रयोग होने पर भी रामशतक की कविता माधुर्य तथा प्रसाद से सम्पन्न है । स्तोत्र-सुलभ सहृदयता तथा भक्ति-विह्वलता से रामशतक आद्योपान्त अोतप्रोत है। कवि सूर्यशतक आदि शतश्लोकी स्तोत्रों से प्रभावित अवश्य है, किन्तु उसकी कविता दुरूहता तथा कृत्रिमता से सर्वथा मुक्त है । रामशतक सोमेश्वर की नाट्यकृति 'उल्लासराघव' के परिशिष्ट रूप में, गायकवाड़ प्रोरियेण्टल सीरीज, बड़ौदा से प्रकाशित हुआ है। सोमेश्वर गुजरात के शासक वस्तुपाल (तेरहवीं शताब्दी) का आश्रित कवि था।
(२८) रोमावलीशतक लक्ष्मण भट्ट के पुत्र कवि रामचन्द्र की रचना है। रामचन्द्र ने १५२४ ई० में रसिक रञ्जन नामक एक अन्य काव्य का निर्माण अयोध्या में किया था। इस पर उन्होंने शृङ्गार तथा वैराग्य परक एक टीका भी लिखी थी। १२
(२६) प्रार्याशतक को, इसके सम्पादक श्री एन० ए० गोरे ने शैवदर्शन के प्रकाण्ड प्राचार्य अप्पयदीक्षित (१५५८-१६३० ई० अथवा १५२०-१५६२ ई.) की रचना माना है, यद्यपि उनकी उपलब्ध ग्रन्थ सूची में इसका उल्लेख नहीं है । शतक की सो पार्याओं में प्रार्यापति भगवान् शङ्कर की कमनीय स्तुति की गयी है। इसीलिये इसका नाम आर्याशतक रखा गया है। काध्य का प्रारंभ भगवद् वन्दना से होता है
दयया यदीयया वाङ् नवरसरुचिरा सुधाधिकोदेति । शरणागत चिन्तितदं तं शिवचिन्तामरिंग वन्दे ।।
११. योऽभूद्राविडचक्रवतिमुकुटालंकारभूतस्य रे
मौद्गल्यस्य हरेः सुतः क्षितितले वीरेश्वरः सत्कविः ।।१०५।। १२. शब्दकल्पद्र म, चतुर्थ भाग, पृष्ठ १५२.
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संस्कृत की शतक-परम्परा
शतक में कवि ने भगवान् शङ्कर से अपनी शरण में लेने, दारिद्र य-निवारण, जन्म-मरण के चक्र से मुक्त तथा भक्ति भावना स्फूरित करने की प्रार्थना की है। काव्य को सामान्यत: दो खण्डों में विभक्त । किया जा सकता है। पूर्वार्ध में पाराध्यदेव की कृपा-पात्रता प्राप्त करने की प्रात्मनिवेदन-पूर्ण विह्वलता का प्रतिपादन है। कवि अर्ध नारीश्वर से अपने अर्ध भक्त को, उसके समस्त दोष भुला कर, औदार्य पूर्वक स्वीकार करने की याचना करता है।
वपुरर्ध वामार्धं शिरसि शशी सोऽपि भूषणं तेऽर्धम् । मामपि तवार्ध भक्तं शिव शिव देहे न धारयसि ।।
अपराध में कवि ने अपने मन तथा ज्ञानेन्द्रियों को शिव-आराधना में तत्पर होने को प्रेरित किया है।
चेतः शृणु मदवचनं मा कुरु रचनं मनोरथानां त्वम् । शरणं प्रयाहि शर्व सर्व सकृदेव सोऽर्पयिता ।।
प्रवाहमयी शैली तथा रचना-चातुर्य के कारण आर्याशतक स्तोत्र-साहित्य की अनूठी कृति है। चमत्कार पर्ण भावों को ललित तथा मधर भाषा में व्यक्त करने की कवि में अद्भुत क्षमता है। मधुर हास्य की अन्तर्धारा काव्य में रोचकता का सञ्चार करती है। श्री गोरे ने डॉ० राघवन की संस्कृत टीका तथा अपने अंग्रेजी अनुवाद सहित इसका पूना से सम्पादन किया है। काव्यमाला के द्वितीय गुच्छक के सम्पादक ने एक पाद-टिप्पणी में अप्पयदीक्षित के (३०) उपदेशशतक का उल्लेख किया है। सम्भवतः यह उनके वंशज नील कण्ठ दीक्षित की कृति है ।
शंकरराम शास्त्री-सम्पादित 'माइनर वर्क्स ऑव नील कण्ठ दीक्षित' (मद्रास, १९४२) में नील कण्ठ दीक्षित (१७ वीं शती) के (३१-३३) तीन शतक प्रकाशित हुए हैं । समारञ्जन शतक में विद्वन्मण्डली के मनोरञ्जनार्थ विद्वत्ता, दान, शौर्य, सहिष्णुता, दाम्पत्य प्रणय आदि मानवीय सद्गुणों का १०५ अनुष्टुप छन्दों में चित्रण हुआ है। दीक्षित जी की शैली अतीव सरल तथा प्रवाहपूर्ण है। शतक की कतिपय सूक्तियां बहुत मार्मिक हैं।
