Book Title: Prachin Jain Kathao me Vihar ki Jain Nariya
Author(s): Ranjan Suridev
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ प्राचीन जैन कथाओं में बिहार को जैन नारियाँ -डा. रंजन सूरिदेव बिहार की भूमि जैनतीर्थ के रूप में इतिहास प्रसिद्ध है; क्योंकि यह जैन तीर्थंकर भगवान् महावीर की जन्मभूमि, तपोभूमि, उपदेश-भूमि तथा निर्वाण भूमि रहा है। भगवान् वीर के अतिरिक्त अन्य इक्कीस तीर्थंकरों की निर्वाण-भूमि होने का गौरव भी इस बिहार को उपलब्ध है । जैनों की कतिपय प्रसिद्ध सिद्धभूमि (पारसनाथ, वैशाली, पावापुरी, राजगृह, मन्दार, चम्पापुरी, कमलदह, गुणावा आदि) इसी राज्य में विराजती हैं। बिहार की राजधानी पाटलिपुत्र का जैन संस्कृति के साथ महत्वपूर्ण सम्बन्ध है। विभिन्न जैनकथाओं से ज्ञात होता है कि नगर का प्राचीन नाम कुसुमपुर है और भगवान महावीर से भी हजारों वर्ष पहले से इस नगर का जैन संस्कृति से सम्बन्ध रहा है। 'स्थविरावली चरित्र' में इस नगर के नामकरण के सम्बन्ध में कहा गया है कि भद्रपुर में पुष्पकेतु नाम का राजा रहता था। उसकी पत्नी का नाम पुष्पवती था। उन दोनों के पुष्पचूल नाम का पुत्र और पुष्पचूला नाम की पुत्री थी। जैनागम पर रानी की अविचल श्रद्धा थी, अतः उसने जैन श्राविका के व्रत ग्रहण किये। कुछ दिनों बाद वह राजभोग छोड़कर जैन श्रावकों के साथ गंगातटवर्ती 'प्रयाग' नामक तीर्थ में जाकर रहने लगी। इसी स्थान पर गंगा के गर्भ में किसी सत्पुत्र का शरीरान्त हुआ और उसके मस्तक को जल-जन्तु नदी तट पर घसीट लाये। किसी दिन दैवयोग से उस गलित मस्तक में पाटल का वीज गिर पड़ा और समय पर उससे एक पाटल-वृक्ष उत्पन्न हुआ। उस पाटल-वृक्ष को देखकर किसी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि यह स्थान अनेक प्रकार की समृद्धियों से युक्त होगा। राजा उदायी को #जब इसकी सूचना मिली, तब उसने पाटल-वृक्ष के पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण सीमा पर एक नगर # बसाया, जो 'पाटलिपुत्त' कहलाया। उस समय यह नगर जैनधर्म के विस्तार-प्रसार का केन्द्र था। जैन आचार्यों और जैन राजाओं के साथ जैन नारियों की कीतिगाथा भी बिहार से जुड़ी 23 हुई है। भगवान् महावीर के संघ में छत्तीस हजार आर्यिकाएँ (भिक्षुणियाँ) और तीन लाख श्राविकाएँ (व्रतधारिणी गृहस्थ स्त्रियाँ) थीं, जिनमें अधिकांश बिहार की निवासिनी थीं । आर्यिकाओं में सर्वप्रमुख #राजा चेटक की पुत्री राजकुमारी चन्दना थी। चन्दना की मामी यशस्वती की भी बड़ी प्रसिद्धि थी। %23 चन्दना आजन्म-ब्रह्मचारिणी थी। एक दिन जब वह राजोद्यान में टहल रही थी तब एक प्राचीन जैन कथाओं में बिहार की जैन नारियाँ : डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव | २६३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ विद्याधर उसे चुराकर ले गया । किन्तु विद्याधर ने अपनी विद्याधरी के भय से शोकातुर चन्दना को जंगल में ही छोड़ दिया। वहाँ उसे एक भील ने प्राप्त किया। भील ने उसे अनेक कष्ट दिये, परन्तु वह सती-धर्म से विचलित नहीं हुई । यहाँ से वह कौशाम्बी के व्यापारी वृषभसेन नामक सेठ को प्राप्त हुई । इस सेठ के घर में ही बन्दिनी चन्दना ने महावीर को आहार-दान किया, जिसके प्रभाव से उसकी