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● डॉ0 प्रेमशंकर त्रिपाठी
सशक्त उपन्यासकार :
अमृतलाल नागर
हिन्दी उपन्यास की विकास यात्रा में प्रेमचंदोत्तर युग के कथाकारों का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। इस काल के रचनाकारों ने अपनी कथाकृतियों में अपने समय की कटु मधुर अनुभूतियों, उलझनों, समस्याओं तथा परिस्थितियों का कुशलतापूर्वक वर्णन किया है। नवीन सामाजिक संदर्भों का चयन कर जीवन संघर्ष को स्वर देने वाले इन उपन्यासकारों ने सूक्ष्म संवेदना, नवीन विषयवस्तु तथा नई चेतना से युक्त उपन्यासों की रचना की। इन प्रतिभा सम्पन्न उपन्यासकारों में अमृतलाल नागर का विशिष्ट स्थान है। प्रखर सामाजिक दृष्टि, यथार्थ की गहरी समझ, पीड़ितों के प्रति संवेदना, व्यापक मानवतावाद, प्रगतिशील चिंताधारा, आस्थावादिता तथा हास्य व्यंग्य की गहन क्षमता से युक्त नागरजी का प्रौढ़ चिन्तन उपन्यासों में अभिव्यक्त हुआ है। कथानक संबंधी नवीन प्रयोग, भाषा शैली की विविधता तथा पात्रों की जीवन्तता के कारण प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकारों में अमृतलाल नागर को शीर्ष कथाकार के रूप में परिगणित किया जाता है।
विद्वानों ने नागरजी को प्रेमचंद परम्परा का समर्थ एवं सशक्त उपन्यासकार माना है। यह ठीक है कि नागरजी ने अपनी कृतियों में प्रेमचंद की ही तरह आदर्श और यथार्थ के समन्वय को स्थापित करने की चेष्टा की है परन्तु केवल इसी आधार पर उन्हें प्रेमचंद की परम्परा के अंतर्गत सीमाबद्ध कर देना अनुचित है। वास्तव में नागरजी ने प्रेमचंद
हीरक जयन्ती स्मारिका
की परम्परा को अपना रास्ता बनाया है, अपना उद्देश्य नहीं। प्रेमचंद के मार्ग का अवलंबन ग्रहण करते हुए उनकी परम्परा का विकास करने की छटपटाहट उपन्यासकार में दिखाई पड़ती है। नागरजी ने प्रेमचंद की स्थापित परम्परा से अपनी उपन्यास यात्रा का प्रारम्भ किया है और उसे विकसित करने के लिए संवेदना, तकनीक और भाषा की दृष्टि से नवीन प्रयोग किये हैं। प्रेमचंद की विचारधारा को नवीन आयाम देते हुए कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से नागरजी ने क्रांतिकारी परिवर्तन की चेष्टा की है।
नागरजी उन उपन्यासकारों में रहे हैं जिन्होंने स्वाधीनता पूर्व की विविध गतिविधियों का अवलोकन किया था। स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि की जानकारी के साथ-साथ समाज के सभी परिवर्तनों एवं बनते-बिगड़ते जीवन मूल्यों के वे साक्षी रहे हैं। स्वातंत्रोत्तर भारत के सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक तथा राजनीतिक आंदोलनों से वे भलीभांति अवगत रहे हैं। स्वाधीनता पूर्व और पश्चात् के ये प्रसंग किसी न किसी रूप में उनके उपन्यासों में देखे जा सकते हैं।
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नागरजी के उपन्यासकार को प्रौढ़ एवं परिपक्व बनाने में उनके कहानीकार का विशेष हाथ है। 1930 से ही उन्होंने कहानी लेखन आरम्भ कर दिया था। इसके लगभग 14-15 वर्षों बाद उन्होंने उपन्यास लिखा । उनकी कहानियों में व्याय विद्रूप के द्वारा समाज में विद्यमान विषमताओं एवं कुरूपताओं के साथ-साथ समाज की समस्याओं का संतुलित चित्रण हुआ है। जीवन के यथार्थ का बारीकी से अध्ययन कर अपने कथा-साहित्य में उसका अंकन करने में नागरजी पूर्णतः सफल रहे हैं।
