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प्राचीन जैन स्थल भद्दिलपुर : ऐतिहासिकता
प्राचीन समय में भद्दिलपुर जैन धर्म का एक बड़ा केन्द्र रहा है। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार यह दसवें जैन तीर्थकर शीतलनाथ का जन्म स्थल था, और बाईसवें जैन तीर्थंकर अरिष्टनेमि भी यहां आ चुके हैं। यह भी कहा जाता है कि चौबीसवें जैन तीर्थंकर महावीर ने भी यहां पर पांचवां चौमासा किया था। करीब चौथी सदी के लेखक संघदास गणि के ग्रंथ वासुदेव हिंडि में उल्लेख मिलता है कि वासुदेव ने अभ्युमंत के साथ भद्दिलपुर नगर की यात्रा की जहां उसने राजकुमारी पुंडा से विवाह किया। जैन पट्टावलियां " एक मत से उल्लेख करती है कि मूल संघ के पहिले छबीस भट्टारकों की पीठ भद्दलपुर रही है। सताईसवां भट्टारक महाकीति महलपुर में हुआ था किन्तु वह अपनी पीठ यहाँ से उज्जैन ले गया ।
भद्दिलपुर मलय राज्य की राजधानी रहा है । मलय २५ आर्य देशों में एक माना जाता था।' भगवती सूत्र में सोलह महाजनपदों में भी इसे बिना जाता है मलय देश के भदिलपुर की स्थिति विद्वान् अभी तक ठीक नहीं बता सके हैं, और इसके बारे में उनके विभिन्न मत हैं ।
मूल संघ की चार प्रकाशित पट्टावलियों से पता चलता है कि भद्दलपुर मालवा में स्थिति का उल्लेख नहीं करतीं । बहुत बाद की लिखी होने के कारण पट्टावलियों पर विश्वास साहित्य और अभिलेखों से भी मालवा में किसी प्राचीन स्थल का नाम भद्दलपुर होने का पता नहीं समय में मालवा मलय के नाम से भी नहीं जाना जाता था । ऐसा प्रतीत होता है कि पट्टावलियों के मान लिया ।
प्रोफेसर जगदीश चन्द्र जैन का विचार है कि महिलपुर की पहिचान बिहार में हजारीबाग जिले के बदिया ग्राम से की जानी चाहिए। प्राचीन समय में मलय देश बिहार में पटना के दक्षिण गया के दक्षिण-पश्चिम में स्थित था। यह विचार भी ठीक प्रतीत नहीं होता क्यों कि यह प्रदेश प्राचीन समय में मलय देश नहीं जाना जाता था। भदिया की पहिचान भद्दिलपुर से नहीं की जा सकती क्योंकि इसके लिए साहित्य और अभिलेख का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। यह स्थान मूल संघ के प्राचीन भट्टारकों की पहली पीठ के रूप में भी नहीं रहा है।
आवश्यक निर्युक्ति, ३८३
अन्तगडदसाओ, ३, पृ० ७
३.
