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पण्हावागरणाई (प्रश्नव्याकरण) में दार्शनिक विचार
जितेन्द्र शाह
प्रश्नव्याकरण ग्रन्थ द्वादशांगी अंतर्गत दशम अंग के रूप में माना जाता है। प्रश्नव्याकरण का अर्थ होता है-प्रश्नों का व्याकरण अर्थात् निर्वचन, उत्तर एवं निर्णय । इसमें किन-किन प्रश्नों का व्याकरण किया गया था, इसका परिचय श्वेताम्बर परम्परा में स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग (वर्तमान संकलन प्रायः ईस्वी ३०४) एवं नन्दीसूत्र (प्रायः ईस्वी ४५०) तथा दिगम्बर परम्परा में धवला-टीका (ईस्वी ८१५) आदि ग्रन्थों में पाया जाता है। स्थानाङ्गसूत्र में प्रश्नव्याकरण के दश अध्ययनों का उल्लेख है । यथा-उपमा, संख्या, ऋषिभाषित, आचार्यभाषित, महावीरभाषित, क्षौमकप्रश्न, कोमलप्रश्न, उद्दागप्रश्न, अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न । समवायाङ्गसूत्र में बताया गया है कि प्रश्नव्याकरण में १०८ प्रश्न, १०८ अप्रश्न, १०८ प्रश्नाप्रश्न जो मन्त्रविद्या, अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न, दर्पणप्रश्न आदि विद्याओं से सम्बन्धित हैं और इसके ४५ अध्ययन हैं ! नन्दीसूत्र में भी इसी प्रकार का कथन पाया जाता है । धवला-टीका में प्रश्नव्याकरण के विषय की चर्चा करते हुए बताया गया है कि इसमें आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी, इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन किया गया था ।
उपर्युक्त दोनों परम्पराओं में प्राप्त प्रश्नव्याकरण के विषयसंकेत से ज्ञात होता है कि प्रश्न शब्द, मन्त्र, विद्या, एवं निमित्तशास्त्र आदि से सम्बन्ध रखता है। और चमत्कारी प्रश्नों का व्याकरण जिस सूत्र में वर्णित है, वह प्रश्नव्याकरण है। लेकिन वर्तमान में उपलब्ध प्रस्तुत अंग ग्रन्थ में ऐसी कोई चर्चा नहीं है । इस विषय में प्रो. सागरमल जैन ने विस्तृत ऊहापोह करके मूल ग्रन्थ के स्वरूप की खोज की है। अतः यहाँ इस विषय का विस्तार न करके वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण में दार्शनिक चर्चा के विषय में कुछ चिंतन करेंगे।
वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण में दो द्वार अर्थात् दो विभाग हैं--(१) आस्रवद्वार और (२) दूसरा संवद्धार । इन दोनों में पाँच-पाँच अध्ययन हैं। आस्रवद्वार में हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह स्वरूप पाँच अव्रतों का सविस्तर विचार-विमर्श पाया जाता है। सभी अव्रतों के तीस-तीस नाम भी दिए गए हैं। संवद्धार में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का सूक्ष्म वर्णन पाया जाता है । आस्रवद्वार के पाँच अव्रतों का एवं संवरद्वार के पाँच व्रतों का एक एक अध्ययन में विभाजन किया गया है अत: इस ग्रन्थ को प्रश्नव्याकरण दशा भी कहा गया है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार विषयक सैद्धान्तिक चर्चा की गई है । प्रथम श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन मृषावाद में, मृषावाद अर्थात् असत्य भाषण के लक्षण एवं स्वरूप का कथन किया गया है । तदन्तर्गत दार्शनिक चर्चा भी उपलब्ध होती है । प्रश्नव्याकरण का मूल विषय आस्रवों को नष्ट करके संवर में प्रवृत्त होना ही है अर्थात् आचार ही प्रधान उपदेश है । दर्शन विषयक विस्तृत एवं तत्कालीन विभिन्न मतवादों का विस्तृत वर्णन हमें सूत्रकृतांग एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति में उपलब्ध होता है । प्रस्तुत अंग में तो बहुत ही अल्प मात्रा में दार्शनिक चिन्तन उपलब्ध होता है तथापि दार्शनिक विचारधाराओं के स्वरूप एवं विकास की दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है।
