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धान श्री सहजान
हजानंदघनजी
गंगीन्द्र युगप्रधान
आत्मानुभूत वा
की आत्मान
परमगुरु प्रवचन
संपादकः प्रा. प्रतापकुमार टोलिया प्रकाशकः श्रीमद् राजचंद्र आश्रम हंपी
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युगप्रधान गुरुदेव श्री सहजानंदघनजी महाराज
जन्म सं. १९७० भा० सु० १० डुमरा (कच्छ) दीक्षा सं० १९९१ वै० सु० ६ लायजा (कच्छ) युगप्रधान पद सं० २०१८ ज्ये० सु० १५ बोरडी महाप्रयाण सं० २०२७ फा. सु० २ हम्पी इन्द्रादयो नतायस्य पाद पदमे मुनिर्हि सः । युगप्रधान सहजानंदघनोऽद्य भारते ॥
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योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानंदघनजीनी अनुभव वाणी .
परमगुरू प्रवचन
(१) पांच समवाय : सत्पुरुषार्थ
प्रेरक : पू० आत्मज्ञा माताजी श्री. धनदेवीजी
सम्पादक : . प्रा० प्रतापकुमार टोलिया श्रीमती सुमित्रा प्र. टोलिया
प्रकाशक :
श्रीमद् रोज चन्द्र आश्रम, रत्नकूट, हम्पी-583239 (कर्नाटक)
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प्रक्चनकार : यो. यु. श्री. सहजानंदघनजी महाराज प्रेरक,
आशीर्वाद प्रदाता : पू. आत्मज्ञा माताजी श्री धनदेवीजी ० रिकार्डिंग : स्व. चन्दुभाई टोलिया . ० सम्पादक : प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया
___ श्रीमती सुमित्रा प्र. टोलिया ० अर्थप्रदाता : श्री प्रफुल्लभाई पुनमिया
बोरडी-401701 (महाराष्ट्र) ० प्रकाशक : एस. पी. घेवरचंद जैन, मेनेजींग ट्रस्टी
श्रीमद राजचन्द्र आश्रम
रत्नकूट, हम्पी-583239 (कर्नाटक) • मुद्रण-व्यवस्था : श्री. रतिलाल लालभाई शाह
- श्री. चीमनभाई लालभाई शाह ० मुद्रक .: धरणीधर प्रिन्टर्स, अहमदाबाद. ० प्रतियाँ : ११०० ० संस्करण .: प्रथम । वर्ष : १९८८
: गुजराती
: देवनागरी • मूल्य : रु. ३-००, डाक व्यय – ०-५०
• भाषा
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सम्पादकीय
अनंत अनंत भाव-भेदो अने दृष्टिकोणोथी प्रबोधित वीतराग वापीनो सार वीतराग पंथ पर चालता महत् पुरुषोनी आप्तवाणीमाथी मळे छे. आ काळना आवा दुर्लभ महापुरुषोमां प्रमुख एवा प्रकट सत्पुरुष अने प्रसिद्धि-मोह-मुक्त गुप्तज्ञानी परमकृपालु देव. श्रीमद् राजचन्द्रजीनी वाणी आवी प्रबळ, प्रांजळ, सरळ, निर्मळ, प्रभावपूर्ण वाणी हती. आपणा सद्भारये आपणने ते तेमना समर्थ अक्षरदेह रुपे ग्रंथस्थ थयेली अने यथावत् जळवायेली मळे छे.
ए ज वाणी अने जीवनादर्शने स्वयं विचारी, आचरी, जीवी जईने, आत्मसात् करीने आपणने सार्थक परिभाषा आपनार आ युगना अन्य गुप्त महापुरुष हता योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानंदधनजी महाराज ( भद्रमुनि ). तेमनी प्रेरक वाणी आपणने एक बधु लाभरुपे तेमना पोताना ज अनुभूति भरेला अवाजमां स्वरस्थ -ध्वनिमुद्रित-टेइप थयेली मळे छे. तेमनी आ सरळ, निर्मळ सरिता-शी स्याद्वाद शैलीनी वाणीमां वीतराग भगवंतोना आत्मबोधनुं दर्शन मरेलुं छे, जे आत्मलक्ष्यने स्पष्ट अने सुदृढ बनाववाने समर्थ छे.
सद्गुरुदेव श्री सहजानंदघनजीना निकटवर्ती स्वर्गीय अग्रज श्री चंदुभाई टोलिया अने तेमना परमकृपापात्र श्री नवीनभाई
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झवेरी (जयपुर) ने आ उपकारक वाणीने पकडी लेवान-टेइप करवानुं श्रेय सांपडेल छे. आ बंने स्वजनोना अनेक रेकर्डीगोने आधारे तैयार करेली आ परमगुरु प्रवचनवाणी श्रीमद् राजचंद्र आश्रम हंपीना अधिष्ठात्री आत्मज्ञानी पूज्या माताजीनी प्रेरणा अने आशीषथी हवे पुस्तिका स्वरुपे पण जगत समक्ष आवी रही छे. क्रमिक प्रवचनमाला रुपे प्रसिद्ध थनार आ प्रथम पुस्तिकाना प्रकाशननुं भावभयु दान, सद्गुरुदेवना बोरडीना स्वनामधन्य-युवान भक्त श्री प्रफुल्लभाई पुनमियाए आप्यु छे, जे अन्य अनेकोने तेवी प्रेरणा आपशे.
वर्धमान भारती बेंगलोर द्वारा, पूज्य माताजीनां आज्ञाआशीर्वाद अने आश्रमनां सहयोगथी संपादित प्रकाशित केसेट-कृतिनी साथे आ प्रवचनबाणीनुं अवारनवार वांचन-श्रवण एक अनेरो अनुभव करावशे. आ रीते आ परमगुरु प्रवचनोने हृदयंगम करी आत्मशुद्धि अने आत्मज्ञानसिद्धिनी दिशामां एक डगलं आगळ भरवानी अनेकने प्रेरणा मळशे एवी श्रद्धा छे.