1946 में उनका प्रथम उपन्यास "महाकाल" (भूख) प्रकाशित हुआ था। 1985 में " करवट" तथा नागरजी के देहावसान के उपरांत उनका अंतिम उपन्यास “पीढ़ियां" प्रकाशित हुआ। इन 45 वर्षों से रचित छोटे-बड़े 15 उपन्यासों में उनकी यथार्थपरक दृष्टि, समाज सचेतनता, इतिहास प्रेम और सांस्कृतिक चेतना का आभास मिलता है।
नागरजी के उपन्यासों के अधिकांश पात्र प्रेमचंद के उपन्यासों की ही भांति जन जीवन के बीच के हैं। यद्यपि प्रेमचंद ने शहरी जीवन का अपने उपन्यासों में चित्रण किया है, परन्तु उनकी दृष्टि मुख्यतः ग्रामीण जीवन के पात्रों का चित्रण करने में ही रमी है। इसी प्रकार नागरजी की सामर्थ्य नगरजीवन तथा मध्यवर्गीय पात्रों के अंकन में ही परिलक्षित होती है। मध्यवर्गीय नगरजीवन से भलीभांति परिचित होने के कारण लेखक की कलम से चित्रित सामान्य पात्र भी अपनी सजीव उपस्थिति से पाठकों को प्रभावित करते हैं।
प्रेमचंद ने यदि ग्रामीण जीवन के उपेक्षित पात्रों तथा शोषित, दलित वर्ग के पात्रों का चित्र अपनी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है तो नागरजी ने नगरजीवन के तिरस्कृत, दयनीय और उपेक्षित पात्रों की पीड़ा को अपनी सहानुभूति प्रदान की है। यही कारण है कि वे उनकी आशाओं आकांक्षाओं के साथ उनकी समस्याओं, विषमताओं तथा पीड़ा का मार्मिक अंकन करने में सफल हुए हैं। सामाजिक उपन्यासों में नागरजी
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की यह यथार्थवादी दृष्टि स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ___ जीवन के जिस यथार्थ को प्रेमचंद या नागरजी ने अपने उपन्यासों में प्रतिष्ठित किया वह स्वयं इन लेखकों का भोगा हुआ यथार्थ था। प्रेमचंद ने हिन्दी कथा साहित्य को राजा-रानियों, राजकुमारों-जमींदारों-कुलीनों के एक छत्र नायकत्व से निकाला और होरी, घीसू, धनिया, सिलिया, सूरदास को जनगण का प्रतिनिधि समझकर उन्हें कथानायक बनाया। वास्तव में उनकी यही समझ उन्हें दीन-हीन, दलित और संघर्षशील नरनारियों की सहानुभूति से जोड़ सकी और समाज के पीड़ित, वंचित वर्ग का यथार्थ अपने वास्तविक रूप में पाठकों तक पहुंच सका। प्रेमचंद की इसी संवेदनशीलता ने उन्हें शीर्ष स्थान पर प्रतिष्ठित किया है। __अपने यथार्थ चित्रण में प्रेमचंद ने कभी कथा-शिल्प के चमत्कार की चाह नहीं की- सरल, सहज ढंग से अपनी कथा कहने में ही उनका दृढ़ विश्वास बना रहा। आलोचकों का एक वर्ग इसे भले ही प्रेमचंद की कमजोरी मानता हो, परन्तु वास्तव में यही सहजता प्रेमचंद की शक्ति थी। प्रेमचंद की कृतियों में किस्सागोई पद्धति का परिष्कृत रूप परिलक्षित होता है। अपने एक निबंध "युग प्रवर्तक प्रेमचंद' में नागरजी ने लिखा है- "मुंशी प्रेमचंद आधुनिक युग के यथार्थवादी कथालेखक होते हुए भी, विदेशी कहानियों के अध्ययन से प्रभावित होकर भी दरअसल ये पुरानी भारतीय परम्परा के किस्सागोई ही। ...उनके कथा कहने का ढंग उतना ही सरल है, जितना कि एक था राजा, एक थी रानी वाली कहानी का ढंग होता है।" (साहित्य और संस्कृति पृष्ठ-29)। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि प्रेमचंद को प्रसिद्धि शिल्प के वैशिष्ट्य या यूरोपीय चिंतन की बड़ी-बड़ी बातें करने के कारण नहीं मिली, बल्कि लोक-जीवन से तादात्म्य स्थापित कर उसकी दृष्टि और व्यथा को अभिव्यक्त करने के कारण वे लोकप्रिय हुए।