उद्यन्तु शतमादित्या उद्यन्तु शतमिन्दवः । न विना विदुषां वाक्यनश्यत्याभ्यन्तरं तमः ।।
शतक की पुष्पिका में कवि ने विस्तृत आत्म परिचय दिया है । इति श्रीभरद्वाज कुल जलधिकौस्तुभ श्रीकण्ठ मत प्रतिष्ठापनाचार्य चतुरधिकशतप्रबन्ध निर्वाहक महाव्रतयाजि श्रीमदप्पय दीक्षित सोदर्य श्रीमदाच्चा दीक्षित पौत्रेण श्री नारायण दीक्षितात्मजेन श्री भूमिदेवी गर्भ सम्भवेन श्री नीलकण्ठ दीक्षितेन विरचितं सभारञ्जन शतकम् ।
वैराग्य शतक विरक्ति तथा इन्द्रियवश्यता की महिमा का गान है। प्रयास तो अनेक करते हैं, किन्तु विषय-सेक्न का परित्याग विरले ही कर सकते हैं ।
शतश: परीक्ष्य विषयान्सधो जहति क्वचित्क्वचिद् धन्याः । काका इव वान्ताशनमन्ये तानेव सेबन्ते ।।
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सत्यव्रत 'तृषित'
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अन्यापदेश शतक १०१ अन्यापदेशात्मक पचों का संग्रह है। मधुसूदन का (३४) अन्यापदेश शतक काव्य माला के नवम गुच्छक में प्रकाशित हुआ । काव्य माला ४, पृष्ठ १८६ की पाद टिप्पणी में नील कण्ठदीक्षित के (३५) कलिविडम्बन शतक का उल्लेख हुआ है ।
उपर्युक्त टिप्पणी में उल्लिखित (३६-३८) श्रोष्ठशतक, काशिका तिलकशतक तथा जारजात शतक के कर्ता नोल कण्ठ नारायण दीक्षित के आत्मज नील कण्ठ दीक्षित से भिन्न तीन अलग व्यक्ति हैं। सभारज्जन की पुष्पिका में उपलब्ध दीक्षित के भ्रात्मवृत्त से यह स्पष्ट हो जाता है। म्रोष्ठ शतक का लेखक कवि नीलकण्ठ शुल्क जर्नादन का पुत्र है । काशिका तिलक शतक के रचयिता के पिता का नाम रामभट्ट है । तीनों का रचना काल अज्ञात है ।
(३) आश्लेषाशक विरहव्यथित मानस का करुण स्पन्दन है माधुरी विष बन जाती है । कविप्रिया को सम्बोधित शतक के समूचे पद्यों में की अभिव्यक्ति हुई है ।
वाले मालति ! तावकीमभिनवामा स्वादयन् माधुरी कञ्चिरकालमयाधुना बलवता दैवेन दूरीकृतः । उद्वायं चिरसेवितामनुदिनं तामेव तामेव सञ्चिन्तयन् भृङ्गः कश्चन दूयते तव कृते हा हन्त रात्रिन्दिवम् ॥
आश्लेषा नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण कवि प्रिया को शतक में प्राश्लेषा कहा गया है । उसका वास्तविक नाम 'गङ्गा' प्रतीत होता है (गङ्गेति प्रथिता करोषि सततं सन्तापमित्यद्भुतम् )
वियोग में पूर्वानुभूत संयोग की उत्कण्ठित मन की इसी कसक
इसके रचयिता नारायण पण्डित कालिकट नरेश मानदेव (१६५५-५८ ) के प्रति कवि थे । मानदेव स्वयं विद्वान् तथा विद्या प्रेमी शासक था। नारायण पण्डित उत्तरराम चरित की भावार्थदीपिका टीका के लेखक नारायण से भिन्न हैं । प्राश्लेषा शतक त्रिवेन्द्रम से १९४७ में प्रकाशित हुआ है ।
प्रख्यात वैष्णवाचार्य महाप्रभु चैतम्य के जीवन चरित से सम्बन्धित रचनाओं में सार्वभौम (१७वीं शती) की (४० ) शतश्लोकी ने बंगाल में काफी लोकप्रियता प्राप्त की है । १३
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कुसुमदेव कृत (४१) दृष्टान्त कलिका शतक सौ अनुष्टुपों की नीतिपरक रचना है। इसके प्रत्येक पद्य के भाव को दृष्टान्त द्वारा पुष्ट किया गया है। यही इसके शीर्षक की सार्थकता है।
उत्तमः क्लेशविक्षोभं क्षमः सोढुं नहीतरः । मणिरेव महाशा रणवर्षणं न तु मृत्करणः ||
१३. द्रष्टव्य - S. K. De : Bengats Contribution to Sanskrit Literature and Studies in Bengal Vaisnavism, 1960. P. 102.
