Book Title: Ramkatha ka Vikas Pramukh Jain Kavyo tatha Anand Ramayan
Author(s): Arun Gupta
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम कथा का विकास प्रमुख जैन काव्यों तथा आनन्दरामायण के परिप्रेक्ष्य में यस्मिन् रामस्य संस्थानम् रामायणमचोच्यते। जिस काव्य में राम का आद्योपान्त चरित वर्णित किया जाए वह रामायण कहलाता है। राम कथा सम्बन्धी साहित्य की रचना सर्वप्रथम इक्ष्वाकु वंश के सूतों द्वारा आख्यान काव्य के रूप में हुई थी जिन्हें आधार बनाकर वाल्मीकि ने रामायण नामक प्रबन्ध-काव्य की रचना की । इस प्रबन्ध-काव्य में अयोध्याकाण्ड से लेकर युद्धकाण्ड तक की कथावस्तु का वर्णन था । किन्तु कालान्तर में जनता की (राम कौन थे, सीता कौन थी, उनका जन्म, विवाह कैसे हुआ, रावण वध के बाद सीता का जीवन कैसे बीता, आदि) जिज्ञासा की पूर्ति के लिए बालकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड का समावेश इसमें कर लिया गया, जिससे रामायण की कथावस्तु ( राम + अयन अर्थात् राम का चरित्र ) न होकर पूर्ण रामचरित के रूप में विकसित हुई । ' उत्तरकाल में संस्कृति के परिवर्तन के फलस्वरूप राम कथा का विभिन्न रूपों में विकास हुआ जिससे आदि काव्य के आदर्श पुरुष रूप में कल्पित राम को भिन्न-भिन्न धर्मों में पृथक्-पृथक् स्थान प्राप्त हुआ - यथा ब्राह्मणधर्म में विष्णु के अवताररूप में, बौद्ध धर्म में बोधिसत्त्व के रूप में तथा जैन धर्म में आठवें बलदेव के रूप में। जैन ग्रन्थों (यथा पउमचरियम्, जैन रामायण, उत्तर पुराण) में राम-लक्ष्मण को जैनमतावलम्बी तथा तीर्थंकरों का उपासक ही नहीं माना गया, वरन् इन्हें जैनों के त्रिषष्टि महापुरुषों में भी स्थान दिया गया। जैन ग्रन्थों में राम कथा के पात्रों की जैन प्रव्रज्या एवं दीक्षा, जैन व्रतों के पालन तथा उनके द्वारा श्रमणों के किए गए सम्मान आदि का स्थल स्थल पर वर्णन किया गया। ब्राह्मण-धर्म-प्रधान ग्रन्थ आनन्दरामायण में कथा का परिवर्तन ब्राह्मण (वैदिक) संस्कृति की छत्रछाया में समय के परिवर्तन के फलस्वरूप हुआ । वाल्मीकीय रामायण में राम को आदर्श पुरुष मानकर कथा का स्वरूप प्रस्तुत किया गया था, लेकिन आनन्दरामायण में राम को पूर्ण परब्रह्म, विष्णु का पूर्णावतार, लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न को इनका अंशावतार, सीता को लक्ष्मी एवं शक्ति का रूप, हनुमान को ग्यारहवां रुद्र तथा देवताओं को वानर मानकर कथा का स्वरूप परिवर्तित कर दिया गया। इस ग्रन्थ में केवल पात्रों को दैव रूप ही प्रदान नहीं किया गया वरन् इनकी भक्ति ( विष्णु पूजा, हनुमत्पूजा, लिंग-पूजा, शक्ति-पूजा) का प्रचार हुआ तथा इनके हाथ से मृत्यु-प्राप्ति को सायुज्य मुक्ति का साधन कहा गया । उपर्युक्त देवों की स्थापना के साथ-साथ कृष्ण भक्ति का प्रचार होने के कारण कृष्ण के माधुर्य रूप का आरोपण राम पर किया गया जिससे कृष्णवत् राम की बाल लीलाओं, राम-सीता का विलास एवं माधुर्य-भक्ति ( अनेक स्त्रियों का राम के पास आकर क्रीड़ा का प्रस्ताव रखना तथा राम द्वारा कृष्ण जन्म में क्रीड़ा करने का आश्वासन देना) का प्रचार हुआ। प्रमुख जैन काव्यों (पउमचरियम्, गुणभद्र - कृत उत्तर पुराण, जैन रामायण) तथा आनन्द रामायण में राम कथा के परिवर्तन व परिवर्धन का अवलोकन करने के लिए उन धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक कारणों पर दृष्टिपात करना अत्यन्त आवश्यक है जिन पर राम कथा का विकास आधृत है। १. बुल्के, डॉ० कामिल -कृत रामकथा, पृ० ७३७-३८ २. वही, पृ० ७२१ ३. आनन्दरामायण, सारकाण्ड, सर्ग २ ४. वही, विलासकाण्ड ५. वही, राज्यकाण्ड ६४ डॉ० अरुणा गुप्ता आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशब्द आचार तथा कर्मकाण्ड दोनों के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैनधर्म में अनागार ( मुनि-धर्म ) तथा सागार-धर्म ( गृहस्थ धर्म ) का अभिप्राय आचार से है किन्तु जिनेन्द्र-पूजा आदि के सन्दर्भ में धर्म का स्वरूप कर्मकाण्डपरक रहता है । सागार धर्म (गृहस्थ धर्म ) के पालन में बारह व्रतों पांच अणुव्रतों (अहिंसाणु व्रत, सत्याणु व्रत, अन्तर्वाणु व्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत परिग्रहपरिमाणानुव्रत) तीन गुण व्रतों (दिग्वत देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत ) ; चार शिक्षा (सामायिक, प्रोषध उपवास, भोगोपभोग- परिमाण, अतिथि संविभाग आदि) का प्रमुख स्थान है।' अहिंसा व्रत का तात्पर्य है देवताओं को प्रसन्न करने, अतिथि सत्कार करने तथा औषधि सेवन आदि किसी भी निमित्त से मांस प्राप्त करने के लोभ से प्राणियों की हिंसा न करना । इस व्रत के पालन के लिए जैनधर्म में हिंसामूलक यज्ञों का निषेध किया गया है। वाल्मीकि रामायण में दशरथ पुत्र प्राप्ति के लिए ऋष्यशृंग द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करवाते हैं तथा यज्ञोत्थ पायस का वितरण पत्नियों में कराते हैं। जिससे राम, लक्ष्मण आदि पुत्रों की उत्पत्ति होती है। जैन ग्रन्थ पउमचरिय (जैन रामायण) में यज्ञोत्थ पायस का वितरण नहीं है अपितु