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सज्ज्नसिंह मेहता 'साथी'
एम०ए० (१) हिन्दी (२) जैन दर्शन (३) राज-शास्त्र
समाज विकास में समता दर्शन
की भूमिका
समता का अर्थ- समता का मूल शब्द सम है जिसका अर्थ है समानता । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समान दृष्टि रखकर, समानता का व्यवहार करना समता है। समता का विलोम शब्द विषमता है। विषमता की जननी ममता है। समता या समानता की आवश्यकता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है चाहे वह आध्यात्मिक हो, राजनैतिक हो, आर्थिक हो या सामाजिक हो । समता कारण रूप है और समानता उसका फल है। विषमता से मुक्त होने के लिए समता धारण की जावे । समता और विषमता दोनों मानव के मन में स्थित है, समता धारण की जावे। समता और विषमता दोनों मानव के मन में स्थिर है, समता मानव का मूल स्वभाव है और विषमता आमन्त्रित है, आयातित है, विभाव दशा है।
वर्तमान युग- मानव विषमता एवं तनाव में जी रहा है। सम्पूर्ण विश्व विषमता के घेरे में फंसता जा रहा है। व्यक्ति तनाव ग्रस्त है, विषमता की परिधि में त्रस्त है। विषमता का साम्राज्य सर्वत्र व्याप्त है। विषमता का विस्तार व्यक्ति से प्रारंभ होकर परिवार, समाज, राष्ट्र एवं सम्पूर्ण विश्व में हो चुका है। इस विषमता के अनेक कारण हो सकते हैं, परन्तु प्रमुख कारण मानव की ममता, मूर्च्छा, राग-द्वेष है। भगवान महावीर ने मूर्च्छा
को परिग्रह कहा है 'मूच्छापरिग्गहो बुत्तो' भौतिक चकाचौंध और आपाधापी के इस विषम वातावरण में प्रत्येक मानव आज अर्थोपार्जन की होड़ में दौड़ रहा है अतः तनाव ग्रस्त है, दु:खी है। किसी कवि ने कहा है
गोधन, गजधन, वाजिधन और रतन धन खान । जब आवे सन्तोष धन सब धन धूलि समान ।। सन्तोष के अभाव में आज मानव दुःखी ही नहीं महादुःखी है । विषमता की इस विभीषिका में समता ही एक मात्र सुख का आधार है। पारिवारिक सुख को नष्ट करती हुई यह विषमता आगे अपने पैर पसारती है तो इसका प्रभाव समाज, राष्ट्र और विश्व तक व्याप्त हो जाता है जिससे पारस्परिक भेदभाव एवं पक्षपात की दीवारें तैयार हो जाती हैं, कदम-कदम पर पतन के गर्त तैयार हो जाते हैं। आज विश्व सैन्यशक्ति की होड़ में भी पीछे नहीं है। सभी राष्ट्र संहारक शस्त्रास्त्र तैयार करने की होड़ में है । परमाणु शास्त्रास्त्रों का अम्बार कब किस घड़ी विश्व को विनाश के द्वार पर खड़ा कर दे, कोई पता नहीं । अतः ऐसे विषम एवं सघन अन्धकार पूर्ण वातावरण में समता ही ज्योति पुंज बनकर प्रकाश कर सकती है।
समता दर्शन क्या है ? समभाव, समता, समानता पर आधारित व्यक्ति से लेकर विश्व तक के कल्याण के विचारों को समता दर्शन कहा जा सकता है। दर्शन का एक अर्थ होता है देखना । 'दृश' धातु से लट प्रत्यय होने पर 'दर्शन' शब्द बनता है, यह दृशधातु चक्षु से उत्पन्न होने वाले ज्ञान का बोध कराने वाली है । १ दर्शन शब्द का सम्बन्ध दृष्टि से होता है । दृश्यते अनेन इति दर्शनम् जिससे देखा जाय वह दर्शन है। २ दर्शन का एक अर्थ श्रद्धा भी होता है- 'तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग् दर्शनम् अर्थात् तत्वों पर सम्यक् श्रद्धा करना सम्यग् दर्शन है । अरस्तु के अनुसार 'दर्शन वह विज्ञान है जो परम तत्व के यथार्थ स्वरूप की खोज करता है। (Phylosophy is the science which investigates the nature of being as it is in itself) इस प्रकार दर्शन की अनेक परिभाषाएँ उपलब्ध हैं । यहाँ दर्शन का अर्थ सिद्धान्त से है, विचारों से है।
आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों में यथा योग्य समानता, समता का व्यवहार करने के सिद्धान्त के विचारों को समता दर्शन कह सकते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में देखें तो भगवान महावीर ने कहा कि सभी आत्माएँ समान हैं अर्थात् सभी आत्माओं में सर्वोच्च विकास संपादित करने की शक्ति समान रूप से रही हुई है केवल कर्मों का अन्तर है
सिद्धा जैसा जीव है जीव सो ही सिद्ध होय । कर्म मेल का आंतरा समझे बिरला कोय ।।
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यही नहीं प्रभु महावीर का उद्घोष है कि आत्मा ही परमात्मा है- 'अप्पा सो परम अप्पा' इस उच्च पद को प्राप्त करने के लिए प्रभु महावीर ने सबसे पहले सम्यग् दृष्टि या सम दृष्टि बनने का उपदेश दिया, मिथ्यादृष्टि को दूर कर सम्यग् दृष्टि बनने का विषम दृष्टि से मुक्त हो सम दृष्टि बनने का उपदेश दिया है। "विषमता मिथ्या होती है और समता सम्यक् "समता के प्रवेश को सम्यक्त्व का श्री गणेश कह सकते हैं। जहाँ सम्यक्त्व का श्री गणेश है, वहाँ समदृष्टि का विकास सम्भव है। भगवान महावीर ने समता दर्शन का व्यवस्थित सिद्धान्त विचार एवं आचार दोनों रूप में संसार के समक्ष प्रस्तुत किया। प्रभु महावीर के अनुसार संसार के समस्त प्राणी समान हैं, सभी जीव जीना चाहते हैं अतः किसी भी जीव की हिंसा नहीं की जावे जीओ और जीने दो का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है।
विचार एवं आचार में समता - आध्यात्मिक क्षेत्रों में भगवान महावीर ने विचार रूप में 'जीओ और जीने दो' सभी जीव समान हैं का सिद्धान्त दिया तो आचार रूप में सप्त कुव्यसन का त्याग, श्रावक के बारह व्रत, साधु के पांच महाव्रत, समिति गुप्ति के पालन का विधान प्रस्तुत किया जिससे विचारों की समता प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता एवं शक्ति के अनुसार जीवन में उतार सके। सप्त कुव्यसन हैं- (१) मांस भक्षण (२) मदिरा पान (३) जुआ (४) चोरी (५) शिकार ( ६ ) परस्त्रीगमन (७) वेश्यागमन । प्रत्येक मानव को इन कुव्यसनों
मुक्त रहने का उपदेश दिया श्रावक के व्रत है (१) स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत (२) स्थूल मृषावाद विरमण व्रत (३) स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत (४) स्वदार संतोष, परदार विवर्जन मैथुन विरमण व्रत (५) परिग्रह परिमाण व्रत (६) दिशा परिमाण व्रत (७) उपभोग परिभोग परिमाण व्रत (८) अनर्था दण्ड त्याग व्रत (९) सामायिक व्रत (१०) देशावगासिक व्रत (११) पड़िपुन्न पौषध व्रत (१२) अतिथि संविभाग व्रत पाँच महाव्रत है (१) अहिंसा (२) सत्य (३) अस्तेय (४) ब्रह्मचर्य (५) अपरिग्रह । व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार श्रावक के व्रतों का या साधु के महाव्रतों का पालन करें।
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सामाजिक क्षेत्र में समता दर्शन- सामाजिक स्तर पर समाज के सभी सदस्य समान हैं। वर्ण, जाति प्रदेश आदि के भेद से व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य भेद की दीवार खड़ी करना सर्वथा अनुचित है। सामाजिक स्तर पर सभी समान हैं, विकास के अवसर सभी के लिए समान हों, यह समता दर्शन है, प्राचीन काल में सामाजिक स्तर पर विषमताएँ थीं, पर समय के परिवर्तन के साथ विषमताओं के बंधन ढीले हो गये सामाजिक समानता के क्षेत्र में वर्तमान में काफी विकास हुआ है।
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राजनैतिक क्षेत्र में समता दर्शन- इस जगती तल पर लोकतन्त्र का प्रादुर्भाव आगमन राजनैतिक क्षेत्र में समानता के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। प्राचीन काल की साम्राज्यवादी लिप्सा, सामन्तवादी राजतन्त्र विस्तारवादी राजनीति के बन्धनों को प्रजातन्त्र ने शिथिल किये। जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र है। लोक तन्त्र द्वारा राजनैतिक समानता की स्थापना हुई। यह एक सफल प्रयास है, फिर भी इसे पूर्ण रूप से राजनैतिक समानता नहीं कह सकते हैं, अभी इसमें सुधार की आवश्यकता है। राजनैतिक क्षेत्र में सभी को समानता प्राप्त हो, यह समता दर्शन है।
