Book Title: Praman ka Vishaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229022/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणका विषय विश्वके स्वरूप विषयक चिन्तनका मूल ऋग्वेदसे भी प्राचीन है। इस चिन्तनके फलरूप विविध दर्शन क्रमशः विकसित और स्थापित हुए जो संक्षेपमें पाँच प्रकारमें समा जाते हैं-केवल नित्यवाद, केवल अनित्यवाद, परिणामा निस्यवाद, नित्यानित्य उभयवाद और नित्यानित्यात्मकवाद । केवल ब्रह्मवादी वेदाम्ती केवल नित्यवादी हैं क्योंकि उनके मतसे अनित्यत्व श्राभासिक मात्र है । बौद्ध क्षणिकवादी होनेसे केवलानित्यवादी हैं। सांख्ययोगादि चेतनभिन्न जगत्को परिणामी नित्य माननेके कारण परिणामी नित्यवादी हैं । न्याय-वैशेषिक श्रादि कुछ पदार्थों को मात्र निस्य और कुछको मात्र अनित्य मानने के कारण नित्यानित्य उभयवादी हैं। जैनदर्शन सभी पदार्थोंको नित्यामित्यात्मक माननेके कारण नित्यानित्यात्मकवादी है। नित्यानित्यस्व विषयक दार्शनिकोंके उक्त सिद्धांत श्रुति और श्रागमकालीम उनके अपने-अपने ग्रंथमैं, स्पष्टरूपसे वर्णित पाए जाते हैं और थोड़ा-बहुत विरोधी मंतष्योंका प्रतिवाद भी उनमें देखा जाता है--सूत्रकृ. १.१.१५-१८। इस तरह तर्कयुगके पहिले भी विश्वके स्वरूपके संबंध नाना दर्शन और उनमें पारस्परिक पक्ष प्रतिपक्ष भाव स्थापित हो गया था । तर्कयुग अर्थात् करीब दो हजार वर्षके दर्शनसाहित्यमें उसी पारस्परिक पक्षप्रतिपक्ष भावके अाधारपर वे दर्शन अपने-अपने मंतव्यका समर्थन और विरोधी मंतव्योंका खण्डन विशेष-विशेष युक्ति-तर्कके द्वारा करते हुए देखे जाते हैं । इसी तर्कयुद्ध के फलस्वरूप तर्कप्रधान दर्शनग्रंथों में यह निरूपण सब दार्शनिकोंके वास्ते आवश्यक हो गया कि प्रमाणनिरूपण के बाद प्रमाणके विषयका स्वरूप अपनी अपनी दृष्टिसे बतलाना, अपने मंतव्य की कोई कसौटी रखना और उस कसौटीको अपने ही पक्षमें लागू करके अपने पक्षकी यथार्थता साबित करना एवं विरोधी पक्षों में उस कसौटीका अभाव दिखाकर उनको वास्तविकता साबित करना । श्रा० हेमचंद्रने इसी तर्क युगकी शैलीका अनुसरण करके प्रस्तुत चार सूत्रों में १. 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ।' -भूग. अष्ट० २. श्र० ३ व. २३. म. ४६ । नासदीयसूक्त ऋग्० १०.१२६ । हिरण्यगर्भसूक्त भूग. १०.१२१ । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 [१.१.३०-1]प्रमाणके विषयरूपसे समस्त विश्वका जैनदर्शनसम्मत सिद्धांत,उसकी कसौटी और उस कसौटीका अपने ही पक्ष में सम्भव यह सब बतलाया है। वस्तुका स्वरूप द्रव्य-पर्यायात्मकत्व, नित्यानित्यत्व या सदसदात्मकवादिरूप जो श्रागमोंमें विशेष युक्ति, हेतु या कसौटीके सिवाय वर्णित पाया जाता है ( भग० श० 1. उ. 3; श० 6. उ० 33) उसीको श्रा. हेमचंद्रने बतलाया है, पर तर्क और हेतुपूर्वक / तर्कयुगमें वस्तुस्वरूपकी निश्चायक जो विविध कसौटियाँ मानी जाती थीं जैसे कि न्यायसम्मत-सत्तायोगरूप सत्त्व, सांख्यसम्मत प्रमाणविषयत्वरूप सत्त्व तथा बौद्धसम्मत-अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्व इत्यादि-उनमेंसे अन्तिम अर्थात् अर्थक्रियाकारिखको ही प्रा. हेमचंद्र कसौटी रूपसे स्वीकार करते हैं जो सम्भवतः पहिले पहल बौद्ध तार्किकोंके द्वारा (प्रमाणवा० 3. 3) ही उद्भावित हुई जान पड़ती है। जिस अर्थक्रियाकारिखकी कसौटीको लागू करके बौद्ध तार्किकोंने वस्तुमात्रमें स्वाभिमत क्षणिकत्व सिद्ध किया है और जिस कसौटीके द्वारा ही उन्होंने केवल नित्यवाद ( तस्वसं० का० 364 से) और जैन सम्मत नित्यानित्यात्मक वादादिका (तत्त्वसं. का. 1738 से) विकट तर्क जालसे खण्डन किया है, प्रा. हेमचंद्रने उसी कसौटीको अपने पक्षमें लागू करके जैन सम्मत नित्यानित्यात्मकत्व अर्थात् द्रव्यपर्यायात्मकत्ववाद. का सयुक्तिक समर्थन किया है और वेदांत श्रादिके केवल नित्यवाद तथा बौद्धोंके केवल अनित्यत्ववादका उसी कसौटीके द्वारा प्रबल खण्डन भी किया है। ई० 1636 ] [प्रमाण मीमांसा For Private &