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समवायांग सूत्र - एक परिचय
० श्री धर्मचन्द जैन
समवायांग सूत्र एक से लेकर कोटि संख्या तक के तथ्यों का समवाय रूप में संकलन है। इसे स्थानांग सूत्र का पूरक आगम कहा जा सकता है: स्थानांग और समवायांग का ज्ञाता ही आचार्य, उपाध्याय जैसे पदों को ग्रहण कर सकता है। समवायांग सूत्र में संख्याओं के माध्यम से विविश्व प्रकार के तथ्यों की जानकारी होती है, यथा
१. तीर्थंकर महावीर, पार्श्वनाथ अरिष्टनेमी, नमिनाथ, मुनिसुव्रत, मल्लिनाथ, अरनाथ, कुन्थुनाथ, शान्तिनाथ वासुपूज्य, श्रेयांसनाथ, शीतलनाथ, सुविधिनाथ, सुपार्श्वनाथ, ऋषभदेव आदि के संबंध में विविध जानकारियाँ, यथा- उनकी अवगाहना, गण, गणधर अवधिज्ञानी, मन पर्यवज्ञानी आदि ।
२. चक्रवर्ती वासुदेव, बलदेव, विमान, पर्वत आदि की जानकारी !
३. द्वादशाङ्ग की जानकारी।
४. देवों और नारकों तथा उनके आवासों की जानकारी।
५. कर्मसिद्धान्त संबंधी जानकारी, यथा विभिन्न कर्म-प्रकृतियों की संख्या एवं उनके नाम, बन्ध हेतु ।
६. धर्म एवं चारित्र संबंधी जानकारी, यथा- दशविध धर्म, संयम, परीषहजय ब्रह्मचर्य आदि।
७. जीव, अजीव, आहार, श्वासोच्छ्वास, कालचक्र, ज्योतिष, ज्ञान, लोक, पुण्य-पाप, आस्रव संवर, निर्जरा मोक्ष, कषाय, समुद्घात, मदस्थान आदि के संबंध में जानकारी । लेखक ने समवायानुसार विषयवस्तु से परिचित कराया है। - सम्पादक
श्रमण भगवान महावीर की अनुपम आदेय वाणी का संकलन सर्वप्रथम उनके प्रधान शिष्य गणधरों ने बारह अंगों के रूप में किया। उनमें चतुर्थ अग समवायांग सूत्र के नाम से जाना जाता है।
समवायांग सूत्र जैन सिद्धान्त का कोष ग्रन्थ है । सामान्य जनों को जैन धर्म से संबंधित विषयों का इससे बोध प्राप्त होता है। इस सूत्र की प्रतिपादन शैली अनूठी है। इसमें प्रतिनियत संख्या वाले पदार्थों का एक से लेकर सौ स्थान तक का विवेचन किया गया है। साथ ही द्वादशांग गणिपिटक एवं विविध विषयों का परिचय भी प्राप्त होता है । आचार्य अभयदेव के अनुसार- प्रस्तुत आगम में जीव, अजीव आदि पदार्थों का परिच्छेद या समावेश है। अतः इस आगम का नाम 'समवाय' या 'समवाओ' है।
आचार्य देववाचक ने समवायांग की विषय वस्तु इस प्रकार से कही है१. जीव, अजीव, लोक, अलोक एवं स्व समय पर समय का समावेश । २. एक से लेकर सौ तक की संख्या का विकास।
३. द्वादशांग गणिपिटक का परिचय ।
नन्दीसूत्र में समवायांग सूत्र के परिचय में १,४४,००० पद और संख्यात अक्षर बतलाये हैं। वर्तमान में यह सूत्र १६६७ श्लोक परिमाण है। इसमें क्रम से पृथ्वी, आकाश, पाताल, तीनों लोकों के जीव आदि समस्त तत्त्वों का द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की दृष्टि से एक से लेकर कोटानुकोटि संख्या तक परिचय दिया गया है! इसमें आध्यात्मिक तत्त्वों, तीर्थकर, गणधर चक्रवर्ती और वासुदेव से
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संबंधित वर्णन के साथ भूगोल. खगोल आदि की सामग्री का संकलन भी किया गया है। आचार्य देववाचक जी ने कहा कि समवायाग में कोष शैली अत्यन्त प्राचीन है। स्मरण करने की दृष्टि से यह शैली अत्यधिक उपयोगी रही है।
समवायाग सूत्र में द्रव्य की दृष्टिसे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश आदि का निरूपण किया गया है। क्षेत्र की दृष्टि से लोक, अलोक, सिद्धशिला आदि का वर्णन किया गया है। काल की दृष्टि से समय, आवलिका, मुहूर्त आदि से लेकर पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी. अवसर्पिणी और पुद्गल परावर्तन एवं चार गति के जीवों की स्थिति आदि पर विचार किया गया है। भाव की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य आदि जीव के भावों तथा वार्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान आदि अजीव के भावों का भी वर्णन किया गया है। प्रथम समवाय
