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प्रवचन
सच्चा गुरु व्यक्ति को कल्याण के मार्ग से जोड़ता है
उपाध्यायप्रवर श्री मानचन्द्र जी म.सा.
10 जनवरी 2011:
जिनवाणी
25
जो गुरु व्यक्ति को धर्म से नहीं जोड़कर अपने से जोड़ता है वह ममत्व को बढ़ाता है एवं शिष्य को सन्मार्ग पर योजित नहीं कर पाता । सच्चा गुरु व्यक्ति को धर्म-मार्ग अथवा कल्याण-मार्ग से जोड़कर प्रमोद का अनुभव करता है। उपाध्यायप्रवर ने ऐसे ही सद्गुरु का विवेचन अपने प्रवचन में किया है। -सम्पादक
जैन धर्म में देव, गुरु और धर्म- ये तीन तत्त्व विशेष महत्त्व के हैं । देव धर्म के संस्थापक होते हैं, 'गुरु' प्रचारक | सिद्धान्त को 'धर्म' कहा गया है । गुरु का स्थान देव और धर्म के बीच का है। बीच में रहने वाला दोनों तरफ दृष्टि रखता है, देहली - दीपक न्याय की तरह । गुरुओं का काम जोड़ने का है, वे जोड़ते चले जाते हैं। गुरु हर समय व्यक्तियों को धर्म से जोड़ने का काम करते हैं। आचार्य भगवन्त (पूज्य श्री हस्तीमल जी म. सा.) के जीवन को लेकर आपके सामने बात रखी जा रही है।
गुरु कैसा होना चाहिए? गुरु अपने से नहीं जोड़कर, सम्प्रदाय से नहीं जोड़कर व्यक्ति-व्यक्ति को धर्म से जोड़ता है। जो अपने से जोड़ता है वह गुरु ममत्व को बढ़ाता है । सम्प्रदाय से जोड़ने वाला परिग्रह बढ़ाने का काम करता है और जो धर्म से जोड़ता है वह अपना तो कल्याण करता ही है, जिसको जोड़ता है उसका भी कल्याण करता है ।
आचार्य भगवन्त पूज्य गुरुदेव श्री हस्तीमल जी महाराज जो भी उनके सान्निध्य में आया, उसे जोड़ते गये। बच्चे से वृद्ध तक सबको उस महापुरुष ने धर्म से जोड़ा। बच्चों के लिए धार्मिक पाठशालाओं की आवश्यकता बताई तो युवकों के लिए सामायिक - स्वाध्याय का अवलम्बन दिया । वृद्धों के लिए साधना की बात पर जोर दिया। जैसा व्यक्ति देखा उसकी योग्यता और प्रतिभा के अनुसार वे सबको जोड़ते गये ।
गुरुदेव फरमाते थे - राग तीन तरह के होते हैं। एक होता है- व्यक्ति राग, दूसरा सम्प्रदाय-राग और तीसरा होता है- धर्म - राग । व्यक्ति - राग, व्यक्ति रहता है तब तक रहता है । सम्प्रदाय - राग जब तक सम्प्रदाय है तब तक रहेगा। धर्म- राग हमेशा बना रहता है। जुड़ाव में भी कई व्यक्ति राग से जुड़े
हैं। गुरु के प्रति राग बुरा नहीं है, किन्तु व्यक्तिगत राग व्यक्ति के जाने पर समाप्त हो जाता है । दिवाकर श्री चौथमल जी महाराज ने कई अजैनों को जैन बनाया। लोगों को उनके साथ व्यक्तिगत राग
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10 जनवरी 2011 ही रहा, धर्मराग नहीं । उनके चले जाने पर राग समाप्त हो गया। दिवाकर जी महाराज ने कई मोचियों को, मालियों को, तैलियों को, सुनारों को और यहां तक कि मुसलमानों को भी जैन बनाया । राग के कारण लोग उनके भक्त बन गये। जब तक दिवाकर जी रहे, वे जुड़े रहे।
व्यक्ति शाश्वत नहीं रहता । धर्म शाश्वत रहता । सम्प्रदाय भी स्थायी रहने वाली नहीं है । भूतकाल में अनेक सम्पद्रायें हुई, कईं परम्पराएँ बनीं, परन्तु अच्छी-अच्छी सम्प्रदायें समाप्त हो जाने पर उनका पता तक नहीं रहा ।