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आर्थिक समानता आर्थिक क्षेत्र में सभी व्यक्तियों को या योग्य समानता के अवसर प्राप्त हों, यह आर्थिक समता दर्शन है। समय के परिवर्तन के साथ आर्थिक क्षेत्र में भी इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास किये गये कार्ल मार्क्स ने साम्यवाद के रूप में विश्व में नया दर्शन प्रस्तुत किया। इस क्षेत्र में बहुत कुछ सफलता भी मिली। परन्तु फिर भी विश्व में आर्थिक असमानता मुँह फाड़े खड़ी है। समता दर्शन के अनुसार आर्थिक समानता का अर्थ यह नहीं है कि संसार के सभी व्यक्तियों के पास समान सम्पत्ति हो, सम्पत्ति का वितरण समान हो, चाहे वह परिश्रमी हो या निठल्ला हो, योग्य हो या अयोग्य हो, पुरुषार्थी हो या पुरुषार्थहीन हो। इस प्रकार की समानता तो मान्य एवं योग्य नहीं है। सभी व्यक्तियों को अर्थोपार्जन के समान अवसर प्राप्त हों, योग्यता के अनुसार पारिश्रमिक दिया जावे, आर्थिक असमानता की गहरी खाइयों को पाटा जावे, व्यक्ति की क्षमता के अनुसार कार्य लिया जावे, अत्यधिक आर्थिक विषमता को दूर किया जावे । प्रत्येक व्यक्ति को आवश्क वस्तुओं की आपूर्ति हो । सभी को शिक्षा एवं विकास के समान अवसर उपलबध हों। आर्थिक समानता के क्षेत्र में वर्तमान युग में बहुत प्रगति हुई है, फिर भी विश्व में विषमता विद्यमान है। एक ओर जहाँ कुछ देश एवं कुछ व्यक्तियों के पास धन का अम्बार है तो दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति भी है जो महान अर्थ संकट में है, दो समय का भोजन भी उन्हें उपलब्ध नहीं होता है। इस विषमता को दूर करना आवश्यक है जिसके लिए समता दर्शन आवश्यक है।
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समाज क्या है? सीधी सादी भाषा में व्यक्तियों के समूह को समाज कहते हैं। समाज शास्त्रियों ने समाज की अनेक परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। पाठकों को परिभाषाओं के जाल में न डालकर मैं सीधा इस विषय पर उपस्थित हो रहा हूँ कि समता दर्शन सामाजिक विकास में किस प्रकार सहयोगी हो सकता है। समता दर्शन के बारे में ऊपर मैंने बहुत संक्षेप में कुछ लिखने का प्रयास किया है। विस्तृत जानकारी के इच्छुक पाठकगण आचार्य श्री नानेश की पुस्तक 'समता दर्शन एवं व्यवहार' पढ़ने का कष्ट करें।
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________________ समता दर्शन श्रमण भगवान महावीर का दिया गया जीवनोपयोगी सिद्धान्त है। भगवान महावीर ने समता को धर्म कहा है। धर्म व्यक्ति को तिराने वाला है। समाज व्यक्तियों से बनता है व्यक्ति के उत्थान से समाज का उत्थान है और व्यक्ति के पतन से समाज का पतन है। अत: समता दर्शन समाज को भी तिराने वाला है। समाज विकास में समता दर्शन की अहम् भूमिका हैसमता दर्शन द्वारा समाज में व्याप्त विषमताएँ समाप्त होंगी। समता दर्शन द्वारा सम्पूर्ण विश्व में शांति एवं सुख का साम्राज्य स्थापित हो सकता है। आवश्यकता है समता दर्शन को प्रत्येक व्यक्ति समझे, चिन्तन करे एवं जीवन में आचरण में लाए, मिठाइयों के नाम लेने से, चर्चा करने से रसास्वादन नहीं होता। रसास्वादन तो मिठाइयों के सम्यग् स्वरूप को समझकर यथा समय विवेक पूर्वक खाने से ही सम्भव है। समता दर्शन मात्र सिद्धान्त ही नहीं वरन् जीवन में आचरण करने योग्य है। समता दर्शन के सम्यक् स्वरूप