Book Title: Sanskrut ke do Aetihasik Champoo Author(s): Baldev Upadhyay Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/212105/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतके दो ऐतिहासिक चम्पू डॉ० बलदेव उपाध्याय संस्कृतमें ऐतिहासिक काव्योंकी गणनामें इन महत्त्वपूर्ण चम्पुओंका भी समावेश नितान्त आवश्यक है। इन दोनों चम्पुओंके रचयिता दक्षिण भारतके निवासी थे जिनमें एक तो है महिला और वह भी राजाकी पट्टमहिषी, और दूसरे हैं पुरुष और वह भी चरितनायकके सान्निध्यमें रहनेवाले विद्वान् । इनमें से प्रथमका नाम है वरदाम्बिका परिणय' चम्पू और दूसरेका आनन्दरंगविजय चम्पू । संक्षिप्त परिचयसे भी उनका ऐतिहासिक महत्त्व भलीभांति जाना जा सकता है। 'वरदाम्बिकापरिणय' चम्पूकी रचयित्री हैं तिरुमलाम्बा, विजयनगरके शासक राजा अच्युतरायकी धर्मपत्नी। ग्रन्थके अन्तमें निर्दिष्ट परिचयमें ये अपनेको 'विविध विद्याप्रगल्भराजाधिराजाच्युतराय-सावंभौम-प्रेमसर्वस्वविश्वासभू' कहा है जिससे इनकी राजाकी पट्टमहिषी होनेकी बात स्पष्टतः द्योतित होती है। तिरुमलाम्बाको काव्यप्रतिभा सचमुच श्लाघनीय है। एक बार ही सुनकर नव्य काव्य, नाटक, अलंकार, पुराणादिकोंकी धारणा करने में वे अपनेको जो समर्थ बतलाती हैं तो यह विशेष अत्युक्ति नहीं है। यज्ञ यागादिकोंमें ब्राह्मण वर्गको दान देने तथा उनसे आशीर्वादसे सौभाग्य पानेका वे स्वतः उल्लेख करती हैं। विजयनगरके कविजनोंके आश्रयदाता इतिहासविश्रुत राजा कृष्णदेव राय (ई० सन् १५०९-१५३०) के अनन्तर अच्युतराय १५२९ ईस्वीमें राजगद्दीपर बैठे तथा १५४२ ई० तक शासन किया । इन्हींकी पट्टमहिषी होनेका गौरव तिरुमलाम्बाको प्राप्त है। अच्युतराय इतिहासमें साधारण कोटिके शासक माने जाते हैं । इस तथ्यका समर्थन यह चम्पूकाव्य भी करता है, क्योंकि वह उनके किसी पराक्रम-प्रदर्शक शूरकार्यके विषयमें सर्वथा मौन है। गद्य-पद्यकी मिश्रित शैलीमें निबद्ध यह काव्य आश्वास या उच्छ्वासमें विभक्त न होकर एक ही प्रकरणवाला मनोरंजक ग्रन्थ है। इसके आरम्भमें चन्द्रवंशका थोड़ा वर्णन है और विशेष वर्णन है अच्युतरायके पूज्य पिता राजा नृसिंहका जिन्होंने दक्षिण भारतका दिग्विजय कर अपना प्रभुत्व प्रतिष्ठित किया । इन्हींकी धर्मपत्नी ओंबाम्बाके गर्भसे तिरुपतिके आराध्यदेव भगवान् नारायणकी कृपासे अच्युतरायका जन्म हआ। राज्यपर अभिषिक्त होनेके बाद राजाने कात्यायनीदेवीके मन्दिरमें एक सुकुमारसुभगा वरदाम्बिका नाम्नी राजकन्याको देखा और उसीके साथ राजाके विवाहके वृत्तका विस्तृत वर्णन इस चम्पमें किया गया है। इस लघुवृत्तको लेखिकाने अपनी नैसर्गिक आलोकसामान्य प्रतिभाके सहारे खूब ही पुष्ट तथा विशद किया है। वीररस (नसिंहका वर्णन) तथा श्रृंगाररसका चित्रण बड़ी सुन्दरतासे किया गया है। ऋतुवर्णनभी चमत्कारी है। तिरुमलाम्बाका यह चम्पकाव्य विशेष साहित्यिक महत्त्व रखता है। इसमें पद्योंकी अपेक्षा गद्यका ही प्राचुर्य है। समासभूयस्त्व (समासकी बहुलता), जिसे अलंकारके आचार्य गद्यका जीवातु मानते हैं, इसमें १. सम्पादक डॉ० सूर्यकान्त मूल अंग्रेजी अनुवादके साथ, चौखम्भा प्रकाशन, वाराणसी, १९७० । १४२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पूर्णरूपसे