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संस्कृत की शतक-परम्परा
कुसुमदेव का स्थितिकाल अनिश्चित है । सम्भवतः वे सतरहवीं शताब्दी में हए, यद्यपि वल्लभदेव ने सुभाषितावली में उनके कुछ पद्य उद्धृत किये हैं। यह काव्यमाला के गुच्छक १४ में प्रकाशित हो चुका है।
गुमानि का (४२) उपदेश शतक काव्यमाला के भाग १३ में प्रकाशित हुा । विषय नाम से स्पष्ट है। लेखक का समय ज्ञात नहीं है।
कवि नरहरि का (४३) शृङ्गारशतक ११५ अात्म सम्बोधित शृङ्गारिक मुक्तकों का संग्रह है, जो कहीं कहीं अश्लीलता की सीमा तक पहुंच जाते हैं। कवि को अपनी विद्वत्ता तथा कवित्व शक्ति पर बहुत गर्व है। प्रिया-वर्णन के व्याज से नरहरि ने अपनी कविता को कालिदास तथा बाग के काव्य का समकक्षी माना है।
श्री कालिदास कविता सुकुमार मूर्त बागस्य वाक्यमिव मे वचनं गृहाण । श्री हर्ष काव्य कुटिलं त्यज मानबन्ध वाणी कवेर्नरहरेरिव सम्प्रसीद ।।
अनुप्रास के प्रयोग में नरहरि सचमुच सिद्ध हस्त हैं।
सविनयमनुवार वच्मि कृत्वा विचार नरहरि परिहारं मा कृथाः दुःख भारम् । हृदि कुरु नवहारं मुञ्च कोप प्रकार
कुरु पुलिन विहारं सुभ्र संभोग सारम् ।। काव्य माला ११ में एक अन्य (४४) शृङ्गारशतक प्रकाशित हुआ, जिसके प्रणेता गोस्वामी जर्नादन भट्ट हैं । पुष्पिका में कवि ने कुछ प्रात्म परिचय दिया है। इति श्री गोस्वामिजगन्निवा सात्मज गोस्वामि जनार्दन भद्र कृतं शृङ्गार शतक सम्पूर्णम् । भट्र जनार्दन ने नारी-सौन्दर्य के कई मनोरम चित्र अंकित किये हैं। उनकी दृष्टि में नारी कामदेव की गतिमती शस्त्रशाला है (प्रायः पञ्चशराभिधक्षिति भुजा शस्त्रस्य शाला निजा) ।
कामराज दीक्षित के (४५-४७) तीन शृङ्गारिक शतक शृङ्गारकलिका त्रिशती नाम से प्रकाशित हए (काव्य माला १४) । प्रत्येक शतकमें पूरे सौ मुक्तक हैं। पद्य-रचना प्रकारादि तथा मात्रा क्रम से हुई है। प्रारम्भिक पद्यों में कवि ने प्रात्म परिचय दिया है। उसके पिता सामराज स्वयं सफल तथा विख्यात कवि थे।
हृदि भावयामि सततं तातं श्रीसामराजमहम् । यत्कृतमक्षरगुम्फ कवयः कण्ठेषु हारमिव दधते ॥१०॥ श्रीसामराज जन्मा तनुते श्रीकामराज कविः । .. मुक्तक काव्यं विदुषां प्रीत्यै शृङ्गार कलिकाख्यम् ॥१५॥
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काव्यमाला में (४८) एक खड्गशतक का प्रकाशन हुआ। इसका रचयिता तथा रचनाकाल
सत्यव्रत 'तृषित'
प्रज्ञात है ।
मुद्गलभट्ट कृत (४९) रामार्याशतक तथा गोकुलनाथ का ( ५० ) शिवशतक स्तोत्र - साहित्य की दो अन्य ज्ञात शतक नामक रचनाएं हैं। रामार्याशतक का उल्लेख, डॉ० कामिल बुल्के ने अपने विद्वत्तापूर्ण शोधप्रबन्ध 'रामकथा - उत्पत्ति और विकास' में किया है (पृष्ठ २१८ ) । शिवशतक का निर्देश रमाकान्त - सम्पादित सूर्यशतक की भूमिका ( पृष्ठ ३२ ) में हुआ है । दोनों का रचनाकाल अज्ञात है ।
