Book Title: Samyag Darshan ka Swarup
Author(s): 
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन का स्वरूप सम्यग्दर्शन क्या है ? सम्यग्दर्शन से जीवन में के हृदय में भय का प्रगाढ़ अन्धकार छाया तन होता है ? यह एक चिन्तनीय विषय रहेगा तब तक यह सुनिश्चित रूप से नहीं कहा । है। इस विषय को समझे बिना हमारे जीवन में जा सकता कि उसने सम्यग्दर्शन का दिव्य प्रकाश विकास नहीं हो सकता । अध्यात्म-साधक अन्य कुछ प्राप्त कर लिया है। निश्चय ही जिसने सम्यग्दर्शन हुन भी न समझे, किन्तु सम्यग्दर्शन के वास्तविक स्वरूप के समुज्ज्वल रत्न को उपलब्ध कर लिया है उसके को उसे समझना होगा । सम्यग्दर्शन रूपी दिव्य- जीवन में किसी भी प्रकार का भय नहीं रहेगा। रत्न को पाया, तो सब कुछ ही पाया। यदि इस अतएव यह सुस्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन की साधना रत्न को नहीं पाया, तो कुछ भी नहीं पाया । इस और आराधना अभय की साधना है,आराधना है । वतन्यस्वरूप आत्मा ने अनन्त बार स्वर्ग का सुख जो साधक कदम-कदम पर भयग्रस्त हो जाता है, पाया और भमण्डल पर राज-राजेश्वर का अपार वह अपनी साधना में सफलता अधिगत नहीं कर वैभव पाया परन्तु इस अमूल्य रत्न के अभाव में सकता । साधना के मंगलमय मार्ग पर वह बहुत अपनी आत्मा का ज्योतिर्मय रूप नहीं पा सका। आगे नहीं बढ़ सकता । मोक्ष की साधना में सबसे नारकीय दुःख तथा स्वर्गीय सुख पवित्रता प्रदान पहली और महत्वपूर्ण बात है-निर्भय होने की। नहीं कर सकते । जिस प्रकार दुःख आत्मा का एक निर्भयता का उद्भव सम्यग्दर्शन से होता है। दूषित भाव है उसी प्रकार सुख भी आत्मा का आत्मा अनादिकाल से सदा एक समान रहा मलिन भाव है । यह भी सत्य है कि सुख आत्मा है । वह कभी भी जीव से अजीव नहीं बना है, चेतन को प्रिय है और दुःख उसे अप्रिय रहा है किन्तु सुख से अचेतन नहीं बना है। इसके मौलिक स्वरूप में एवं दुःख दोनों ही आत्मा के मलिन भाव हैं। कभी कोई न्यूनता एवं अधिकता नहीं हुई । उसका आत्मा की मलिनता को दूर करने का एकमात्र एकांश भी कभी बना नहीं, बिगड़ा नहीं, आत्मा अमोघ साधन यदि कोई हो सकता है तो वह सम्यग्- सदा-सदा से आत्मा ही रहा है। आत्मा कभी दर्शन है। यदि आप अध्यात्म-साधना के भव्य- अनात्मा नहीं बन सकता और अनात्मा भी आत्मा मन्दिर में प्रवेश करके आत्मदेव की उपासना नहीं बन सकता । फिर भी जीवन में किस बात की करना चाहते हैं--तो उस रमणीय मन्दिर में कमी है कि यह संसारी आत्मा क्यों विलखता है, प्रविष्ट होने के लिए आपको सम्यग्दर्शन के द्वार से क्यों रोता है ? आत्मा अविनाशी एवं अजन्मा मान प्रवेश करना होगा। यदि सम्यग्दर्शन की दिव्य- लेने पर तो जीवन में अभाव नहीं रहना चाहिए ज्योति अन्तरंग और अन्तरात्मा में जगमगा उठी फिर भी यह मानव इधर से उधर और उधर से और अपने ज्योतिर्मयस्वरूप और अनन्तशक्ति की इधर क्यों भटकता है ? दो बातें हो सकती हैंपहचान हो गई । सम्यग्दर्शन रूप चिन्तामणि रत्न या तो उसे अपनी चैतन्य स्वरूप आत्मा की अमरता को पाकर भयभीत आत्मा अभय हो जाता है । भय पर आस्था नहीं है, विश्वास नहीं है । और यदि उसे आत्मा का एक विकारी भाव है। जब तक साधक विश्वास है तो वह उस विश्वास को सुदृढ़ नहीं कर ५०२ सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन - जला 951 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ASTROH nated PersonalitiesiOnly Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tr0457.ES VERIOASYA MP सका है । आत्मतत्व की अमरता पर विश्वास हो चाहिए कि दर्शन गुण की उक्त दोनों ही पर्यायें का जाने पर जब तक उसकी दिव्य-उपलब्धि नहीं होती कभी एक साथ नहीं रहती हैं। जब मिथ्या पर्याय IN हैं तब तक जीवन-संघर्ष के मूल का उन्मूलन नहीं का सदभाव है तब सम्यग् पर्याय नहीं रहेगी और न हो सकता । आत्मा की अमरता का परिज्ञान एक जब सम्यग् पर्याय है तब मिथ्यापर्याय कभी नहीं महान उपलब्धि है । परन्तु यह तथ्य भी ज्ञातव्य है रह सकती। जहाँ रजनी है वहाँ रवि नहीं है और ॥ कि आत्मा की सत्ता का भान और उसकी अनन्त जहाँ रवि है वहाँ रजनी नहीं है। इसी प्रकार जहाँ । शक्ति का परिज्ञान एक चीज नहीं है। पृथक-पृथक दर्शन की मिथ्या पर्याय है वहाँ सम्यग् पर्याय नहीं 43 चीजें हैं । आत्मा की असीम, अक्षय सत्ता की रह सकती और जहाँ दर्शन की सम्यग पर्याय है ॥ प्रतीति होने पर भी, जब तक उसकी अनन्त-अनन्त वहाँ मिथ्या पर्याय नहीं रहती। मेरा स्पष्ट मन्तव्य की शक्तियों का परिज्ञान नहीं होता और उसकी प्रयोग इतना ही है कि वस्त तत्व में उत्पाद और व्यय विधि का ज्ञान नहीं है,तो शक्ति के रहते हुए भी वह पर्याय की अपेक्षा से है, द्रव्यदृष्टि और गुणदृष्टि कुछ कर नहीं सकता। सम्यग्दर्शन का एक मात्र से नहीं । द्रव्यदृष्टि से विराट विश्व की प्रत्येक वस्तु | परम-उद्देश्य यही है कि आत्मा को अपनी क्षमता सत् है, असत् नहीं है क्योंकि जो वस्तु सत् है वह का और शक्ति की जो विस्मृति हो गई है, उसे दूर करना तीन काल में भी असत् नहीं हो सकती और जो || है । जो असत्यपूर्व है और जिसकी मूल स्थिति नहीं असत् है वह भी तीन काल में सत् नहीं हो सकती, की है. जिसका कोई यथार्थ स्वरूप नहीं है परन्तु जिसे किन्त पर्याय की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ सत् और 3 आत्मा ने अपनी अज्ञानता के कारण से सब कुछ जान असत् दोनों हो सकते हैं । जब मैंने सम्यग्दर्शनरूपी लिया है, समझ लिया है उस भ्रान्ति को दूर करना। दिव्य-रत्न प्राप्त कर लिया तब इसका अभिप्राय जैन दर्शन का स्पष्ट आघोष है कि सम्यग्दर्शन यह नहीं होगा कि पहले मेरे में सम्यग्दर्शन का उपलब्ध करने का अर्थ यह नहीं है कि पहले कभी सद्भाव नहीं था और आज ही वह नये रूप में दर्शन का सद्भाव नहीं था और अब वह नये रूप उत्पन्न हो गया। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है में उत्पन्न हो गया। दर्शन को मूलतः समुत्पन्न कि आत्मा का जो 'दर्शन' नामक गुण आत्मा में मानने का अभिप्राय यह होगा कि एक दिन वह अनन्तकाल से विद्यमान था उस दर्शन गुण की विनष्ट हो सकता है। सम्यग्दर्शन के उद्भव का मिथ्या पर्याय को परित्याग कर मैंने उसकी सम्यग् अर्थ किसी नवीन पदार्थ का जन्म नहीं है, बल्कि पर्याय को प्राप्त कर लिया। आगमीय भाषा में सम्यग्दर्शन की समुत्पत्ति का तात्पर्य इतना ही है इसको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कहा जाता है । जैन कि वह विकृत से अविकृत हो गया। वह पराभि- दर्शन का स्पष्ट मन्तव्य है कि मूलतः कोई नवीन मुख था, स्वाभिमुख हो गया और वह मिथ्यात्व से चीज प्राप्त करने जैसी बात नहीं है बल्कि जो सदा सम्यग् हो गया। आत्मा का जो श्रद्धान नामक से विद्यमान रही है उसको शुद्धतम रूप से जाननेगुण है, आत्मा का जो दर्शन नामक गुण है, सम्यग् पहचानने और देखने की बात है। सम्यग्दर्शन की और मिथ्या ये दोनों आत्मा की पर्याय हैं । मिथ्या- उपलब्धि का यही अभीष्ट अर्थ है। दर्शन एवं सम्यग्दर्शन इन दोनों में दर्शन शब्द पड़ा अध्यात्मसाधक के जीवन में सम्यग्दर्शन की हुआ है । जिसका अभिप्रेत अर्थ है-दर्शन गुण कभी कितनी गुरुता है, कितनी महिमा है, और कितनी मिथ्या भी होता है, और सम्यग भी होता है। गरिमा है-शास्त्र इसके प्रमाण हैं। सम्यग्दर्शन मिथ्यादर्शन का फल 'संसार' है और सम्यग्दर्शन वस्तुतः एक वह विशिष्ट कला है, जिससे आत्मा 1 का फल मोक्ष है। किन्तु इतना अवश्य ही जानना स्व और पर के भेद-विज्ञान को प्राप्त कर लेता । सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन (C) साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal use only ५०३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAN है / सम्यग्दर्शन एक वह दिव्य कला है जिसके उप- नल सम्यग्ज्ञान ही है। ज्ञान का अर्थ यहाँ किसी योग और प्रयोग से आत्मा संसार के समग्र बन्धनों ग्रन्थ का ज्ञान नहीं है अपने ज्योतिर्मय स्वरूप का से मुक्त हो जाता है / संसार के दुःख और क्लेश से बोध ही सच्चा ज्ञान है, यथार्थ ज्ञान है / "मैं आत्मा / सर्वथा रहित हो जाता है। सम्यग्दर्शन की हूँ" यह ज्ञान जिस साधक को हो गया है उसे फिर विशिष्ट उपलब्धि होते ही यह पूर्ण रूप से पता किसी भी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है / परन्तु | चलने लगता है कि आत्मा में असीम क्षमता है, यह आत्म-स्वरूप का ज्ञान तभी सम्भव है जब कि अपार शक्ति है और अमित बल है / जब आत्मा उससे पूर्व सम्यग्दर्शन की उपलब्धि हो चुकी हो का अपने आपको जड़ न समझकर चेतन समझने क्योंकि सम्यग्दर्शन के अभाव में जैनत्व का एक लगता है। तब सभी प्रकार की सिद्धियों के द्वार अंश भी सम्प्राप्त नहीं हो सकता। यदि सम्यग्दर्शन उद्घाटित हो जाते हैं / जरा अपने भीतर झांककर की एक प्रकाश किरण भी जीवन क्षितिज पर देखना है, और अपने अन्तहदय की अतल गहराई चमक-दमक जाती है तो गहन से भी न में उतरकर सुदृढ़ विश्वास के साथ कहना है कि गहन गर्त में पतित आत्मा के अभ्युदय की आशा नाशी आत्मा , अन्य कल भी नहीं। हो जाती है। सम्यग्दर्शन की उस दिव्य-किरण का मैं केवल चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ, जड़ नहीं / मैं प्रकाश भले ही कितना मन्द क्यों न हो परन्तु / सदा-सर्वदा शाश्वत हैं जल तरंगवत् क्षणभंगर नहीं। उसमें आत्मा को परमात्मा बनाने की शक्ति होती न मेरा कभी जन्म होता है और न कभो मरण है, क्षमता होती है। हमें यह भी याद रखना है कि होता है / जन्म मृत्यू मेरे नहीं है। ये तो शरीर के उस निरंजन और निर्विकार परमात्मा को खोजने खेल है / देह का जन्म होता है और देह की मृत्यु के लिए कहीं इधर-उधर भटकने की आवश्यकता होती है / जन्मने और मरने वाला मैं नहीं हूँ, मेरा नहीं है। वह अपने अन्तरात्मा में ही है। जिस यह विनाशशील शरीर है। जिस साधक ने अपनी प्रकार घनघोर घटाओं के मध्य, विद्य त की क्षीणआध्यात्मिक साधना के माध्यम से अपने सहज- रेखा के चमक जाने पर क्षण भर के लिए यत्र-तत्र विश्वास और स्वाभाविक सुबोध को उपलब्ध कर सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है उसी प्रकार एक क्षणलिया है वह यही कहता है कि मैं अनन्त हैं, मैं मात्र के लिए, सम्यग्दर्शन की दिव्य ज्योति के अजर हैं, मैं अमर हैं, मैं शाश्वत है, मैं सर्वशक्ति- प्रगट हो जाने पर कभी न कभी आत्मा का सममान हैं। वास्तव में मैं आत्मा हैं यह दृढ विश्वास द्वार हो ही जायेगा। बिजली की चमक में सब करना ही सम्यग्दर्शन है। अपनी अखण्ड सत्ता कुछ दृष्टिगोचर हो जाता है उसी प्रकार परमात्मकी स्पष्ट रूप से प्रतीति होना ही आध्यात्मिक तत्व के प्रकाश की एक प्रकाश-किरण भी अन्तजीवन की सर्वश्रेष्ठ और सर्व ज्येष्ठ उपलब्धि है। मन में जगमगा उठती है तो फिर भले ही वह कुछ अध्यात्म साधना के क्षेत्र में सम्यगज्ञान का महत्व- क्षण के लिए ही क्यों न हो उसके प्रकाश में पूर्ण स्थान रहा है / ज्ञान मुक्ति-प्राप्ति का एक मिथ्याज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाता है / ज्ञान को अमोघ साधन है। अज्ञान और वासना के सघन सम्यग्ज्ञान बनाने वाला सम्यग्दर्शन ही है। यह अरण्य को जलाकर भस्मसात् करने वाला दावा- सभ्यग्दर्शन अध्यात्म साधना का प्राणतत्व है। सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन / साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ) Famivateersonalitice-Only