Book Title: Purna Swasthya ke Liye Yogabhyasa
Author(s): Niranjananand Saraswati Swami
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211370/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण स्वास्थ्य के लिए योगाभ्यास स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती मुंगेर (बिहार) योग विज्ञान मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति में सदैव से सहायक रहा है। वर्तमान वैज्ञानिक युग के आरम्भ से ही महान् विचारकों ने सम्भावना व्यक्त की थी कि मनुष्य ऐसी विचित्र व्याधियों और कष्टों से घिरता जा रहा है जिनका सम्बन्ध शरीर से कम और मन से तथा अतीन्द्रिय शरीर से अधिक है। पिछले २०० वर्षों से मनुष्य के बाह्य जीवन में तनाव बढ़ता जा रहा है। परिणामस्वरूप ज्यादातर लोग अपने बारे में अपने मन तथा आन्तरिक समस्याओं के बारे में समझने, विश्लेषण करने तथा सोचने की क्षमता खो चुके हैं, वे पूर्णतया भौतिकवादी हो चुके हैं। समाज के वर्तमान ढाँचे ने और रोज-रोज की समस्याओं ने उन्हें इस बात के लिये मजबूर कर दिया है कि वे केवल बाहरी घटनाओं को ही देखें। जो कुछ उनके अन्दर घटित हो रहा है, उसे देखने का समय उनके पास नहीं है। इसलिये समय के इस दौर में उन्हें अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिये आवश्यक नियमों की अवहेलना करनी पड़ी है। पिछले ५० वर्षों से मनुष्य के अन्दर क्या घटित हो रहा है और क्यों घटित हो रहा है, इस बारे में वह अब जागरूक होता जा रहा है। अब वह एक ऐसे विज्ञान की खोज में है जो उसे स्वस्थ व प्रसन्न रख सके और जीवन के हर मोड़ पर शांति प्रदान कर सके । योग हमारे लिये कोई नई चीज नहीं है। यह हमारे साथ युगों-युगों से जुड़ा हुआ है । बीच में एक समय ऐसा आ गया जब हमने इस विद्या को बिल्कुल ही भुला दिया। हमने योग के सही अर्थों को समझने को भूल को और यह सोचने लगे कि योग दैनिक जीवन के लिये नहीं है । इसका परिणाम यह हुआ कि योग एक भूलो हुई विद्या बन गयी। योग को भुला देने के कारण एक अन्धकार भरा युग आया। उस युग में अनजाने ही मनुष्य ने बहुत कष्ट सहे । अब इस शताब्दी में लोगों को कष्टों से छुटकारा दिलाने के लिये योग ने भारत वर्ष में फिर से जन्म लिया है। योग समूचे संसार का है इसका मतलब यह नही कि योग विशेष रूप से भारत का विज्ञान है । यह अपनी सम्पूर्णता समेत सारे संसार का विज्ञान है। परन्तु यह भी मानना होगा को जब समूचा संसार अज्ञानता में डूबा हुआ था, सिर्फ भारतवर्ष ने ही योग की रक्षा की। यही कारण है कि समय-समय पर यहाँ बड़े-बड़े महात्मा हुए हैं जिन्होंने पूर्ण रूप से अपने को योग के उस आध्यात्मिक रूप के प्रति समर्पित कर दिया जो जीवन में सुख-शान्ति और प्रसन्नता का आधार है। इस परम्परा के कारण भारतवर्ष में योग का वह उच्च ज्ञान नष्ट होने से बच गया जिसे संसार ने अपनी अज्ञानता और उपेक्षा के कारण खो दिया था । योग की इस परम्परा को भारतवर्ष के श्रद्धालु और समर्पित लोगों ने अक्षुण्ण रखा है । इसका परिणाम यह है कि जहाँ सारा संसार इस मशीनी युग में भ्रमित हो रहा है, वहाँ भारतवर्ष योग की विभूतियों को जन्म दे रहा है। उनकी शिक्षा से