समवायांग सूत्र के प्रथम समवाय में जीव, अजीव आदि तत्त्वों का विवेचन करते हुए आत्मा, अनात्मा, दण्ड. अदण्ड, क्रिया, अक्रिया, लोक-अलोक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष, आसव, संवर, वेदना, निर्जरा आदि को संग्रह नय की अपेक्षा से एक-एक बतलाया गया है। तत्पश्चात् एक लाख योजन की लम्बाई, चौड़ाई वाले जम्बूद्वीप, सर्वार्थ सिद्ध विमान. आदि का उल्लेख है। एक सागर की स्थिति वाले नारक, देव आदि का वर्णन भी इसमें उपलब्ध है। द्वितीय समवाय
दूसरे समवाय में दो प्रकार के दण्ड, दो प्रकार के बंध, दो राशि, पूर्वा फाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे, नारकीय और देवों की दो पल्योपम
और दो सागरोपम की स्थिति, दो भव करके मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का वर्णन किया गया है। अर्थ दण्ड, अनर्थ दण्ड का विवेचन करने के पश्चात् जीव राशि अजीव राशि का विवेचन किया गया है तथा बन्ध के दो प्रकारों में रागबन्ध और द्वेष बच ये दो भेद बतलाये हैं। राम में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश किया गया है। दूसरे समवाय के अनेक सूत्र स्थानांग सूत्र में भी देखे जा सकते हैं। तृतीय समवाय
तीसरे समवाय में तीन दण्ड, तीन गुप्ति, तीन शल्य, तीन गौरव, तीन विराधना, तीन तारे, नरक और देवों की तीन पल्योपम व तीन सागरोपम की स्थिति वालों का विवेचन करने के साथ ही तीन भव करके मुक्त होने वाले भवसिद्धिक जीवों का भी वर्णन किया गया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय का उल्लेख भी इस समवाय में उपलब्ध है। चतुर्थ समवाय
__ चतुर्थ समवाय में चार कषाय, चार ध्यान, चार विकथाएँ, चार संज्ञाएँ, चार प्रकार के बंध, अनुराधा पूर्वाषाढा के तारों, नारकी व देवों की चार पल्योपम व चार सागरोपम की स्थिति का उल्लेख करने के साथ ही चार भव करके मोक्ष में जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का भी कथन किया गया है।
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.. जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क पाँचवाँ समवाय
पाँचवें समवाय में पंच क्रिया, पांच महाव्रत, पांच कामगुण, पांच आस्रवद्वार, पांच तारे, नारक दवा की पांच पल्योपम व पांच सागरोपम की स्थिति का वर्णन करने के साथ ही पांच भव करके मोक्ष में जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का भी उल्लेख किया गया है। छठा समवाय
लले समवाय में छह लेश्या, छ: जीवनिकाय, छह बाह्य तप, छह आभ्यन्तर तप, छह छदमस्थो के समुदात, छह अर्थावग्रह, छह तारे, नारक देवों की छह पल्योपम तथा छह सागरोपम की स्थिति वालों का वर्णन करके छह भन्न ग्रहण कर मुक्त होने वाले भवसिद्धिक जीवों का कथन किया गया है। सातवाँ समवाय
सातवें समवाय में सात प्रकार के भय, सात प्रकार के समुट्मात, भगवान महावीर का सात हाथ ऊंचा शरीर, जम्बूद्वीप में सात वर्षधर पर्वत, सात द्वीप, बारहवें गुणस्थान में सात कर्मों का वेदन, सात तारे व सात नक्षत्र बताये गये हैं। नारक और देवों की सात पल्योपम की तथा सात सागरोपम की स्थिति का भी उल्लेख किया गया है तथा सात भव ग्रहण करके मुक्ति में जाने वाले जीवों का भी वर्णन है। आठवाँ समवाय
