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रामरासोकार महाकवि माधवदास दधिवाड़िया
सौभाग्य सिंह शेखावत कविकुल गौरव माधवदास दधिवाड़िया चारणोंकी एक सौ बीस शाखाओंमें देवल गोत्रके चारण थे। यह शाखा क्षत्रियोंके सांखला राजवंशकी पोलपात्र थी। राजस्थानमें सांखला कूलके क्षत्रियोंका राज्य मारवाड़की रूंण पट्टी और जांगलू (बीकानेर) भूभागपर था। जांगलपर शासन रहने के कारण जांगल्वा सांखला और सैंणपर आधिपत्य होनेसे रूणेचा सांखला प्रसिद्ध हुए। जांगलुवा सांखलोंने वीठ चारणोंको अपना बारहठत्व प्रदान किया और रूणेचाने दधिवाड़िया चारणोंको। रूणका शासक राजा सोडदेव सांखला, बादशाह अलाउद्दीन खिलजीका समसामयिक था। अलाउद्दीनने राजा सोढदेवकी राजकुमारीसे बलपर्वक पाणिग्रहण किया और सांखलोंपर आक्रमणकर उन्हें शक्तिहीन बना दिया। शक्तिहीन और राज्यच्युत सांखला जाति राजनैतिक दृष्टिसे प्रभावहीन और निर्बल हो गई। उस समय सांखलोंका पोलपात्र चारण मेंहाजल देवल बड़ा वाक्पटु, नीतिमान् और प्रभावशाली व्यक्ति था। वह अपने निराश्रित आश्रयदाताओंका पक्ष प्रहणकर बादशाह अलाउद्दीनके पास गया और अपनी काव्य शक्तिसे बादशाहको 'कुर्वा समुद्र'से सम्बोधितकर प्रसन्न किया। कूर्वा समुद्रका अर्थ है सामानका समुद्र जो कभी समाप्त नहीं होता है। अलाउद्दीनने इस गौरवसे प्रसन्न होकर सांखलोंको रूणका क्षेत्र पुनः लौटा दिया। तब रूणके कारण देवल चारणोंकी दधिवाडिया शाखा प्रसिद्ध हुई। कालान्तरमें मारवाड़के राव रणमल्लने रूंणका राज्य सांखलोंसे छीन लिया। मेवाड़के शासक महाराणा कुम्भकर्ण रूणके सांखलोंके भाग्नेय थे। सांखलोंके पोलपात्र होने के कारण दधिवाड़िया चारण अपने आश्रित सांखलोंके साथ मेवाड़में चले गए। महाराणा कुम्भकर्णने दधिवाडिया जैताको नाहर मगराके समीपस्थ धारता और गोठियां नामके दो ग्राम दिये। जैताके चार पुत्र हुए महपा, पांडण, देवा और बरसी। संवत् १५७५ वि० में महाराणा संग्रामसिंह प्रथमने मांडवके बादशाहको पराजितकर बंदी बनाया तब विजय दरबारका आयोजन किया और अपने योद्धाओं और कवियोंको सम्मानित किया । संग्रामसिंहने उस अवसर पर महपाको शावर ग्राम दिया। देवाको धारता और बरसी गोठियाणपर अधिष्ठित रहा। मांडण चित्तौड़से मारवाड़में लौट आया था। वह उच्चकोटिका भक्त हृदय कवि था । उसकी संतान मारवाड़ में बासनी, कूपड़ास और बलूदा आदि ग्रामोंमें है। माधवदासका जन्म मारवाड़के बलूदा ग्राममें चूडा दधिवाड़ियाके घरमें हुआ था। चुडा अपने समयका राज्य और भक्त समाजमें समादृत पुरुष था। डा० हीरालाल माहेश्वरीने माधवदासको महाराजा शूरसिंह जोधपुरका आश्रित माना है। पर, प्राप्त प्रमाणोंसे यह उचित नहीं जान पड़ता है। वस्तुतः माधवदास बलदाके स्वामी ठाकुर रामदास चांदावत राठौड़का आश्रित था। बलूदा काबास माधवदासके पिता चूडाको राव
१. मुंहता नैणसीरी ख्यात सं० बदरिप्रसाद साकरिया भाग १५-३५३ । २. वीरविनोद कविराजा श्यामलदास प्रथम भाग पृ० १८०-१८१ । ३. राजस्थान भाषा और साहित्य डा० माहेश्वरी पृ० १६९ । २२४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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चांदा वीरभदेवोतने अपना पोलपात्र बनाकर प्रदान किया था। यह तथ्य चुडा द्वारा राव चांदाकी प्रशंसामें कथित कवित्तोंमें अभिव्यक्त है