अनेक विषयो परनां आवां अनेक विविध प्रवचनो उपरान्त " श्री कल्पसूत्र " जेवा पावन श्रुतग्रंथ परना स्याद्वादमय समन्वय शैलीनां प्रवचनो जे बघां केसेट टेइप रुपे बहार पडी चूक्यां छे ते हवे क्रमशः पुस्तिका रुपे पण महापुरुषोनां योगबळथी आश्रम द्वारा प्रकाशित थशे. आ प्रयासोनी उपयोगिता- मूल्यांकन साधक
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श्रोताओ, सजाग श्रावको अने सहृदयी समालोचको स्वयं करे अने पोतानां सूचनोथी अमने लाभान्वित करे अभ्यर्थना ।
बहुजन समाजना लाभना अने गुजरातनी बहारनी पण व्याप्तिना आशयथी परमगुरुओनी ईच्छानुसार आ गुजरातीभाषी वाणी प्रकाशन देवनागरी लिपिमां थई रह्यं छे. आशा छे सौ तेने आवकारशे.
श्रीमद् राजचंद्र पुण्यतिथि चैत्र व. ५, ७-४-८८ अनंत, १२ केम्ब्रिज रोड़, बेंगलोर-५६०००८
प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलियो श्रीमती सुमित्रा प्र. टोलिया
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परमगुरु प्रवचन : १ पांच समवाय : सत्पुरुषार्य
आ प्रवचनन
• पांच समवाय कारणो अने दृढ निर्धार • स्वभाव आदिनी अनुकूळता • विभावभावो • चैतन्यविज्ञाननो प्रयोग : स्वकाळ ० स्व-काळ ० अंतर्लक्ष • पुरुषार्थ कयो ? • आत्मलक्षनी पकड़ ० धर्म एटले मननी धरपकड़ ० सहजसमाधि अने श्रीमद्जी • सतत स्वरुप जागृति : सत्पुरुषार्थनी कुंची
“ धर्म एटले मननी धरपकड.... ... .... ...ए आत्माना भान वगर थई शकती. नथी... ... ..."
. n mov 022-2.
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परमगुरु प्रवचन : क्रमिक माला क्रम विषय-शीर्षक
भाषा प्रवचन अवधि १ पांच समवाय : सत् पुरुषार्थ गुजराती ६० मिनट २ जात्मभान-वीतरागता
हिन्दी ३ साकार-निराकार उपासना ......, . ६०/९० मि. ४ आध्यात्मिकता
गुजराती ९० मि. ५ आत्मसाधना : आत्मदर्शन ६ आत्मा-परमगुरुने चरणे ७ श्रीमद् राजचन्द्रजी की ज्ञानदशा हिन्दी ४५ मिनट ८ आत्मपकड ९ आत्मसाक्षात्कारनो अनुभवक्रम गुजराती ९० मि.
आत्मसाक्षात्कार का अनुभवक्रम हिन्दी ११ , , २ (जयपुर) १२
, " ३
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१४ मायिक सुख त्याग : मुक्ति रहस्य
+ स्वयं-पद
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१५ स्याद्वाद - अहिंसा चर्चा
+ स्वयं - पद
१६ समाधिमरण की कला :
१७- २६ श्री कल्पसूत्र प्रवषन मंजुषा १० केसेट सेट
२७ नियमसार (निर्माणाधीन)
गुजराती + हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
९० मि.
९० मि.
हिन्दी
उपर्युक्त सर्व प्रवचनोनी पुस्तिका माला श्रीमद् राजचंद्र आश्रम द्वारा प्रकाशनारम्भ । सर्व केसेटो प्रायः तैयार : वर्धमान भारती, १२ केम्ब्रिज रोड, बेंगलोर ५६००२८ परथी उपलब्ध ।
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परमगुरू प्रवचन
(१)
पांच समवाय : सत्पुरुषार्थ पांच समवाय कारणो अने दृढ निर्धार :
पूर्वकृत अने पुरुषार्थ ए बे ज कारण नहीं पण पांच कारण छे. काळ, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत अने पुरुषार्थ-पांचेयनो मेळ बने तो कार्य सिद्ध थाय. एक सामान्य उदाहरण रुपेः अमुक ऋतुमां ज वरसाद वरसे छे, अमुक काळमां ज, अमुक वर्षा पछी ज वृक्ष अंकुरित थई, मोटुं थईने फळे छे. ते अमुक ऋतुमां ज थाय छे. ते काळ पण सापेक्ष छे. अहीं जे काम आपणे चींधीओ ते काममां पांच कारणोनो मेळ बेसाडवो ज जोईए. आत्मशुद्धि-आत्मसिद्धि ए कार्य छे. “ मारे आ जीवननीं अंदर आत्मानी शुद्धि अने सिद्धि करवी छे." जेटली शुद्धि एटली सिद्धि. आत्मसिद्धि-ए निर्णय थई जवो जोईए के, “ मारे आ काम कर छे." ए नियति एटले निर्णय. कोइ पण काम पहेला
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निर्णय लई अने पछी थाय छे. निर्णय वगरनां जे कामो कराय छे तेमां परिणाम शुं आवे ? एटले नियति – निश्चय – “ मारे आ जन्ममां आत्मज्ञान पोमवुज छे." आ पहेलां निश्चय होवो घटे छे. “ मारे लखपति थq छे " एवो निश्चय करीने वेपार करनाराओ केटलाक लखपति बने छे. जेने बाकीनां कारणो मळी जाय ते बने छे. बाकीनां कारणो मेळवे नहीं तेने मेळ नथी बेसतो. तो सौथी पहेलां ए निर्णय हृदयनी अंदर स्थिर थवो घटे छे के, “ मारे अमुक काम करवू ज छे ! करीश ज. करके हटेंगे। मरनेवाले तो हम हैं नहीं । हम कौन ? आत्मा - कभी मरते नहीं । "