जिनेन्द्रों के शान्तिस्नान के गन्धोदक का वितरण है। * ब्रह्मचर्याणुव्रत का तात्पर्य है : विवाहित पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों को माता, बहिन तथा पुत्री समझ कर व्यवहार करना तथा अपनी पत्नी से ही सन्तुष्ट रहना । इस व्रत के पालन के लिए यद्यपि जैन ग्रन्थों में प्रयास किया गया है तथापि परस्त्री आसक्ति रूप चारित्रिक पतन कतिपय पात्रों में दृष्टिगत होता है यथा पउमचरिय एवं जैन रामायण में साहसगति नामक विद्याधर द्वारा सुग्रीव का रूप धारण कर तारा के साथ काम क्रीड़ा की चेष्टा । लक्ष्मण का चन्द्रनखा ( शूर्पणखा ) के प्रति आसक्त होकर उसके पीछे-पीछे जाना तथा उत्तरपुराण में नारद से सीता के अद्वितीय सौंदर्य के विषय में सुनकर रावण द्वारा राम का रूप धारण कर सीता का हरण करना । आनन्दरामायण में व्यावहारिक जीवन में हिंसा का निषेध किया गया है लेकिन (जैन ग्रन्थों के समान ) देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किये गये हिंसामूलक यश (पुत्रेष्टि यज्ञ अवमेघ यज्ञ ) एवं मृग-मांग बलि का निवारण नहीं किया गया है। ब्रह्मचर्यव्रत के पालन की शिक्षा भी यत्र-तत्र ग्रन्थ में दी गयी है लेकिन ( फिर भी ) कतिपय पात्र इसके पालन में शिथिल दृष्टिगत होते हैं । हनुमान यद्यपि ग्रन्थ में ब्रह्मचारी एवं अविवाहित वर्णित किये गये हैं, लेकिन सीता-खोज के समय लंका में जाकर राक्षसियों के साथ उनकी अनैतिक चेष्टाएं उनके चारित्रिक पतन को प्रकट करती हैं । " कर्मकाण्डपरक धर्म का तात्पर्य इष्टदेव की उपासना से है । ब्राह्मण धर्म में सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता के रूप में ब्रह्मा, विष्णु, महेश को सर्वश्रेष्ठ देव माना गया है तथा अवतारवाद का प्रचलन होने के कारण भक्तों की रक्षा के लिए विष्णु के समय-समय पर राम, कृष्णा आदि के रूप में अवतार लेने का वर्णन किया गया है किन्तु जैन धर्म में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य माना जाने के कारण देवों की अपेक्षा उन महापुरुषों को श्रेष्ठ माना गया है जो अपने श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा स्वर्ग में स्थान प्राप्त करते हैं तथा पुनः पृथ्वी पर आकर श्रेष्ठ मानव के रूप में प्रजा को मुक्ति-मार्ग का उपदेश देते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं ।" वाल्मीकि रामायण में राम को आदर्श पुरुष माना गया है लेकिन परवर्ती काल में उन्हें विष्णु का अवतार माना गया है। जैन ग्रन्थ पउमचरिय ( जैन रामायण) तथा उत्तरपुराण में काव्य के प्रमुख पात्रों राम, लक्ष्मण तथा रावण को साधारण पुरुष न मानकर त्रिषष्टिशलाकापुरुषों ( २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ε वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव ) में शामिल किया गया है जिनमें राम को आठवां बलदेव, लक्ष्मण को नारायण तथा रावण को प्रतिनारायण माना गया है।" महापुरुषों की तरह ही इनके जन्म के पहले इनकी माताओं द्वारा देखे गये शुभ स्वप्नों का वर्णन किया गया है।" 13 : १. मोहनचन्द्र जैन संस्कृत महाकाव्यों में प्रतिपादित सामाजिक परिस्थितियां पृ० ३७८ २. वही, पृ०३७६ ३ वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड सर्ग १६ ४. विमलसूरि पउमचरियम् पर्व २९ हेमचन्द्र-कृत 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ० २०५ ५. मोहनचन्द्र जैन संस्कृत महाकाव्यों में प्रतिपादित सामाजिक परिस्थितियां पृ० ३५० : ६. पउमचरियम्, पर्व ९; विषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ० २४६-५२ (नोट- जैन ग्रन्थों में बालि सुग्रीव की शत्रुता न होकर साहसगति तथा सुग्रीव की शत्रुता है ।) ७. पउमचरियम् ४३ / ४८ ८. उत्तरपुराण, ६८ / ६३-१०४ ६. प्रानन्द रामायण, सारकाण्ड, सर्ग १, यागकाण्ड, यात्राकाण्ड १०. वही, ६/२६-२७ ११. Jain Manju “Jain Mythology as depicted in Digambar Literature", p. ४७ १२. पउमचरियम् ५/ १५४-५६ १३. वही, २६ / १-६ ७/७६-७८ जैन साहित्यानुशीलन ६५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनवास-आदि प्रसंगों में भी इनका सम्मान वाल्मीकि रामायण के उल्लेख के समान साधारण पुरुषवत् न करके शलाकापुरुषवत् किया गया है तथा इनके निवास के लिए यक्षाधिप द्वारा भवन का निर्माण भी किया गया है।' उक्त ग्रन्थों में बलदेव तथा नारायण के सम्बन्ध की तरह ही राम को लक्ष्मण का बड़ा भाई माना गया है तथा नारायण-प्रतिनारायण की तरह ही लक्ष्मण व रावण को एक-दूसरे का शत्रु माना गया है। काव्य के अन्त में जहां वाल्मीकि रामायण में राम द्वारा गवण का वध होता है वहां उक्त ग्रन्थों में लक्ष्मण द्वारा रावण का वध होता है। बालिका वध भी ग्रन्थ में लक्ष्मण द्वारा ही कराया गया है।' ब्राह्मण धर्म-प्रधान होने पर भी वाल्मीकि रामायण से परवर्ती होने के कारण आनन्द रामायण में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शक्ति तथा गणेश को प्रधान देव माना गया है तथा अवतारवाद का प्रचलन होने के कारण राम को विष्णु का पूर्ण अवतार माना गया है। आनन्दरामायण में जन्म के समय राम विष्णु