एक बार फिर योग ने सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्धि पाई है और इससे एक जाति या धर्म विशेष का नहीं, पूरी मानवता का कल्याण हो रहा है। हमें यह निश्चित रूप से समझना है कि योग ही जीवन को सही ढंग से जोने का Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड सहज मार्ग है। योग की विभिन्न शाखायें जैसे-हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, लययोग, क्रियायोग और ध्यानयोग-सभी मनुष्य के मन-मस्तिष्क और शरीर पर अपना गहरा प्रभाव डालती है । हठयोग-स्नायुओं को गतिमान करने के लिए । उदाहरण के लिए हठयोग पर विचार करें। हठयोग एक ऐसी चमत्कारिक विद्या है जिसे आज की मानवता ने फिर से खोज निकाला है । 'योग' शब्द सम्मिलन की ओर संकेत करता है । 'हठ' शब्द सूर्य और चन्द्र की शक्ति ओर संकेत करता है। ये वे दो शक्तियाँ हैं जो मनुष्य के शरीर में रहती है। ये हमारी उस शक्ति की आधारशि है जो हमारा प्राण है जिसकी सहायता से हम सोचते है और अनुभव करते हैं। ये ही दोनों शक्तिर सञ्चालन, हमारे सोचने के ढंग और हमारी प्रत्येक शारीरिक घटनाओं के लिये उत्तरदायी है। अ में सामंजस्य नहीं रहता, तो समझिये कि वही हमारी बीमारियों का, बेचैनी का और अशांति का कारण बनता है। जब इनमें सामंजस्य रहता है और ये मिलकर काम करती हैं तब हमें शान्ति मिलती है और हमारा शरीर स्वस्थ रहता है । हठयोग का अभ्यास करने से इन दोनों शक्तियों का सन्तुलन ठीक रहता है । सम्पूर्ण शरीर शुद्ध हो जाता है । इससे सामंजस्य और शान्ति की स्थितियाँ निर्मित होती हैं। हमारे शरीर के ढाँचे में जो रीढ़ का हिस्सा है, वहाँ दो नहरें हैं जिनका प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर होता है। ये आपस में चार जगहों पर एक-दूसरे से मिलती हैं। हठयोग की भाषा में इन्हें इड़ा और पिंगला नाड़ियों के नाम से जाना जाता है । इड़ा मानसिक शक्ति का सञ्चालन करती है और पिंगला प्राण शक्ति का सञ्चालन करती है । ये दो नाड़ियाँ रीढ़ की हड्डी के नीचे एक विशेष अतीन्द्रिय केन्द्र से निकलती है । इस केन्द्र को "मूलाधार चक्र" कहा जाता है । इसे त्रिकानुत्रिक जालक (sacrococcygeal plexus) कहते हैं। फिर वे एक दूसरे को श्रोणि जालक (pelvic plexus) पर यानी स्वाधिष्ठान चक्र में काटती है। फिर सौर जालक यानो मणिपुर चक्र में, फिर हद-जालक यानी अनाहत चक्र में और फिर ग्रीवा जालक यानी विशुद्धि चक्र में एक-दूसरे को काटती है। अंत में ये दोनों आज्ञा चक्र में यानी मेरु रज्जु शीर्ष में आकर एक-दूसरे से मिल जाती हैं । मन और शरीर सम्बन्धी बीमारियां । इड़ा और पिंगला नाड़ियों को प्रकृति ने शरीर और मन की शक्तियां दी हैं। यह शक्ति चक्रों द्वारा शरीर को छोटी-छोटी कोशिकाओं में, हर कंण में, हर अग में पहुँचायी जाती है। अगर इड़ा नाड़ो में किसी तरह को कमजोरी और शक्तिहीनता आती है, तो इड़ा से सम्बन्धित अंगों में कष्ट होता है। इस प्रकार अगर पिंगला नाड़ी में कोई शक्तिहीनता या अवरोध उत्पन्न होता है, तो पिंगला से सम्बन्धित अंग प्रभावित होते है। संक्षेप में हर बीमारी का यही कारण है। बीमारी या तो शारीरिक होतो है या मानसिक । शारीरिक