भारतीय दार्शनिकों के मनमें प्राचीन काल से ही जीव, जगत् एवं ईश्वर के विषय में जिज्ञासा प्रादुर्भूत हो चुकी थी। उसके स्वरूप की वास्तविक खोज करना ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया, इतना ही नहीं किन्तु साधना करके यथाशक्य उपलब्धि प्राप्त करने का प्रयास भी किया। इसी कारण उक्त तीन
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तत्त्व ही भारतीय दर्शन में चिंतन के मुख्य विषय रहे हैं । जीव, जगत् एवं ईश्वर तत्त्व की खोज करते हुए भारतीय दर्शन की यात्रा का प्रारंभ हुआ एवं शनैः शनैः प्रगति होती गई । विकास की इस प्रगति में विभिन्न मतों का भी उदय हुआ । ऐसे अनेक मतों का वर्णन हमें बौद्ध दर्शन के सामञ्ञफलसुत', निर्ग्रन्थदर्शन के सूत्रकृतांग एवं वैदिक दर्शन के श्वेताश्वतरोपनिषद् में मिलता है। जबकि प्रश्नव्याकरण में १४ विभिन्न मतों का उल्लेख निम्न प्रकार से प्राप्त होता है
चार्वाक
(१) नास्तिकवादी अथवा वामलोकवादी
(२) पञ्चस्कन्धवादी बौद्ध
(३) मनोजीववादी
(४) वायुजीववादी (५) अंडे से जगत् की उत्पत्ति माननेवाले
(६) जगत् को स्वयंभूकृत माननेवाले
(७) संसार को प्रजापति निर्मित माननेवाले
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मन को ही जीव माननेवाले
वायु को ही जीव माननेवाले
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(८) संसार को ईश्वरकृत माननेवाले
(९) समग्र संसार को विष्णुमय स्वीकार करनेवाले
(१०) आत्मा को एक, अकर्त्ता, वेदक, नित्य, निष्क्रिय, निर्गुण, एवं निर्लिप्त माननेवाले
(११) जगत् को यादृच्छिक माननेवाले
(१२) जगत् को स्वभावजन्य माननेवाले
(१३) जगत् को देवकृत माननेवाले
(१४) नियतिवादी आजीवक मतावलंबी
नास्तिकवादी :
आस्तिक एवं नास्तिक विचारधारा के विषय में भी प्राचीन काल से ही विवाद चला आ रहा है । आस्तिक अर्थात् जीव, कर्म, पुण्य, पाप आदि अदृष्ट एवं अतीन्द्रिय पदार्थों को स्वीकार करने वाले एवं नास्तिक अर्थात् उक्त अतीन्द्रिय तत्त्वों का अपलाप करने वाले । इस अर्थ में चार्वाक के अतिरिक्त सभी दर्शन आस्तिक हैं । प्रस्तुत अर्थ को ही प्रधानता देते हुए सूत्रकार ने बताया है कि जो आत्म तत्त्व को स्वतंत्र तत्त्व के रूप में एवं शाश्वत तत्त्व के रूप में स्वीकार नहीं करते वे सभी मतावलंबी प्राय: एक ही विचारधारा का अनुसरण करते हैं । वे लोक-विपरीत मान्यताओं को धारण करते हैं एवं तदनुसार आचरण भी करते हैं । यहाँ पर आत्मतत्त्व को, आत्मा रूप शाश्वत तत्त्व को, आत्मा एवं कर्म के सम्बन्ध को, संयोग एवं वियोग को नहीं मानने वाले चार्वाक, शून्यवादी बौद्ध, पञ्चस्कन्धवादी बौद्ध, मनोजीववादी एवं वायुजीववादी मतावलम्बियों की आचार विषयक विचारधारा प्रस्तुत की गयी है ।
सूत्र में नास्तिकवादियों की विचारधारा का वर्णन करते हुए बताया गया है कि शून्यवादी जगत् को शून्य अर्थात् सर्वथा असत् मानते हैं। क्योंकि जीव का अस्तित्व नहीं है । वह मनुष्यभव में या देवादिपरभव में नहीं जाता । वह पुण्य-पाप का किंचित् भी स्पर्श नहीं करता । इतना ही नहीं किन्तु सुकृत अर्थात् पुण्य एवं दुष्कृत अर्थात् पाप का फल नहीं है । यह शरीर पाँच भूतों से बना हुआ है, और वह वायु के निमित्त से ही सब क्रिया करता है ।
कुछ लोग श्वासोच्छ्वास को ही जीव मानते हैं। कुछ लोग (बौद्ध) पाँच स्कंधों अर्थात् रूप, वेदना,
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विज्ञान, संज्ञा और संस्कार को जीव मानते हैं !