आठवें समवाय में आठ मटस्थान, आठ प्रवचन माता, वाणव्यन्तर देवों के आठ योजन ऊँचे चैत्य वृक्ष आदि, केवली समुद्रात के आठ समय, भगवान पार्श्वनाथ के आठ गणधर, चदमा के आठ नक्षत्र, नारक देवों की आठ पल्योपण व आठ सागरोपम की स्थिति का कथन करने के साथ ही आठ भव करके मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का वर्णन भी किया गया है। नौवाँ समवाय
नवम समवाय में नव ब्रह्मचर्य की गुप्ति रूप वाड़. नव ब्रह्मचर्य के अध्ययन, भगवान पार्श्वनाथ के शरीर की नौ हाथ की ऊँचाई, वाणव्यन्तर देवों को सभा नौ योजन की ऊँची, दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियां, नारक देवों की नौ पल्योपम और नौ सागरोषम की स्थिति तथा नौ भव करके मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का वर्णन है। दसवाँ समवाय
दसवें समवाय में श्रमण के टस धर्म, चित्त-समाधि के टस स्थान, सुमेरु पर्वत की मूल में दस हजार योजन चौड़ाई, भगवान अरिष्टोमी, कृष्ण- वासुदेव, बलदेव की दस धनुष की ऊँचाई, ज्ञानवृद्धिकारक टस नक्षत्र, दस कल्पवृक्ष, नारक देवों की दस हजार वर्ष , दस पल्योपम व दस सागरोपम को स्थिति का वर्णन करने के साथ ही दस भव ग्रहण करके मोक्ष में जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का भी कथन किया गया है। ग्यारहवाँ समवाय
ग्यारहवें समवाय में श्रावक को ग्यारह प्रतिमाएँ भगवान महावीर के
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15] ग्यारह गणधर मूल नक्षत्र के ग्यारह तारे, प्रैवयक तथा नारकों व देवों की ग्यारह पल्योपम और ग्यारह सागरोपम की स्थिति का वर्णन है तथा ग्यारह भव करके मोक्ष प्राप्त करने वाले भवसिद्धिक जीवो क उल्लेख भी इसमें है। बारहवाँ समवाय
बारहवें समवाय में भिक्षु की बारह प्रतिमाएँ, बारह प्रकार के संभोग (समान समाचारी वाले श्रभागों के साथ मिलकर खान-पान, वस्त्र-पात्र, आदान-प्रदान, दीक्षा-पर्याय के अनुसार विनय-वैयावृत्य करना 'संभोग' कहलाता है।) कृतिकम (खमासमणो) के बारह आवर्तन, विजया राजधानी की बारह लाख योजन की लम्बाई-चौड़ाई बतलायी गयी है। मर्यादा पुरुषोनम श्री रामचन्द्र जी की उग्र बारह सौ वर्ष, जघन्य दिन रात्रि का कालमान बारह मुहूर्त, सर्वार्थ सिद्ध महाविमान की चूलिका से बारह योजन ऊपर सिद्धशिला, सिद्धशिला के बारह नाम, नारको देवों की बारह पल्योपम, बारह सागरोपम, की स्थिति का कथन करके बारह भव ग्रहण करके मुक्ति प्राप्त करने वाले भवसिद्धिक जीवों का उल्लेख किया गया है। तेरहवाँ समवाय
तेरहवें समवाय में क्रिया-स्थान के तेरह भेद, ईशान कल्प के तेरह विमानपाथड़े, बारहवें पूर्व में तेरह नामक वस्तु का अधिकार, गर्भज, तिथंच पंचेन्द्रिय में तेरह योग, सूर्यमण्डल एक योजन के इकसठ भागों में से तेरह भाग कम विस्तार वाला, नारकी व देवों में तेरह पल्योपम, तेरह सागरोपम की स्थिति का निरूपण होने के साथ ही तेरह भव ग्रहण करके मोक्ष पाने वालों का भी कथन किया गया है। चौदहवाँ समवाय
चौदहवे समवाय में बौदह भुतग्राम (जीवों के भेद), चौदह पूर्व, भगवान महावीर के चौदह हजार साधु, चौदह जीव स्थान (गुणस्थान), चक्रवर्ती के चौदह रल, चौदह महानदियाँ, नारक देवों को मौदह पल्योपम तथा चौदह सागरोपम की स्थिति के साथ चौदह भव ग्रहण करके मोक्ष पाने वाले जीवों का कथन किया गया
पन्द्रहवाँ समवाय
