Book Title: Prayogoni Pagdandi Par
Author(s): H C Bhayani
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगोनी पगदंडी पर -हरिवल्लभ भायाणी सात 'सुख' सायणकृत 'माधवीय धातुवृत्ति'मां बोधिन्यास नामना वैयाकरणनो मत नोध्यो छे के 'साति' धातु सुखवाचक छे अने ए मात्र पाणिनिसूत्रमा ज मळे छे (एटले के सौत्र धातु छ) । पाणिनिए ए धातु परथी 'सातय' एवं कृदन्त रूप बने छ एम कर्तुं छे (३, १, १३८). कातंत्र व्याकरणमां पण ए धातुनो निर्देश छे । (जुओ 'बोधिन्यास : एक अप्रसिद्ध वैयाकरण', 'सामीप्य' १२,२ जु. स. १९९५, पृ. ३६). मोनिअर विलिअम्झना कोशमां 'साति' ने बदले 'सात्' एवं धातुरूप आप्यु छे, अने 'सात'='सुख' अने 'सातय' ए साधित रूप आप्यां छे । हेमचंद्राचार्यना 'अभिधान-चिन्तामणि मां सुखवाचक शब्दोनां 'सात' आप्यो छे (पद्यांक १३७०)। संपादके 'शात' एवो रूपभेद पण आप्यो छे. प्राकृतमा 'साय' शब्द सुखवाचक छे अने ते जैन आगम साहित्यमां वपरायो छ । जैन दर्शना सैद्धान्तिक ग्रंथ 'तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र'मां कर्मना विविध प्रकारोमां :सद्वेद्य' = (सातावेद्य) अने 'असवेद्य' (=असातावेद्य) गणावेल छे. पहेलानो अर्थ 'जेने लीधे सुख अनुभवाय' अने बीजानो अर्थ 'जेने लीधे दुःख अनुभवाय' एवो छ । आजे पण जैनोमां 'शाता छे', 'शातामां छे' एवा प्रयोग सामान्य भाषाव्यवहारमा छ। ___आम जे धातु के तेमांथी साधित शब्दनो प्रयोग अन्यथा संस्कृत साहित्यमाथी नथी मळतो ते जैन परंपरामां प्राकृतमां जळवायो छे. आथी ए धातुनी अने प्राकृत प्रयोगनी प्रमाणभूतता पण स्थपाय छे, अने धातुपाठना जे धातुओनो प्रयोग उपलब्ध संस्कृत साहित्यमांथी नथी मळतो तेमनो आधार प्राकृत साहित्यमांथी मळी रहेतो होवानं आथी एक वधु उदाहरण आपणने मळे छे, तथा एवा धातुओ वैयाकरणोए कृत्रिम बनावी काढ्या छे ए मतनुं निरसन थाय छे. आ पहेलां में आना ज एक बीजा उदाहरण तरफ ध्यान दोर्य छ । 'आइवल' एवो सोपसर्ग, 'इवल्' धातु गुजराती वगेरेमों मळती सामग्रीने आधारे प्रमाणभूत ठरे छे अने 'ट्बल' के 'टल्' धातुओथी ए जुदो छे. जुओ 'Notes on Some Prakrit Words' ('निर्ग्रन्थ', १, १९९६, पृ. २५-३२) ए लेखमां पृ. २७ । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91 क्षेपणी, अरित्र 1. क्षेपणी 1. 'नामलिंगानुशासन' (अमरकोश), 'अभिधान-चिन्तामणि' जेवा परंपरागत शब्दकोशोमां सं. क्षेपणी शब्द नौकादंड एटले के 'हलेसुं'ना अर्थमां आप्यो छे / (अमर० 10,13, अभि० 877) / टर्नरना भारतीय-आर्य भाषाओना तुलनात्मक कोशमां आमांथी निष्पन हिंदी, खेवनी आपवा उपरांत सं. क्षेपयति, क्षेप, क्षेप्य, क्षेपक ए शब्दरूपोमांथी ऊतरी आवेला हिंदी वगेरेना खेवना वगेरे, बंगाळी वगेरेना खेया वगेरे, पंजाबी खेवा, वगेरे, हिन्दी खेवैया वगेरे 'नाव', 'नाव चलाववी', 'नाव चलावनार' वगैरे अर्थोमां नोंध्या छे (टर्नर, क्रमांक 3738 थी 3742) / 2. अरित्र 2. सं. अरित्रना अर्थनी बाबतमां मतभेद (कदाच अर्थपरिवर्तन के कशीक गरबड ) छे / 'अमरकोश'मां (10,13) तथा 'अभिधान-चिन्तामणि'मां (879) तेनो 'सुकान' एवो अर्थ आप्यो छे / परंतु मोनिअर विलिअम्झना संस्कृत कोश अनुसार 'ऋग्वेद' आदि वैदिक साहित्यमा तेम ज पाणिनिनी 'अष्टाध्यायी'मां तेनो 'हलेसं' ए अर्थमा प्रयोग छ / 'आचारांग-सत्र'मां (परिच्छेद 479) पण अलित (पाठांतर आलित्त-पासम.मां आ बंने शब्दरूपो 'आचारांग'ना संदर्भ साथे 'हलेसुं'ना अर्थमां आप्यां छे, परंतु अरित्र 'धर्मविधिप्रकरण'ना संदर्भ साथे 'सुकान ना अर्थमां आप्यो छे). जंबूविजयजीना संपादनमां आपेल 'चूर्णि'ना संदर्भोमां पण लांबाढूंका हलेसाना तथा सुकान वगेरेना वाचक शब्दोमां ‘अलित्त' मळे छे. अर्धमागधीनी लाक्षणिकता धरावता मूळना '' > 'ल' एवा परिवर्तनवाला शब्दोमा अलित्त (< अरित्र)नो पण समावेश थाय छे / हेमचंद्रविजयगणिनी 'अभिधान-चिन्तामणि-नाममाला' नी आवृत्तिमा सार्थ शब्दानुक्रमणिकामां मूळ अरित्रनो 'वहाण, सुकान' ए अर्थ बराबर को छे, परंतु अभि.मां अपेल अरित्रना पर्याय केनिपात अने कोटिपात्रना 'वहाणर्नु सुकान, हलेसुं' एम जे बे अर्थ आप्या छे ते भूल छ / क्षेपणीनो अर्थ पण अनवधानथी क्षेष 'निन्दा' आप्यो छे /