कुछ लोग मन को ही जीव के रूप में स्वीकार करते हैं । आत्मा को शाश्वत तत्त्व के रूप में अस्वीकार करनेवाले, शरीर को सादि-सांत एवं वर्तमान भव के अतिरिक्त पूर्वभव, पुनर्भव को अस्वीकार करनेवाले, इन सभी को मृषावादी बताया गया है । क्योंकि ये लोग मानते हैं कि दान देना, व्रतों का आचरण करना, पौषध की आराधना करना, तपस्या करना, संयम का आचरण करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का कुछ भी फल नहीं है। प्राणवध एवं असत्यभाषण भी अशुभ फलदायक नहीं हैं। चोरी और परस्त्रीसेवन भी कोई पाप नहीं हैं। परिग्रह एवं अन्य पापकर्म भी निष्फल हैं । अर्थात् उनका भी कोई अशुभ फल नहीं होता। नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों की योनियाँ नहीं है। देवलोक भी नहीं है। मोक्षगमन या मुक्ति भी नहीं है। माता-पिता भी नहीं हैं । पुरुषार्थ भी नहीं है । अर्थात् पुरुषार्थ कार्य की सिद्धि में कारण नहीं है। प्रत्याख्यान त्याग भी नहीं है । भूत-वर्तमान-भविष्य काल नहीं है और मृत्यु नहीं है । अरहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव भी नहीं होते । न कोई ऋषि, न कोई मुनि है। धर्म और अधर्म का थोड़ा या बहुत, किचित् भी फल नहीं होता । इसलिए ऐसा जानकर इन्द्रियों के अनुकूल सभी विषयों में प्रवृत्ति करो । किसी भी प्रकार के भोगविलास से परहेज मत करो। न कोई शुभ क्रिया है न कोई अशुभ क्रिया है ।
उपर्युक्त वर्णन भारतीय दर्शन के विभिन्न ग्रन्थों में चार्वाक दर्शन के अनुकूल पाया जाता है । चार्वाकदर्शन की प्रसिद्ध उक्ति
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, तावत् वैषयिकं सुखं ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः१३ ॥ अर्थात् जब तक जीओ सुख से जीओ, सुखपूर्वक जीवनयापन करने के लिए पैसा न हो तो ऋण लेकर भी खाओ-पीओ । यह शरीर यहीं भस्मीभूत हो जाता है । प्रस्तुत विचारधारा का ही विस्तार उक्त सूत्र में पाया जाता है। विशेषता यह है कि यहाँ पञ्चस्कन्धवादी, वायुजीववादी एवं मनोजीववादी को एक ही प्रकार की आचार विषयक विचारधारा को माननेवाले बताया गया है। उसका मूल कारण यह है कि उक्त सभी विचारधारावाले लोग आत्मा का सनातन अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं । सूत्रकृतांग (द्वितीय स्कंध; प्रायः ई. पू. १ शती) में भी चार्वाक आदि दार्शनिकों की बात कही गई है । आचार्य हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्तासमुच्चय (प्रायः ईस्वी ७५०-७७५) में इसी मान्यता की अधिक विस्तार से चर्चा की है१५ |
सामान्यतः यह माना जाता है कि चार्वाक में किसी भी प्रकार का वैमत्य नहीं है किन्तु उस समय चार्वाक जैसी मान्यताओं को धारण करने वाली एकाधिक विचारधारा अस्तित्व में थी, इस बात को प्रश्नव्याकरण के उक्त सूत्र से पुष्टि मिलती है। यह बात हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्तासमुच्चय में बतायी है । आचार्य अभयदेवसूरि ने प्रश्नव्याकरण की टीका (प्रायः ई. १०८०) में भी इन विचारधाराओं का विस्तार से विवेचन किया है । असद्भाववादी :
नास्तिकवादी के बाद प्रश्नव्याकरण में दूसरा मत असद्भाववादी का बताया गया है । जीव के अस्तित्व की चर्चा की तरह ही जगत् के अस्तित्व की चर्चा भी दर्शनशास्त्र का महत्त्वपूर्ण प्रश्न रहा है । जगत् सत् है या असत्, सादि-सांत है या अनादि अनन्त ? यदि सादि-सान्त है तो वह सकर्तृक है या अकर्तृक ? जगत् का सम्बन्ध जीव के साथ कैसा है ? इन प्रश्नों के आधार पर ही अनेक मतों या सिद्धान्तों का उदय हुआ ।
सृष्टि को पूर्व में असत् मानने वाले दो मतों का वर्णन प्रश्नव्याकरणसूत्र में बताया गया है ।