पन्द्रहवें समवाय में पन्द्रह परम अधार्मिक वृत्ति वाले देव, नमिनाथ जी की पन्द्रह धनुष की ऊँचाई, राहु के दो प्रकार (पर्व राहु और ध्रुवराहु), चन्द्र के साथ पन्द्रह मुहूत तक छह नक्षत्रों का रहना, चैत्र और आसोज माह में पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त के दिन व रात होना, विद्यानुवाद पूर्व के पन्द्रह अर्थाधिकार, मानव में पन्द्रह प्रकार के योग, (प्रयोग) तथा नारक देवों को पन्द्रह पल्योपम व पन्द्रह सागरोपम की स्थिति का वर्णन है। इसमें पन्द्रह भव करके मोक्ष पाने वाले भवसिद्धिक जीवों का कथन भी किया गया है। सोलहवाँ समवाय
सोलहवें समवाय में सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन, अनन्नानुबन्धी आदि सोलह कषाय, मेरु पर्वत के सोलह नाम, भगवान पार्श्वनाथ के सोलह हजार श्रमण, आत्मप्रवाट पूर्व के सोलह अधिकार, चारचंबा
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जिनवाणी जैनागम साहित्य विशेषाङ्क और बलिचंचा राजधानी का सोलह हजार योजन का विस्तार नारकी व देवों की सोलह पल्योपम तथा सोलह सागरोपम की स्थिति का वर्णन होने के साथ ही सोलह भव करके मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का कथन भी उपलब्ध है : सतरहवाँ समवाय
सतरहवें समवाय में सतरह प्रकार का संयम और असंयम, मानुषोत्तर पर्वत की ऊँचाई सतरह सौ इक्कीस योजन, सतरह प्रकार का मरण, दसवें सूक्ष्म संगराय गुणस्थान में सतरह प्रकृतियों का बंध नारकी देवों की सतरह पल्योपम और सतरह सागरोपम की स्थिति का वर्णन करते हुए सतरह भव ग्रहण कर गोक्ष जाने वाले जीवों का भी उल्लेख किया गया है।
अठारहवाँ समवाय
अठारहवें समवाय में ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार, अरिष्टनेमि जी के अठारह हजार श्रमण, क्षुल्लक साधुओं के अठारह संयम स्थान, आचारांग सूत्र के अठारह हजार पद, ब्राह्मीलिपि के अठारह प्रकार, अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व के अठारह अधिकार, पौष व आसाढ़ मास में अठारह मुहूर्त के दिन व अठारह मुहूर्त की रात, नारकों व देवों की अठारह पल्योपम व अठारह सागरोपम की स्थिति का वर्णन करने के उपरान्त अठारह भव करके मोक्ष में जाने वाले जीवों का भी कथन किया गया है।
उन्नीसवाँ समवाय
उन्नीसवें समवाय में ज्ञाताधर्मकथांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे गये हैं तथा फिर कहा गया है कि जम्बूद्वीप का सूर्य उन्नीस सौ योजन के क्षेत्र को संतप्त करता है, शुक्र उन्नीस नक्षत्रों के साथ अस्त होता है, उन्नीस तीर्थकर गृहवास में रहकर (राज्य करने के पश्चात् ) दीक्षित हुए। नारकों व देवों की उन्नीस पल्योपम व उन्नीस सागरोपम की स्थिति का उल्लेख किया गया है।
बीसवाँ समवाय
बीसवें समवाय में बीस असमाधि स्थान, मुनिसुव्रत स्वामी की बीस धनुष की ऊँचाई, मनोदधि वातवलय की मोटाई बीस हजार योजन, प्राणत देवलोक के इन्द्र के बीस हजार सामानिक देव, प्रत्याख्यान पूर्व के बीस अर्थाधिकार एवं बीस कोटाकोटि सागरोपम का कालचक्र निरूपित किया गया है। किन्ही नारकों व देवों की स्थिति बीस पल्योपम व बोस सागरोपम की बताई गई है।
इक्कीसवाँ समवाय
इक्कीसवे समवाय में इक्कीस सबल दोष ( चारित्र को दूषित करने वाले कार्य), सात प्रकृतियों का क्षय करने वाले साधक के निवृत्ति चाटर गुणस्थान में इक्कीस प्रकृतियों की सत्ता, अवसर्पिणी काल के पांचवे, छठे और तथा उत्सर्पिणी के प्रथम व द्वितीय आरे इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के होने का उल्लेख है। कुछ नारकों और देवों की इक्कीस पल्योपम व इक्कीस सागरोपम की स्थिति बतलायी है ।
बाईसवाँ समवाय
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| समवायांग सूत्र - एक परिचय :