के रूप में, लक्ष्मण शेषनाग के रूप में, भरत शंख के रूप में तथा शत्रुघ्न चक्र के रूप में प्रकट होते हैं, तथा माता कौशल्या द्वारा प्रार्थना करने पर बालभाव धारण करते हैं। काव्य के अन्य प्रसंग यथा विष्णु-रूप राम के चरण-स्पर्श से अहल्या का मूर्त रूप धारण करना, राम द्वारा किए गए शम्बूक-वध से अकाल मृत्यु को प्राप्त ब्राह्मण पुत्र का जीवित हो जाना, (वनवास के लिए) नारद द्वारा वन गमन की सूचना देना,दण्डकारण्य में ऋषियों द्वारा उनकी उपासना, वन से प्रत्यागमन के समय अनेक रूप धारण कर प्रजा से मिलना, अनेक रूप धारण कर वाल्मीकि तथा विश्वामित्र के यज्ञ में एक साथ जाना" उनके विष्णु रूप को प्रकट करते हैं। काव्य में कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं जो लक्ष्मण के शेषनाग-रूप को प्रकट करते हैं । यथा बालि-बध के प्रसंग में राम की बल परीक्षा करते हुए सर्प के ऊपर उगे हए सात ताल वक्षों को काटने में शेषावतारी लक्ष्मण के अंगूठे को दबाकर सर्प को सीधा करना,१२ तथा मेघनाद-वध के बाद उसकी (मेघनाद की) भजा का पृथ्वी पर यह लिखना कि शेष के हाथ से मरकर मैंने मुक्ति पाई है, लक्ष्मण के शेषनाग रूप को प्रकट करते हैं । राम-लक्ष्मण के अतिरिक्त अन्य पात्रों यथा सीता को शक्ति का प्रतीक तथा लक्ष्मी का अवतार" (राजा पद्माक्ष लक्ष्मी को पुत्री के रूप में प्राप्त करने के लिए तप करते हैं तथा पद्मा (सीता) के रूप में लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं) तथा हनुमान को ग्यारहवां रुद्रावतार माना गया है।५ लक्ष्मी का अवतार होने के कारण सीताहरण तथा त्याग के समय वास्तविक सीता-हरण या त्याग नहीं होता अपितु तामसी सीता का हरण तथा तमोगुणमयी एवं रजोगुणमयी सीता का त्याग होता है और सात्त्विक सीता राम के वामांग में विलीन हो जाती है। काव्य के प्रसंग यथा सीता द्वारा शतस्कन्ध रावण एवं मूलकासुर के वध में सीता को शक्ति (चण्डी) का प्रतीक माना गया है।८ लक्ष्मी का अवतार होने के कारण आनन्द रामायण में रावण द्वारा सीता के समक्ष काटे गये राम के मायामय शीर्ष की सूचना ब्रह्मा द्वारा सीता को पहले दे दी जाती है। जबकि वाल्मीकि रामायण में उक्त घटना के बाद सरमा द्वारा सीता से रहस्य प्रकट किया जाता है। रुद्र-अवतार होने के कारण लंका दहन के समय राक्षसों द्वारा पूर्ण बल प्रयोग करने पर भी हनुमान की पूंछ को काटने में असमर्थ होना तथा कठिनाई से जला पाना,२१ १. पउमचरिय, ३५,२२-२६ २. (क) वही, पर्व ७३; (ख) उत्तरपुराण, ६८/६२७-३०; (ग) जैन रामायण में वणित हेमचन्द्र कृत विषष्टिशलाकापुरूषचरित, पृ० २६४-६६ ३. गुणभद्र कृत उत्तरपुराण ६८/४४०-४६३ ४. आनन्दरामायण, १/२/४ ५. वही, १/२/५ ६. वही, १//३/२१ ७. वही, ७/१०/१०३-२० ८. वही, १/६/१.३ है. वही, १/७/१६-२३ १०. वही, १/१२/८४ ११. वही, राज्यकाण्ड, २१/४३-७६ १२. वही, सारकाण्ड, ८३५-३६ १३. वही, सारकाण्ड, ११/२०७-८ १४. वही, सारकाण्ड, ३/११८-६६ १५. वही, सारकाण्ड, सगं ११, १/१२/१४७-४६ राज्यकाण्ड सर्ग, १३, १६ १६. वही, जन्मकाण्ड, ३/१७; १/७/६७-६८ १७. वामांगे मे सत्त्वरूपा । आनन्दरामायण, १/७/६८ १८. वही, राज्यकाण्ड, सर्ग ६ १६. वही, सारकाण्ड, ११/२२१ २०. वाल्मीकीय रामायण, युद्धकाण्ड २१. आनन्दरामायण, १/८ १७८-६८ आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मण-मुर्छा के समय हिमालय पर्वत पर कालनेमि तथा ग्राही आदि पर विजय प्राप्त करना इत्यादि प्रसंगों का वर्णन कर उसके पराक्रम को बढ़ा दिया गया है। जैन धर्म में तीर्थकरों (जो त्रिषष्टि शलाकापुरुषों में सर्वश्रेष्ठ हैं) को आराध्य माना गया है तथा पउमचरिय (जैन रामायण) तथा उत्तरपुराण आदि ग्रन्थों के सभी पात्र चाहे वे राम (बलदेव) हों, लक्ष्मण (नारायण) हो, रावण (प्रतिनारायण) हो, जिनदेवों का उपासक कहा गया है। जिनदेव की भक्ति में उपसर्ग-सहित तपश्चरण के कारण अनंगशर चक्रवर्ती की पुत्री विशल्या ने रोगविनाशक सामर्थ्य प्राप्त किया था। लक्ष्मण की मूर्छा विशल्या के अभिषेक जल से ही दूर हुई थी। रावण ने जिनदेव की उपासना से ही वरदान-स्वरूप अमोघविजया शक्ति तथा चन्द्रहास खङ्ग प्राप्त की थी। जिनदेव अर्थात् तीर्थंकरों का निरादर करने पर महान् दुख का सामना करना पड़ता था। जिनपुजा को भंग करने के कारण सहस्रकिरण (रावण के विरुद्ध) तथा रावण (बालि के विरुद्ध) पराजय के पात्र बने। जिनमूर्ति को घर से बाहर निकालने के कारण अंजना (हनुमान की माता) को गृह-निर्वासन का दुःख भोगना पड़ा। आनन्द रामायण में ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा शक्ति को आराध्य मान कर पात्रों द्वारा विष्णु-पूजा, शिव-पूजा, लिंग-पूजा आदि का स्थल-स्थल पर वर्णन किया गया है। रुद्र-पूजा के प्रचलन के कारण स्थल-स्थल पर हनुमद्भक्ति, स्तोत्र एवं कवच का वर्णन किया गया है। भक्ति के पल्लवित होने पर उक्त ग्रन्थ में कथा को भक्ति के सांचे में ढाला गया है जिसमें सीताहरण को रावण द्वारा राम के हाथ से मरकर मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास माना गया है। भक्ति के प्रचलन के कारण विभीषण, शुक तथा सारण को राम का भक्त कहा