बीमारियों का सम्बन्ध जीवनी शक्ति से होता के मानसिक बीमारियों का सम्बन्ध मन की शक्ति से रहता है। इसलिये इड़ा मानसिक बीमारियों के लिये उत्तरदायी है और पिंगला नाड़ी शारीरिक बीमारियों के लिये । हम केवल मनोकायिक बीमारियों से ही नहीं वरन् कायमानसिक बीमारियों से भी कष्ट उठाते हैं। कभी-कभी बीमारी शारीरिक रूप से शुरू होती है और मानसिक रूप में बदल जाती है और कभी मानसिक रूप से शुरू होकर शारीरिक बन जाती है। इसलिये यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि बीमारी शारीरिक है या मानसिक अथवा दोनों है। आसन और प्राणायाम के प्रयोजन हठयोग में हर बीमारी को शारीरिक और मानसिक-दोनों रूपों में देखते हैं । इसलिए हठयोग के आसनों को केवल शारीरिक कसरत ही नहीं समझना चाहिये। ये आसन शरीर की वे अवस्थायें और स्थितियां हैं जो स्वाभाविक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण स्वास्थ्य के लिए योगाभ्यास १७७ गुणों से शरीर की नाड़ियों के वैद्युतपरिपथ को प्रभावित करती हैं और उनमें परिवर्तन लाती हैं । आसनों को सरलता से करने के लिए पहले शारीरिक शुद्धि हेतु आपको षट्कर्म करने होंगे जो शरीर शुद्धि की छः विधियाँ हैं । प्राणायाम श्वास-सम्बन्धी विज्ञान है । प्राणायाम को भी हमने बहुत ढंग से समझा है। लोग इसे श्वास की कसरत समझते हैं जबकि वस्तुतः यह हमारे प्रसुप्त प्राण को जागृत करता है। इससे शरीर को विभिन्न अस्त-व्यस्त कोशिकाओं में सुधार हो जाता है । जब शरीर “षट्कर्म" की क्रिया द्वारा शुद्ध हो जाता है और आसन में निपुणता प्राप्त हो जाती है, तब प्राणायाम का अभ्यास आरम्भ किया जा सकता है । प्राणायाम करने से शरीर में शक्ति फिर से आवेशित होती है तथा इड़ा और पिंगला नाड़ी के माध्यम से यह शक्ति मस्तिष्क समेत शरीर के हर हिस्से को प्रभावित करती है। मन्त्र और यन्त्र : मस्तिष्क के बोझ को हल्का करने के लिए पूर्ण स्वास्थ्य के लिए मन्त्र, यन्त्र और मण्डल के विज्ञान को जानना भी बहुत आवश्यक है। मन्त्र विज्ञान, ध्वनि विज्ञान है। ध्वनि-तरंगें शारीरिक और मानसिक शरीरों-दोनों को ही प्रभावित करती हैं। ध्वनि ऊर्जा का इतना सशक्त रूप है कि आधुनिक विज्ञान ध्वनि की सहायता से ऐसे माइक्रोवेव चूल्हे का निर्माण करने वाला है जिसकी गर्मी से कुछ सेकेण्डों में ही आप अपना भोजन पका सकते हैं । लोग समझते हैं कि दवा, इंजेक्शन, गोलियां और जड़ी-बूटियां बीमारियों को मिटा देती हैं। ये अच्छी चीजें है, परन्तु यह निश्चित है कि इन सब से बढ़कर एक और विधि है जो ज्यादा शक्तिशाली और प्रभावशाली है और वह है-ध्वनि । विशेष रूप से वह ध्वनि जो मन्त्र के रूप में होती है। मन्त्र योग में आप बार-बार एक ही तरह के शब्दों को और एक ही तरह की ध्वनि को दोहराते हैं। मन्त्र फिर ध्वनि में रूपान्तरित हो जाता है जो शद्ध शक्ति का स्वरूप है । इससे शरीर की शक्तिहीन कोशिकाओं को फिर से नया जीवन मिलता है और वे पुनः कार्यशील हो जाती हैं । ____ मनुष्य का मस्तिष्क अनगिनत आद्यरूपों (archetypes) का भण्डार होता है। ये आद्यरूप मनुष्य के वर्तमान जन्म और पूर्वजन्म के तथा उसके पूर्वजों के अनुभवों के प्रतीक होते हैं। हर वह अनुभव