Book Title: Parasnath Kila ke Jain Avashesh
Author(s): Krishnadatta Bajpai
Publisher: Z_Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_Mahotsav_Granth_Part_1_012002.pdf and Mahavir_Jain_Vidyalay_Suvarna_
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211347/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारसनाथ किलाके जैन अवशेष कृष्णदत्त वाजपेयी उत्तर प्रदेशके बिजनौर जिलामें नगीना रेलवे स्टेशनसे लगभग ९ मील उत्तर-पूर्वकी ओर बढ़ापुर नामक * कसबा है। वहांसे करीब ३ मील पूर्व एक प्राचीन किलाके भग्नावशेष दिखाई पड़ते हैं। इसे 'पारसनाथ किला' कहते हैं। इस नामसे अनुमान होता है कि किसी समय वहाँ जैन तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथका मंदिर था। कुछ वर्ष पूर्व इन तीर्थकरकी एक विशालकाय भन प्रतिमा बढ़ापुर गांवसे प्राप्त हुई है, जिससे उक्त अनुमानकी पुष्टि होती है। इस किलेके संबंधमें अनेक जनश्रुतियाँ हैं। एक जनश्रुति यह है कि पारस नामके राजाने वहाँ अपना किला बनवाया था। श्रावस्तीके शासक सुहलदेवके पूर्वजों के साथ भी इस किलेका संबंध जोड़ा जाता है। जो प्राचीन अवशेष यहां मिले हैं उनसे इतना कहा जा सकता है कि ई० दसवीं शताब्दीके लगभग किसी शासकने वहां अपना किला बनवाया और कई जैन मंदिरोंका भी निर्माण कराया। यह बताना कठिन है कि इस किले तथा मंदिरोंको किसने नष्ट किया। सम्भव है कि रुहेलोंके समयमें या उनके पहले यह बरबादी हुई हो। कालान्तरमें इस स्थानको उपेक्षित छोड़ दिया गया और धीरेधीरे वह बीहड़ बन गया। कुछ वर्ष पहले मुझे इस स्थानको देखनेका अवसर प्राप्त हुआ। उत्तर प्रदेश सरकारने जंगलके एक भागको साफ करवाकर उसे खेतीके योग्य बना दिया है। वहां 'काशीवाला' नामसे एक बस्ती भी आबाद हो गई है। इसके उत्साही निवासियोंने जमीनको हमवार कर उसे खेतीके योग्य कर लिया है। इतना ही नहीं, उन्होंने वहां पर बिखरी हुई पुरानी मूर्तियोंकी भी रक्षा की है। सरदार रतनसिंह नाम के सजनने किलासे एक अत्यन्त कलापूर्ण पाषाण-प्रतिमा प्राप्त की है। यह बलुए सफेद पत्थरकी बनी है और उँचाई में दो फुट आठ इंच तथा चौड़ाई में दो फुट है। मूर्ति जैन तीर्थंकर महावीरकी है। भगवान महावीर कमलांकित चौकी पर ध्यानमुद्रामें आसीन हैं। उनके एक ओर नेमिनाथजीकी तथा दूसरी ओर चन्द्रप्रभुजीकी खड़ी मूर्तियाँ हैं। तीनों प्रतिमाओंके प्रभामंडल उत्फुल्ल कमलोंसे युक्त हैं। प्रधान मूर्ति के सिरके दोनों ओर कल्पवृक्षके पत्ते प्रदर्शित हैं। मूर्तिके घुघराले बाल तथा ऊपरके Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ तीन छत्र भी दर्शनीय हैं। छत्रोंके अगल-बगल सुसज्जित हाथी दिखाये गये हैं, जिनकी पीठके पीछे कलापूर्ण स्तम्भ हैं। हाथियों के नीचे हाथोंमें माला लिये हुए दो विद्याधर अंकित हैं। प्रधान तथा छोटी तीर्थकर प्रतिमाओंके पार्श्वमें चौरी-वाहक दिखाये गये हैं। मूर्तिकी चौकी भी