इसी धरातल पर अमृतलाल नागर के उपन्यासों का विवेचन यह प्रमाणित करता है कि नागरजी में किस्सागोई प्रवृत्ति, यथार्थ चित्रण की अद्भुत क्षमता तथा पीड़ित, वंचित वर्ग की पीड़ा को संवेदना के साथ व्यक्त करने का गुण प्रेमचंद की ही भांति पाया जाता है। अंतर केवल इतना है कि प्रेमचंद के पात्र यदि ग्रामीण जीवन के हैं तो नागरजी के अधिकांश पात्र शहरी मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद नागरजी के अधिकांश उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। इसी कारण स्वतंत्र भारत के मध्यवर्ग की पीड़ा नागरजी के सामाजिक उपन्यासों में मुखरित हुई है। राजेन्द्र यादव ने इस मध्यवर्ग के बारे में लिखा है "स्वतंत्रता के बाद, पहली बार सच्चे अर्थों में हमारे समाज में एक विशाल मध्यवर्ग ने अपना वास्तविक आकार ग्रहण किया है। ...जो कहीं भी अपने को जुड़ा हुआ नहीं पाता। कोई शहर उनका अपना नहीं है, कोई संबंध उनका अपना नहीं है, उनकी जड़ें न पीछे खेत-खलिहान में है, न किसी संयुक्त परिवार में। उनका एकमात्र साधन नौकरी है
और एकमात्र भय बेकारी।" (प्रेमचंद की विरासत, पृष्ठ 12) यह मध्यवर्ग मानो सब कुछ भोगने, बर्दाश्त करने के लिए अभिशप्त है।
नागरजी का लालन-पालन इसी मध्यवर्गीय परिवेश में हुआ था। नगर अंचल का यह मध्यवर्ग- उच्च मध्यवर्ग तथा निम्न मध्यवर्ग, दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। नागरजी मध्यवर्ग की दोनों कोटियों से जुड़े रहे हैं। लखनऊ के चौक क्षेत्र में रहते हुए वे इस वर्ग के गुण-अवगुण, सुख-दुख, बोली-बानी, परिवेश-संस्कार, क्षमता-अक्षमता, मान्यता विरोध सभी से भलीभांति परिचित रहे हैं। इस क्षेत्र के जीवन को उन्होंने निकट से देखा है, भोगा है तथा उन्हें यहां के व्यक्तियों की विस्तृत, सूक्ष्म सभी जानकारी रही है। यही कारण है कि उनके अधिकांश उपन्यासों का परिवेश लखनऊ का यही चौक क्षेत्र रहा है।
नागरजी के ऐतिहासिक उपन्यास विशेषत: अवध के इतिहास से संपृक्त रहे हैं। इस कारण इन कृतियों में देश-काल वातावरण सजीवता के साथ प्रस्तुत हो सका है। अवध प्रदेश की राजधानी लखनऊ को केन्द्र में रखकर नागरजी ने नवाबी शासन की ऐतिहासिक घटनाओं को आकर्षक ढंग से अपने उपन्यासों में वर्णित किया है। सांस्कृतिक, पौराणिक या ऐतिहासिक उपन्यासों में भी, जहां पात्रों का वैविध्य दिखाई पड़ता है, उनका किस्सागो रूप प्रमुख है। यथार्थ चित्रण तथा छोटे-छोटे पात्रों से भी आत्मीय संबंध स्थापित करके उन्हें प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की उनकी प्रवृत्ति उनके उपन्यासों में परिलक्षित होती है। नागरजी में ये समस्त गुण प्रेमचंद के समान ही हैं। परन्तु प्रेमचंद की परम्परा का अनुगमन करते हुए नागरजी में कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं भी दिखाई पड़ती हैं।