ए पाको निर्णय लेवाय ते पछी एने अनुकूळ स्वभाव करवो पडे छे. पोताना भावोने 'स्व' ने अनुकूळ करवू (करवा) पडे छे. 'स्व'ने अनुकूळ पोताना भावो न होय तो ए आत्मशुद्धि -आत्मसिद्धि करी शके नहीं. 'स्वे भवनं स्वभाव.' पोतामां पोताना भावोनुं अनुकूळ रहेq : एटले के जोवा-जाणवानी जे चेतना शक्ति छे-प्रकाश रुपा-ते अत्यारे देहाकारे टकेली छे, ने इन्द्रियोनां माध्यमथी आपणे ए प्रकाश शक्तिने वापरीए छीए-बहारना पदार्थाने जोवा जाणवा माटे. ए ज्यांथी स्फुरे छे, एनुं जे उद्गमस्थान छे, ते जुदुं छे. जेम सेल अने बल्ब. सेलमा प्रकाशं छे. स्वीच दबावी अने एनी जोडे वल्बने अनुसंधानित बनावीए, बंने जोडाण पामे एटले सेलनो प्रकाश बल्बमां आवे छे. आवे छे ? तेम आ बधुं
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जे प्रकाश वडे जणाय छे-आंख बंध होयं तो कंइ न देखाय. बहारना प्रकाशथी ज जोवा अने जाणवानी क्रिया थती नथी. उपादान रुपे माहींनो प्रकाश छे, ते स्वयं प्रकाश छे. ए प्रकाश जेमां छे, एनुं जे केन्द्र छे-अधिष्ठान छे–ते आत्मा. तेमांथी प्रकाश, चेतनाशक्ति प्रकाशरुपा छे, एमांथी स्फुरे छे अने पोतानी स्वरुपमर्यादानी बहार आ देह, इन्द्रियो, इत्यादि एनी अंदर ए 'करंट' आवे छे. एनुं भवन "पर"भणी छे. एटले एने "स्व"भणी वाळवू घटे छे. “ भवनं भाव"-'भू' धातुथी " भाव" शब्द बने छे, " भवन " शब्द बने छे. ' भवति, भवतः, भवन्ति ' एटले “ थाय छे”, “होय छे "-ए एना अर्थो छे. थवू, होवू एटले शुं ? के " पर " ने अनुकूळ थQ ते परभाव अने " व "ने अनुकूळ थर्बु ते खभाव. “स्व” एटले पोतानुं जे स्वरुप छे, जे ज्ञाता, दृष्टा, साक्षी तत्त्व छे, जे " ड्राइवर" तत्त्व छे आ “ मोटर "मां तेने जोवाजाणवा माटे ए चेतनाशक्तिनुं समावं, स्वने अनुकूळ रहेg, अनुकूळ थर्बु, ते स्वभाव. आत्मशुद्धि अने आत्मसिद्धि करवी ज छे, ए कार्य करवू ज छे तेणे सौथी पहेलां आ काम करवानुं छे : एक निर्णय. ते निर्णय कर्या पछी आ प्रयोग. समग्र शक्ति जे बहार वपराय छे, ते बधी पोताना आत्माने अनुकूळ वापरवी. ते अनुकूळपणे अंतर्मुख एर्नु होवू, तेनुं नाम स्वभाव..ए स्वभावने साच्या वगर, केवळ परभाव वडे आत्मशुद्धि के सिद्धि थइ नथी, यवानी नथी, थइ शके एम ज नथी ! जे काळे आ जीव आ
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प्रयोग करशे, पोताना करंटने उद्गमस्थानमां वाळशे, समावशे, ते काळ ते खकाळ छे : “ काळ-लब्धि लइ पंथ निहाळशं."
स्वभाव आदिनी अनुकूळता :
खरेखर, स्वकाळ, स्वभाव, स्वद्रव्य अने वक्षेत्रा-ए चारे जो अनुकूळ होय तो आत्मानी शुद्धि अने सिद्धि थइ के छे. आत्मद्रव्य–खद्रव्यनुं वक्षेत्रा-मर्यादामां, चैतन्यप्रदेश मर्यादामां, परक्षेत्राथी हटी अने समावु ए खभाव. अने जे काळे ते समाय ते खकाळ. एम खद्रव्य, स्वक्षेत्रा, खकाळ अने खभाव ते रुपे ज्यारे आ आत्मा परिणमे, त्यारे सत्पुरुषार्थ जणाय. सत्ने प्रगट करनार पुरुषार्थ. भूतकाळना अज्ञानदशाना प्रयत्नो-कंई जन्मोनाते वडे जे कांइ भाग्य-निर्माण थयुं छे, तेना उपर, तेना भरोसे रहीशुं तो काम नहीं चाले. जेम खावापीवाने माटे, आजीविकाने माटे प्रत्येक देहधारी महेनत करी रह्या छे. ए भाग्यना भरोसे बेसी रहेता नथी, महेनत कर्या ज करे छे.. भाग्यमां हशे तो मळशे एम भाग्य पर निर्भर केटला हशे ? केटलाक वेपारीओ नुकसान करता होय छे. एक बिझनेसमां नुकसान गयुं तो फरी बीजो बिझनेस करे छे. पण ए एम ने एम भाग्यना भरोसे बेसता नथी. महेनत कर्या ज करे छे. तो ए पूर्वकृत अने पुरुषार्थ. तो पूर्वकृत ए भूतकाळना पुरुषार्थना फळस्वरुपे जे भाग्यनिर्माण थयेलु छे, ए फिल्म उतरी चूकी छे, ते प्रमाणे दरेक देहधारीए एकटींग
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करवी ज पडशे. जे फिल्म उतरी गइ छे, जे स्टेज पर आवशे ते प्रमाणे नाचवू पडशे, नाना प्रकारना नाच करवा पडशे. जे जे इच्छ्यु हतुं भूतकाळमां ते मळी रयुं छे :
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." जे जे इच्छेखें पूर्वे, ते ते मळे अत्यारे,
जे जे न इच्छ्युं पूर्वे ते तो मळे न कयारे ! जे मोहभावे इच्छयुं, निजने मुंझावा जेQ तन, संग, बंधनादि फरीने मळ्यु ज तेवू ! " ४ तेथी मुंझाय छे तुं, पण छे ए दोष केनो ?
छे निमित्त मात्रा तेने, दे छे तुं दोष शेनो ? करे हर्ष-शोक शानो ? तज मोह रे अभागी ! .. निज दोषथी बंधायो, छूटे ए दोष त्यागी."