जिसे हमारो चेतना ग्रहण करती है. हमारे मस्तिष्क में सांकेतिक रूप में अंकित हो जाता है। अनुभवों को अंकित करने वाली तथा उन्हें रूपान्तरित करके अपने मस्तिष्क में रखने वाली प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है-उस समय से जब जन्म होता है और उस समय तक जब मत्यु होती है, ऐसा कोई अनुभव नहीं है जिसे हमारी चेतना नष्ट कर सके। यहाँ तक कि सोते समय. स्वप्न देखते समय, अर्धनिद्रित अवस्था में, पूर्ण बेहोशी के समय भी जो अनुभव हाते हैं, वे भी स्थूल, मानसिक या कारण शरीरों में कोई न कोई प्रतीक का रूप ले लेते हैं। ये ही संस्कार मनुष्य के कर्मों के प्रतिरूप है। इन अनगिनत संस्कारों की इस जीबन मे (जो दुःख और सुख, आशा और निराशा, स्वास्थ्य और बीमारियों से भरा हुआ है) अभिव्यक्ति होती रहता है । यन्त्र ज्यामितीय प्रतीकों का विज्ञान है । ये हमें उन संस्कारों से छुटकारा दिलाते हैं, जो हमारी केतना में, बिम्बों. अतीन्द्रिय अनभवों, दैवी अनुभवों या अशांति के रूप में कहीं बहत गहराई में एकत्र हो गये हैं। इस तरह हमारे मन-मस्तिष्क को भार-रहित करके मन्त्र और यन्त्र हमारी अंतःशक्ति को निर्मुक्त कर देते हैं । योगनिद्रा : मस्तिष्क को तनावरहित करने के लिए हम अपने दिमाग, शरीर और अपनी भावनाओं पर तनावों का बोझ डालते रहते हैं, जिससे हमारा स्वास्थ्य प्रभावित हो जाता है। योग में इस तनाव से छटकारा पाने के लिए या तो अपने मन-मस्तिष्क को शिथिल कर दिया जाता है या फिर योगनिद्रा का अभ्यास विया जाता है । इस क्रिया से प्रत्याहार की स्थिति आ जाती है । यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें मस्तिष्क का इन्द्रियों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। मन, मस्तिष्क और चेतना पूरी तरह से परिवर्तित हो जाते है । ऐसा मालूम होता है कि ये नये रूप लेकर जन्मे है । तब मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक तनाव शीघ्र ही दूर हो जाते है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड .. क्रियायोग: आत्मशक्ति को बढ़ाने के लिए __ ऐसे सात्विक लोग बहुत कम संख्या में होते हैं जिनके व्यक्तित्व में पूर्ण सामंजस्य को स्थिति रहती है / राजसिक प्रवृत्ति के लोग अधिक होते हैं। उनका जीवन अंतद्वंद्वों से घिरा रहता है। तामसिक प्रवृत्ति के लोग बहुसंख्यक होते हैं जो यह भी नहीं जानते कि उनके मन में अंतर्द्वन्द्व चल रहा है। इसलिए योग की क्रियायें अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग होती है। जिन व्यक्तियों को बहुत कम अंतर्द्वन्द्वों से जूझना पड़ता है और जिनकी मानसिक स्थिति सामंजस्यपूर्ण है, उनके लिए "ध्यान योग" की क्रिया उपयुक्त है। वे किसी एक विचार बिन्दु पर ध्यान एकाग्र कर सकते हैं। जिन व्यक्तियों के जीवन में द्वन्द्व ही द्वन्द्व भरे हुए हैं, वे एक ही विचार बिन्दु पर एकाग्र नहीं हो सकते / अगर उन्हें चित्त को एकाग्र करने के लिए बाध्य किया जायेगा तो उनके सामने कोई मानसिक समस्या उत्पन्न हो जायेगी। ऐसे लोगों की सोई हुई आत्मशक्ति को जगाने के लिए क्रियायोग की छोटी-छोटी सुगम क्रियाएँ उपयुक्त होंगी / इस युग को ए और आज