अमृतलाल नागर का जो वैशिष्टय सहज ही परिलक्षित होता है, वह है शिल्प या तकनीक के प्रति उनका आकर्षण। नागरजी ने अपने कई उपन्यासों में कथानक संबंधी नवीन प्रयोग किये हैं। “सेठ बांकेमल', "अमृत और विष", "मानस का हंस", "नाच्यो बहुत गोपाल' जैसे उपन्यास इसके उदाहरण हैं। कथ्य संबंधी नवीन और साहस पूर्ण प्रयोगों के साथ-साथ भाषा की जैसी बहुरंगी छटा नागरजी की कृतियों में दिखाई पड़ती है, वैसी प्रेमचंद में नहीं है। नागरजी के भिन्न-भिन्न पात्र अपने भाषिक वैविध्य के कारण आकर्षक लगते हैं। पात्र निर्माण के क्रम में नागरजी ने यथार्थ जगत के वास्तविक व्यक्तियों का गहराई से अध्ययन किया है और अपनी कृति के पात्रों में उनका समावेश कर दिया है। कभी-कभी उन्होंने वास्तविक जगत के दो या तीन चरित्रों के वैशिष्ट्य को अपने एक ही पात्र में आरोपित कर उसे आकर्षक एवं अविस्मरणीय बना दिया है। परकाया प्रवेश में निपुण होने के कारण लेखक के ये अमूर्त पात्र में भी आत्मीयता ही रही है। पांचू, मोनाई, सेठ बांकेमल, ताई, महिपाल, अरविन्द शंकर, पुत्तीगुरू, निर्गुण, गुरसरन बाबू, तथा तनकुन जैसे पात्र इसीलिए पाठकों को प्रभावित करते हैं। पात्रों के चित्रण में सूक्ष्मता भी नागरजी का अपना वैशिष्ट्य है।
प्रेमचंद की कृतियों में व्यंग्य का पैनापन परिलक्षित नहीं होता परन्तु अमृतलाल नागर ने अपनी कृतियों में हास्य व्यंग्य का समावेश बड़ी दक्षता के साथ किया है। नागरजी में और प्रेमचंद में बड़ा अन्तर आध्यात्मिक
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________________ है और आडम्बर के साथ-साथ धार्मिक विकृतियों का विरोध किया मूल्यों पर आधारित है। नागरजी ने प्रेमचंद की तुलना में आध्यात्मिक मूल्यों पर अधिक बल दिया है। प्रेमचंद के उपन्यासों में आध्यात्मिक मूल्य भी सामाजिक मूल्यों के आवरण में ही व्यक्त हुए हैं। नागरजी प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक होते हुए भी आस्तिक रचनाकार रहे हैं। बाबा रामजीदास के सत्संग से आस्तिकता के प्रति उनकी आस्था और प्रबल हुई थी। नागरजी ने आस्तिक जीवन मूल्यों की प्रवंचनाओं का विरोध तो किया है किन्तु आस्तिकता को नकारा नहीं है। नागरजी की मान्यता थी कि सच्चे अर्थों में संत वही है जो वास्तव में सत्यनिष्ठ है। नागरजी ने आज के युग में व्यावहारिक, आध्यात्मिक मूल्यों के निरूपण के लिए सोमाहुति, सूर, तुलसी जैसे प्राचीन चरित्रों को ही नहीं बाबा रामजी जैसे समसामयिक संत की अवतारणा भी अपने भिन्न-भिन्न उपन्यासों के चरित्र के रूप में की है। इस प्रकार उन्होंने व्यवहार के स्तर पर आस्तिक चेतनायुक्त संतत्व की आवश्यकता पर बल दिया प्रेमचंद और नागरजी के मध्य अंतर विवेचित करने का उद्देश्य किसी को बड़ा या छोटा बनाना नहीं है अपितु यह प्रतिपादित करना है कि घटना प्रधान, तिलस्मी, जासूसी उपन्यासों के युग से आगे बढ़कर प्रेमचंद ने हिन्दी उपन्यास साहित्य को जो नवीन दिशा दी... वही गतिशीलता कुछ नवीन विशेषताओं के साथ प्रेमचन्दोत्तर काल में अमृतलाल नागर में परिलक्षित होती है। ____ निष्कर्षतः प्रेमचंद परम्परा को समृद्ध एवं सुदृढ़ करने के साथ-साथ उसे गतिशीलता प्रदान करने में नागरजी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने न केवल परम्परा को नवीन आयाम प्रदान किये अपितु हिन्दी उपन्यास साहित्य को भी स्वस्थ सामाजिक परिप्रेक्ष्य की उच्च भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / 38