को समझकर जीवन में उतारने पर व्यक्ति का जीवन उन्नत, सुखमय, आदर्श, हितकारी बन सकता है। यदि व्यक्ति का विकास होगा तो समाज का विकास स्वत: निश्चित है। समाज का मूल्यांकन उसके सदस्यों के आधार पर किया जाता है। व्यक्ति समाज के लिए एवं समाज व्यक्ति के लिएजब से व्यक्ति ने अकेलापन छोड़कर समूह में अन्य साथियों के साथ रहना स्वीकार किया है, तबसे सामाजिक व्यवस्था का विकास हुआ है, तब से पारस्परिक सहयोग की भावना विकसित हुई है, सामाजिक व्यवस्था का शुभारम्भ हुआ है, सहकार एवं सहयोग की भावना जागृत हुई है, अत: व्यक्ति एवं समाज अन्योन्याश्रित हो गये हैं। समता दर्शन प्रत्येक मानव के जीवन का अंग बने तो व्यक्तिगत पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में समता के संचार से सर्वत्र आनन्द ही आनन्द होगा। वसुधैव कुटुम्बकम् की कल्पना मूर्त रूप ग्रहण कर सकेगी। समता समृद्धि, शान्ति एवं श्रेष्ठता की प्रतीक है। आचार्य श्री नानेश के शब्दों में "अन्त में यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि जो समता की साधना करेगा उसका स्वयं का जीवन तो धन्य होगा ही किन्तु वह समाज के जीवन को भी धन्य बनायेगा।" अत: यह पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि समाज विकास में समता दर्शन की अहम भूमिका है। मैं यहाँ 'समता' दर्शन और व्यवहार' पुस्तक के कुछ अंश/उद्धरण प्रस्तुत करना उचित समझता हूँ। यथा 1. विश्व दर्शन तभी सार्थक है जब योग द्रष्टा अपनी समर्थ दृष्टि के माध्यम से सम्पूर्ण दृश्य को समतामय बना सके। यथावत् स्वरूप दर्शन से ही समता का स्वरूप प्रतिभासित हो सकेगा। पृष्ठ संख्या 37 2. मनुष्य के मन के मूल में रही समता ज्यों-ज्यों उभरती जायेगी, वह अपने व्यापक प्रभाव के साथ मानव जीवन को भी उभारती जायेगी। उसे अशांति, दुःख, दैन्य एवं निकृष्टता के चक्रवात से बाहर निकाल कर यही समता उसे शांति, सर्वांगीण समृद्धि एवं श्रेष्ठता के सांचे में ढालेगी। पृष्ठ संख्या 28 3. भारतीय संस्कृति में “वसुधैव कुटुम्बकम" की जो कल्पना की गई है, उसे समता पथ पर चलकर ही साकार बनाई जा सकती है। सारे विश्व को बड़ा कुटुम्ब मान लें, उसे अपनी स्नेह पूर्ण आत्मीयता से रंग दें, तो भला क्यों नहीं ऐसी श्रेष्ठ कल्पना साकार हो सकेगी? पृष्ठ संख्या 89 4. समता के प्रवेश को सम्यक्त्व का श्री गणेश कह सकते हैं। अत: सबसे पहले समदृष्टिपना आवे, यह वांछनीय है, क्योंकि समदृष्टि जो बन जायेगा तो वह स्वयं तो समता पथ पर आरूढ़ होगा ही किन्तु अपने सम्यक् संसर्ग से वह दूसरों को भी विषमता के चक्रव्यूह से बाहर निकालेगा। इस प्रयास का प्रभाव जितना व्यापक होगा उतना ही व्यक्ति एवं समाज का सभी क्षेत्रों में चलने वाला व्यवस्था क्रम सही दिशा की ओर परिवर्तित होने लगेगा। पृष्ठ संख्या 42 5. योग दृष्टा की समर्थ दृष्टि विश्व के विशाल रंगमंच पर जहां भी पड़ेगी, वह समतत्वों की शोध करेगी तथा विषम तत्वों को भी समता के साथ सम बनाने में निरत हो जायेगी। द्रष्टा वही योग्य जो समता को अपनी दृष्टि में समा ले तथा दृष्टि वही समर्थ जो विषम को भी सम बनादे। यह समता मूलक धरातल ही सफल विश्व दर्शन की ओर अग्रसर बनता है। ऐसा प्रगतिशील दृष्टा 'समदर्शी' बन जाता है। पृष्ठ संख्या 30 6. मूल आवश्यकताएं होती हैं- भोजन, वस्त्र और निवास। यही कारण है कि समस्त जीवनोपायेगी पदार्थों के यथा विकास, यथायोग्य वितरण पर बल दिया जा रहा है। यथा विकास एवं यथा योग्य वितरण का लक्ष्य यह होगा कि जिसको अपनी शरीर-दशा, धंधे या अन्य परिस्थितियों के अनुसार जो योग्य रीति से चाहिये, वैसा उसे दिया जाय। यही अपने तात्पर्य में समवितरण होगा। पृष्ठ संख्या६३ 0 अष्टदशी / 850