आ रहस्य शु छे ? अत्यारे जे जे कंइ आपणने मळी रह्यं छे ते बधुं आपणे इच्छेलु हतुं ते मळी रयुं छे. मोहदशामां आq इच्छ्युं हतु, ते मळ्यु ! आ मोहनां बंधनो-आ जे कंइ देखाय छे ते मोहवश थइने इच्छयु हतुं. अत्यारे इच्छा न होय छतांय पहेलां जे इच्छा करेली अने जे कंइ तैयार थयुं ते परिपाकखेती तैयार थइ ते तो सामे आवशे ज. ए परिस्थितिओ ए रुपे सर्जाशे ज. ए परिस्थितिओने बदलवा माटे ज्ञानीओए महेनत करवानी ना कही छे. पोताना भावोने बदलो ! परिस्थितिओथी भागशो
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आपणे जइशुं ट्रेइनमां तो कर्म जाशे प्लेइनमां ! बे डगलां आगळने आगळ. ए परिस्थितिओ गमे त्यां जइशु-पुण्यरुपे के पापरुपे. जे कंइ सिलक छे ते सामे आवीने हाजर थशे. जे हालतमां छीए ते ज हालतमां रहीने भाव पलटी नांखवाना. जे भाव परभाव छे, तेने स्वभाव करी नांखवाना. 'स्व'ने जाण्या करवानुं काम करवान. अने जो आपणु होय तो शुं छे ? “सर्वस्व ", सर्व स्व, स्व ज सर्व छे. बधु पोतानुं जे छे ते "स्व" छे, अने भाव "स्व", "स्व" एटले धन. "स्व" शब्दनां घणा अर्थो थाय छे. सर्वस्व समर्पण-त्यां कने व एटले धन जेटलं हतु ते बधुं आपी दीवु, सर्वस्व समर्पण कर्यु तो अहीं भाव व – स्वभाव. — भाव ही धन अपना है। इस ड्राइवर साहब के पास यदि कोई धन हैं तो क्या है ? भाव । भाव को चाहे शुद्ध रुप में वापरो, चाहें अशुद्ध रूप में । भावने शुद्ध वापरो के अशुद्ध. अशुद्ध वे प्रकारे -शुभ अने अशुभ. शुभ भाव वडे पुण्यबंध, अशुभ भाव वडे पापबंध अने शुद्ध भाव वडे बंधरहित स्थिति.
एटले पोताना भावोने “ख” माटे ज खर्चा. आ “पर” संबंधी, आ देहादि संबंधी जे भावो आपणे स्फुरावीए छीए ए परभाव छे. आ परिस्थितिओने लीधे जे परने निमित्ते जे भावो ऊठे छे-आ जोइए, आ न जोइए, आ मारुं, आ तारुं, आ सारं, आ खराब, ए वगेरे भावो ऊठे छे ते परभावो छे. ए भावोने बदलवाना छे. स्वने अनुकूळ करवाना छे. एटले आ शरीर रुप
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मोटरमा बिराजमान ड्राईवर तत्त्व - पोतानो आत्मा, ते आत्मानी कायमी स्मृति – स्मरण, मंत्रस्मरण एटले विस्मरण न थाय ते. मंत्र एटले गुप्तमां गुप्त रहस्य. " मंत्र गुप्त रहस्य धातुथी मंत्र शब्द बने छे. गुप्तमां गुप्त रहस्यरूप जो कोइ होय आ विश्वमां तो आ आत्मा छे, के बीजो कोइ छे ? आम जुओ, अंतदृष्टि खोलीने जुओ तो सामे ज छे. अने नहीं तो गमे त्यां शोधो पण कयां य ए नहीं मळे. गुप्त चमत्कार आ छे. रहस्यरूप स्वतत्त्व, मांहें गुप्त छे, स्वरुप गुप्त छे, उपर पडदा छे एटले खबर पडती नथी. तो मंत्र शब्दनो अर्थ छे गुप्त रहस्य. आ विश्वमां गुप्तमां गुप्त रहस्यरूप कोई पदार्थ होय तो कोण छे ? आ आत्मा. एन होय तो बाकी बधुं जड. कोइनी किंमत नहीं. तो आ जेटला मंत्रो - मंत्राक्षरो छे एना अर्थरूपे शुं तत्त्व छे ? आ ड्राइवर तत्त्व, आत्मा, परमात्मा. आत्मा कहो, परमात्मा कहो. एनी स्मृति कायम बनावी राखे एनुं नाम मंत्र स्मरण. ए स्मरण त्यारे कहेवाय के विस्मरण न थाय, भूलाय नहीं. कोइ पण काम करतां छतां गमे तेवी परिस्थितिमां रहेवा छतां, आ ड्राइवर - तत्त्व भूलाय नहीं, विसराय नहीं आ महेनत करवानी छे : पुरुषार्थ. ए स्वभावे रहीने ज्यारे आ महेनत करशुं त्यारे ते काळ ते स्वकाळ छे. आ भवस्थिति परिपाकनी क्रिया आखर तो एणे ज करवानी छे. " काळ पाकशे त्यारे जोइशुं, त्यारे मोक्षनी क्रिया करशुं, हमणो शुं छे ! घडपणमां गोविंद गुण गाशुं बूढा थइ जइशुं, कुटुंबने के कोइने काम नहीं आवीए त्यारे भजन करशुं ! "
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विभावभाव
एटले पर काळ, पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर भाव-वास्तविकपणे पर पदार्थना जे विशेषो ते रुप परभाव ते नडता नथी. नडे छे पोताना विभावभावो परने निमित्त करीने थता होवाथी ते विभाव भावो – ते नडे छे. ते विभावने स्वभावरुपे बदलावी नांखीए तो बहारनी परिस्थिति नडती नथी. महा--साधको, महाभुनिओ, ऋषि मुनिओ केटलाक महामुनिओने घाणीमां पीलवामां आव्या ! घाणीमां शरीर पीलायुं, साथे आत्मा केवळज्ञान ने मोक्ष ! ! जीवता बाळवामां
आव्या महापुरुषोने. पण ए परिस्थितिनो प्रभाव एमना आत्मा पर पडयो नहीं. एटले आत्मा, आत्मभावे जाग्रत रह्यो ! स्पर्शरहित आत्मा छे, एने स्पर्शवाळा कोइ शस्त्रो अडी शके नहीं, आग अडी शके नहीं, रस्सी बांधी शके नहीं, कोइ एने अडी शके नहीं एवं आ तत्त्व, आ आत्मतत्व, कदी आगमां बळे नहीं, शस्त्रोथी छेदायभेदाय नहीं. जो ए स्वभावमा आरुढ होय जे काळे, ते काळे परिस्थितिनो प्रभाव एना . उपर पडतो नथी. ओपरेशन होलमां शरीरनो अमुक भाग इंजेकशन द्वारा सूनो करवामां आवे छे. एटले एमां जे चेतना-करंट छे, ते विषमय प्रयोग होवाथी आटलो भाग खोटो करवो होय, शून्य करवो होय तो अमुक जग्याए इंजकशन लगावे एटले आ खाली थइ जाय. ए करंट संकोचाइने बाकीना हिस्सामां चाल्यु जाय एटले एने पछी कापवामां आवे छताये दरद थतुं नथी. ज्यारे करंट प्रसरवा मांडे त्यारे खबर पडे
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छे : “ मने अहीं दुःखे छे, मने आम थाय छे." आ विषप्रयोग वडे क्षणभरने माटे, अमुक समयने माटे आपणे अनुभव करी शकीए छीए.