इसमें बाईस परीषा, दृष्टिवाट के बाईस सूत्र. पुटुगल के बाईस प्रकार तथा कुछ नारकों-देवों को बाईस पल्योपम व बाईस सागरोपम की स्थिति का वर्णन किया गया है। तेईसवाँ समवाय
इसमें सूत्रकृतांग सूत्र के २३ अध्ययन कहे गये है। इस समवाय के अनुसार जम्बूद्वीप के तेईस तीर्थकरों को सूर्योदय के समय केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, भगवान् ऋषभदेव को छोड़कर तेईस तीर्थकर पूर्वभव में ग्यारह अंगों के ज्ञाता थे, (ऋषभ का जीव चौदह पूर्वो का ज्ञाता था) नेइस तीर्थकर पूर्वभव में माण्डलिक राजः थे (ऋषभ चक्रवर्ती थे), कुल नारको और देवों की तेईस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का उल्लेख किया गया है। चौबीसवाँ समवाय
इसमें चौबीस तीर्थकरों के नामों का उल्लेख हुआ है। चुल्लहिमवन्त और शिखरी वर्षधर पर्वतों की जीवाएँ चौबीस हजार नौ सौ बत्तीस योजन की कही गई हैं।, चौबीस अहमिन्द्र, चौबीस अंगुल वाली उत्तरायणगत सूर्य की पौरुषी छाया, गंगा-सिन्धु महानदियों के उद्गम स्थल पर चौबीस कोस का विस्तार तथा कतिपय नारक देवों को चौबीस पल्यापम व चौबीस सागरोपम की स्थिति का उल्लेख किया गया है। पच्चीसवाँ समवाय
इसमे पाँच महाव्रतों को निर्मल एवं स्थिर रखने वाली पच्चीस भावनाएँ, मल्ली भगवती की ऊंचाई पच्चीस धनुष, वैताढ्य पर्वत की ऊँचाई पच्चीस योजन और भूमि में गहराई पच्चीस कोस, टूसरे नरक के पच्चीस लाख नरकावास, आचारांग सूत्र के पच्चीस अध्ययन, अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रियों के बन्धने वाली नामकर्म की २५ उत्तर प्रकृतियाँ तथा ५-वीस सागरोपम की स्थिति वर्णित है। छब्बीसवाँ समवाय
इसमे दशाश्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र और व्यवहार सूत्र के छब्बीस उद्देशन काल, अभवी जीवों के मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियाँ(मिश्र मोह व सम्यक्त्व मोह को छोड़कर) नारकी व देवों की छब्बीस पल्योपम और छब्बीस सागरोपम की स्थिति का वर्णन उपलब्ध है। सत्ताईसवाँ समवाय
इस समवाय में साधु के सत्ताईस गुण , नक्षत्र मास के सत्ताईस दिन, वेदक सम्यक्त्व के बन्ध-रहित जीव के मोहनीय कर्म की सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता, श्रावक शुक्ला सप्तमी के दिन सत्ताईस अंगुल की पौरुषी छाया तथा किन्ही नारक देवों की सत्ताईस पल्योपम और सत्ताईस सागरोपम की स्थिति का कथन किया गया है। अट्ठाईसवाँ समवाय
इस समवाय में आचार प्रकल्प के अट्ठाईस प्रकार, भवसिद्धिक जीवों में मोहनीय कर्म को अट्ठाईस प्रतियाँ, आभिनिबोधक ज्ञान (मतिज्ञान) के अट्ठाईस प्रकार, ईशान कल्प में अट्ठाईस लाख विमान, देव गति बांधने वाला जीव
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जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषावक नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का बन्धक, नारकी जीव भी अट्ठाईस प्रकृतियों का बन्धक (देवों के शुभ प्रकृतियाँ तथा नारकी में अशुभ प्रकृतियां बधती हैं) नारकी व देवों की अट्ठाईस पल्योपम और अट्ठाईस सागरोपम की स्थिति का उल्लेख किया गया है।
उनतीसवाँ समवाय
इसमें उनतीस पाप श्रुत, आसाढ़ मास आदि के उनतीस रात-दिन, सम्यग्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि भव्यजीव द्वारा तीर्थकर नाम सहित उनतीस प्रकृतियों का बन्ध, नारक देवों के उनतीस पल्योपम और उनतीस सागरोपम की स्थिति का वर्णन है ।
तीसवाँ समवाय