गया है। रावण तथा विराध के शरीर से दिव्य तेज का निकल कर राम में समाना, राम के हाथ से मर कर रावण की सायुज्य मुक्ति" तथा उसका (रावण का) राम से सर्वदा स्मरण रहने का वरदान प्राप्त करना आदि वृत्तान्त विष्णु-भक्ति के प्रचलन को सूचित करते हैं। उपर्युक्त देवों की उपासना के अतिरिक्त राम-कथा एवं कृष्ण-कथा (वध के अनन्तर बालि द्वारा द्वापर में भील रूप में जन्म लेकर राम (कृष्ण) के पैर को छेदना, राम द्वारा प्रेम-निमित्त आई हुई स्त्रियों को कृष्णावतार में क्रीड़ा करने का आश्वासन देना) का सम्बन्ध स्थापित कर कृष्णभक्ति का प्रचलन भी प्रर्दाशत किया गया है। __ जैन धर्म में सागार धर्म जहां गृहस्थों के लिए है वहां अनागार धर्म का विधान मुनियों के लिए है। मुनिवृत्ति प्रव्रज्या-ग्रहण से प्रारम्भ होती है। जैन धर्म में प्रव्रज्या-ग्रहण का द्वार यद्यपि प्रत्येक के लिए खुला था तथापि कुछ अपवाद नियम थे। बाल, वृद्ध, जड़, व्याधिग्रस्त, स्तेन, उन्मत्त, अदर्शन, दास, दुष्ट, गुर्विणी को प्रव्रज्या देने का निषेध किया गया है। जैन ग्रन्थ पउमचरिय (जैन रामायण) में बालक होने के कारण भरत को प्रव्रज्या से रोका गया है । प्रव्रज्या से रोकने के लिए कैकेयी उसका विवाह करती है तथा दशरथ से वरदान स्वरूप भरत के लिए राज्य मांगती है।५ भरत को बाल-प्रव्रज्या से निवृत्त करने के लिए राम-लक्ष्मण स्वेच्छा से दक्षिण की ओर प्रस्थान करते हैं। आनन्द रामायण में राम का वनवास पिता की आज्ञा या भरत के बाल-प्रव्रज्या-निषेध के लिए नहीं है। वरन् राम देवताओं के वचन पालन (पहले राक्षसों का नाश कर बाद में राज्य करें)" रूप में वन-गमन करते हैं। जैन ग्रन्थों-पउमचरियम्, जैन रामायण, उत्तर पुराण में जीवन के अन्तकाल में पात्रों (दशरथ, राम, भरत, शत्रुघ्न, वेदवती, १. आनन्दरामायण, १/११/४६-६० २. पउमचरियम्, पर्व ६३, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, २८९-९१ ३. पउमचरियम्, पर्व ६४, वही, पृ०२८६-६१ ४. पउमचरियम्, पर्व ६४; वही, पृ० १३५-३६ ५. वही, पर्व १०, वही, पृ० १३७-४१ ६. वही, पर्व ८, वही, १३१-३५ ७. पउमरियम्, पर्व १५-१८, विषष्टिशलाकापुरुषचरित १० १७३ ८. आनन्दरामायण, सारकाण्ड, १२,१४७-४६,८१३-१६, सर्ग ७/५/५ ६. आनन्दरामायण, राज्यकाण्ड, १४/१-२७; १/११/२४४; १३/१२०-२१ १०. वही, १/१०/२१५-१६ ११. वही, १/७/१५-१७. १/११२८३ १२. वहीं, राज्यकाण्ड, सर्ग २० १३. वही, सारकाण्ड ८/६६-६८; राज्यकाण्ड, ४४४-४७ १४. जगदीशचन्द्र जैन : 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज', पृ० ३८४ १५. पउमरियम्, पर्व ३१,५७-७१ तक, जैन रामायण विषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ० २०६ १६. पउमचरियम, पर्व ३१, वही, पृ०२०१-१० १७. आनन्दरामायण, १/६/१-३ जैन साहित्यानुशीलन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालि आदि) के जैन धर्म में दीक्षा लेने का वर्णन किया गया है। जैन धर्म के अनुसार सांसारिक प्रलोभनों से विरक्त होने के लिए कतिपय कारणों का उपस्थित होना आवश्यक है। दशरथ की विरक्ति के लिए कंचुकी की वृद्धावस्था', वेदवती की विरक्ति के लिए स्वयम्भू (भावी रावण) द्वारा उसका अपमान', सीता की विरक्ति के लिए सीता-त्याग, राम की विरक्ति के लिए लक्ष्मण की मृत्यु को कारण रूप में प्रस्तुत किया गया है। हिंसा-प्रतिपादित कार्यों, कामभोग की तृष्णा के कारण लक्ष्मण (नारायण) तथा रावण (प्रतिनारायण) की दीक्षा का उल्लेख ग्रन्थ में नहीं है। इन्हें कवि ने मृत्यु द्वारा नरक की प्राप्ति कराई है। जैन ग्रन्थों-पउमचरियम् (जैन रामायण) में मेघनाद, कुम्भकर्ण आदि पात्रों की वाल्मीकीय रामायण में लिखित वर्णन के समान मृत्यु न कराकर उन्हें बन्दी बनाया गया है, जो बाद में बन्धन से मुक्त होकर जैन धर्म में दीक्षा ले लेते हैं। दीक्षा को ही जीवन का आदर्श माना गया है। यही कारण है कि पउमचरियम में हनुमान के द्वारा सीता के पास सन्देश भेजते समय राम अन्तकाल में सांसारिक प्रलोभनों से विरक्त होकर जैन धर्म में दीक्षा लेने की शिक्षा देते हैं । आनन्द रामायण में जीवन के अन्त में साधारण पात्रों (कुम्भकर्ण, मेघनाद, रावण, दशरथ, बालि आदि) की मृत्यु तथा दैवी पात्रों (राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता, हनुमान आदि) के दैव रूप धारण करने का उल्लेख है। भारतीय संस्कृति ब्राह्मण (वैदिक) तथा श्रमण दोनों प्रकार की संस्कृतियों से सम्मिश्रित है। वैदिक अर्थात् ब्राह्मण संस्कृति में कर्मकाण्ड एवं सहिष्णुता की प्रवृत्ति है लेकिन श्रमण संस्कृति अर्थात् मुनि संस्कृति में अहिंसा, निरामिषता तथा विचार-सहिष्णुता का प्राधान्य है। वैदिक संस्कृति में याज्ञिक कर्मकाण्ड द्वारा विभिन्न देवताओं को प्रसन्न करने तथा उनसे सांसारिक याचना करने के विधान पाये जाते हैं । याचना करना ब्राह्मणों का धर्म है अतः यह परम्परामूलक ब्राह्मण संस्कृति है। श्रमण संस्कृति में श्रमण शब्द की व्याख्या में ही इसका आदर्श सन्निहित है : जो श्रम करता है, तपस्या करता है, पुरुषार्थ पर विश्वास करता है वह श्रमण कहलाता है। अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करने