चैतन्यविज्ञाननो प्रयोग स्वकाळ :
तो आ चैतन्यविज्ञाननो प्रयोग छे-पोताना चैतन्य करंटने पावर हाउसमा समाववानी कळा ! ए जो आवडे, स्वक्षेत्रमा पोताना करंटने स्वभावे टकावीए जे काळे, ते काळे बहारना उपसर्गों के परिसहो, बहारना कष्टो आत्मभावमां विचलित करी शके नहीं. इष्टानिष्ट भावे आ जीव समत्व भावमा रही शके ? रहे. जे काळे आ प्रयोग स्व-द्रव्य करशे ते काळ खरेखर धन्य छे. ते "स्वकाळ" छे, ते धन्य छे. बहारना काळनी साथे लेवादेवा नथी. अने ए रीते जो कोई पुरुषार्थ करे, काळ, स्वभाव अने नियति त्रणने साथे लईने, केवळ भाग्यने भरोसे नहीं. भाग्यने अनुसार जे परिस्थितिओ निर्माण थाय छे तेनी सामे आ रीतिए रहे, आ रीते पुरुषार्थ करे, आ महेनत करे, तो आत्मानी शुद्धि अने सिद्धि अवश्य भावि छे ज, थाय ज. स्वभावने अनुकूळ थतो नथी. स्वक्षेत्रमा प्रवेश करतो नथी. स्वद्रव्य ( आ जैन परिभाषानी व्याख्याओ छे. ) द्रव्य एटले द्रवति दौषति अदु द्रवत् इति द्रव्यम् । जे एक पदार्थ एवी द्रवणक्रियायुक्त छे, जेनी भूतकाळनी अवस्थाओ - द्रवी चुकी छे, वर्तमाननी द्रवी रही छे अने भविष्यनी द्रवशे.
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एटले परिवर्तनो थया ज करे पण कायमन कायम ! तेने जेम " सत्" कहे छे तेम बीजा शब्दोमां एने “ द्रव्य" कहे छे. आत्म द्रव्य, पुद्गल द्रव्य... हवे स्वद्रव्यनो, पोताना आत्मद्रव्यनो जे विस्तार छे – आ एक कपडं, तेनो विस्तार केटलो ? खोलशुं एटले, आटलो. तेम आ आत्मा जो एने विस्तृत करीए. आ देहदेवळमां रहेतां छतां विस्तृत करीए तो आखा विश्वमा फेलाइ जाय ! सर्वव्यापक ! ! ज्यां सुधी गतिना माध्यम रुपे ' धर्मास्तिकाय' नामनुं तत्त्व छे त्यां सुधी विस्तरे. आगळ पण विस्तरी शके छे, पण गतिना माव्यमरुपे पदार्थ नथी.
जेन कारनी अंदर स्टार्टर, ब्रेक, अन्य चक्रोने आधार रुप धुरा, आ मोटर बनेली ते, पोते कलेवर, महीं ड्राइवर ने रोड : आ बधी वस्तुओ अपेक्षित छे. तो 'स्टार्टर ' वडे चाले छे, 'ब्रेक' वडे मोटर ऊभी रहे छे, अने धुराने आधारे चक्र फरे छे. तेम पुद्गल परमाणुनी बनेली आ “ मोटर" अने तेमां बेठेलो छे ते " ड्राइवर " अने आ चाले छे जेमां ते आकाश, खाली जग्या, रोड. विधमां सब कवोलीटीना पदार्थो छे. स्वतंत्र, अनुत्पन्न, अविनाशी अने एमां जे जीव छे ते केटला विस्तारने लइने छ ? जेम आ ट्यूब. एमां करंट पसार करीए एटला विस्तारमा फेलाइ जाय. नानो झीरो बल्ब लगाडीए तो एटलामां. एथी मोटो लगाडीए तो ? आ निर्दिष्ट संस्थान, कोइ खास आकार एनो नथी. आ मांय जे बेठो छे-आ देह जन्म्यो त्यारे केवडो हतो ? आटलोक हशे !
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अने पछी अत्यारे ? तो आ जेम विस्तार पामतो जाय छे तेम अंदर प्रकाशपिंड आत्मा अने एने माहेंना जे पडदा छे एने-दूर करी नांखीए अने विस्तारीए तो आखा विश्वमा फेलाइ शके छे माटे आत्माने कथंचित सर्वव्यापक पण कयु ( कह्यो) छे अने कथंचित देहव्यापक पण कडं (कह्यो) छे. तो जेटलामां ए वस्तु रहे तेटलो विस्तार ते स्वक्षेत्र. आ जैन परिभाषा. वस्तुने समजाववानी कळा छे एक.