इसमें महामोहनीय कर्म बन्धने के तीस स्थान, मण्डित पुत्र स्थविर की तीस वर्ष की दीक्षा पर्याय, दिन-रात के तीस मुहूर्त, अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ जी की तीस धनुष की ऊँचाई, सहस्रार देवेन्द्र के तीस हजार सामानिक देव, भगवान पार्श्वनाथ व महावीर स्वामी का तीस वर्ष तक गृहवास में रहना, रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावास, नारक देवों की तीस पल्योपम और तीस सागरोपम की स्थिति का उल्लेख मिलता है।
इकतीसवाँ समवाय
इसमें सिद्ध पर्याय प्राप्त करने के प्रथम समय में होने वाले इकतीस गुण (आठ कर्मों की इकतीस प्रकृतियों के क्षय से प्राप्त होने वाले गुण), मन्दर पर्वत धरती तल पर परिधि की अपेक्षा कुछ कम इकतीस हजार छ सौ तेईस योजन वाला, सूर्यमास, अभिवर्धित मास में इकतीस रात-दिन, नारकी देवों की इकतीस पल्योपम तथा इकतीस सागरोपम की स्थिति बतलाने के साथ ही भवसिद्धिक कितने ही जीवों के इकतीस भव ग्रहण करके मोक्ष प्राप्त करने का उल्लेख किया गया है।
बत्तीसवें से चौतीसवाँ समवाय
बत्तीसवें समवाय में बत्तीस योग संग्रह, बत्तीस देवेन्द्र, कुन्थुनाथ जी के बत्तीस सौ बत्तीस (३२३२) केवली, सौधर्म कल्प में बत्तीस लाख विमान, रेवती नक्षत्र के बत्तीस तारे, बत्तीस प्रकार की नाट्य विधि तथा नारक देवों की बत्तीस पल्योपम व बत्तीस सागरोपम की स्थिति का वर्णन किया गया है।
तैंतीसवें समवाय में तैंतीस आशातनाएँ, असुरेन्द्र की राजधानी में तैंतीस मंजिल के विशिष्ट भवन तथा नारक देवों की तैंतीस पल्योपम तथा सागरोपम की स्थिति बतलाई गई है।
चौंतीसवें समवाय में तीर्थकरों के चौतीस अतिशय चक्रवर्ती के चौंतीस विजयक्षेत्र, जम्बूद्वीप में उत्कृष्ट चौंतीस तीर्थंकर उत्पन्न होना, असुरेन्द्र के चौतीस लाख भवनावास तथा पहली, पांचवी, छठी और सातवीं नरक में चौंतीस लाख नरकवास बतलाये हैं।
पैंतीसवें से साठवाँ समवाय
पैंतीसवें समवाय में वाणी के पैंतीस अतिशय आदि, छतीसवें में
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समवायांग सूत्र -- एक परिचय
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उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीस अध्ययन आदि, सैंतीसवें में सैंतीस गणधर, सैंतीस गण, अड़तीसवें में भ पार्श्वनाथ की अड़तीस हजार श्रमणियाँ, उनतालीसवें में भ. नेमिनाथ के उनतालीस सौ अवधिज्ञानी, चालीसवें में भ. अरिष्टनेमि की चालीस हजार श्रमणियाँ, इकतालीसवें में भगवान नमिनाथ की इकतालीस हजार श्रमणियाँ, बयालीसवें में नाम कर्म की ४२ प्रकृतियाँ, भ महावीर की ४२ वर्ष से कुछ अधिक दीक्षा पर्याय, तेनालीसवें में कर्म विपाक के ४३ अध्ययन, चौवालीसवें में ऋषिभाषित के ४४ अध्ययन, पैंतालीसवें में मानव क्षेत्र, सीमान्त नरकावास, उडु विमान (पहले- दूसरे देवलोक के मध्यभाग में रहा गोल विमान) और सिद्ध शिला, इन चारों में प्रत्येक का विस्तार ४५ लाख योजन का बतलाया गया है।
छियालीसवें में दृष्टिवाद के ४६ मातृकापद और ब्राह्मीलिपि के ४६ मातृकाक्षर, सैंतालीसवें में स्थविर अग्निभूति के ४७ वर्ष गृहवास में रहना, अड़तालीसवें में भ. धर्मनाथ के ४८ गणों, गणधरों का, उनपचासवें में त्रीन्द्रिय जीवों की ४९ अहोरात्र की स्थिति, पचासवें में भ मुनिसुव्रत की ५० हजार श्रमणियाँ, इक्यानवें में नव ब्रह्मचर्यो के ५१ उद्देशन काल, बावनवें में मोहनीय कर्म के ५२ नाम, तिरेपनवें में भ महावीर के ५३ साधुओं का एक वर्ष की दीक्षा के बाद अनुत्तर विमान में जाना, चौपनवें में भरत ऐरवत क्षेत्र के ५४-५४ उत्तम पुरुष, भ. अरिष्टनेमि ५४ रात्रि तक छद्गस्थ रहे, पचपनवें में मल्ली भगवती की ५५ हजार वर्ष की कुल आयु, छप्पनवें में भ. विमलनाथ के ५६ गण व गणधर, सत्तानवें में मल्ली भगवती के ५७०० मन पर्यवज्ञानी श्रमण, अट्ठानवें में ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयु, नाम और अन्तराय इन पांच कर्मों की ५८ उत्तर प्रकृतियां, उनसठवें में चन्द्र संवत्सर की एक ऋतु में ५९ अहोरात्रि तथा साठवें समवाय में सूर्य का ६० मुहूर्त तक एक मण्डल में रहने का उल्लेख है। इकसठवें से सौवाँ समवाय
इकसठवें समवाय में एक युग में ६१ ऋतु भास, बासठवें में भगवान वासुपूज्य के ६२ गण व गणधर तिरेसठवें में भ. ऋषभदेव के ६३ लाख पूर्व तक राज्य सिंहासन पर रहने के पश्चात् दीक्षा लेना, चौसठवें में चक्रवर्ती के बहुमूल्य ६४ हारों का, पैसठवें में मौर्यपुत्र गणधर के द्वारा ६५ वर्ष तक गृहवास रहकर दीक्षा लेना, छियासठवें में भ श्रेयांसनाथ के ६६ गण और ६६ गणधर, मतिज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर, सड़सठवें में एक युग में नक्षत्र मास की गणना से ६७ पास, अड़सठवें में धातकीखण्ड में चक्रवर्ती की ६८ विजय, राजधानियाँ और उत्कृष्ट ६८ अरिहन्त होना, उनहतरवें में मानवलोक में मेरु के अलावा ६९ वर्ष और वर्षधर पर्वत, सत्तरवें में एक मास और बोस रात्रि व्यतीत होने पर तथा ७० रात्रि शेष रहने पर पर्युषण करने का उल्लेख है ।
इकहतरवें समवाय में भ अजितनाथ व सागर चक्रवर्ती का ७१ लाख पूर्व तक गृहवास में रहकर दीक्षित होना, बहतरहवें में भ महावीर की आयु ७२ वर्ष होना, पुरुषों की ७२ कलाएँ, तिहतरवें में विजय नामक बलदेव द्वारा ७३ लाख की आयु पूर्ण कर सिद्ध होना, चौहतरवें में अग्निभूति द्वारा ७४ वर्ष की आयु पूर्ण कर सिद्ध होना, पचहतरवें में भ. सुविधि नाथ जी के ७५०० केवली होना वर्णित
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जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क
164 है । लियर में विद्युत कुमार आदि भवनपति देवों के ७६ - ७६ लाख भवनों सत्तहत्तरवें में सम्राट् भरत द्वारा ७७ लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहने और ७७ राजाओं के साथ दीक्षित होने, अठहत्तरवें में गणधर अकगित जी का ७८ वर्ष की आयु में सिद्ध होने का कथन है। उन्नासीवें समवाय ये छलं नरक के मध्यभाग से वनोदधि के नीचे चरमान्त तक ७९ हजार योजन का अन्तर तथा अस्सीवें समवाय में त्रिपृष्ठ वासुदेव के ८० लाख वर्ष तक सम्राट पद पर रहने का उल्लेख किरण गया है।
इक्यासी समवाय मे ८१०० मनःपर्यवज्ञानी होने, क्यासीवें में ८.२ रात्रियाँ बीतने पर भगवान महावीर का जीव गर्भ में सहरण किये जाने, वियासवे मे भ. शीतलनाथ के ८३ गण और ८३ गणधर होने, चौरासीवें में भ. ऋषभदेव की ८४ लाख पूर्व की और, भ. श्रेयांस की ८४ लाख वर्ष की आयु होने पिन्यासीवें में आचारांग के ८५ उद्देशन काल, छियासीवे में भगवान सुविधिनाथ के ८६ गण व ८६ गणधर होने का कथन है। सत्यासीवें में ज्ञानावरणीय और अन्तराय को छोड़कर शेष ६ कर्मों की ८७ उत्तर प्रकृतियाँ बतायी गई हैं। अटठयासीवें में प्रत्येक सूर्य और चन्द्र के ८८-८८ महाग्रह, नवासीवें में तीसरे आरे के ८९ हजार श्रमणियों तथा नब्बतें समवाय में भ. अजितनाथ व शान्तिनाथ के ९० गण व ९० गणधर होने का उल्लेख किया गया है।