दीघ धरा दस सहस जरी पञ्च दूण सजामां । दोय दीघ दंताल नरिन्द कीघा जगनामां ।। सात दूण अस ववी साज सुवन्न बणावै । मोती आखा समण हाथ इण विध मंडावै ।। दधवाड़ कह घूहड़धणी, कमधज दालिद कप्पियौ । चंद री पोल रवि चंद लग थिर कव चूंडौ थप्पियौ ।।१॥ मेड़तिये मन मोट इला कीधी अखियातां । जावै नंह जसवास जुगां चहँवै ही जातां ।। दीघ कड़ा मूंदड़ा हेक मोताहलं माला । दीघ चंद नरिन्द दुझल वीरमदे वाला ॥ लाख कर दिया मोटे कमंघ चंदरा होय सो देवसी । सोह नेग तोरण घोड़ा सहत चूड रा होय सो लेवसी ॥२॥ सांमेलै हिक मोहर अनै सरपाव स बागो। हथले वै वर तह चौक हिक मोहर चौ भागो ।। सरे मोहर हिक सहत कड़ा मूंदड़ा करग्गां । अवर रीझ अणमाप बघेती खटतीस वरग्गां॥ वीरम तणा बीरे चूडा समै महपत थपै मंगणां । चंद कमंध दिया कव चूड नै जेता नेग आखंड इणां ॥३॥
अतः चुडा दधिवाडिया राव चांदा वीरमदेवोत मेड़तियाका पोलपात्र तथा आश्रित कवि था। चूडाको चांदाने दस हजार बीघा भूमि, मोहरें आदि देकर अपना पोलपात्र नियत किया था। चूडाने राव चांदाके चौदह पुत्रोका नामोल्लेख अपन एक छप्पयम किया है
पाट पति गोपाल' 'रामदास' तिम राजेसर । 'दयाल' 'गोइंददास' 'राघव' 'केसवदास' 'मनोहर' । 'भगवंत' 'भगवानदास' 'सांवलदास' अनै 'किसनसिंघ'। 'नरहरदास' 'बिसन' हुवौ चवदमो 'हरीसिंघ' ॥ चवदह कंवर चन्दा तणा एक-एक थी आगला ।
नव खंड नाँव करिवा कमंघ खाग त्याग जस ब्रम्मला ॥ चूंडाजी अपने युगके प्रतिष्ठा प्राप्त भक्त कवि थे। इनके रचित गुण निमंधा निमंध, गुण चाणक्य वेली, गुण भाखड़ी, और स्फुट कवित्त (छप्पय) उपलब्ध हैं। इन्हीं भक्त कवि चूडाके पुत्र रत्न माधवदास थे। माधवदास बलूदाके ठाकुर रामदासके पास बलूदाका बास उपग्राममें रहता था। यह ग्राम राव चांदा द्वारा प्रदत्त दस हजार बीघा भूमिमें आबाद किया गया था। माधवदासने गुण रासो और गजमोख नामक दो ग्रन्थोंका प्रणयन किया था। गजमोख छोटी-सी कृति है और रामरासो राजस्थानी का प्रथम महाकाव्य है । रामरासो जैसा कि नामसे ही प्रकट है मर्यादापुरुष श्री रामचंद्रपर सजित है। रामरासोका राजस्थानमें
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तुलसीदासके रामचरित मानसकी भाँति घर-घरमें प्रचार और सम्मान रहा है। भक्ति कालके इस महान् कविने रामरासोको संरचना आदि कवि काल्मीकिकी रामायण, अध्यात्म रामायण और हनुमन्नाटककी कथा भूमिपर की है। राजस्थानके विद्वानोंमें कतिपय विद्वानोंने रामरासोकी पद्य संख्याकी गणना अलग-अलग प्रकट की है। माधवदासके जीवन सम्बन्धमें भी उनमें मतभेद है। श्री सीताराम लालसने माधवदास का स्वर्गवास सं० १६९० वि० माना है। लालसने महाराजा अजितसिंह जोधपुरके राजकवि द्वारिकादास दधवाडियाको माधवदासका पुत्र माना है। इस प्रकार उसको संततिके विषयमें अनेक तथ्यविपरीत असंगत मान्यताएं चल पड़ी हैं और माधवदासके जीवनके सम्बन्धमें भी आधार विरुद्ध प्रवाद फैले हुए हैं।