आचार्य भगवन्त फरमाते थे- धर्म शाश्वत है और रहेगा । त्रिकाल में धर्म रहने वाला है । भगवन्त ने व्यक्ति-व्यक्ति को सामायिक - स्वाध्याय से, व्रत- नियमों से और साधना-आराधना से जोड़ा। किसी में विनय का गुण देखा तो उसे विनय धर्म में लगाया। उस महापुरुष की पैनी दृष्टि थी, व्यक्ति-व्यक्ति की परख थी । वे व्यक्ति की प्रतिभा समझकर उसे जोड़ते और उसकी प्रतिभा को निखारते । गुरुदेव छोटे से बड़े सबको धर्म से जोड़ते गये। जिसे भी गुरुदेव धर्म में जोड़ते उसे पता तक नहीं लगता था । अंगुली पकड़ते-पकड़ते ऊपर तक पहुँचा देते। पहले-प -पहल पाँच नमस्कार मंत्र सिखाने से लेकर गुरुदेव ने पंच महाव्रती तक बना दिये। जुड़ने वाला व्यक्ति भी सहर्ष नियमों में आगे बढ़ता जाता। गुरुदेव जानते थे सरागसंयम से व्यक्ति आगे बढ़ सकता है।
अधिकांश गुरु अपने भक्तों को खुद से जोड़ते है। एक मौलवी के पास एक शिष्य पहुँचा । लगा- मौलवी साहब! मुझे हुक्म दीजिये मैं लोगों को खुदा से जोहूँ। मौलवी साहब कहने लगे - खुदा से जरूर जोड़ना, खुद से मत जोड़ना । आचार्य भगवन्त का हृदय बड़ा विशाल था । उनकी भावना रहती श्रमण संघ उन्नति करे । श्रमण संघ से निकलने के बाद भी साधक उनका परामर्श लेते। गुरुदेव के हृदय में विशालता थी, इसीलिये वे जहाँ भी जाते वहाँ धर्म ध्यान का स्वतः ठाट लग जाता ।
गुरुदेव में व्यक्तिगत - सम्प्रदायराग नहीं, धर्म का राग था। जैन हो या जैनेतर, वे सबको धर्मसाधना में निरन्तर आगे बढ़ाते रहे । धर्मराग शाश्वत रहता है। भारत में अन्यान्य धर्म भी रहे और हैं भी । किन्तु कुछ धर्म ऐसे भी हैं जो व्यक्ति राग से जोड़ते हैं । आचार्य भगवन्त ने साधक को साधक तक ही नहीं रखा, साधना के द्वारा सिद्धि का रास्ता बताया ।
जैन धर्म ऐसा ही है । एक पाश्चात्त्य व्यक्ति ने कहा- महावीर एक अद्भुत व्यक्ति था । वह साधक को सत्य से जोड़कर सिद्धि तक ले जाता । सच्चा गुरु वही है जो कल्याणमार्ग से जोड़े। गुरु की सोच भक्त को भक्त ही नहीं, भगवान बनाने की होती है। जो गुरु भक्त को भक्त ही बनाए रखता है, वह गुरु कैसा ? पारस लोहे से सोना बनाता है, पारस नहीं, किन्तु गुरु भक्त को भगवान बनाता है।
जोधपुर में वि.सं. 2010 में संयुक्त चातुर्मास था, जिसमें उपाचार्य गणेशीलाल जी महाराज, प्रधानमंत्री आनन्दऋषि जी महाराज, सहमंत्री हस्तीमल जी महाराज, कवि अमरचन्द जी महाराज,
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________________ 27 | 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी व्याख्यान वाचस्पति मदनलाल जी महाराज, बाबजी पूरणचन्द जी महाराज, बहुश्रुत समर्थमल जी महाराज सिंहपोल विराज रहे थे। सावण के महीने में हरियाली अमावस्या के दिन पूज्यपाद शोभाचन्द जी महाराज का पुण्य दिवस था। कवि अमरचन्द जी महाराज ने प्रवचन में उस समय जो शब्द कहे वे महत्त्व के हैं, उनके शब्द थे- गुरु वह है जो गुरु बनाता है, गुरु का निर्माण करता है। आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी महाराज सच्चे गुरु थे, जिन्होंने समाज को प्रतिभा सम्पन्न तेजस्वी गुरु दिया। गुरु की महिमा बखान करना सरल नहीं है। आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज भी सच्चे गुरु थे। उन्होंने भी अपने पीछे गुरु तैयार किया। आज आचार्य श्री (हीराचन्द्र जी म.सा.) चतुर्विध संघ की बराबर सार-सम्भाल करके विचरण कर रहे हैं। चतुर्विध संघ की सारणा-वारणा-धारणा के साथ जहाँ भी जाते हैं, सामायिक-स्वाध्याय के माध्यम से जागृति उत्पन्न करते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only