Book Title: Samaj ke Vikas me Nari ka Yogadan Author(s): Manjulashreeji Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/212145/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज के विकास में नारी का योगदान साध्वी श्री मंजुला (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) प्रत्येक समाज नारी और पुरुष का समन्वित रूप है । न केवल पुरुषों से समाज बनता है और न केवल नारी से समाज की सष्टि होती है । यद्यपि महिला-समाज, पुरुष-समाज जैसे प्रयोग देखने को मिलते हैं किन्तु वहाँ एक सजातीय व्यक्तियों के समूह को समाज कहा जाता है। वास्तव में तो एक जैसी सभ्यता, संस्कृति, धर्म और परम्परा में पलने वाले परिवारों के समूह का नाम समाज है । इसीलिए तो कहा जाता है हिन्दुस्तानी समाज, जैन समाज, ओसवाल समाज, अग्रवाल समाज इत्यादि । आज विश्व में अनेक समाज हैं । कुछ समाज विकास के चरम शिखर पर पहुँचे हुए हैं। कुछ समाज विकासशील हैं तो कुछ समाज विकासाधीन हैं हर समाज अपना सर्वतोमुखी विकास चाहता है फिर भी चाह मात्र से कोई भी समाज विकसित नहीं हो सकता । समाज-विकास के लिए जिन तत्त्वों की आवश्यकता है वे तत्त्व जितने सक्रिय होंगे, समाज उतना ही जल्दी विकसित होगा। समाज के घटक तत्त्व अनेक हैं। उनमें नारी का भी अपना बहुत बड़ा योगदान है। जिस समाज की नारी जागत, कर्तव्यपरायण, सच्चरित्र, सुशील, विवेकशील, समर्पणपरायण, सहनशील और आशा जगानेवाली होती है वह समाज विश्व का अग्रणी समाज होता है । जिस समाज का महिलावर्ग आलसी, कर्तव्यच्युत, दुश्चरित्र और विवेकशन्य होता है वह समाज निश्चित ही पतन के गर्त में गिरता है। नारी एक बहुत बड़ी शक्ति है। लक्ष्मी सी सम्पन्नता, दर्गा सी शक्तिमता और सरस्वती का विद्याभण्डार सब कुछ नारी में विद्यमान हैं। श्री रामचन्द्र सीता की खोज में भटकते हुए उसकी विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहते हैं-सीता केवल पत्नी ही नही थी वह आवश्यकतावश अनेक रूप धारण कर लेती थी। खाना खिलाते समय वह मातहदया बन कर बड़े स्नेह और प्यार से खाना खिलाती थी। मन्त्रणा और परामर्श के समय वह मन्त्री को ही भुला देती थी। रमण के समय वह परम समपिता नारी का आदर्श दिखाती थी। गृह-कार्य करते समय एक दासी से भी बढकर श्रमशीला बन जाती थी। आत्मीयता और मन-बहलाव के समय मित्रों से भी बढ़कर सहारा देती थी। उन्मार्ग से बचाने के लिए वह प्रशिक्षक और गुरु का रूप धारण कर लेती थी। ऐसी सर्वगुणसम्पन्न सीता को खोकर मैं असहाय हो गया है। सीता के नारीत्व में राम जिन गुणों को देखते हैं, वह नारीत्व किस नारी में नहीं है ? केवल गुणों के विकास का तारतम्य है । सत्ता रूप से हर नारी में ऐसे सैकड़ों गुण हैं, जो पुरुष को पूर्ण बनाते हैं। यद्यपि नीतिकारों ने विशेषरूप से नारी के छ: गुणों का उल्लेख किया और उन छ: गुणों से युक्त नारी का मिलना दुर्लभ बताया है, पर वास्तव में नारी शतगुणा होती हैं और उन गुणों का विकास बड़ी आसानी से किया जा सकता है। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड आज पुरुषों के बराबर स्त्रियों के विकास को सभी अवसर दिये जा रहे हैं, यह समाज के व्यक्तियों की उदारता तो है ही साथ ही मानव समाज के कल्याण का एक बहुत बड़ा उपक्रम है। महिला समाज को प्रशिक्षित करने का अर्थ है पूरी मानव जाति का सम्यक संचालन / बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक नारी पुरुष का बहुत बड़ा आलम्बन बनती है / शैशवकाल में शिशुओं का संस्कार-निर्माण एकमात्र मातृअधीन है। जिन बच्चों की माताएँ स्वयं प्रशिक्षित नहीं हैं या बच्चों का पालन-पोषण माँ के परिपार्श्व में नहीं होता है वे बच्चे संस्कार-निर्माण की दृष्टि से बहुत कच्चे रह जाते हैं। पथभ्रष्ट युवकों का मार्गदर्शन भी नारी ही करती है / जिन युवकों को सद्गृहिणी नसीब नहीं होती, वे अक्सर किसी दुव्यर्सन के दास बनकर अपना जीवन नष्ट कर देते हैं। वृद्धावस्था में नारी ही अपनी सेवा-भावना से पुरुष को समाधिस्थ बनाती है। जिस पुरुष की वृद्धावस्था में नारी गुजरती है, वह असहाय हो जाता है / कभी-कभी तो आत्म-हत्या तक की बात सोच लेता है / नारी बचपन में माता, यौवन में पत्नी और वृद्धावस्था में सेविका बनकर सदा पुरुष का मार्गदर्शन करती आई है। जिस समाज में नारी को दलित, पतित और उपेक्षित समझा जाता है, उस समाज का पूर्ण विकास किसी भी स्थिति में संभव नहीं है। इतिहास साक्षी है, जिस समय समाज या देश में नारी का अवमूल्यन हुआ, उस समय उस समाज और उस देश का घोर पतन हुआ है। भारतवर्ष में और हिन्दू समाज में आज जो परम्परा-परायणता, शालीनता, मर्यादाशीलता, धर्म-परायणता देखी जाती है वह एकमात्र इसलिए है कि यहाँ के समाज ने प्रायः नारी को सम्मान दिया है और मातृशक्ति से प्रेरणा पाकर सदा अपने जीवन को तदनुरूप ढालता रहा है / यहाँ के हर धार्मिक नेता, समाजशास्त्री और दार्शनिक की यह धारणा रही है कि संसार स्त्रियों से ही संचालित है। इसी तथ्य को व्यक्त करने वाली एक घटना है कि एक बार बादशाह ने बीरबल से पूछा-पुरुष का दिमाग तेज है या स्त्री का ? तब बीरबल ने कहा-जहाँपनाह ! पुरुष जो कुछ करता है, स्त्रियों के संकेत से करता है / स्वयं कुछ करता ही नहीं है फिर मैं कैसे बताऊँ कि किसका दिमाग तेज है ? बादशाह को बात जची नहीं और बीरबल से कहा कि तुम अपने प्रतिपाद्य को प्रमाणित करो। वीरवल ने शहर के बाहर दो खेमे तैयार करवाए / एक खेमे पर बोर्ड लगवाया स्त्री-संचालित और दूसरे खेमे पर वोर्ड लगवाया स्वयं-संवालित / फिर बादशाह से कहा कि शहर के सभी लोगों को निमन्त्रित करके आदेश दे दिया जाय --जो स्वयंचालित हैं वे स्वचालित खेमे में चले जाएँ और जो स्त्रीसंचालित हैं वे स्त्री-संचालित खेमे में चले जाएँ। बादशाह ने सभी लोगों को बुलाकर उपरोक्त आदेश दे दिया। दादशाह यह देखकर हैरान था कि शहर के सभी आदमी स्त्री-संचालित खेमे में गए केवल एक आदमी दूसरे खेमे में था / बादशाह ने बीरबल को कहा कि वो तुम्हारी बात ठीक है फिर भी एक प्रतिशत व्यक्ति स्व-संचालित भी होते हैं। बीरबल ने कहा-जरा आप ठहरिए; और उस व्यक्ति से पूछा कि भाई ! जब सब आदमी स्त्री-संचालित खेमे में गए तो तुम अकेले स्वसंचालित खेमे में कैसे गए ? उस व्यक्ति ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया कि महाशय ! मेरी पत्नी ने कहा था कि जहाँ ज्यादा भीड़-भाड़ हो वहाँ मत घुसना / उस व्यक्ति का यह उत्तर सुनते ही बादशाह की समझ में आ गया कि वस्तुतः दुनियाँ स्त्री-संचालित ही है / इस आधार पर कल्पना की जा सकती है कि जब सारी सृष्टि स्त्री-संचालित है तो सृष्टि के विकास में उसका कितना बड़ा योगदान रहा है। ___जो देश, समाज, संघ और परिवार नारी जाति की अवहेलना करता है वह बहुत बड़े विकास से वंचित तो रहता ही है साथ ही साथ स्त्री-जाति के प्रति कृतघ्नता भी प्रकट करता है / विद्याभूमि राणावास में स्त्री और पुरुष दोनों के विकास क्षेत्र को समान महत्त्व दिया गया है, यह एक अनुकरणीय तथ्य है।