माधवदासका निधन वि० सं० १६८० जेठ सूदि ८ मंगलवारको मुंगदड़ा ग्राममें हुआ था। घटना यह है कि उक्त संवत्में मेड़ताके शाही हाकिम अब्बू महमदने राजा भीमसिंह अमरावत सीसोदिया टोडाकी सहायता प्राप्त कर नीम्बोलाके धनाढ्य नन्दवाना ब्राह्मणोंपर आक्रमण कर उनको अतुलित सम्पत्ति लूट ली थी और उनके मुखियोंको बंदी बना लिया था। यह सूचना जैतारणमें ठाकुर किसनसिह और जैतारणके हाकिम राघवदास पंचोलीको मिली। तब किशनसिंह और राघवदासने अबू महमद का पीछा किया। और बलूदाके ठाकुर रामदाससे भी अपनी निजी सेना सहित शीघ्र उनके साथ आकर युद्ध में सम्मिलित होनेकी प्रार्थना की। ठाकुर रामदास अपने सरदारोंको साथ लेकर युद्धारंभ समयपर मूंगदड़ा जा पहुंचा। माधवदास भी ठाकुर रामदासके साथ था । जोधपुर और मेड़ताकी शाही सेनामें जमकर युद्ध हुआ। ठाकुर रामदास, माधवदास और कनोजिया भाट वरजांग प्रभृति अनेक वीर मारे गए। यह युद्ध महाराजा गजसिंहके शासन कालमें हआ था। अतः माधवदासका निधन संवत् १६९० मानना उचित नहीं है। बलूदामें माधवदासकी छत्रीके लेखमें भी निधन तिथि सं० १६८० ही अंकित है।४
द्वारिकादासको माधवदासका पुत्र बतलाना भी उचित नहीं है। माधवदासका देहावसान १६८० में हआ था और द्वारिकादासने संवत् १७७२में महाराजा 'अजित सिंहकी दवावत' नामक रचना की थी। द्वारिकादासने कहा है
दवावेत द्वादस दुवा, तीन कवित दोय गाह ।
सतरे संवत बहोतरे, कवि द्वारे कहियाह । अतः द्वारिकादास १७७२ में विद्यमान था और माधवदासका १६८० में निधन हो गया था। दोनोंके मध्य ९२ वर्षका अन्तर स्पष्ट ही द्वारिकादासको माधवदासका पौत्र सिद्ध कर देता है । माधवदासके पिता चूडाको राठौड़ रतनसिंह रायमलोतने मेड़तावाटीका ग्राम जारोड़ो बणां शासनमें दिया था। नेणसीकी परगनोंकी विगतमें लिखा है-तफे राहण धधवाड़िया चूडा मांडणोत नुं । हिमे पं० सुन्दरदास मोहणदास माधोदासोतने विसनदास सांमदासोत छ ।५ उपरिलिखित प्रसंगसे दो तथ्य प्रकट होते हैं। पहला तो यह कि माधवदास और श्यामदास दो भाई थे। माधवदास ज्येष्ठ और श्यामदास लघु था। दूसरा यह कि माधवदासके सुन्दरदास
१. राजस्थानी सबद कोस प्रस्तावना पृ० १४३ । २. वही , , , पृ० १५७ । ३. कूपावतोंका इतिहास पृ० २७१-२७२ । ४. श्री माधव प्रसाद सोनी शोध छात्रके संग्रहकी प्रतिलिपि । ५. मारवाड़ रा परगनां री विगत, सं० नारायणसिंह भाटी, भा० २ पृ० ११२ । २२६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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और मोहनदास नामके दो पुत्र थे। ये दोनों राजा जसवंतसिंह प्रथम जोधपुरके शासनकाल १७२१ वि० तक विद्यमान थे। अतः द्वारिकादासको माधवदासका पुत्र प्रकट करना प्रमाणोंसे गलत ठहरता है। काल क्रमसे भी यह कथन तथ्य संगत नहीं सिद्ध होता है। राजस्थानी कवियोंके सम्बन्धमें इस प्रकारकी असंगतियां राजस्थानी और हिन्दी साहित्यके विद्वानोंमें बहुधा प्रचलित है।
राजस्थानीके आदि महाकाव्य रामरासोकी छंद संख्याको लेकर भी विद्वान् एक मत नहीं हैं। रामरासोकी प्राप्त प्रतियोंमें छंद संख्या भिन्न-भिन्न मिलती है। इसका कारण रामरासोकी प्रतिलिपियोंका बाहुल्य ही रहा है। कई प्रतियोंमें क्षेपक पद भी हैं। कुछ पद ऐसे हैं जो रामरासो, पृथ्वीराज रासो और प्राकृतकी गाहा सतसईमें न्यूनाधिक परिवर्तनके साथ उपलब्ध हैं। ऐसे उपलब्ध छंद गाहा सतसईके हैं जो विद्वान् लिपिकारोंकी रुचि और लिपिकौशलका परिणाम है। रामरासोकी कतिपय प्रतियोंमें घटनाओं और प्रसंगोंके अनुसार शीर्षक और अध्याय भी अंकित मिलते हैं । जिन प्रतियोंमें अध्यायोंका क्रम है उनमें अलग-अलग अध्यायोंकी अलग-अलग छंद संख्या पाई जाती हैं और जिस प्रतिमें यह क्रम नहीं है वहाँ सम्पूर्ण पद्योंकी क्रमश : छंद संख्या ही दी हुई मिलती है।