स्व-काळ :
हवे एक लक्षपात तेलतुं उदाहरण लइए. लाख औषधी तेलमां नाखी उकाळीने तैयार करेलु तेल -- लक्षपात तेल – एक बाटलामां भरी दीg. लाख वनस्पतिओना जे गुणधर्मो ते आ तेलमां छे. पण जे बोटल ते बोटलना कोइ कणमां नथी. तेलना बुंदमां छे पण बोटलना भागमां नथी ज. बोटलनी अंदर भले रहे छे पण लाख गुणो तेलना भागमां छे, कांचना भागमां नथी. तो आ शरीर केतुं छे ? बोटल ! एनी अंदर आत्मा रहे छे खरो, पण आत्माना ज्ञानादि गुणो बधा आ देहा नथी, के छ ? तो आत्माना गुणो ए ज आत्मा. ए कयां रहे छे ? पोताना चैतन्य प्रदेशमा. समजायु ? आनी अंदर रहेतां छतां य ते पोतामां रहे छे. श्रीफळनो गोळो - ज्यारे पाणी सूकाइ जाय त्यारे काचलीनी अंदर रहे छे खरं, पण काचलीथी ? गोळो गौळामां छे. निमित्त – नैमित्तिक संबंधे काचली अने गोळानों संबंध छे. तादात्म्य संबंध नथी. एज न्याये आत्माना अनंत वैभव रुपे जे आपणे भगवानना
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नामे सांभळ्युं छे ते आत्म प्रदेशमा छे. चैतन्य प्रदेशमा छे ए वैभव : अनंत ज्ञानादि वैभव, अनंत सुखादि वैभव. पण आ काचली जेवा शरीरमां नथी ज. ए आत्मा पोताना प्रदेशमा ज छे. ए पोतानो जे प्रदेश छे ते स्वक्षेत्रे. अने ए स्वक्षेत्रमा पोताना भावनुं अनुकूळ बनी रहेQ ते “ स्वभाव", अने जे काळे ए भावने अनुकूळ रहे स्वभावने अनुकूळ ते “ स्वकाळ ". जैन तत्त्वदर्शनमां बहु सूक्ष्मताथी वातो करी छे. आ “ परहद "मां प्रवेशीने अत्यारे बिराजमान छे. करंट शरीराकार फेलायेलो छे अने इन्द्रियोना माध्यमथी बहारना पदार्थोंने जोवा-जाणवामां वपराय छे. ते परक्षेत्रमा स्थिति छे. अने पोते परक्षेत्रमा रहीने पोताने पण परद्रव्यरुपे माने छे के हुं पुरुष ने हुं स्त्रा, हुं मनुष्य. परद्रव्यरुपे - स्वथी भिन्न ए, जे पर – आ देह – ए रुपे पोते पोताने माने छे. पर – द्रव्यरुपे, परक्षेत्रमा रहीने अने परभावे - आ जे कामक्रोधादि भावो छे ते परभावो छे, परवस्तुने निमित्त करीने ऊठता भावो, ते परभावो : ओ परभावो क्रोध, मान, माया, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, घृणा, कामवासना आ बधा परभावो छे. परभावे रहीने जे काळ ए वीतावे छे ते बधु दुःखमय : परकाळ ! तो एने स्वद्रव्यने–'पर'थी छूटुं पाडी समजण वडे अने स्वरुपमर्यादामां – अधिष्ठानमा एने अनुकूळ एवा भावो सेवीने रहेवानुं छे. ते रहेवानो जे समय ते "स्वकाळ". -ए काळ, स्वभाव अने नियतिपूर्वक पुरुषार्थ थाय तो भाग्य प्रमाणे बहारनो जे उदय हशे तेनो कोइ प्रभाव आत्मामां नहीं पडे !
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ए प्रयोग वगर, आपणी “ सुरता "ने, आपणा लक्षने आत्माकार अंतर्मुख समाव्या वगर, धर्मने नामे जे कई कराय छे ते बधुं अधर्म छे, धर्म नथी. लक्ष क्यां छे अने माळा फेरवे छे ! दृष्टि अने दृष्टानी वच्चे पडदो छे त्यां लक्ष जो लागशे तो ध्यानाग्नि प्रगट थशे अने ए बळशे, हटशे अने दिदारनां दर्शन थशे. ए आत्मदर्शन, आत्मज्ञान, आत्मसमाधि अर्थे आ बधु आराधन छे. पण लक्ष ज बहिर्मुख. रेकर्ड उपर पीन अद्धर छे, 'टच' नथी (थती), तो संगीत केम संभळाय ? एटले ज महापुरुषोए ( कह्युः ) "अंतर्लक्ष विगत उपरथी मथतां निशदिन पाणी."
अंतर्लक्ष:
___ अंतर्लक्ष वगर जे लोको धर्मना नामे आचरण करे छे, तप, जप अने क्रियानो खप करे छे तेओ खरेखर माखणने माटे पाणी वलोवे छे. पाणीने वलोवीने जो माखण मळतुं होत तो आ मांघवारी तो न थात घीनी, केम भाइ ? पाणीने वलोवीने माखण नीकळी शके ज नहीं. पाणीमां ए तत्त्व नथी. दूध, दहींने वलोवे तो हजी ये नीकळे. तो लक्ष बहार राखीने धर्मने नामे जे कंइ क्रियाओ कराय छे तेनुं परिणाम शून्य. जे आपणे इच्छीए छीए ते नहीं बने.
अंतर्लक्ष – शांभवी मुद्रा. वैदिक परिपाटीमां कही छे शांभवी मुद्रा :
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अंतर्लक्ष बहिंदृष्टि, मेषोन्मेष वर्जितः । सा भवेत् शांभवी मुद्रा, सर्व तंत्रेषु गोपिता ॥
" शंभो इदं शांभवी" एटले के अंतर्लक्ष बर्हिदृष्टिः ' :दृष्टि भले बहार रहे, लक्ष महि, · मेषोन्मेष वर्जितः ' आंख मिचौनीथी रहित. आंख बंध थाय अने खुले ए क्रियानुं नाम - मेषोन्मेष' ' मेषोन्मेष वर्जितः' क्यां जोइ रह्या छे ? माहे लक्ष क्यां छे ? मांहे. दृष्टि भले बहार देखाय छे, पण लक्ष क्यां छे ? अंतर्लक्ष राखीने बहारनु बघु काम थइ शके छे. अखंडधारा अंतरलक्ष राखीने बहारनुं काम थइ शके छे. ए लक्ष वगर जे कांई तीर फेकवामां आवे ते क्रिया तो थइ, पण लक्ष्यवेध थाय नहीं, तो लक्ष्यवेध कर छे. पेला पडदाने वींधवा छे - जे दृष्टि अने दृष्टानी वच्चे छे. दृष्टा-ज्ञाता
साक्षीतत्त्व क्यां छे ? बहार के माह्य ? जेने साक्षात्कार थयो छे ते - बहार के माह्य ?