कीति सर्वत्र फैल गई । इसके बाद सेठ के घर से मुक्त होकर उसने भगवान् महावीर से दीक्षा ग्रहण की और आर्यिका संघ की प्रधान बनी । चन्दना की बहन ज्येष्ठा ने भी भगवान् महावीर से दीक्षा ग्रहण की थी। राजगृह के राजकोठारी की पुत्री भद्रा कुण्डलकेशा ने भी भगवान से दीक्षा लेकर जैनधर्म और समाज की सेवा की थी । भद्र कुण्डलकेशा का उपदेश इतना मधुर होता था कि हजारों-हजार की भीड़ एकत्र हो जाती थी और सभी श्रोता मन्त्र-मुग्ध हो जाते थे । उपर्युक्त तीन लाख श्राविकाओं में चेलना, सुलसा आदि प्रधान हैं। श्रेणिक जैसे विधर्मी राजा को सन्मार्ग की ओर प्रवर्तित करने वाली रानी चेलना की गौरव गाथा कल्प-कल्प तक गाई जाएगी। कहना न होगा कि बिहार में जैन आर्यिकाओं और श्राविकाओं की एक सक्रिय परम्परा रही है । बिहार के प्रसिद्ध जैनतीर्थ चम्पापुर के विकास का पूर्ण उल्लेख 'औपपातिकसूत्र' में मिलता है । चम्पापुर (चम्पानगर) भागलपुर से पश्चिम चार मील की दूरी पर है। यहाँ १२वें तीर्थंकर भगवान् वासुपूज्य ने गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण प्राप्त किये थे । अनाथ जीवों के नाथ, यानी उद्धारक भगवान् महावीर ने चम्पानगर में तीन वर्षावास बिताये थे, कदाचित् इसीलिए इसके पार्श्ववर्ती क्षेत्र का नाम 'नाथनगर ' पड़ा गया । चम्पानगर के रेलवे स्टेशन का नाम आज भी 'नाथनगर' है । पहले चम्पापुरी अंगदेश (प्राचीन मगध ) की राजधानी थी। राजा कौणिक ने राजगृह से हटकर चम्पा को ही मगध की राजधानी बनाया था । भगवान् महावीर के आर्यिका संघ की प्रधान उपर्युक्त चन्दना या चन्दनबाला यहाँ की राजपुत्री थी । चम्पा के राजा का नाम जितशत्रु था जिसकी रानी रक्तवती नाम की थी । श्वेताम्बर - आगम सूत्रों में बताया गया है कि भगवान् यहाँ के पूर्णभद्र चैत्य नामक प्रसिद्ध उद्यान में ठहरते थे । इस प्रकार, चम्पा का सम्बन्ध भगवान् महावीर से अधिक रहा है । इस चम्पापुरी से सम्बन्ध रखने वाली ऐसी अनेक कथाएँ जैनपुराणों, महापुराणों और कथाकोश में मिलती हैं, जिनमें विविध जैन नारीरत्न चित्रित हुए हैं। हम यहाँ दो-एक प्रस्तुत करेंगे । रानी पद्मावती चम्पा में दधिवाहन नाम का राजा था। उसकी रानी पद्मावती नाम की थी। एक बार रानी गर्भवती हुई और उस हालत में उसे हाथी पर बैठकर उद्यान भ्रमण की इच्छा हुई । इच्छा के अनुसार भ्रमण की तैयारी हुई। राजा-रानी एक हाथी पर चले। रास्ते में राजकीय हाथी बिगड़ गया और दोनों को लेकर जंगल की ओर भागा। रानी के कहने पर राजा ने एक बरगद की डाल पकड़कर जान बचा ली, पर रानी को लेकर हाथी घोर जंगल में पहुँचा और वहाँ एक तालाब में घुसते ही रानी हाथी की पीठ से पानी में कूद गई और तैरकर बाहर निकल आई। जंगल से किसी प्रकार निकलकर रानी पद्मावती दन्तपुर पहुँची और वहाँ एक आर्थिक से दीक्षा लेकर तपस्या करने लगी । २६४ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ रानी ने पहले तो अपने गर्भ को गुप्त रखा, किन्तु अन्त में वह मातृत्व की वेदना से अभिभूत हो गई । यथासमय रानी ने पुत्र प्रसव किया और वह अपने नवजात पुत्र को अपने नाम की अंगूठी देकर एक सुन्दर कम्बल में लपेटकर नीरव निशीथ में श्मशान में छोड़ आई । श्मशान - पालक ने उस पुत्र का पालनपोषण किया और शरीर में खाज