महाकवि माधवदासके काव्य गुरुके सम्बन्धमें श्री लालस प्रभृति विद्वानोंने लिखा है कि माधवदासने अपने पितासे ही अध्ययन किया था। यह कथन भी कल्पना प्रसूत ही लगता है। माधवदासने रामरासोके प्रारम्भमें ही अपने गुरुके लिए स्पष्ट संकेत किया है।
..."श्रवण सुमित्र सबदं, जास पसाय पाय पद हरिजस ।
""मुनिवर करमाणंद, निय गुरदेव तुभ्यो नमः ॥२॥ मुनिवर कर्मानन्द ही माधवदासके काव्य गुरु थे। 'निय गुर देव तुभ्यो नमः' मंगलाचरणकी ये पंक्तियाँ ही प्रमाण है । रामरासोकी रचना तिथि सभी प्राप्त प्रतियोंमें १६७५ वि० अंकित मिलती है। यद्यपि रामरासोके सर्जनके पश्चात् माधवदास बहुत कम वर्ष ही जीवित रहे, पर रामकथा तथा भक्ति वर्णनके प्रतापसे रामरासोका राजस्थानके शिक्षित परिवारोंमें अत्यधिक प्रचार रहा। और रामरासोके अनेक छंद 'पिंगल शिरोमणि' जैसे छंद शास्त्र ग्रन्थों में मिले हुए मिलते हैं। रामरासोके छंदोंका पिंगल शिरोमणिमें पाया जाना पिंगल शिरोमणिके कर्ताओं रावल हरराज भाटी(?) अथवा कुशललाभ(?) दोनों ही के लिए सन्देह उत्पन्न कर देते हैं। रामरासोका रचनाकाल १६७५ है और पिंगल शिरोमणिका सर्जनकाल संवत् १६१८ वि० से पूर्व माना जाता है। दोनोंके रचनाकालमें भारी अन्तर है। इस प्रकार पिंगल शिरोमणिका रचनाकाल भी एक प्रश्न रूपमें अध्येताओंके सामने खड़ा हुआ है।
माधवदास राजस्थानी (डिंगल) और संस्कृत दोनों भाषाओंका विद्वान् था। राजाओं और जागीरदारोंके आश्रय एवं सम्पर्कके कारण उसको अरबी, फारसी और तुर्की भाषाओंकी भी जानकारी रही हो तो कोई विस्मय नहीं। रामरासोमें अरबी, फारसी और तुर्कीके शब्दोंका प्रयोग हुआ है। इतना ही नहीं रामरासोमें व्यवहृत लोकोक्तियों और मुहावरोंसे यह भी पता चलता है कि माधवदास राजस्थानीके लोकभाषा रूपका भी सुज्ञाता था।
रामके माया मृगके पीछे जानेपर रामको सहायताके लिए लक्ष्मणको भेजते समय सीताके मुखसे कहलवाया है
लखमण धां म्हांलार, मात भरतरी मेल्हियो । भोलो भो भरतार, देखे सोह घोलो दुगध ।।
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________________ विभीषणने रावणको समझाते हुए कहा पाणी पहिलो बंधि पालि, रहे जिम पांणी रांमण / सोवन लंक कुल पौलसत, जासी जिम संकर जरा / लक्ष्मणके शक्ति प्रहारसे चेतना शून्य होनेपर कथित पंक्तियोंमेंधूजी धरा सेस धड़हड़ियो, पड़ती संध्या लखमण पड़ियो / + राम समरभूमिमें रावणको ललकारते हुए कहते हैं हँ आयो पग मांडि चोर हव, देखवि कर म्हारा कर दाणव / इस प्रकार माधवदासने राजस्थानीके लोक प्रचलित रूपका भी रामरासोमें अनेकंधा प्रयोग किया है। __ महाकवि माधवदासके गरु. संतति और निधन तिथि अब अनिश्चित नहीं रही है। पर रामरास सभी प्राप्त प्रतियोंमें यह दोहा मिलता है रासो निज जस रामरस, वदियो निगम बखांण / कथितं माधवदास कवि, लिखतं भगत कल्याण ||1135 'लिखतं भगत कल्याण' में कल्याण स्पष्टतः ही रामरासोका प्रथम लिपिकार है / यहाँ कल्याण व्यक्ति सूचक है। अतः रासोके अध्ययन-रत विद्वान् कल्याणके विषयमें भी अनुसंधान करेंगे, ऐसी आशा है। 228 : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