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(१) अंडे से उद्भूत जगत् एवं (२) स्वयंभू विनिर्मित जगत्
यहाँ तो केवल दो ही मतों का उल्लेख किया है । भारतीय दर्शनों में अनेक ऐसे दर्शन हैं जो जगत् की उत्पत्ति विभिन्न रूप से मानते हैं । ऐसे अनेक मतों का उल्लेख एवं वर्णन हरिभद्रसूरि ने लोकतत्त्वनिर्णय (प्रायः ईस्वी ७५०-७७५) नामक ग्रन्थ में किया है।९ । प्रायः इन सभी मतों के बीज हमें उपनिषदों में प्राप्त होते हैं 1 अंडोद्भव सृष्टि का सविस्तर वर्णन हमें छान्दोग्य उपनिषद् (प्रायः ई. पू. ५-४ शती) एवं मनुस्मृति (प्रायः ईस्वी सनका आरम्भ) (प्राय: ई. पू. ५-४-शती) में मिलता है । तदनुसार पूर्व में अस्तित्वमान जगत् असत् था बाद में जब वह नामरूप कार्य की ओर अभिमुख हुआ तो अंकुरित होते हुए अंडे के आकार का बना और उससे सृष्टि का उद्भव हुआ।
स्वयंभू विनिर्मित जगत् के विचारों की स्पष्टता करते हुए वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने वृत्ति में बताया है कि सृष्टि के पूर्व महाभूत रहित, एक मात्र तमोभूत अवस्था में अचिन्त्य शक्तिधारक विभु ने तप किया और नाभि से दिव्य कमल की उत्पत्ति हुई तत्पश्चात् उससे ब्रह्मा और अंततः सर्व सृष्टि का निर्माण हुआ ! ईश्वरवाद :
सृष्टि ईश्वर विनिर्मित है, ऐसा नैयायिक आदिका मानना है । सूत्र में कोई विशेष व्यक्ति के नाम का विधान तो नहीं किया है किन्तु टीकाकार ने वही अनुमान का प्रयोग किया है जिसका न्यायदर्शन में प्रयोग किया गया है यथा :- बुद्धिमत्कारणपूर्वकं जगत्संस्थानविशेषपूर्वकत्वात् घटादिवदिति२२ । अर्थात् इस सृष्टि का निर्माण किसी बुद्धिमान् कर्ता ने किया है, क्योंकि संस्थानविशेष से युक्त है, जिस तरह घट आदि पदार्थ संस्थानविशेष से युक्त हैं और उनका कोई न कोई कर्ता है, उसी तरह । विष्णुवाद :
तत्पश्चात् कुछ लोग के मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि संपूर्ण जगत् विष्णु-आत्मक है । टीकाकार ने प्रस्तुत विचारधारा के आधार में सुप्रसिद्ध श्लोक उद्धृत किया है।३ । यथा :
जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके ।
ज्वालामालाकुले विष्णुः सर्वविष्णुमयं जगत् ।। अर्थात् जल में, स्थल में, पर्वत के मस्तक पर, अग्नि में सर्वत्र विष्णु व्याप्त है, कोई ऐसा स्थल नहीं है जहाँ विष्णु का अस्तित्व न हो । आत्माद्वैतवाद :
अद्वैतवादियों का कथन है कि इस संसार में एक ही आत्मतत्त्व है जिस तरह एक ही चन्द्र विभिन्न जल में प्रतिबिम्बित होता है उसी तरह एक ही आत्मतत्त्व विभिन्न भूतों में व्यवस्थित हुआ है, जिसका विभाव ब्रह्मबिन्दु-उपनिषद् में मिलता है२४ । यथा :
एक एव ही भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१२॥
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्चभाव्यं । इसी पुरुष को - आत्मतत्त्व को अकर्ता, वेदक, नित्य, निष्किय, निर्गुण, निलिप्त माना गया है। इन सब गुणों का वृत्तिकार सविस्तर वर्णन करते हुए खण्डन करते हैं।
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________________ 282 जितेन्द्र शाह Nirgrantha अन्त में जगत् के मूल कारण के विषय में प्राचीन मतों यदृच्छावाद, स्वभाववाद, और नियतिवादियोंका उल्लेख किया है / यदृच्छावादी जगत् की विचित्रता को आकस्मिक, स्वभाववादी - स्वभावतः एवं नियतिवादी नियत ही मानते हैं / अन्त में इन सभी विचारधाराओं की मर्यादा का कथन किया गया है। इस प्रकार प्रश्नव्याकरण नामक अंग ग्रन्थ में उक्त 14 विभिन्न मतों का वर्णन प्राप्त होता है जो उस काल में विशेष प्रचलित रहे होंगे। सन्दर्भ एवं सहायकग्रन्थ-सूची: 