जयपुर के साहित्य प्रेमी नरेशों ने संस्कृत- पण्डितों को उदारतापूर्वक प्रश्रय दिया तथा उन्हें विविध प्रकार से सत्कृत किया । अपनी श्रमर कीर्तिलता की जीवन्त प्रतीक 'काव्यमाला' की सैकड़ों जिल्दों में हजारों प्राचीन दुष्प्राप्य ग्रन्थों का प्रकाशित करना उन्हें कालकवलित होने से बचाया और इस प्रकार राष्ट्र की अमिट सेवा की। जयपुर के कतिपय राजाश्रित कवियों ने भी इस साहित्य - विद्या को समृद्ध बनाने में योग दिया है ।
जयपुर-संस्थापक महाराजाधिराज सवाई जयसिंह द्वितीय ( १६६६ - १७४३ ई०) के समकालीन तथा प्राश्रित ज्योतिषाचार्य श्री केवलराम ज्योतिषराय का (५१) अभिलाषशतक कदाचित् इस कोटि की सर्वप्रथम रचना है इसकी एक हस्तलिखित प्रति राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में ११२०४ ग्रन्थांक पर उपलब्ध है । हस्तलिखित १६ पत्रों में १०१ पद्म हैं । प्रारम्भिक ३५ पद्यों में भगवान् श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का मनोरम वर्णन है । शेष पद्यों में ऋतुय्रों, प्रातः काल, सूर्योदय, सूर्यास्त आदि का विस्तृत वर्णन है । शतक के वर्णन पौराणिक गाथाओं पर आधारित हैं । अभिलाष शतक एक मात्र ज्ञात कृष्ण सम्बन्धी तथा वर्णन प्रधान शतक है ।
मङ्गलाचरण के व्याज से सृष्टि के प्रारम्भ में शेषशायी भगवान् विष्णु के स्वापोद् बोध का वर्णन किया गया है ।
प्रातर्नीरद नील मुग्ध महसः स्वापि स्मरामि स्फुटं स्वल्पोद् बोधित नेत्रनीलिम सृजल्लीला द्रं वक्त्राम्बुजम् । येन नोदयतः पुराणकृतो बोधप्रभावान्तरा-नीलालिद्वयशंसि नाभिनलिनस्याहो सपत्नीकृतम् ॥२॥
काव्य में कमनीय कल्पनाओं की छटा दर्शनीय है । ललित शैली तथा उदात्त कल्पनाओं के मणिकांचन संयोग से काव्य में नूतन आभा का समावेश हो गया है । श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का वर्णन बहुत स्वाभाविक तथा सजीव है । शतक का उपसंहार निम्नलिखित पद्य से होता है ।
शिव शोरिपदाब्ज पूजन प्रतिभाभावित तत्पादाम्बुजः । अभिलाषशतं मनोहर कुरुते केवलराम नामकः ।।
अन्तिम पत्र पर एक पद्य और मिलता है, किन्तु वह प्रक्षिप्त प्रतीत होता है । १४
१४. देखिये - मरुभारती, अक्तूबर, १९६४ में प्रकाशित श्री प्रभाकर शर्मा का लेख 'केवलराम ज्योतिषराय तथा उनकी रचना अभिलाष शतकम्' । पृ० २४-२८
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संस्कृत की शतक - परम्परा
(५२) माधवसिंहार्या शतक जयपुर नरेश महाराज माधवसिंह ( १७५० - ६८ ई० ) की प्रशंसा में लिखा गया है । लेखक हैं उनके सभाकवि श्याम शुन्दर दीक्षित लवजी । इसमें ब्रह्ममण्डली के अन्तर्गत केवलराम ज्योतिषराय का भी गुरगंगान हुआ है ।
सूरिः ।
स जयति ज्योतिपरायः केवलरामाभिवः श्रीमज्जयपुर नग पण्डितवर्यः सदाचार्यः ।। १२ ।। १५
श्री अगरचन्द नाहटा ने अपने २४-८-६५ के पत्र में तीन ( ५३ - ५५ ) शतकों की सूचना दी हैसद्बोध शतक राजवर्णनशतक ( नाहटा जी द्वारा सम्पादित सभाशृङ्गार में प्रकाशित ) तथा कृष्णराम भट्टरचित 'प्लाण्डुराज शतक' । प्लाण्डुराज शतक में प्लाण्डुराज (प्याज) के गुणों का रोचक वर्णन किया गया