की मानवता के लिए क्रियायोग एक अनिवार्य साधना है, क्योंकि अधिकांश लोग ऐसे है, जो अपने ध्यान को एकाग्र नहीं कर सकते / ऐसे लोगों के मन को राजसी प्रवृत्तियों ने और दुर्व्यसनों ने इतना जकड़ लिया है कि चाहने पर भी उनमें एकाग्रता और स्थिरता नहीं आ पाती। अनजाने में ही मनुष्य ने इन दुव्यवसनों के प्रवाह में अपने को डाल दिया है, परन्तु यह मानवता की नियति नहीं है / उसे अपने-आपको इस स्थिति से निकाल कर एक उच्च मानसिक स्थिति तक ले जाना है। मनुष्य को ऐसा करना ही होगा। आज नहीं तो 10 या 20 हजार वर्षों की अवधि में या उससे भी अधिक 10 लाख वर्षों में उस अपने-आपको इस वर्तमान स्थिति से निकालना ही हागा। मनुष्य की चेतना के माध्यम से प्रकृति का क्रमविकास हो रहा है। क्रियायाग से इस क्रमविकास को गति में तेजी आयेगी। तब मानव यहीं, इसी धरतो पर अपने उच्चतम मन की स्थिति ( जो अस्तित्व की सर्वोच्च अवस्था है) का स्वयं अनुभव करेगा। प्रसन्नता और स्वास्थ्य चाहे मनुष्य को कोई शारीरिक व्याधि न हो, तथापि हम उसे स्वस्थ मनुष्य नहीं कह सकते / हो सकता है, उसे घबराहट हो, वह चिन्ताग्रस्त हो या अशान्त हो / शारीरिक स्थिति से स्वास्थ्य का पता नहीं लगाया जा सकता-यह योग का एक मुख्य सिद्धान्त है / कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होकर भी बहुत दुःखी हो सकता है। क्या आप एक बहुत दुःखो मनुष्य को स्वस्थ कहेंगे ? क्या अप्रसन्नता अपने आप में एक बीमारी नहीं है ? और विचारों के बारे में आपका क्या ख्याल है? किस तरह आप स्वस्थ विचारों का संग्रह करेंगे? किस तरह से आप हादिक प्रसन्नता का संचय करेंगे ? मन शान्त, निरुद्वेग और आनन्द से परिपूर्ण रहना चाहिए। यह योग का दूसरा मुख्य सिद्धान्त है। आपके पास खाने के लिए बहुत है, रहने के लिए अच्छा मकान है और खर्च करने के लिए बहुत रुपया है, फिर भी आप अज्ञान के अनन्त अंधकार में डूबे हुए हैं और बाहर निकलने के लिए रास्ता खाज रहे हैं। क्या अविद्या हो मनुष्यमात्र की सभी बोमारियों की जड़ नहीं ह ? याग के अनुसार, मनुष्य एक साथ ही दस प्रकार के स्तरों में निवास करता है, जिनमें शारीरिक, मानसिक, अतीन्द्रिय, कारण आर आध्यात्मिक स्तर मुख्य है। क्रियायोग, राजयोग, हठयोग और योगनिद्रा द्वारा हम एकसाथ, एक हा समय में इन स्तरों पर रह सकते है। योग ने मानवता को क्या दिया है और क्या देने वाला है ? समूचे संसार में सैकड़ों-हजारों लोग योग की साधना कर रहे है और असाधारण तथा असाध्य बीमारियों से छुटकारा पा रहे हैं / इस संसार में और आज के इस समाज में रहने के लिए वे नये तरह से अपना मानसिक विकास कर रहे हैं / योग उन्हें अपने जीवन के विकास के लिए नयी आशा प्रदान करता है ।जो लोग शरीर की अस्वस्थता के कारण जीवन की सारी खुशियां खो चुके थे, वे आज पूर्णरूप से स्वस्थ और प्रसन्न हैं। आज विश्व में, हजारों योग संस्थाएं हैं, योग शिक्षक हैं और योग के छात्र हैं। योग ने मानवता को क्या दिया है ? एक नया धर्म ? एक नया पंथ ? नहीं, योग ने दिया है एक ऐसा विज्ञान जिससे मनुष्य अपने मन के रूपान्तरण का अनुभव कर सके। हाँ, सही अथों में मानवता के लिए योग का यही योगदान रहा है और रहेगा।