1. "पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पन्नता, तं जहा-उवमा, संखा, इसिभासियाई, आयरियभासिताई, महावीरभासिताई, खोमपसिणाई, कोमलपसिणाई, अद्दागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई / " ठाणंगसुत्तं० संपा० मुनि जम्बूविजयजी, महावीर जैन विद्यालय मुंबई-३६, ई० स० 1985, पृ० 311 / 2. ठाणंगसुतं, समवायंगसुत्तं च, संपा० मुनिश्री जम्बूविजयजी, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई-३६, सं० 1985, पृ० 444-445 / 3. नंदीसुत्तं सिरिदेववायगविड़यं, संपा० पुण्यविजय मुनि, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई-२६, ई० स० 1968, पृ० 40 / 4. पण्हवागरणं णाम अंगं तेणउदिलक्ख सोलहसहस्स पवेदि 9316000/ अक्खेवणी णिक्खेवणी संवेयणी णिव्वेयणी चेदिचउबिहाओ कहाओ वण्णेदि / 105 षखंडागम: धवला टीका समन्वितः, सं० हीरालाल जैन, प्रथम खंड, जीवस्थान सत्प्ररूपणा-१, अमरावती 1939. 5. प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषय-वस्तु की खोज, डॉ. सागरमल जैन, जैन आगम साहित्य, संपा० के० आर० चन्द्र, __प्राकृत जैन विद्या विकास फंड, अहमदाबाद-१५, पृ० 68-96. 6. सुत्तपिटक-दीघनिकाय पालि-भाग-१, सामवफलसुत्त, नवनालन्दा विहार, नालन्दा, विहार, पृ० 41-53 / 7. सूयगडंगसुत्तं, संपा० मुनिश्री जम्बूविजयजी, महावीर जैन विद्यालय बम्बई-३६, ई० स० 1978, प्रथमश्रुत स्कंध 1-637 / 8. कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या 1 संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः // 2 // श्वेताश्वतरोपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर, सं० 1995, पृ० 71 ! 9. प्रश्नव्याकरणम्, संपा० शोभाचन्द्र भारिल्ल, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, (राजस्थान) सं० 1993, पृ० 54-55 / 10. वही. पृ० 55 / 11. वही. पृ० 55 / 12. वही, पृ० 55 / 13. षड्दर्शन समुच्चय, हरिभद्रसूरि, संपा०, महेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, 110003, पृ० 453 / 14. सूयगडंगसुत्तं, संपा० मुनिश्री जम्बूविजयजी, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई-३६, ई० स० 1978 / 15. शास्त्रवार्ता-समुच्चय, हिन्दी विवेचनकार बदरीनाथ शुक्ल, चौखम्भा ओरियन्यलिया, वाराणसी-२२१००१, ई० स० 1977, श्लो० 30-87 पृ० 97-283 / 16. वही ! 17. प्रश्नव्याकरणसूत्र, वही पृ० 59 / 18. इमं वि बितियं कुदसणं असब्भाववाइणो पण्णवेंति मूढा-संभूओ अंडगाओ लोगो ! सयंभुणा सयं य णिम्मिओ ! एवं एयं अलियं पयंपंति / प्रश्नव्याकरण सू-४८ वही / / 19. लोकतत्त्व निर्णय ग्रन्थ, आ० हरिभद्रसूरि, श्री जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, संवत् 1958 / 20. अन्दोग्य उपनिषद्, उपनिषत्संग्रह : संपा० जगदीश शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1984, षष्ठोऽध्यायः / मनुस्मृति अ० 1 श्लोक 5-15 / 21. प्रश्नव्याकरण दशासूत्रम्, टीकाकार अभयदेवसूरि, संपा० विजय जिनेन्द्रसूरीश्वर, श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला लाखाबावल, ई० स० 1989, पृ० 61 / 22. वही. पृ० 62 / 23. वही, पृ० 63 / 24. ब्रह्मबिन्दु उपनिषद्, उपनिषत्संग्रहः, संपा० पं० जगदीश शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली ई० स० 1984, पृ० 142 / 25. जं वि इहं किचि जीवलोए दीसइ सुकयं वा दुकयं वा एयं जदिच्छाए वा, सहावेण वा वि दइवतप्पभाषओ वा वि भवइ / णत्थेत्थ किंचि कयगं तत्तं लक्खणविहाणणियत्तीए कारियं एवं केइ जंपति इट्टि-रस-सायागारवपरा बहवे करणालसा परूवेंति धम्मवीमंसएणं मोसं / पू० प्रश्नव्याकरणसूत्र वही, /