वाले तथा पुरुषार्थ द्वारा आत्म-सिद्धि करने वाले क्षत्रिय होते हैं। अत: श्रमण संस्कृति पुरुषार्थमूलक श्रमण संस्कृति है। वैदिक एवं श्रमण संस्कृति के वैभिन्न्य के कारण वाल्मीकीय रामायण में ब्राह्मणों, ऋषियों को प्राधान्य दिया गया है लेकिन जैन ग्रन्थों-पउमचरियम, जैन-रामायण तथा उत्तर पुराण में श्रमणों को प्राधान्य दिया गया है। वाल्मीकि रामायण में अहल्या तथा इन्द्र गौतम ऋषि द्वारा शापग्रस्त होते हैं। लेकिन पउमरियम् एवम् जैन रामायण में इन्द्र श्रमण रूप में स्थित नन्दिमाली को बांधने के कारण रावण द्वारा पराजित होते हैं।" इसी प्रकार वाल्मीकीय रामायण में सगर के पुत्र कपिल मुनि की क्रोधाग्नि' से भस्म होते हैं। जबकि जैन ग्रन्थ पउमरियम् एवं जैन रामायण में नागेन्द्र की क्रोधाग्नि से। वाल्मीकीय रामायण में राजा दण्डक भार्गव ऋषि की पुत्री से बलात्कार करने के कारण भार्गव ऋषि द्वारा शाप ग्रस्त होते हैं । १४ जैन ग्रन्थों-पउमचरियम् (जैन रामायण) में दण्डक तथा जटायु की अभिन्नता का प्रतिपादन किया गया है, जो श्रमणों को यन्त्रों में पेर कर अनादर करने के कारण उनका (श्रमणों का) कोप भाजन बनता है। जैन धर्म में लोग केवल श्रमणों का सम्मान ही नहीं करते थे वरन् उनके पास लिए गए व्रत का आजीवन पालन करते थे। वाल्मीकि रामायण में रावण रम्भा के शाप (न चाहने वाली स्त्री के साथ रमण करने से उसके सात टुकड़े हो जायेंगे) के कारण सीता के साथ रमण नहीं करता ६ लेकिन जैन ग्रन्थ पउमचरियम् तथा जैन रामायण में रावण अनन्तवीर्य नामक मुनि के पास न चाहने वाली स्त्री के साथ रमण १. पउमचरियम्, पर्व २६; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित पृ० २०५-०७ २. पउमचरियम्, पर्व १०३ ३. पउमचरियम्, पर्व ११०-१५ ४. पउमचरियम्, पर्व ११४, त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित; पृ० ३५०, उत्तरपुराण, पर्व ६८ ५. वही, पर्व ६१, वही पृष्ठ २६७-६६ ६. वही, पर्व ४६/३२-३४ ७. आनन्दरामायण, सारकाण्ड, सर्ग,८,११.. ८. वही, पूर्णकाण्ड, सर्ग ६ ९. जैन साहित्य का इतिहास, भाग १, पृ० ५,६, १०. आनन्दरामायण, सारकाण्ड, ३/१६-२१ ११. पउमरियम, पर्व १३; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृष्ठ १६०-६१ १२. वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ३८-४४ १३. पउमरियम्, ५/१७२-७३ १४. वाल्मीकीय रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ७३-८१ १५. पउमचरियम्, पर्व ४१ १६. वा०रा०, उत्तरकाण्ड, सर्ग २१ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न करने का व्रत लेता है, तथा व्रत के पालन के लिए उपर्युक्त अनिष्ट कार्य नहीं करता। ___ वाल्मीकीय रामायण में इष्टसिद्धि के लिए हवनादि का आश्रय लिया गया है, लेकिन जैन ग्रन्थों पउमचरियम् (जैन रामायण), उत्तर पुराण में अवलोकना, आकाशगामिनी, बहुरूपिणी आदि विद्याओं की सिद्धि का आश्रय लिया गया है। वाल्मीकि रामायण में इन्द्रजित् वध के उपरान्त रावण विजय-निमित्त हवन करने लगा है जबकि जैन ग्रन्थों पउमचरियम् , उत्तरपुराण में वह जैन तीर्थंकर के पास बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने जाता है। इसी प्रकार सीताहरण के लिए रावण अवलोकना विद्या की सहायता लेता है। विद्या सिद्धि में उपस्थित हुआ विघ्न महान् अनिष्ट का कारण बनता था इसलिए लोग विद्या-सिद्धि के लिए आत्म-संयम रखते थे तथा सिद्ध विद्या की रक्षा के लिए प्रतिक्षण तत्पर रहते थे। काव्यों का प्रमुख पात्र रावण आकाशगामिनी विद्या के नष्ट होने के भय से सीता के पास (प्रेम-विषयक प्रस्ताव रखने) नहीं आता । आनन्दरामायण वाल्मीकीय रामायण की तरह ही ब्राह्मण संस्कृति-प्रधान है इसलिए उपयुक्त कथाप्रसंगों, (इन्द्र तथा अहल्या का शाप, सगर-पुत्रों की मृत्यु, दण्डक को भार्गव ऋषि द्वारा शाप, इष्ट-सिद्धि के लिए हवन आदि) में वाल्मीकीय रामायण का ही आनन्द रामायण में अनुकरण किया गया है। वाल्मीकीय रामायण में राम, लक्ष्मण आदि को एकपत्नीव्रती तथा हनुमान को ब्रह्मचारी वणित किया गया है, जबकि जैन ग्रन्यों में तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव आदि त्रिषष्टि महापुरुषों तथा विद्याधरों का चरित अधिकांशत: वणित होने के कारण उनके बहुपत्नीत्व का वर्णन किया गया है क्योंकि अधिक पत्नियां रखना उनके धन, सम्पत्ति, यश एवं सामाजिक गौरव का प्रतीक समझा जाता था। राजा-महाराजाओं के बहुविवाह तत्कालीन सुदृढ़ता के महत्त्वपूर्ण साधन बने हुए थे। जैन ग्रन्थ पउमचरियम्, जैन रामायण, उत्तरपुराण में राम की आठ हजार, लक्ष्मण की सोलह हजार तथा हनुमान की एक सहस्र पत्नियों का उल्लेख है। हनुमान की पत्नियों में वरुण की कन्या सत्यवती, चन्द्रनखा की पुत्री अनंगकुसुमा, नलनंदिनी, हरिमालिनी, सुग्रीव की पुत्री पद्मराजा आदि प्रधान हैं । रावण, जो लक्ष्मण (नारायण) के शत्रु अर्थात् प्रतिनारायण हैं, वे भी छः हजार से अधिक पत्नियों से युक्त वणित किए गए हैं। आनन्द रामायण में यद्यपि राम-लक्ष्मण को एकपत्नी-व्रती तथा हनुमान को ब्रह्मचारी वर्णित किया गया है, लेकिन राम के