हो जाने के कारण उस बालक का नाम ' कर्कण्डू' रखा । बड़ा होने पर सौभाग्यवश कर्कण्डू ने कंचनपुर का राज्य प्राप्त किया । एक बार कर्कण्डू और | चम्पा के राजा दधिवाहन (अर्थात्, पिता-पुत्र) में किसी बात से मनोमालिन्य हो गया, फलतः दोनों आपस में झ पड़े । आर्यिका पद्मावती को जब यह समाचार मिला कि पिता-पुत्र में अ-जानकारी के कारण युद्ध हो रहा है, तब वह युद्ध स्थल पर पहुँची और दोनों का परस्पर परिचय करा दिया । दधिवाहन ने अनावश्यक रक्तपात रुक जाने के कारण साध्वी पद्मावती को धन्यवाद दिया और स्वयं पत्नी का अनुकरण कर जैन श्रमण हो गया । रानी रोहिणी इसी चम्पानगरी में राजा मघवा और रानी श्रीमती से श्रीपाल, गुणपाल, अवनिपाल, वसुपाल, श्रीधर, गुणधर, यशोधर और रणसिंह - ये आठ पुत्र और रोहिणी नाम की एक सुन्दर कन्या हुई । रोहिणी के पिछले जन्मों के सम्बन्ध में कहा गया है कि यह अत्यन्त दुर्गन्ध वाली अशुभ कन्या थी तथा पाप के प्रभाव से इसे अनेक कष्ट उठाने पड़े थे । इसने 'रोहिणी व्रत' किया था, उसी के प्रभाव से इसे सुन्दर रूप, सुगंध और सम्भ्रान्त कुल प्राप्त हुआ । यह रोहिणी राजा अशोक की रानी बनी। कुछ दिनों के बाद राजा अशोक ने संसार से विरक्त हो स्वामी वासुपूज्य के समवशरण (आम सभा) में जिन दीक्षा ग्राहण की और रोहिणी ने कमलश्री आर्यिका से व्रत लिया । अन्त में तपस्या करती हुई रोहिणी सोलहवें स्वर्ग में देवता हो गई । कन्या नागश्री प्राचीन काल में चम्पापुरी में चन्द्रवाहन नाम का राजा राज्य करता था । उसकी रानी का नाम था लक्षमति । राजा के पुरोहित का नाम नागशर्मा था । नागशर्मा स्वभावतः मिथ्यादृष्टि था, इसलिए उसकी कन्या नागश्री उससे उदास रहती थी। एक बार नागश्री ने आचार्य सूर्यमित्र से पंचाणुव्रत ग्रहण कर लिये । परन्तु, पिता नागशर्मा ने उसी आचार्य को वह व्रत लौटा देने की आज्ञा दी । जब नागशर्मा अपनी पुत्री नागश्री को साथ लेकर मुनि सूर्यमित्र के पास जा रहा था, तब मार्ग में हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और अनुचित संचय करने वालों को दण्ड पाते देखकर कन्या ने पिता से अनुरोध किया कि पिताजी, जब पाप करने वालों को दण्ड मिलता है, तब मुझे फिर क्यों इस व्रत को छोड़ने का आदेश देते हैं ? नागशर्मा नागश्री के इस प्रश्न से अतिशय प्रभावित हुआ और उसने पुत्री को व्रत रखने का आदेश तो दिया ही, स्वयं भी व्रती हो गया । इस प्रकार, आध्यात्मिक और आधिभौतिक उत्कर्ष से समृद्ध चम्पानगरी प्राचीन जैन नारी-रत्नों की गौरव - रेखाओं से आवेष्टित उस काल की धर्म प्रभावना से प्रबुद्ध नगरों के स्वर्णिम इतिहास की परिचायिका है । यहाँ बिहार के उन जैन नारी रत्नों के भी पुण्य नाम स्मरणीय हैं । जिन्होंने तीर्थंकरों को जन्म दिकर अपना मातृत्व सफल किया। प्रथम तो चम्पापुरी के ही बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य हैं, जिनकी माता प्राचीन जैन कथाओं में बिहार की जैन नारियाँ : डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव | २६५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMARATulanni.nahununi a साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ का नाम जया था। द्वितीय, मिथिला के उन्नीसवें तीर्थकर मल्लि भगवती