काफी अलंकृत है। उसके बीच में चक्र है, जिसके दोनों ओर एक-एक सिंह दिखाया गया हैं। चक्रके ऊपर कीर्तिमुखका चित्रण है। चौकीके एक किनारे पर धन के देवता कुबेर दिखाये गये हैं और दूसरी और गोदमें बच्चा लिये देवी अंबिका हैं। चौकीके निचले पहलू पर एक पंक्तिमें ब्राह्मी लेख है जो इस प्रकार है-श्री विरद्धमन समिदेवः। स्म १०६७ राणलसुत्त भरथ प्रतिमा प्रठपि। (अर्थात् संवत् १०६७में राणलके पुत्र भरथ (भरत) द्वारा श्री वर्द्धमान स्वामीकी मूर्ति प्रतिष्ठापित की गई। लेखकी भाषा शुद्ध संस्कृत नहीं है। पहला अंश 'श्री वर्द्धमानस्वामिदेवः'का बिगड़ा हुआ रूप है। 'स्म' शब्द विक्रम संवत् के लिये प्रयुक्त हुआ है। ऐसा मानने पर मूर्तिकी प्रतिष्ठाकी तिथि १०१०ई० आती है। पारसनाथ किलेसे इस अभिलिखित मूर्ति तथा समकालीन अन्य मूर्तियोंके प्राप्त होनेसे पता चलता है कि १०वीं-११वीं शतीमें पारसनाथ किला जैन धर्मका एक अच्छा केन्द्र हो गया था। जान पड़ता है कि वहां एक बड़ा जैन विहार भी था। इस स्थानकी खुदाईसे प्राचीन इमारतोंके ई अवशेष प्रकाशमें आये हैं। किलाका सर्वेक्षण और उत्खनन करने पर अधिक महत्वपूर्ण वस्तुएँ प्राप्त हो सकेंगी। पारसनाथ किलाकी जो आंशिक सफाई हुई है उसमें अनेक बेल-बूटेदार इंटें, पत्थरके कलापूर्ण खंभे, सिरदल, देहली तथा तीर्थकर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। अनेक शिलापट्टों पर बेल-बूटेका काम बहुत सुन्दर है। एक पत्थर पर संगीतमें संलग्न स्त्री-पुरुषोंकी मूर्तिया उकेरी हुई हैं। इन अवशेषोंमेंसे मुख्यका परिचय नीचे दिया जाता है सं० १-दर्वाजेका सिरदल-इस सिरदलके बीचमें कमल-पुष्पोंके ऊपर दो सिंह बैठे हुए दिखाये गये हैं। सिंहासनके ऊपर भगवान् तीर्थकर ध्यानमुद्रामें अवस्थित हैं। उनके अगल-नगल एक-एक तीर्थकर मूर्ति खड्गासनमें दिखाई गई है। मध्य भागके दोनों ओर भी इसी प्रकारका चित्रण है। सिरदलके दोनों कोनों पर एक-एक तीर्थकर प्रतिमा खड्गासनमें दो खम्भोंके बीच में बनी है। सभी तीर्थंकरोंके ऊपर छत्र हैं। सं० २-देहलीका भाग-यह अवशेष उस स्थानसे प्राप्त हआ जहांसे भगवान महावीरजीकी बडी प्रतिमा मिली है। इसके बीच में कल्पवृक्षका अलंकरण है, जिसके प्रत्येक ओर दो-दो देवता हाथमें मंगल घट लिए हुए खड़े हैं। उनके खड़े होनेका त्रिभंगी भाव बहुत आकर्षक है। इस पत्थरमें किनारेकी ओर शेरकी मूर्ति है। ऐसी ही मूर्ति पत्थरके दायें कोने पर भी थी, जो टूट गई है। सं० ३–संगीतका दृश्य-एक अन्य देहली पर, जो किलेके बीचसे मिली थी, संगीतका दृश्य बड़ी सुन्दरतासे प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक ओर कई आकृतियाँ तथा अलंकरण बने हैं तथा दूसरी और भावपूर्ण मुद्रामें एक युवती नृत्य कर रही है। उसके अगल-बगल मृदंग और मंजीर बजाने वाले पुरुष उकेरे हुए हैं। इन तीनोंकी वेषभूषा बड़े कलापूर्ण ढंगसे दिखाई गई है। सं०४-द्वार-स्तम्भ-पारसनाथ किलेसे अनेक सुन्दर द्वार-स्तम्भ भी मिले