। यह जयपुर से प्रकाशित हो चुका है । कृष्णराम भट्ट के ( ५६ - ५७ ) दो अन्य शतकों प्रार्यालङ्कार शतक तथा सार शतक का भी उल्लेख मिलता | गोपीनाथ शास्त्री दाधीच कृत (५८) राम सौभाग्य शतक में जयपुर नरेश रामसिंह (१६ वीं शती का मध्य) का चरित वरिणत है ।
३२० ]
बुहारी की उपयोगिता पर अनन्तलवार ने रोचक शैली में (५६) सम्मार्जनी शतक लिखा है । यह मैसोर से प्रकाशित हुआ है ।
(६०) विज्ञान शतक का कर्तृत्व अज्ञात है । विज्ञान शतक का सर्वप्रथम सम्पादन कृष्ण शास्त्री भाऊ शास्त्री गुह्रले ने १८६७ ई० में नागपुर से किया था । एक अन्य संस्करण, जिसमें उपर्युक्त से दो पद्य कम हैं तथा अन्य पद्यों के अनुक्रम में पर्याप्त वैभिन्य है, गुजराती प्रेस, बम्बई से मुद्रित हुआ । प्रो० कोसम्बी शतकत्रयादि सुभाषित-संग्रह में इसका संशोधित पाठ प्रकाशित किया है ।
गुहले सम्पादित संस्करण की पुष्पिका में विज्ञान शतक को भर्तृहरि की रचना माना गया है । इस कारण तथा विज्ञान शतक एवं भर्तृहरि की कृतियों में भाव तथा रचना-साम्य के आधार पर अब भी इसे भर्तृहरि रचित मान लिया जाता है । परन्तु यह आधुनिक गढन्त प्रतीत होती है ।
शतक के मंगलाचरण में गणेश की स्तुति की गयी है :
विगलदमलदान रिण सौरभ्यलोभोपगत मधुपमाला व्याकुला काशदेशः । अवतु जगदशेषं शश्वदुग्रात्मजो यो विपुलपरिघदन्तोद् दण्ड शुण्डा गणेशः ।।
अन्तिम पद्य में ( १०३ ) इसे वैराग्य शतक नाम से अभिहित किया गया है ( बुधानां वैराग्यं सुघटयतु वैराग्यशतकम् ) वास्तव में अन्य वैराग्य शतकों की भांति विज्ञान शतक में भी प्रेम की छलना, जगत् की नश्वरता तथा वैराग्य की महिमा का वर्णन है ।
(६१-६२) संस्कृतस्य सम्पूर्णेतिहास : ( छज्जूराम शतकद्वय ) संस्कृत-साहित्य के इतिहास की एक मात्र शतक संज्ञक रचना है । 'शतकद्वय' ६ परिच्छेदों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः व्याकरण, काव्य, साहित्य, न्याय-वैशेषिक, सांख्य योग, पूर्वोत्तर मीमांसा के ग्रन्थों का निरूपण किया गया है । यह निरूपण विवेचनात्मक
१५. वही
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संस्कृत की शतक-परम्परा
[ ३२१ न होकर गणनात्मक है। कुछ साहित्यिक विधानों के प्रमुख ग्रन्थों का नामोल्लेख करके सन्तोष कर लिया गया है । कवियों का वर्णनक्रम भी सदैव निर्दुष्ट नहीं है । कई परवर्ती कवियों को पहले तथा पूर्ववतियों को पश्चात् रख दिया है । लेखक ने पद्यों की हिन्दी में विस्तृत व्याख्या की है, जिसमें संस्कृत के विभिन्न लेखकों की प्रशंसा में स्वरचित १०२ पद्य यथास्थान उद्धृत किये हैं । सम्भवतः व्याख्या के इन पद्यों तथा मूल श्लोकों को मिलाकर ही काव्य को शतक द्वय' का उपनाम दिया गया है। अन्यथा मूल काव्य की पद्य संख्या से इस उपशीर्षक की संगति नहीं बैठती। व्याख्या में कुछ नवीन तथा अज्ञात टीकाकारों का नामोल्लेख हुआ है। इसके रचयिता म. म. छज्जूराम शास्त्री प्रतिभाशाली कवि, नाटककार, टीकाकार तथा दर्शन एवं व्याकरण. के मान्य पण्डित हैं। १६