विद्यमान है। वर्णनकी कलामें कविको लोकातीत सामर्थ्य प्राप्त है। अच्युतरायके शारीरिक सौन्दर्यका, अंग-प्रत्यंगका, जितना आलंकारिक तथा विस्तृत विवरण तिरुमलाम्बाने किया है, उतना शायद ही किसी स्त्री कविकी लेखनीसे प्रसूत हो । लम्बे-लम्बे समास, शब्दोंका विपुल विन्यास, नवीन अर्थों की कल्पनायें समस्त विशेषता इस चम्पको महत्त्वशाली बना रही है। गद्यके सौन्दर्यका परिचय तो काव्यके अध्ययनसे ही प्राप्य है। पद्योंका अलंकार चमत्कार इन उद्धरणोंकी सहायतासे सहज ही अनुमेय है। तालाबमें स्नान करनेवाली रानीकी उपमा मेघके भीतर कौंधनेवाली बिजलीके साथ कितनी उपयुक्त है महः सरोवारिषु केलिलोला निमज्जनोन्मज्जनमाचरन्ती । बलाहकान्तःपरिदृश्यमाना सौदामिनीवाजनि चञ्चलाक्षी ।। (श्लोक १५१) यह मालोपमा भी अपनी सुन्दरताके लिए श्लाघनीय है दुग्धाम्बुराशिलहरीव तुषारभानुम् अर्थं नवीनमनघा सुकवेरिवोक्तिः। प्रत्यङ्मुखस्य यमिनः प्रतिभेव बोधं प्रासूत भाग्यमहितं सुतमोम्बमाम्बा ॥ (श्लोक ६०) इस कमनीय कल्पनाका सौन्दर्य निःसन्देह प्रशंसाका पात्र है। सन्ध्याका समय है । आकाश बहुमूल्य नीलमका केसर भरा बाक्स है। सूर्य ही जिसका माणिक्यका ढक्कन है । बाल चन्द्रमाने अपनी चपलतावश उस ढक्कनको हटा दिया है जिससे केसर सायं सन्ध्याके रूपमें चारों ओर छिटका हुआ बिखर गया है। सन्ध्याके स्वरूपका बोधक यह रूपक कितना सुन्दर तथा कितना नवीन निरीक्षणसे प्रसूत है अरविन्दबन्धु-कुरुविन्द-पिधाने चपलेन बालशशिना ब्यपनीते । घुसृणं वियन्मघवनीलकरण्डात् गलितं यथा घनमदृश्यत सन्ध्या । (श्लोक १५७) दूसरा ऐतिहासिक चम्प आनन्दरंगविजय चम्पू ऐतिहासिक दृष्टिसे सातिशय महत्त्वशाली है। इसके प्रणेता श्रीनिवास कवि हैं जिन्होंने अपने आश्रयदाता आनन्दरंग पिल्लैके विषयमें यह महनीय चम्पू लिखा है। आनन्दरंग पिल्लै (१७०९-१७६१ ई०) १८वीं शतीमें एक विशिष्ट राजनयिक, व्यापारी तथा पाण्डिचेरोके फ्रांसीसी गवर्नर प्रसिद्ध डुप्लेके भारतीय कारिन्दा थे जिन्होंने फ्रान्सके शासनको सुदृढ़ तथा विस्तृत बनाने में विशेष योग दिया था। ये साहित्यके भी उपासक थे। इनके द्वारा निर्मित तथा तमिल भाषामें निबद्ध डायरी (दैनन्दिनी) का अनुवाद मद्रास शासनकी ओरसे बारह जिल्दोंमें प्रकाशित हुआ है । यह दैनन्दिनी प्रतिदिनकी घटनाओंका निर्देश करती है जो उस कालकी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक दशा जाननेके लिए नितान्त उपयोगी है। इन्हींके जीवनचरितका रमणीय वर्णन श्रीनिवास कविने किया है। ग्रन्थके अन्तमें उन्होंने अपने पिता गंगाधरकी प्रशस्ति एक पद्यमें दी है। आनन्दरंगविजय चम्पू आठ परिच्छेदों (स्तवकों) में विभक्त है। इसकी रचनाका समय ४८५४ १. डॉ. राघवनके सम्पादकत्वमें मद्राससे प्रकाशित १९४८ । २ 'डायरी ऑफ आनन्दरंग पिल्लै के नामसे १२ जिल्दोंमें यह ग्रन्थ मद्रास शासन द्वारा प्रकाशित है (१९०४-१९२८)। इतिहास और पुरातत्त्व : १४३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिवर्ष अर्थात् १७५२ ईस्वी है। चरितनायकके उत्कर्षकालका वर्णनपरक यह काव्य उनकी मृत्युसे नौ साल पहिले निर्मित हुआ था। आरम्भके स्तवकोंमें आनन्दरंगके जन्म, यौवन तथा विवाहका वर्णन बड़े विस्तारके साथ कविने किया है। इस चम्पूके