पास अनेक स्त्रियों का आकर काम-क्रीड़ा का प्रस्ताव रखना स्थल-स्थल पर वर्णित है। राम भी उन स्त्रियों से विवाह न करके कृष्णावतार में क्रीडा का आश्वासन दे देते हैं। उक्त प्रसंग में सामाजिक दृष्टि से राम का एकपत्नी-व्रत रूप आदर्श कतिपय शिथिल दृष्टिगत होता है लेकिन उक्त ग्रंथ में राम साधारण पुरुष न होकर विष्णु हैं, सीता लक्ष्मी है, संसार के समस्त पुरुष राम के अंश हैं तथा स्त्रियां सीता का अंश हैं।" राम (विष्णु) द्वारा उन स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करना या उन्हें स्वीकार करने का आश्वासन देना उनके आंशिक रूप का उनमें समावेश हो जाना है। सामाजिक जीवन का वर्णन करते हुए जैन ग्रंथों तथा आनन्दरामायण में कथा के स्वरूप को परिवर्तित कर दिया गया है। सीताहरण को वाल्मीकीय रामायण में स्त्री (शूर्पणखा) द्वारा पर-पुरुष (राम-लक्ष्मण) के प्रति आसक्ति रूप अनैतिक कार्यों के प्रभाववश वर्णित किया है। लेकिन जैन ग्रंथों पउमचरियम् एवं जैन रामायण में (लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के पुत्र शम्बूक के वध द्वारा) इसे सामाजिक परिवेश प्रदान किया गया है। आनन्द रामायण में सीता-हरण को सामाजिक तथा धार्मिक दोनों परिवेश प्रदान किए गए हैं। सामाजिक परिवेश के सन्दर्भ में १ पउमचरियम्, पर्व १४/५१३ २. वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड, सर्ग ८२ ३. पउमरियम्, पर्व ६६-६८; उत्तरपुराण, ६८/५१६-२६ ४. पउमरियम्, पर्व ४४, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १०२४२.४५ ५. (क) पउमरियम्, पर्व १४/१५३, ४४/४५, ४६/३१-३२ : (ख) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ० २४६-७२ (ग) उत्तरपुराण, ६८/२१३ ६. पउमचग्यिम्, पर्व ३३-४२, उत्तरपुराण, पर्व ६८ ७. (क) वही, पर्व १६. पर्व ४२; (ख) विषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृष्ठ २१७-२६ ८. पउमचरियम्, पर्व ८ ६. आनन्दरामायण, राज्यकाण्ड, सर्ग ४,११और १२ १०. 'पौरुषम् दृश्यते यच्च तच्च सर्वम् मांशजम् ।' आ०रा०, ७/१६/१२६ ११. पदव विश्वे स्त्रीरूपं दृश्यते तत्तावशंजम् । आ०रा० ७/18/१२८ १२. वा०रा० अरण्यकाण्ड, सर्ग १७, १८ १३. पउमरियम् पर्व ४३, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ०२४०-४२ १४. धार्मिक : रावण द्वारा राम के हाथ से मरकर मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास सीताहरण है। जैन साहित्यानुशीलन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि वह जैन ग्रंथों से साम्य रखता है लेकिन उक्त ग्रंथ में शम्बूक के स्थान पर शूर्पणखा के साम्ब नामक पुत्र के वध का वर्णन है।' वाल्मीकीय रामायण में लव द्वारा राम के अश्वमेध के घोड़े को बांधने के कारण लव-कुश व राम-लक्ष्मण का युद्ध होता है। लेकिन जैन ग्रंथों पउमचरियम् (जैन रामायण) में लव-कुश तथा राम-लक्ष्मण के युद्ध को सामाजिक परिवेश प्रदान किया गया है तथा जिसमें सीता के त्याग के प्रतिकार को कारण रूप में प्रस्तुत किया गया है।' आनन्द रामायण में लव-कुश तथा राम-लक्ष्मण के युद्ध में (माता सीता के त्याग के प्रतिकार का वर्णन कर) जैन कथाओं का अनुकरण किया गया है। सीता-त्याग का वर्णन नारी की परिवर्तित स्थिति के कारण वाल्मीकीय रामायण, जैन ग्रंथों तथा आनन्दरामायण में पृथक्-पृथक वणित है। वाल्मीकि रामायण में उक्त कार्य राम द्वारा राजकर्तव्य के पालन के लिए किया गया है। लेकिन पउमचरियम में राम जनप्रवाद को सुनकर स्वयं भी सीता पर चरित्र-दोष की आशंका करते हैं। जैन रामायण में सीता-त्याग स्त्रियों के पारिवारिक क्लिष्ट सम्बन्धों के कारण है, जिसमें सपत्नियां सीता से द्वेषवश रावण का चित्र बनवाती हैं तथा राम से सीता के चरित्र-दोष के विषय में कहती हैं। आनन्द रामायण में वणित सीता-त्याग का प्रसंग वाल्मीकि रामायण तथा जैन रामायण दोनों से प्रभावित है, जिसमें पहले राम जनापवाद सुनते हैं, तत्पश्चात् कैकेयी सीता से रावण का चित्र बनवाती है। उक्त ग्रंथ में राम मात्र सीता का त्याग ही नहीं करते, वरन् जिस भुजा से सीता ने रावण का चित्र बनाया है, उसे काटने का आदेश भी दे देते हैं। वाल्मीकीय रामायण में जीवन के अन्त में नारी पात्रों की मृत्यु का वर्णन है जबकि जैन ग्रंथों पउमचरियम्, जैन रामायण, उत्तर पुराण में इनके जैन धर्म में दीक्षा लेने तथा आनन्द रामायण में इनके सती होने का वर्णन है।" राजनीतिक कारण की दृष्टि से कथा के परिवर्तन पर दृष्टिपात करने के लिए जिन घटनाओं को प्रस्तुत किया गया है वे वाल्मीकीय रामायण तथा आनन्द रामायण में समान रूप से (एक जैसी) वर्णित हैं लेकिन जैन ग्रंथों में किञ्चित् परिवर्तित रूप में वर्णित हैं। वाल्मीकीय रामायण तथा आनन्द रामायण में राम-लक्ष्मण के प्रारम्भिक (वीर्य-प्रधान) कार्यों के रूप में मरीच एवं सुबाहु आदि राक्षसों के वध का उल्लेख है जबकि जैन ग्रंथों पउमचरियम् (जैन रामायण), उत्तरपुराण आदि में म्लेच्छों से युद्ध करने का वर्णन है। अनुमान है कि उस काल में राजनीतिक दृष्टि से म्लेच्छों के विरुद्ध युद्धों का प्राधान्य होने के कारण कवि ने ऐसा वर्णन किया हो। जैन साहित्य के काल में सामन्तवादी प्रवृत्ति का प्रचलन था। अतः एक राजा अपने राज्य-विस्तार के लिए दूसरे राजाओं से कर लेता हुआ अपने वैभव की वृद्धि कर उसे अपने अधीन कर लेता था। उक्त प्रवृत्ति के प्रचलन के कारण वाल्मीकीय रामायण तथा आनन्द रामायण में जो राम लक्ष्मण राक्षस-नाश के लिए वन में जाते हैं वे जैन ग्रंथों-उत्तरपुराण, पउमचरियम् जैन रामायण में वैभव वृद्धि एवं राज्य-विस्तार के लिए दक्षिण या वाराणसी की ओर प्रस्थान करते हुए वणित किए गए हैं । १. आनन्दरामायण, १/७/४१-४५ २. कामिल बुल्के : रामकथा, पृ०७०८ ३. पउमचरियम्, पर्व १७-१०० ४. आ०रा०, सगं ५/६-८ ५. वा०रा० : उत्तरकांड, सर्ग ४२-५२ ६. पउमचरियम, ६४/१६ ७. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ. ३१५-१८ ८. आ०रा०, जन्मकांड, सर्ग ३ ६. वही, ३/३६ १०.(क)पउमरियम्, पर्व ११०-११८ (ख) उत्तरपुराण, पर्व ६८ (ग) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ० ३४०-४२ ११. आ०रा०१/११/२०५-१७, २८६ १२. (क) वा०रा०, बालकांड, सर्ग १६-२० (ख) आ०रा०१/३/७-११ १३. पउमरियम्, पर्व २७ १४. (क) पउमचरियम्, पर्व ३२ (ख) उत्तरपुराण, पर्व ६८ (ग) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ० २१०-२१६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम-लक्ष्मण तथा बालि का युद्ध वाल्मीकीय रामायण तथा आनन्द रामायण में बालि-सुग्रीव की शत्रुता के कारण है जो उनके पारिवारिक अनैतिक सम्बन्धों (बालि का सुग्रीव की पत्नी में लिप्त रहना)' तथा राज्याधिकार विषयक कलह (बालि दुन्दुभि के पुत्र मायावी या दुर्मद राक्षस से युद्ध करते समय, उसका वध करने गुफा में जाता है तथा सुग्रीव भी पीछे-पीछे जाता है। दुन्दुभि द्वारा गुफा का द्वार बन्द कर दिया जाता है। बालि दुन्दुभि का वध कर देता है जिससे रक्त गुफा से बाहर निकलता है। लेकिन बालि के गुफा से न लौटने पर सुग्रीव उसे मरा समझ लेता है, तथा लोगों द्वारा कहने पर राज्य पर बैठ जाता है। इस पर बाद में बालि आकर सुग्रीव से झगड़ा करता है तथा नगरी से निकाल देता है) के कारण है परन्तु जैन ग्रंथ उत्तरपुराण में इस शत्रुता को नवीन रूप प्रदान किया गया है जो कतिपय राजनीति से प्रभावित प्रतीत होता है। उक्त वर्णन में लक्ष्मण रावण को मारना चाहते हैं। बालि तथा रावण में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध हैं । अतः लक्ष्मण की रावण के विरुद्ध युद्ध में विजय तब ही सम्भव है जब वह शत्रु (रावण) के मित्र (बालि) का नाश कर दे। बालि से स्थापित करने के लिए वे अपने दूत के द्वारा (बालि से) महामेघ नामक हाथी मंगाते हैं जिसे देने से बालि इन्कार कर देता है। धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक कारणों से हुए परिवर्तन के अतिरिक्त जैन ग्रंथों व आनन्द रामायण में किचित् ऐसे भी परिवर्तन हैं जो मूल साहित्य (वा० रा०) से न लेकर अन्य साहित्य के प्रभाव से ग्रन्थ में बणित किए गए हैं। जैन साहित्य तथा आनन्द रामायण में वणित सीता-जन्म, सीता-त्याग एवं लव-कुश युद्ध का प्रसंग वाल्मोकीय रामायण से अर्वाचीन साहित्य से प्रभावित प्रतीत होता है । जैन ग्रंथ पउमचरियम्, जैन रामायण में सीता तथा भामण्डल का जनक तथा विदेहा से जन्म वाल्मीकीय रामायण के प्रभाववश नहीं है, वरन् ब्रह्माण्ड पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण में भानुमान जनक का पुत्र कहा गया है । अनुमान है, उसीके प्रभाव से ग्रन्थ में ऐसा वर्णन किया गया हो । गुणभद्र-कृत उत्तरपुराण में वणित सीता की जन्म-कथा जिसमें सीता को रावण की पुत्री कहा गया है", का विकास वाल्मीकीय रामायण की राम-कथा से नहीं है, वरन् उक्त वृत्तान्त सर्वप्रथम वसुदेवहिण्डि में उल्लिखित है जिसका विकास उत्तर पुराण में है। जैन रामायण तथा आनन्द रामायण में सीता-त्याग के प्रसंग में सपत्नियों अथवा कैकेयी के आग्रह करने पर सीता द्वारा बनाए गए रावण के चित्र को देखकर राम द्वारा उसके (सीता के) त्याग का उल्लेख सर्वप्रथम हरिभद्रसूरि-कृत उपदेश-पद नामक संग्रह-गाथा में मिलता है, उसीके प्रभाववश उपयुक्त ग्रन्थों में इसका वर्णन किया गया है। आनन्द रामायण में इसी प्रसंग में धोबी के कथनका समावेश कथा-सरित्सागर के प्रभाववश किया गया है।' लव-कुश युद्ध का उल्लेख करते हुए आनन्द रामायण में कहा गया है कि लव माता (सीता) त्याग के प्रतिकार के लिए राम से शत्रता स्थापित करने तथा सीता के सौभाग्यशयन व्रत की पूर्ति के लिए राम के बगीचे से स्वर्ण-कमल तोड़कर लाता है। उक्त कथा का उल्लेख कथासरित्सागर से प्रभावित५ प्रतीत होता है जिसमें वाल्मीकि द्वारा पूजित शिवलिंग से खेलने के कारण लव कुश को प्रायश्चित्तस्वरूप कुबेर के सरोवर से स्वर्ण कमल तथा उनकी वाटिका से मन्दार-पुष्प लाकर उससे शिवलिंग-पूजा की आज्ञा वाल्मीकि द्वारा दी जाती है। राम-कथा के परिवर्तन व परिवर्धन में उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त कतिपय गौण कारण भी हैं। गौण कारणों में वाल्मीकीय १. (क) वा०रा०, किष्किन्धा कांड, सर्ग १० (ख) आ०रा०, सारकाण्ड, सर्ग ८ २. वही, सर्ग: ३. गुणभद्रकृत उत्तरपुराण, ६८/४४४-४८ ४. वही, ६८/४४६-५८ ५. पउमरियम्, पर्व २६ ६. ब्रह्माण्डपुराण, ३-६४/१८ (ख) विष्णु पुराण, ४/५/३० (ग) वायुपुराण, ८६/१८ ७. गुणभद्रकृत उत्तरपुराण, पर्व ६८ ८.