राजकीय संस्कृत महाविद्यालय मुज्जफरपुर के साहित्य-प्रधानाध्यापक श्री बदरीनाथ शर्मा की अन्योक्ति साहस्री में (६३-७२) दस शतक सम्मिलित है। शतकों के नाम हैं-जलाशयशतक, खेचरशतक, शकुन्तशतक, स्थावरशतक, तरुवरशतक, लताशतक, पशुशतक, यादश्शतक, क्षुद्रजन्तुशतक, प्रत्येकशतक उपरोक्त प्रतीकों पर आधारित सौ अन्योक्तियों का संकलन है। अन्योक्ति साहस्री काशी से प्रकाशित हुई है। प्रसिद्ध नाटककार पं० मथुराप्रसाद दीक्षित ने एक (७३) अन्योक्तिशतक की भी रचना की है। आधुनिक नाटककारों में पण्डित मथुराप्रसाद अग्रगण्य हैं । उनके भक्त सुदर्शन, वीर प्रताप, वीर पृथ्वीराज, भारत विजय आदि नाटक बहुत सफल, रोचक तथा लोकप्रिय हैं।
गान्धी स्मारक निधि, देहली से प्रकाशित (७४) गान्धी सूक्ति मुक्तावलि भारत के भूतपूर्व वित्त मन्त्री श्री चिन्तामणि देशमुख द्वारा संस्कृत-पद्य में अनूदित गांधी जी की सौ सक्तियों का संग्रह कवि ने प्रत्येक पद्य का अंग्रेजी में अनुवाद भी कर दिया है। गान्धी सूक्ति मुक्तावलि का उपशीर्षक अथवा नामान्तर तो प्रत्यक्षत: शतक नहीं है, किन्तु अनुवादक ने भूमिका में स्पष्टतः इसे शतक की संज्ञा प्रदान की है। 'I, therefore, Complated a Sataka and thought that this form and size would not be unweloome to the public.'
नागपुर से सन् १९५८ में प्रकाशित प्रो० श्रीधर भास्कर वर्णेकर की जवाहर तरङ्गिरणी अपरनाम (७५) भारतरत्नशतक एक आधुनिक प्रबन्धात्मक शतक है । इसमें भारत के प्रथम प्रधान मन्त्री युग पुरुष जवाहरलाल नेहरू की गौरवशाली जीवन गाथा का मनोरम वर्णन हुग्रा है। भारतरत्नशतक उन रचनाओं में है जिनसे साहित्य की प्रतिष्ठा तथा यथार्थ गौरव वृद्धि होती है। संस्कृत से अनभिज्ञ पाठकों के उपयोग के लिये कवि ने स्वकृत अंग्रेजी अनुवाद भी साथ दिया है। श्री वर्णेकर प्रतिभाशाली कवि हैं। भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार है। उनकी कवित्वशक्ति रोचक तथा प्रभावशाली है । प्राचीन भारतीय इतिहास के पात्रों के प्रतीकों के माध्यम से कवि ने नेहरूजी की कर्मठता, स्वार्थहीनता तथा राजनीति-नपुण्य का भव्य चित्र प्रकित किया है।
सोढश्चिराय खरदूषणसंनिपात : यद्वा नरोत्तमकुलंघटिता सुहृत्ता। उल्लंघितो बहलसंकट वारिधिश्च रामायणं सुचरिते प्रतिबिम्बितं ते ।।
१६. छज्जूराम शास्त्री की कृतियों के विवेचन के लिये देखिये 'विश्वसंस्कृतम्' फरवरी, १९६४ में प्रकाशित
मेरा लेख 'केचित् पञ्चनदीयाः संस्कृतकवयः' ।
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३२२ ]
सत्यवत 'तृषित'
दुर्योधनंप्रखरभीष्मबलावगुप्तं दुः शासनं निहतपञ्चजन प्रभावम् । निस्सारतां जन जनार्दन सङ्गतेन नीत्वा, त्वयैव रचितं नवभारतं हि ।। स्वाथै कसक्ता पुरुषाधमसेवितेयं बाराङ्गनेव नृपनीतिरिति स्वनिन्दाम् । निस्स्वार्थमेत्य शरणं पुरुषोत्तमं वा
दूरीचकार सुगतं हि यथाम्रपाली ।। प्रधानमन्त्री के प्रिय व्यायाम 'शीर्षासन' की इस पद्य में भावपूर्ण व्याख्या की गयी है।
भूर्रहति ऋतुमयी शिरसा प्रणाम द्यौः किन्तु भोगबहुला चरणाभि घातम। इत्येव कि निजमनोगत मुत्तमं त्वं