थीं जिनकी माता का नाम प्रजावती था। तृतीय राजगृह के बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ हैं, जिनकी माता श्यामा नाम की थीं। चतुर्थ मिथिला के ही इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ हैं, जिनकी जननी विपुला नाम की थी। पंचम कुण्डपुर या कुण्डग्राम (वैशाली) के चौबीसवें जैन तीर्थंकर भगवान् महावीर हैं, जिनकी माता का नाम त्रिशला या प्रियकारिणी था। सचमुच, इन मातृ रत्नों से बिहार का गौरव सदा उद्ग्रीव रहेगा। जैन कथा-साहित्य के अध्येताओं से यह अविदित नहीं है कि धर्मसेवा और जनसेवा में जैन नारियों का अपना विशिष्ट स्थान है / भारतीय इतिहास से भी यह बात स्पष्ट है कि पुराकालीन नारियाँ विदुषी, धर्मपरायण एवं कर्त्तव्यनिष्ठ होती थी / तत्कालीन नारियों के 'अबला' की संज्ञा प्राप्त करने का उदाहरण कदाचित् ही मिलता है। निर्भय, वीर तथा अपने समाज और सतीत्व के संरक्षण में सावधान एवं सदा सतर्क और सतत् प्रबुद्ध नारियों के अनेक उदाहरण पुराणों में मिलते हैं / यह सर्वविदित है कि नारियों में निसर्गतः सेवा करने की अपूर्व क्षमता होती है। कथा-ग्रन्थों में ऐसे कितने ही दिव्य भव्य उदाहरण भरे-पड़े हैं कि नारियों ने अपने पातिव्रत्य और गृहिणीत्व की मर्यादा अक्षुण्ण रखते हुए राज्य के संरक्षण में अद्भुत कार्य किया है / साथ ही, अवसर आ पड़ने पर युद्ध में भी सम्मिलित होकर शत्रुओं के दाँत खट्टे किये हैं। वैदिक परम्परा में भी मैत्रेयी, कात्यायनी, गार्गी, गौतमी जैसी महीयसी महिलाओं के दिव्य दर्शन होते हैं। इनके विमल आचरण और विस्मयजनक वैदुष्य की बात आज भी जन मानस को प्रेरित करती है। श्रमण-संस्कृति के काल में नारियों का अभूतपूर्व उत्थान हुआ, जिसका मूल कारण है भगवान महावीर का नारियों के प्रति उदार दृष्टिकोण / इसी का फल है कि श्रमण-संस्कृति में अनेकानेक नारियों में ने आत्म साधना एवं धर्म साधना के साथ ही जन-जागरण के मार्ग में सदैव अग्रगति होने का प्रयास किया। है और इसमें वे सफल भी हुई हैं। प्रख्यात जैनाचार्य जिनसेन (1110 ई०) के 'आदि पुराण' ग्रन्थ से यह पता चलता है कि उस समय नारियों का सहयोग सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक-सभी / क्षेत्रों में प्राप्त था। जैनकाल में नारी केवल भोगैषणा की पूर्ति का साधन नहीं थी, वरन् उसे भी स्वतन्त्र रूप से विकसित और पल्लवित होने की समुचित सुविधाएँ प्राप्त थीं। कन्या, गृहिणी, जननी और विधवा पर्थ का सदुपयोग करने के साथ ही परार्थ में भी तत्पर थीं / आचार्य जिनसेन के अनुसार जैन नारियाँ इसे अपना मूलमन्त्र मानती थीं : __तदेव ननु पाण्डित्यं यत्संसारात्समुद्धरेत् / अर्थात् संसार से उद्धार पा लेना ही पण्डिताई या चतुराई है / वस्तुतः, जैनकालीन नारिय आदर्श की कोटि में परिगणनीय थीं। [लेख में वर्णित अनेक घटनाएँ व तथ्य श्वेताम्बर परम्परा में प्रसिद्ध तथ्यों से भिन्न हैं, विद्वा लेखक उनके सन्दर्भ देते तो पाठक की ज्ञान-पिपासा तृप्त हो जाती / समाधान हेतु जिज्ञासु लेखक सम्पर्क कर सकते हैं। पता-श्रीरंजन सूरिदेव, पी० एन० सिन्हा कॉलोनी भिखना पहाड़ी, पटना 6, -सम्पादक २०६-ठछखण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियां का योगदान www.jainelil23