बल्के कामिल : रामकथा, प० ३६६ १. जैन रामायण, पृ० ३१५-१८ १०. आनन्द रामायण, सर्ग ५/३ ११. कामिल बुल्के : 'रामकथा', पृ० ६६५ १२. आनन्द रामायण, ३/२८-३० १३. कथासरित्सागर, ९/१/६६ १४. आनन्द रामायण, जन्मकांड, सर्ग ६-८ १५. कथासरित्सागर, ६/१/९५-११२ जैन साहित्यानुशीलन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामायण तथा आनन्द रामायण में वर्णित कथा-पात्रों के उन नामों एवं परिचय को लिया गया है जो जैन ग्रन्थों में किंचित वैभिन्न्य के साथ वर्णित है। वाल्मीकीय रामायण तथा आनन्द रामायण में दशरथ की तीन रानियां कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी तथा उनके चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न वणित हैं।' जैन ग्रन्थ-पउमचरियम् (जैन रामायण), उत्तरपुराण में दशरथ की चार रानियां (अपराजिता, कैकेयी (सुमित्रा), कैकेया, सुप्रभा) कही गयी हैं। जिसमें पउमचरियम् में कौशल्या के स्थान पर अपराजिता तथा उत्तरपुराण में (कौशल्या के स्थान पर) सुबाला नाम रखा गया है। लक्ष्मण की माता का नाम जैनग्रन्थों में कैकेयी (सुमित्रा) वणित है / अनुमान है कि पात्रों के नामों का उक्त परिवर्तन त्रिषष्टिशलाकापुरुषों की माताओं के नाम पर आधृत है। इन महापुरुषों में आठवें बलदेव की माता का नाम अपराजिता तथा नारायण की माता का नाम कैकेयी था, अत: जैन परम्परा के अनुकूल कथा में नाम-परिवर्तन किया गया हो। राम को यद्यपि पउमचरियम जैन-रामायण में राम, राघव, रामदेव आदि नामों से भी अभिहित किया गया है लेकिन इनका मौलिक नाम पद्म रखा गया है। पद्म नाम का कारण है कि अपराजिता ने 'पउमसरिसमुहं' पुत्र को उत्पन्न किया तथा दशरथ ने 'पउमुप्पलदलच्छो' (पद्म-कमल दल-सदृश नेत्र वाले पुत्र को) देखकर उसका नाम पउम (पद्म) रखा। भरत तथा शत्रुघ्न का महापुरुषों में स्थान नहीं है। अतः इनकी माताओं के नामों को महत्त्व नहीं दिया गया है। लेकिन अनुमान है कि शत्रुघ्न की माता का नाम सुप्रभा तथा भरत की माता का नाम कैकेया तीर्थंकरों की माताओं के नाम की प्रसिद्धि के कारण रखा गया हो। वाल्मीकीय रामायण तथा आनन्द रामायण में विभीषण, रावण, विराध, खरदूषण आदि को राक्षस-योनि में जन्म लेने के कारण राक्षस तथा सुग्रीव, बालि, हनुमान आदि को वानर कहा गया है। किन्तु जैन ग्रन्थों में बानर तथा राक्षस दोनों विद्याधर वंश की भिन्न-भिन्न शाखाएं माने गये हैं। जैनों के अनुसार विद्याधर मनुष्य ही होते हैं, उन्हें कामरूपता, आकाशगामिनी आदि अनेक विद्याएं सिद्ध होती है। वानरवंशी विद्याधरों की ध्वजाओं, महलों तथा छतों के शिखरों पर वानरों के चिह्न विद्यमान होने के कारण उन्हें वानर कहा जाता है। विद्याधरों को जैन धर्म में तीर्थंकरों के भक्त रूप में चित्रित किया गया है / जैन ग्रन्थों के काल में इन विद्याधरों तथा मानवों के बीच सहानुभूतिपूर्ण सम्बन्ध थे। उनमें शादी-विवाह भी होते थे। रावण का विवाह सुग्रीव की बहिन श्रीप्रभा से", हनुमान का विवाह चन्द्रनखा (शूर्पणखा) की पुत्री अनंगकुसुमा तथा सुग्रीव की पुत्री पद्मरागा से हुआ था, लक्ष्मण ने वनमाला, जितपद्मा, पद्मरागा, मनोरमा आदि अनेक विद्याधर कन्याओं से विवाह किया था / " विराधित नामक विद्याधर (जिसको आनन्द रामायण तथा वाल्मीकीय रामायण में विराध राक्षस कहा गया है) ने खरदूषण के विरुद्ध लक्ष्मण की युद्ध में सहायता की थी।" यद्यपि विद्याधरों में परस्पर वैमनस्यपूर्ण सम्बन्ध भी दृष्टिगत होते हैं, लेकिन वे उनके पारस्परिक कलह एवं द्वेष के कारण हैंयथा, लक्ष्मण तथा रावण का युद्ध सीताहरण के कारण, सुग्रीव तथा साहसगति का युद्ध तारा से दुर्व्यवहार की चेष्टा के कारण। वाल्मीकीय रामायण तथा आनन्दरामायण में खर तथा दूषण को पृथक्-पृथक् व्यक्ति कहा गया है जिसमें खर शूर्पणखा का मौसेरा भाई है तथा दूषण उसका सेनापति है लेकिन जैन ग्रन्थों में खरदूषण एक ही व्यक्ति है जो चन्द्रनखा (शूर्पणखा) का पति है। इसी प्रकार वाल्मीकीय रामायण तथा आनन्द रामायण में रावण, कुम्भकर्ण, शूर्पणखा, विभीषण आदि विश्रवा मुनि एवं कैकसी की सन्तान हैं, जबकि जैन ग्रन्थों में इन्हें सुमाली के पुत्र रत्नश्रवा तथा कैकसी की सन्तान कहा गया है" जिनके नाम इस प्रकार हैं दशग्रीव, भानुकर्ण, चन्द्रनखा, विभीषण। 1. वा०रा० बालकांड, आनन्द रामायण, सर्ग 1/2 २.पउमरियम्, 22/106-08, 25/1-13, पर्व 24 3. उत्तरपुराण, 67/148-52 4. पउमचरियम्, 25/7-8 5. (क) वही, पर्व ; (ख) उत्तरपुराण 68/271, 275-80 6. का मिल बुल्के : रामकथा, पृ० 64 7. पउमचरियम्, 6/89 8. वही, पर्व 10 6. वही, पर्व 16/42 10. वही, पर्व 62 11. (क) वही पर्व 45; (ख) विषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ० 246-48 12. वही, पर्व 44/16 13. (क) वही, पर्व 7; (ख) विषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ० 116-17 72 आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