शीर्षासनेन नियतं प्रकटीकरोषि ॥ भारतरत्नशतक के पृष्ठ पत्र पर श्री वर्णेकर की रचनामों के विज्ञापन में तीन (७६-७८) शतकों का उल्लेख है-विनायकवैजयन्ती शतक, रामकृष्ण परमहंसीय शतक, तथा शाकुन्तलशतश्लोकी । सम्भवतः ये सभी अप्रकाशित हैं ।
साहित्य अकादमी दिल्ली के प्रकाशन 'आज का भारतीय साहित्य' में सम्मिलित 'आधुनिक संस्कृतसाहित्य के उपयोगी सर्वेक्षण' में डॉ. राघवन् ने (७९-८३) पांच शतकों का-वेमनाशतक, सुमतिशतक, दशरथी शतक, कृष्ण शतक, भास्कर शतक-उल्लेख किया है। ये मूल तेलुगु शतकों के श्री एस. टी. जी.. वरदाचारियर द्वारा किये गये संस्कृत रूपान्तर हैं।
पररचित पद्यों तथा सूक्तियों के कुछ संकलन भी शतकाकार प्रकाशित हुए हैं । जगदीशचन्द्र विद्यार्थी ने ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद के सौ-सौ मन्त्रों के १७ चयन (८४-८६) ऋग्वेद शतक, यजुर्वेद शतक तथा सामवेद शतक के नाम से प्रस्तुत किये हैं । ऋग्वेद शतक दिल्ली से १९६१ ई० में प्रकाशित हुआ, शेष दोनों १६६२ में । इसी प्रकार हरिहर झा ने संस्कृत कवियों की सूक्तियों को सूक्ति शतक के (८७-८८) दो भागों में संकलित किया है। प्रत्येक भाग में पूरे सौ-सौ पद्य हैं। सूक्तिशतक चोखम्बा भवन, वाराणसी से प्रकाशित हुआ है।
__ मेरे मित्र डा. सत्यव्रत शास्त्री की (८६) शतश्लोकी की 'बृहत्तर भारतम्' 'संस्कृत प्रतिभा' में प्रकाशित हुई। इसमें वृहत्तर भारत की संस्कृति तथा वैभव का गौरव गान है। कविता सर्वत्र लालित्य : तथा माधुर्य से समवेत है। डॉ. सत्यव्रत प्रतिभासम्पन्न कवि हैं। उनके दो अन्य काव्य-श्री बोधिसत्वचरितम् तथा गोविन्दचरितम् देहली से प्रकाशित हुए हैं।
___ कण्टकार्जुन की कण्टकाञ्जलि अपरनाम (६०) नवनीति शतक प्राधुनिक संस्कृत-साहित्य की क्रान्तिकारी कृति है । नवनीति शतक प्राधुनिक विषयों पर व्यंग्यात्मक शैली में निबद्ध १६७ मुकक्त पद्यों १७. श्री बोधिसत्वचरितम् का विवेचन मैंने "विश्व संस्कृतम्, में प्रकाशित अपने पूर्वोक्त लेख में किया है ।
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संस्कृत की शतक परम्परा
[ ३२३
का अभिनव संग्रह है. जिसे 'पद्धति' नामक दस भागों, मुखबन्ध, अञ्जलिबन्ध तथा परिशिष्ट में विभक्त किया गया है। भारतीय राजनीति, समाज, धर्म, प्रशासन, वर्तमान मंहगी, खाद्यान्न का अभाव, भ्रष्टता, कृत्रिम तथा छलपूर्ण जीवनचर्या आदि विविध विषयों पर कवि ने प्रबल प्रहार किया है कविता में अपूर्व रोचकता तथा नूतनता है । कवि ने संस्कृत-काव्य की घिसी-पिटी लीक को छोड़कर अभिनव शैली की उद्भावना की है । संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिये ऐसी रचनाओं की विशेष आवश्यकता है, जो समकालीन जीवन के निकट हो तथा उसकी समस्यायों का विवेचन प्रस्तुत करें।
