Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakaran ki Samiksha Aur Ardhamagadhi A Pustakno Parichay Author(s): K R Chandra Publisher: ZZ_Anusandhan Catalog link: https://jainqq.org/explore/229625/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी' ए पुस्तकनो परिचय के. आर. चन्द्र प्रस्तुत ग्रंथमां १५ अध्याय छे जेमां प्राकृत भाषामां थतां ध्वनि परिवर्तन अने तेना व्याकरणना नियमो विषे विशिष्ट चर्चा करवामां आवी छे. प्राकृत भाषाना व्याकरणकारो शुं शुं नियमो आपे छे अने उपलब्ध प्राकृत साहित्यनी भाषा उपर ते क्यां सुधी लागु पडे छे तथा शिलालेखोनी प्राकृत भाषाने ध्यानमां लईने व्याकरणना नियमोनुं विश्लेषण करवामां आव्युं छे जे आ प्रमाणे छे : १. प्राकृत भाषानी उत्पत्ति विषे भरतमुनिनो शो अभिप्राय छे अने संस्कृत भाषा साथै प्राकृत केवी जातनो संबंध धरावे छे. उपसंहार रूपे एम कहेवामां कई दोष जणातो नथी के प्राकृत भाषानी मात्र समजूती माटे संस्कृत भाषानो आधार लेवामां आव्यो छे, न के संस्कृतमांथी प्राकृतनी उत्पत्ति थई छे. २. मध्यवर्ती 'त'कारनं 'द'मां परिवर्तन मात्र शौरसेनी अने मागधीमा ज थाय छे के महाराष्ट्री प्राकृतमां अथवा तो सामान्य प्राकृतमां पण वररुचिना प्राकृत व्याकरण प्रमाणे क्यारेक क्यारेक 'त'ना बदलामां 'द'ना प्रयोगो मळता हता. ३. मध्यवर्ती 'प'नुं प्रायः 'व'मां परिवर्तन थाय छे एवो जे नियम आपवामां आव्यो छे ते प्राचीन प्राकृत भाषामां केटले अंशे लागु पडे छे. ४. मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनोनो प्रायः लोपनो नियम अर्धमागधी भाषा अथवा प्राचीन प्राकृत भाषाओं उपर लागु पडतो नथी. ५. उद्वृत्त स्वरना स्थाने 'य' श्रुतिनो प्रयोग मात्र जैन प्राकृत साहित्यनी विशेषता गणवामां आवी छे पण शिलालेखोमां पण आवी ज प्रवृत्ति जोवा मळे छे. ६. अनुनासिक व्यंजन ङ्, अने ञ् (कंठ्य अने तालव्य) ना पोताना ज वर्गना व्यंजनो साथै संयुक्त रूपे प्रयोगो आम एक प्राचीन पद्धति छे अने अर्द्धमागधी भाषामां तेमना स्थळे अनुस्वारनो प्रयोग परवर्ती काळमां थवा पाम्यो छे एम जणाय छे. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [123] ७. आद्य दंत्य 'न'कारनो प्रयोग प्राचीन प्राकृत भाषाओमां थतो हतो ज्यारे तेमना स्थाने मूर्धन्य 'ण'कारनो प्रयोग सर्वथा परवर्ती काळनी विशेषता रही ८. ए ज रोते मध्यवर्ती 'न'कार( दन्त्य)ना प्रयोगनी परंपरा पण प्राचीन छे पण परवर्ती काळना व्याकरणकारोना नियमोने लीधे प्राचीन प्राकृतोमां पण तेना स्थाने मूर्धन्य 'ण'कारना प्रयोगो धीरे धीरे प्रचलित थवा पाम्या छे. आ प्रकारना प्रयोगोमां वररुचिना प्राकृत व्याकरणनो वधारे पडतो प्रभाव छे, ए एक निर्विवाद हकीकत छे. ९, १०. एनी ज रीते 'ज्ञ', न्य, अने न'नं दंत्य 'न्न'मां परिवर्तन प्राचीन गणाय छे ज्यारे एमना स्थाने मूर्धन्य 'णण' ना प्रयोगो परवर्ती काळनी प्रवृत्ति छे. साथे साथे संयुक्त व्यंजन 'ण्य' अने 'ण'(ण्य-र्ण) पण दन्त्य 'त्र'मां बदलाइ जाय छे एवं पूर्व भारतनी प्राचीन शिलालेखोनी भाषामां जोवा मळे छे. एटले अर्धमागधीमां तो सामान्यरूपे 'न्न'ना स्थाने 'ण्ण'ना