षष्ठ-सप्तम स्तवकोंमें दक्षिण भारतमें १८वीं शती में होनेवाले का टिक युद्धोंका वर्णन तथा आनन्दरंगका उनमें महनीय योगदानका विवरण बड़े विस्तारसे किया गया है। इस वर्णनमें अनेक नवीन ऐतिहासिक तथ्योंका उद्घाटन है जिनकी जानकारी परिचित इतिहाससे नहीं होती। अंग्रेजों तथा फ्रान्सीसियों में होनेवाले तत्कालीन इतिहासके परिज्ञान के लिए यह चम्पू अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है। ऐतिहासिक वृत्तके वर्णनके निमित्त समुचित गद्य-पद्यका प्रयोग यहाँ बड़े विवेकके साथ किया गया है। न लम्बे-लम्बे समासोंकी भरभार है और न श्लेषादि द्वारा अप्रचलित शब्दोंका प्रयोग । भाषापर कविका अधिकार है । शैली प्रसादमयी है। नये-नये विषयोंका भी समावेश मनोरंजक ढंगसे किया गया है। आनन्दरंगने पाण्डिचेरीमें अपने लिए विशाल वैभवपूर्ण महल बनवाया था जिसके ऊपर एक बड़ी घड़ी लगा रखी थी। उस युगके लिए नितान्त अभिनव इस वस्तुका वर्णन कविके शब्दोंमें देखिये। कितना विशद तथा आकर्षक है नियत्नं यत्र घण्टा ध्वनति च भवने बोधयन्ती मुहुन्ि दैवज्ञान् हर्षयन्ती समयमविरतं ज्ञातुकामानशेषान् । प्राप्तुं श्रीरङ्गभूपात् फलमनुदिनमागच्छतां भूसुराणां तत् सिद्धि सूचयन्ती प्रकटयतितरामदु तां रागभङ्गीम् ।। (अनंगरंग चम्पू ४।२२) फ्रान्सीसी शासकके लिए कविने 'हणराज' शब्दका प्रयोग किया है । इस युगमें विधर्मी विदेशी व्यापारियोंके लिए 'हण' शब्दका प्रयोग होने लगा था। वेंकटाध्वरीने भी अपने विश्वगुणादर्श चम्पमें इसी शब्दका प्रयोग अंग्रेजोंके लिए किया है । शरद्के वर्णनमें यह उपमा बड़ी सामयिक हैआसीन्निर्मलमम्बरं मन इव श्रीरंगनेतुर्महत् तत्सम्पत्तिरिवाभिवृद्धिमगमत् क्षेत्रेषु शस्यावलिः । हंसास्तत्र तदाश्रिता इव जना हृष्टा बभूवुस्तरां __ भ्रष्टश्रीरदसीयशत्रुततिवत् जाता मयूरावलिः ।। -५।५८ इस पद्यमें ऋतुका वर्णन आनन्दरंगके प्रसंगीय वस्तुओंके साथ बड़ी सुन्दरतासे सम्पन्न है। यद्धवर्णनमें बड़ा जोर-शोर है और नवीन तथ्योंका आकलन भी है। निजामपुत्रके युद्धका यह दृश्य देखिये जिसमें अपनी जान बचाने में व्यग्र योद्धाओंके द्वारा परित्यक्त मल्यवान आभषणको चाण्डाल (जनंगम) लोग बटोर रहे थे और हूण लोग (अंग्रेज लोग) रत्नकी पोटलियोंको लूट रहे थे प्राणत्राणपरायणारिसुभटत्यक्तोरुमूल्यस्फुरद् भूषान्वेषिजनंगमौघनिबिडक्रोडं निरस्तात्मनि । १. द्रष्टव्य भूमिका भाग पृ० ४८-७८ जिसमें सम्पादकने समग्र घटनाचक्रका विशद वर्णन प्रस्तुत किया है। १४४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्धावारमभूत् क्षणेन समरे तस्मिन्निजामात्मजे वीरे हन्त धनौघरत्नपटलीलुण्टाकहूणोत्करम् // आनन्दरंग 750 मद्रासका तमिल नाम 'चेन्नपट्टन' या 'चेन्नपुरी' है। इस नामके रहस्यका उद्घाटन यह चम्पू करता है। मद्रासके किलेके पास ही 'चेन्नकेशव'का मन्दिर था और उन्हींके नामपर यह नगर 'चेन्नकेशवपुर' कहलाता था; उसीका संक्षिप्त रूप 'चेन्नपट्टन' है। इसका निर्देश दो बार इस चम्पमें है' / फलतः इतिहास तथा साहित्य दोनों दृष्टियोंसे यह चम्प महत्त्व रखता है / 1. (क) प्रध्वस्तसाध्वसः चेन्नकेशवपुरमेत्य, पृ० 67 / (ख) आनिनाय स पुरं नवमेतत् चेन्नकेशवपुरार्यकसार्थम्, पृ० 69 / इतिहास और पुरातत्त्व : 145