“ जिन खोजा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ ।"
तो अंतर्लक्ष्य, आत्माना भानपूर्वक जाळवीने, आ स्वभावने अनुकूळ करीने, स्क्काळ, स्वद्रव्य अने स्वक्षेत्रने संभाळीए तो मळे छे. जे आपणे इच्छीए ते मळे छे. बहार- कंइ इच्छवा जेवू नथी, अत्यार सुधी जे कंइ अनुभव्यु ते बधु दुःखरुप छे, अने जे अनुभव्यु नथी ते मांद्य छे. ज्यारे ते प्राप्त थाय छे त्यारे मन शांत थइ जाथ
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छे, चूप थइ जाय छे. चाह मिट जाय – इच्छाओ ज लय पामी जाय कंइ ज न खपे ! ! पछी प्रारब्ध अनुसार भाग्यानुसार शरीरनुं रहेवू के शरीरन दूर थर्बु, रहे त्यां सुधी जे कंइ मळवानुं छे ते मळ्या ज करवानुं छे. एना प्रत्ये साक्षी रहीने जे फरजो छे स्वीकारेली पहेले भी तेने अदा करता रहेवू. आ रीतिए रहेतां घरमां पण केवळज्ञान थाय, राजगादी संभाळतां पण केवळज्ञान थाय, खाते खाते केवळज्ञान थाय, नाचतेकूदते केवळज्ञान थाय ! केवळज्ञान थया पछी बीजं शुं जोइए ? कशु नहीं.
पुरुषार्थ कयो ?
आ पुरुषार्थ करवानो छे. धर्मना नामे बाह्य क्रियाकांडो अने केवळ शरीरनां तप ! ! खावु के न खावु ए बधा शरीरनां काम छे. ड्राइवर तो सदा उपवासी ज छे. माही जे आत्मा छे तेणे अत्यार लगी कंइ खाधुं पीधुं खरं ? एक दाणो पण ए ग्रहण करी शके नहीं, एक जलबुंद पण ए ग्रहण करी शके नहीं. ए तो स्वयंमां परिपूर्ण छे, एने आवश्यक्ता ज नथी ! जे कंइ भूख अने प्यास लागे छे ते — मोटर 'मां लागे छे. मोटरने लागे छे. एमां 'करंट' छे एटले एने पोतानुं रुप मानी बेठो छे. एटले माने छे के मने भूख लागी ने तरस लांगी छे. पण आ खातोपीतों नथी. तो शरीरंनी टांकीमा पेट्रोल आंजे बंध राख्यु, आप्यु नहीं अने मनावे छे डाइवर साहेब के मारे आजे उपवास छे. ए भान राखीने बोले तो तो ठीक के हुँ तो उपवासी ज छु. पण आजे शरीरने पेट्रोल नाख
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वानी आवश्यक्ता नथी. जे पेट्रोल छे सिलक तेनाथी गाडी चालशे." चाले के नहीं ? कोइ वखत लांबी सफरमा पेट्रोलनी कल्पना करीए के वच्चे आगळ लइ लइशु, पण अवा पण रस्ताओ मळी जाय छे के ज्यां सो माइलमां पेट्रोल नहीं ! त्यां कने शु थाय ? ज्यां सुधी पेट्रोलनो भाग होय त्यां सुधी गाडी चाले अने पेट्रोल समाप्त थाय अटले गाडी ऊभी रहे. तो आ पेट्रोल ज्यां सुधी छे त्यां सुधी गाडी चाले छे. आजे नर्बु नांखवू नथी, पुराणुं छे ते वापरीने खतम करवू छे. अटले शरीरनो उपवास होय तेने पोतानों उपवास मानी बेसे छे के नहीं ? में उपवास को छे. शरीरने खावा नथी आप्यु-आं भान राखीने भले वहेवारथी बोले के आजे उपवास छे. पण पोतानो उपवास तो....! उप + वास. 'उप' एटले समीप अने 'वास' एटले वसवू. चेतनानु चेतन - सत्ता समीप जइने वसवु तेनु नाम उपवास. तप शरीर करतुं होय अने ' ड्राइवर ', खातुं शरीर होय अने माने 'ड्राइवर' के “ हुँ खाउं छु, हुं पीउं छु." आ बधी भूल छे हों ! आ भूलवणी काढया वगर कोइ धर्म कोइथी थतो नथी. गमे ते संप्रदायनो · धार्मिक ' कहेवातो होय, पण “ धर्म अटले मननी धरपकड." आत्माना भान विना थइ शकती ज नथी ! माटे दरेक प्रयोगो- शरीरना, वाणीना अने द्रव्य मनना : त्रियोग प्रवृत्तिओ चालु रहेवा छतां, खावा-न खावानी, उठवा-बेसवानी बधी क्रियाओ शरीरनी शरीरमां थती होवा छतां, अ भान राखq घटे छे के “ हुँ ओ बघाने जोनार-जाणनार ज्ञाता, दृष्टा, साक्षी ! केम ? " हुं ते छु, आ नहीं,
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जे जोनार जाणनार ते हुं छु, आ नहीं." ओ भान राखवा जाओ अटले लक्ष्य क्यां रहेशे ? माहें, अंतर्लक्ष्य काम करतुं रहेशे.