इकरानवें समवाय में भगवान कुन्थुनाथ के ९१००० अवधिज्ञानी श्रमण. चरानवें में गणधर इन्द्रभृति का ९२ वर्ष की आयु पूर्ण कर मुक्त होना, तिरानवें में भ. चन्द्रप्रभ के ९३ गण और ९३ गणधर भ शान्तिनाथ के ९३०० चौदह पूर्वधारी श्रमण. चौरानवे में भ. अजितनाथ के ९४०० अवधिज्ञानी, पिन्यानवें में भ. पार्श्वनाथ के ९५ गण और ९५ गणधर छियानवे में प्रत्येक चक्रवर्ती के ९६ करोड़ गांव, सत्तानवें में आठ कर्मों की ९७ उत्तर प्रकृतियाँ, अट्ठानवें में रेवती व ज्येष्ठा पर्यन्त उन्नीस नक्षत्रों के ९८ तारे, निन्नाणवें में मेरु पर्वत भूमि से ५९००० योजन ऊँचा तथा सौवें समवाय में ग. पाश्र्वनाथ की और सुधन स्वामी की आयु एक सौ वर्ष की बतलायी गयी है।
अन्य समवाय
सौवें समवाय के बाद क्रमश: १५०-२००-२८०-३००-३५०४००-४५०-५०० यावत् १००० से २०००, दो हजार से दस हजार दस हजार से एक लाख, उससे ८ लाख और करोड़ की संख्या वाले विभिन्न विषयों का इन समवायों में संकलन किया गया है। कोटि समवाय के पश्चात् १२ सूत्रों में द्वादशांगी का गणिपिटक के नाम से सारभूत परिचय भी दिया गया है 1 उपसंहार
समवायांग सूत्र में विभिन्न विषयों का जितना संकलन हुआ है, उतना विषयों की दृष्टि से संकलन अन्य आगमों में कम हुआ है। जैसे विष्णु मुनि ने तीन पैर से विराट् विश्व को नाप लिया था, वैसी ही स्थिति समवायांग सूत्र की है। व्यवहार सूत्र में सही ही कहा गया है कि स्थानांग और सगवायाग का ज्ञाता हो आचार्य उपाध्याय जैसे गौरवपूर्ण पद को धारण कर सकता है, क्योंकि इन सूत्रों में
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________________ | समवायांग सूत्र -- एक परिचय 165 आचार्य-उपाध्याय के लिये अत्यधिक उपयोगी एवं जानने योय आवश्यक सभी बातों का संकलर है। इस आगम में जहां आत्मा संबंधी स्वरूप का, कर्म-बन्ध के हेतुओं का. संसार वृद्धि के कारणों का विवेचन मिलता है, वहीं कर्म-बन्धनों से मुक्ति पाने के उपाय महाव्रत, समिति. गुप्ति, दशविध धर्म तप. सयम, परीषह जय आदि का भी सांगोपांग प्रिवचन मिटता है। खगोल,--भूगोल, संबंधी, नारकी-देवता संबंधी जानकारी के साथ तीर्थंकरों के गण, गणधर, साधु, मन गर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, पंचकल्याणक तिथिया आदि की ऐतिहासिक जानकारी भी प्रदान की गयी है। मुख्य रूप से यह आगम गा रूप है, पर कहीं-कहीं बीच-बीच में नामावली व अन्य विवरण संबंधी गाथाएँ भी आयी हैं। भाषा की दृष्टि से भी यह आग महत्वपूर्ण है। कहीं कहीं अलंकारों का प्रयोग हुआ है। संख्याओं के सहारे भ. ऋषभदेव. पार्श्वनाथ, महावीर स्वागी और उनके पूर्ववर्ती- पश्चात्वर्ती चौदहपूर्वी, अवधिज्ञानी और विशिष्ट ज्ञानी मुनियों का भी उल्लेख है। समवायांग सूत्र के अनेक सुत्र आचारांग में, अनेक सुत्रकृताग में, अनेक भगवती सूत्र में, अनेक प्रश्नव्याकरा सूत्र में, औषपातिक सूत्र में, जीवाभिगम सूत्र में. पनवणा सूत्र में, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में, सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र में, उत्तराध्ययन सूत्र में तथा अनुयोग द्वार सूत्र में कहीं संक्षेप में तो कहीं विस्तार से उल्लिखित हैं। यों तो समवायांग सूत्र का प्रत्येक समवाय, प्रत्येक सूत्र प्रत्येक विषय के जिज्ञासुओं एवं शोधानियों के लिये ज्ञातव्य महत्त्वपूर्ण तथ्यों का महान भण्डार है, पर रामवायांग के अन्तिम भाग को एक प्रकार से 'संक्षिप्त जैन पुराण'' की संज्ञा दी जा सकती है। वस्तुन: वस्तुविज्ञान, जैन सिद्धान्त और जैन इतिहास की दृष्टि से समवायाग एक अत्यधिक महत्व का अंग श्रुत है। -रजिस्ट्रार, अखिल भारतीय श्री जैन रत्न आध्यात्मिक शिक्षण बोर्ड, घोडों का चौक, जोधपुर