हैं। एक स्तम्भके नीचे मकरके ऊपर खडी हुई गंगा दिखाई गई हैं। उनके अगल-बगल दो परिचारिकाएँ त्रिभंगी भावमें प्रदर्शित हैं। ये मूर्तियां ग्रैवेयक, स्तनहार, किंकिणि सहित मेखला नथा अन्य अलंकरण धारण किये हुए हैं। खंभेके ऊपर पत्रावलीका अंकन दिखाया गया है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारसनाथ किला के जैन अवशेष : ८३ से०५-यमुना सहित द्वार-स्तम्भ-इस स्तम्भ पर नीचेके भागमें अपने वाहन कच्छप पर आरूढ़ यमुना दिखाई गई हैं। इनके साथ भी उसी प्रकार परिचारिकायें प्रदर्शित हैं जैसी कि पहले द्वारस्तम्भ पर। इससे पता चलता हैं कि ये दोनों खम्भे एक ही द्वार पर लगे हुए थे। द्वार-खंभोंके ऊपर गंगा-यमुनाका चित्रण गुप्तकालके प्रारम्भसे मिलने लगता है। गुप्तकालके महाकवि कालिदासने दर्वाजे पर लगी हुई देवी रुपा गंगा-यमुनाकी मूर्तियोंका उल्लेख इस प्रकार किया है : "मूर्ते च गंगा यमुने तदानीं सचामरे देवमसेविषाताम्।” (कुमारसंभव ७,४२) (अर्थात् उस समय मूर्त रूपमें गंगा और यमुना हाथोंमें चँवर लिये हुए देवकी सेवामें उपस्थित थीं)। से० ६-द्वारपाल सहित द्वार-स्तम्भ-इस खम्भे में नीचे एक मोटा दंड लिये द्वारपाल खडा है। उसकी लंबी दाढी तथा बालोंका जूड़ा दर्शनीय है। इसका ढंग उसी प्रकारका है जैसा कि मध्यकालीन चंदेल कलामें मिलता है। इस खंभेके ऊपरी भागमें फूलोंका अलंकरण दिखाया गया है। सं०७-द्वार-स्तम्भका निचला भाग-इस खंभेका केवल नीचेका हिस्सा बचा है, जिस पर पूर्वोक्त ढंगका एक द्वारपाल खड़ा है। इसकी भी वेशभूषा पहले के द्वारपाल-जैसी है। - सं०८-भगवान् पार्श्वनाथकी मूर्ति--यह मूर्ति बढ़ापुर गांव से आई थी। यह तारसनाथ किलासे ही वहाँ किसी समय गई होगी। दुर्भाग्यसे इसका मुंह, हाथ तथा पैरोंका भाग तोड़ डाला गया है। यह मूर्ति काफी विशाल है। भगवान् ध्यानमुद्रामें सिंहासनके ऊपर बैठे हुए हैं। आसन पर सर्पकी ऐंडदार कुण्डलियां दिखाई गई हैं और सिरके ऊपर फणका घटाटोप है। अगल-बगल नाग और नागिनकी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। उनके ऊपर ध्यानमुद्रामें तीर्थकर-युग्मकी प्रतिमाएं है। चरण-चौकी के ऊपर दो अलंकृत सिंह दिखाये गए हैं। यह मूर्ति भगवान् महावीरकी पूर्वोक्त प्रतिमाकी तरह बड़ी कलापूर्ण है। संभवतः मध्यकालमें पारसनाथ किलाकी भूमि पर निर्मित मुख्य मंदिरकी यह मूर्ति थी। पारसनाथ किले के कितने ही प्राचीन अवशेष इधर-उधर पहुंच गए हैं। मुझे नगीनाके जैन मंदिरमें कई प्राचीन मूर्तियां देखनेके मिलीं, जिनकी शिल्प-रचना पारसनाथकी ही कलाके अनुरूप है। इन मूर्तियोंमें ध्यानमुद्रामें बैठे हुए तीर्थकरकी एक मूर्ति विशेष उल्लेखनीय है। स्तम्भका एक भाग भी यहां सुरक्षित है जिस पर खड्गासनमें भगवान तीर्थकर दिखाये गये हैं। इन सभी प्राचीन अवशेषोंको सुरक्षित रखना आवश्यक है। मध्यकालमें उत्तर भारतमें जैन धर्मका जो विकास हुआ उसे जानने में ये कलाकृतियाँ तथा अभिलेख सहायक सिद्ध हुए हैं ।