वर्तमान प्रशासन में परिव्याप्त घूसखोरी पर, उपनिषदों के अश्वत्थ के प्रतीक से, कवि ने मर्मान्तक व्यंग किया है । उपनिषदों में सृष्टि की तुलना एक ऐसे काल्पनिक वृक्ष से की गयी है। जिसकी जड़ें ऊपर और शाखाए नीचे हैं। यह सृष्टितरु शाश्वत है । उसका उच्छेद करने की क्षमता किसी में नहीं है । परन्तु कवि की कल्पना है कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में मानव ने सृष्टि के बृहत् अश्वत्थ के उन्मूलन के लिये अनेक उपकरणों का आविष्कार कर लिया है। पर घूस के बद्ध मूल अश्वत्थ का उच्छेत्ता आज भी नहीं है, न अतीत में था और न भविष्य में होगा।
ऊर्ध्व मूलमधश्च यस्य वितताः शाखाः, सुवर्णच्छदः कस्योत्कोचतर्जगत्यविदितः यद्यप्यरूपोऽगुणः । छेत्ता कश्चिदुदेति संसृतितरोः छेत्तास्य वृक्षस्य तु
नाभून्नास्ति न वा भविष्यति पुमान् ! अश्वत्थ एषोऽक्षयः ।। रामकलास पाण्डेय का (६१) भारत शतक 'संस्कृत-प्रतिभा' में तथा हजारीलाल शास्त्री का (१२) शिवराज विजय शतक 'दिव्य ज्योति' (शिमला) में प्रकाशित हुए हैं। ये दोनों ऐतिहासिक काव्य हैं। भारतशतक में भारत के गौरवशाली अतीत तथा वर्तमान स्थिति का चित्रण है। शिवराजविजय शतक में छत्रपति शिवाजी का चरित वर्णित है।
इनके अतिरिक्त निम्नांकित शतकों की जानकारी जिनरत्न कोश, आमेर शास्त्र भण्डार तथा राजस्थान ग्रन्थ-भण्डारों की सूचियों से प्राप्त हुई है।
(६३-६४) चाणक्य शतक तथा नीतिशतक की रचना का श्रेय चाणक्य को दिया जाता है। किन्तु यह चारणक्य चन्द्रगुप्त के प्रधानामात्य विष्णुगुप्त चाणक्य कदापि नहीं हो सकता। प्राचीन भारत में साहित्यिक रचनाओं को सम्बद्ध विषय के लब्धप्रतिष्ठ प्राचार्यों के नाम से प्रचलित करने की बलवती प्रवृत्ति रही है। इसी प्रकार वररुचि के नाम से दो (६५-६६) शतक उपलब्ध हैं-शतक तथा योगशत । शतक कोषनथ है। इसकी एक अपूर्ण प्रति जैन मन्दिर संधीजी, जयपुर में सुरक्षित है। बेष्टन संख्या६९८ । योगशत अायुर्वेद से सम्बन्धित रचना है। श्री मल्ल अथवा त्रिमल्लक का (६७) श्लोक भी आयुर्वेद ग्रन्थ है। दोनों की हस्तलिखित प्रतियां आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में उपलब्ध हैं । योगशत की प्रति खण्डित है । प्रथम तथा अन्तिम पृष्ठ नहीं है। योगीन्द्रदेव के (१८) दोहशतक की एक प्रति ठौलियों के मन्दिर जयपुर में है । वैष्टन संख्या १२० । अज्ञात कवियों के दो (88-१००) दृष्टान्त शतक ज्ञात है । एक सुभाषित संग्रह है, दूसरा अलङ्कार ग्रन्थ । (१०१-१०६) अज्ञात कवियों के गोरक्ष शतक, आत्मनिन्दा शतक, आत्मशिक्षा शतक, मुर्ख शतक, गौडवंशतिलक कृत वृद्धयोग शतक तथा शिववर्मन
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________________ 324 ] सत्यव्रत 'तृषित' का बन्ध शतक का उल्लेख भी सूची पत्रों में हुआ है / इस प्रकार संस्कृत का शतक-साहित्य विशाल तथा वैविध्यपूर्ण है। पता नहीं शतक संज्ञा का क्या / आकर्षण था कि प्रायः समस्त कल्पनीय विषयों पर शतक लिखे गये हैं। स्पष्टतः इस साहित्यिक विधा ने जनता में अपूर्व ख्याति प्राप्त की होगी। इसीलिए कवियों ने अपनी कविता को शतक का प्रावरण पहना पहनाकर प्रचलित किया / यह खेद की बात है कि साहित्य की यह रोचक सामग्री अस्तव्यस्त बिखरी पड़ी है / उपलब्ध शतकों का सुसम्पादित संग्रह अवश्य प्रकाशित होना चाहिये / |