प्रयोगो एना मूळ स्वरूपथी विरुद्ध थई जाय छे. ११. सप्तमी एकवचन माटे -स्सि अने पछी-म्हि' आ बन्ने प्राचीन विभक्ति प्रत्ययो छे. परवर्ती काळमां एमना स्थाने 'म्मि', प्रचलन थवा पाम्यं छे. जे महाराष्ट्री प्राकृतनो प्रत्यय छ, न के अर्धपागधी प्रकृतनो. १२. (अ) प्रथमा द्वितीया बहुवचननो '-णि' (ब) तृतीया एकवचननो '-एण' (स) तृतीया बहुवचननो ‘-हि' (द) षष्ठी बहुवचननो '-णं' अने (क) सप्तमी बहुवचनो '-सु' आ बधा प्रत्ययो प्राचीन प्राकृत भाषाओना प्राचीन प्रत्ययो छे ज्यारे ज्यारे एमनी जग्याए क्रमशः (अ)-ई-इ, (ब)-एणं, (स)-हिं, हिँ, (द)-ण, अने(क) -सुं प्रत्ययो परवर्तीकाळमां विकसित थयां छे अने तेओ वधारे पडता परवर्ती प्राकृतोमां वपरायेला जोवा मळे छे. अर्धमागधी जेवी प्राचीन प्राकृत भाषा पण परवर्तीकाळमां तेमना प्रभावथी बची शकी नहीं ए एक हकीकत छे, एटले एम कहेवू जोईए के परवर्तीकाळना प्रत्ययो पण मूळ अर्धमागधीमां घूसी गया छे. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [124] -NA 13. मध्यवर्ती व्यंजन एटले के वेदो अने पालिमां वपरातो 'ण' (गुजराती 'ळ', मराठी-राजस्थानी 'ळ') प्राचीन प्राकृतमां पण वपरातो हतो पण परवर्ती काळमां अनी जग्याए ‘ल अने ड' आवी गया अने परवर्ती काळमां अर्धमागधीमांथी पण 'ळ' नो लोप थई गयो एम कहेवू अनुपयुक्त नथी जणातुं. 14. अर्धमागधी साहित्यमा प्राचीन अने उत्तरवर्ती काळमां प्रचलित थयेला एम बन्ने प्रकारना प्रत्ययो एक साथे ज प्रयुक्त थयेला जोवा मळे छे. आ बधुं प्रमादना लीधे थयुं हशे अथवा तो पछीना काळने अनुरूप भाषाने समजवामां सरलता लाववा खातर पण आq बन्युं हशे एम पण कही शकाय. कारण के जैन अथवा तो श्रमण परंपरामां अर्थ उपर वधारे भार मूकवामां आव्यो छे, 7 के वैदिक परंपरा प्रमाणे भाषा उपर विशिष्ट भार मूकवामां आव्यो हतो. 15. जेसलमेरनी एक ताडपत्रनी हस्तप्रतमां मळता पाठोना आधारे 'विशेषावश्यक-भाष्य'ना नवीन संस्करण(संपा. पं. दलसुखभाई मालवणिया, ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर, अमदावाद, १९६६)मां ध्वनि-परिवर्तननी दृष्टिए घणा खरा शब्द-पाठो बदलाई (एना करतां आ ग्रंथना जूना संस्करणोनी दृष्टिए) गया छे. एवी ज रीते अर्धमागधी आगम जेवा प्राचीन ग्रंथोनी प्राचीन भाषामां पण हस्तप्रतोमा उपलब्ध थतां प्राचीन शब्द-रूपोने प्राथमिकता आपवी जोईए अने ए दृष्टिए अर्धमागधी आगम ग्रंथोनु पुनः सम्पादन थर्बु जोईए एवं एक निवेदन प्रस्तुत करवामां आव्युं छे. छेल्ले, प्राचीन लेखन पद्धति अने पछीनी लेखन पद्धतिमां थयेला फेरफारने लीधे अक्षरोमां कोईक वार थयेला भ्रमने लीधे 'न'कार 'ण'कार रूपे वंचावा मांड्यो होय एम पण जणाय छे तेथी मूळ 'न'कार 'ण'कारमा बदलाई जवानी पण संभावना ओछी नथी. आ बधां अध्ययन अने विश्लेषणनो सार एटलो ज के अर्धमागधी जेवी प्राचीन अने पूर्व भारतनी भाषामां परवर्तीकाळनी प्राकृतो अने वैयाकरणोना नियमोने लीधे जे जे फेरफारो थवा पाम्या छे ते ते स्थळे प्रामाणिक आधारो प्रमाणे प्राचीन शब्द-रूपो परिस्थापित थवा जोईए ए ज अंतिम फलश्रुति छे.* * पुस्तकना प्रकाशक : प्राकृत जैन विद्याविकास फंड, अमदावाद. 1995. पृ. 130. किं.