लाइफ इन ऐंश्यंट इण्डिया एज डिपिक्टेड इन द जैन कैनन्स, पृ० २५४
४. वासुदेवहिण्डि, पृ०७४
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ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में जैन धर्म से संबन्धित भद्दिलपुर दक्षिण में स्थित था । यह मलय राज्य की राजधानी थी। चूंकि मलय शब्द की उत्पत्ति द्रविड़ भाषा के शब्द 'मलई' जिसका अर्थ 'पहाड़ी' से हुआ है यह असंभव नहीं है कि इस नाम का राज्य दक्षिण में स्थित था । अमरकोश और कालिदास के रघुवंश में मलय प्रदेश को दक्षिण भारत में बतलाया गया है।" बिल्हदी के अभिलेख में भी यह उल्लिखित मिलता है कि त्रिपुरी के कल्चुरी राजा शंकर गण (८७८-८८८ ई०) ने मलय देश पर आक्रमण
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डॉ० के० सी० जैन
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था, किन्तु ये इस स्थान की निश्चित भी नहीं किया जा सकता। प्राचीन चलता है । इसके अतिरिक्त प्राचीन लेखकों ने भ्रम से मालवा को मलय
इण्डियन पेण्टीक्वेरी, २१, पृ० ५०
पीटरसन रिपोर्ट, १८८३-८४ पन्नवणा, १,३३, पृ० ५५६; बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति, १,३२६३; प्रवचन सारोद्धार, पृ० ४४६ लाइफ इन ऐंश्यंट इंडिया एज डिपिक्टेड इन द जैन कैनन्स, पृ० २५४
रघुवंश, ४, ६, ६, ४६-४८, ६, ६४ अमरकोश, २-६
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ
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________________ कया।' जैन ग्रथों में मलय और भद्दिलपुर के उल्लेख से प्रकट होता है कि बहुत प्राचीन समय में ही जैन धर्म का प्रचार सुदूर दक्षिण तक हो गया था। समयोपरांत प्राचीन जैन लेखकों ने प्रसिद्ध प्राचीन जैन स्थलों का संबन्ध किसी न किसी भांति जैन तीर्थंकरों से जोड़ने का प्रयत्न किया किन्तु वास्तव में ऐसा संबन्ध नहीं रहा / दक्षिण में कई स्थलों के नामों का अंत 'मलई' से होना प्राचीन मलय राज्य की स्थिति दक्षिण में होना पुष्ट करता है। इसके अतिरिक्त मूल संघ की सबसे प्राचीन पट्टावली से भी पता चलता है कि भद्दलपुर दक्षिण में स्थित था। मूलसंघ के आरंभ के छब्बीस भट्टारकों की पीठ भद्दलपुर रही है। मूलसंघ के संस्थापक कुदकुद का निवास स्थान भी दक्षिण में ही था। बाद के इसी संघ के पच्चीस भट्टारकों का कार्य भी दक्षिण भारत रहा। ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि इतने प्राचीन मूलसंघ का अस्तित्व कहीं अन्य स्थल में रहा हो / इस मूलसंघ के प्रथम पीठ के भद्दिलपुर व भद्दलपुर नाम के स्थल की स्थिति कहीं न कहीं दक्षिण में होनी चाहिए किन्तु अभी तक इस स्थल की ठीक से स्थिति व पहिचान नहीं की जा सकी है। आचार्य कुन्दकुन्द एवं भद्दिलपुर का भट्टारक पट्ट देव मिल्यौ यक आयक, करी वीनती येहु / कहि ऐसो अवहूं करू', आग्या मोकौं देहु / / तव मुनिवर असे कही, विदिह क्षेत्र ले जाय / श्रीमन्दिर स्वामी तणौं दरसण मोहि कराय / / तब स्वरधारी विमान मुनि, चालयो मद्धि अकास / राह मांहि पीछी गिरी, ठीक पड़यो नहि तास // मुनि वोले पीछी विनां, हम नहि मग चालत / देव विचारी सो करूं, जिह विधि चाल संत / / गधिपछिछ के परन की, पीछी दई वनाय / गृधपछाचारिज यहै, तव ते नाम कहाय / / स्वरमुनि गये विदेह मैं, दरसण किय जिनराय / ऊंची सब ही की लषी, धनुष पांच सै काय / / चक्रवति आयो तहां, दरस करण जगदीस / लषि वन मुनि को हाथ मै, लयै उठाय महीस // भाषी यह को जीव है, कमडल पीछी धार / जिन भाषी मुनि है यहै, भरथषंड को सार // तव चक्रीयन को धरयौ, एलाचारिज नाम / फुनि आये निज षेत्र मैं, करि मनवांछित काम / / भदिलापुर दक्षिण दिसा, पट्ट भये छव्वीस / वहुरि सुनहुं जे जे भये, जिहठां मुनि-गन ईस / / छस-तियासी साल त्तै, पट बैठे मुनिराज / भट्टारक-पद पाय करि, भये सुधर्म जिहाज // बस्तराम साह कृत बुद्धि-विलास से साभार 1. एपिग्राफिया इडिका, 1, पृ० 251 2. पंचपांडवमलइ, तिरुमलइ, वल्लिमलइ, नार्तामलइ, तेनिमलइ, अलगर्मलइ, ऐवर्मलइ, कलुगुमलइ और वस्तिमइल / जैन इतिहास, कला और संस्कृति 136