आत्मलक्षनी पकड :
सौराष्ट्र, राजस्थान, कच्छमां जे पाणी भरवा जाय छे ते. एक, बे अने त्रण त्रण बेडां माथा उपर होय, हाथ हेठा होय, वातो करती अने हसती हसती चालती जाय. पण लक्ष्य क्या होय छे ? तेम ज तो लक्ष्य माहें राखवानुं छे, माह्य, जे जाणनार छे छे ने जोनार छे तेमां ज. ते कोण ? एमां लक्ष्य राखीने तप, जप अने क्रियानो खप करो, बधुं सफळ छे, एमां लक्ष्य जमाव्या वगरनुं बधुं विफळ छे. मेरु जेटला संयमना उपकरणो जीव वापरी नांखे, छतां पण मोक्ष थाय नहीं, केवळज्ञान थाय नहीं। एटले आजे आ उपादान-लक्षीय, विधेयात्मक जे आत्मानुं भान, तेनी कायमी स्मृति, ते आत्मानुं लक्ष्य, एने पकडवामां, ए भणी वलण वधारवामां साधकीय लक्ष जोवामां आवतुं नथी ! बहारनी दोडी आत्मानुं कशुं वळवार्नु नथी. एटले सत्पुरुषार्थमां सत् ने अनुलक्षीने, स्वभाव जागृत करीने, एवो अफर निर्णय करीने अने ए मंडयों रहे तो भूतकालीन पुरुषार्थना फळ स्वरुपे जे परिस्थितिओ सामे छे तेमांथी पसार थतो छतो ए आनंदघनमूर्तिपणे ज पोताने अनुभवें छे. बहारनां कष्टो एने नङतां नथी. मान्यता हती भूलभरेली ए छोडी दीधी. मान्थता बदली दीधी. हवे हुँ पुरुषे य नहीं अने स्त्री
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ये नहीं; पति य नहीं अने पत्नी य नहीं, भाइ नहीं अने भगिनी नहीं. वाणियो नहीं अने ब्राह्मण नहीं. मनुष्य नहीं ने पशुपक्षी नहीं. हुं तो आत्मा छु ! “ सहजात्मस्वरुप परमगुरु.” परमगुरु जेवो, परमगुरुए जेवो पोतानो आत्मा जोयो, जाण्यो, अनुभव्यो तेवो ज हुं सहजात्मस्वरुप छु, शरीरस्वरुप नथी. धर्म एटले मननी धरपकड :
आ आत्माना भानपूर्वक जे रहेशे ते मुसलमान हशे तो य तरशे, इसाई हशे तो य तरशे अने नहीं हशे भान तो जैन के शैव के कोइ तरवाना नथी. आ वाडा ठीक छे, संरक्षणरुपे सदाचार परिपाटीमां आ जीवने राखे छे, पण तेथी आगळ कंइ करवानुं बाकी छे. तो केवळ बाह्य क्रियाओ, बाह्य तप जप आदि अंतर लक्ष्य-शून्य थइने जेओ करे छे ते दयापात्र छे. एमने पल्ले पडवानुं नथी. पुण्यना ढगला कमाइ शकशे, पण 'धर्म 'ना ढगला एने हाथ नहीं आवे. “पुण्य" अने "धर्म" अलग छे. पुण्य तो सोनानी बेडी छे अने पाप ए लोढानी बेडी छे, अने "धर्म" ए बने प्रकारनी बेडीओथी भिन्न एवी आझादी छे. कोइ गायना गळाभां सोनानी सांकळ बांधीने खींटे बांधीए अने एक बीजी गायने लोढानी सांकळे बांधीए. जेना गळामां सोनानी सांकळ हशे ए पोताने एम मानशे के “हु शेठाणी छु ? केटली सुखी छु !" मानशे ? बने एक समान पराधीनपणुं अनुभवती हशे. एने सोना अने लोढामां कोइ फरक नथी, बंधन छे बने प्रकारनां. बंधनथी
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छूटी करो एटले जुओ आझाद ! त्यारे सुख मनावशे. ते पुण्यकरणी पुण्यबंधरुपे अने पापकरणी पापबंधरुपे. ए बनेनो अभाव ज्यां छ त्यां धर्म छे. एटले के मन वशवर्ती छे. धर्म एटले शु? मननी धरपकड. मन वशवर्ती रहे त्यां पुण्य पण नहीं अने पाप पण नहीं, पण पुण्य-पाप रहित एवी सहज स्वभावी स्थिति, समाधि स्थिति, सहज समाधि ! सहज समाधि अने श्रीमद्जी :
" सहज समाधि भली, संतो सहज समाधि भली ।" ( श्रीमद्जीने ) वेपार करतां पण सहज समाधि हती ! झवेरी बजारमां झवेरी बेठा छे. अने बीडो केटलो वेपारनो! प्रसिद्ध नामचीन व्यापारी अने नामचीन कवि अने ज्ञानी, शतावधानी ! केटली ख्याति हती ! औ. पीटर्सन, हर्मन जैकोबी जेवा पण एमनी पासे आवता, सलाह लेता. बॅरिस्टर गांधीजी जे " महात्मा गांधीजी" बन्या ते पण एमनी कृपाथी ! ! एटले मोटा मोटा बुद्धिमानो, त्यागी-तपस्वीओ, भिन्न भिन्न धर्मना विचारको-ठठ जामी होय ! अने एक तरफ वेपारीओ अने दलालो, एक साथे एमनी गद्दीमां हाजर होय. कोइ वेपारना प्रश्न करे छे तेने ते जवाब अपायो, पण अनुसंधान – सहज समाधिमां फरक नहीं ! " आत्मा ब्रह्मसमाधिमां छे, मन वनमां छे. एकबीजाना आभासे देह कंइ क्रिया करे छे." एq (पोते ) लख्यु छे ! आपे एमनुं साहित्य वांच्यु के नहीं ? वांचवा लायक छे. बड़ा प्रेरक है। मन एy काम
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करे छे, तन एजें काम करे छे अने आत्मा ब्रह्मसमाधिमां छे. पूर्व प्रयोगवश आ बधी — अक्टींग' थाय छे. एटली हद सुधी के भोजनमो समय थाय अने बाह्यज्ञानशून्य-स्थिति होय, सहजसमाधि स्थिति होय, त्यारे रसोइयो जुओ के एमनी अत्यारे आ स्थिति छे, बाळकने जेम मा ऊंघमांथी ऊठाडीने घवरावे के नहीं ? आंख बंध ज होय ने ? अने स्वाभाविकपणे घावण धाव्या करे के नहीं ? तेवी क्रिया एमनी साथे करवामां आवती ! रसोइयो एवा प्रकारनो भक्त हतो. ए क्रिया थइ जाय पण पोताने खबर ज न पडे ! ! ज्यारे बाह्य ज्ञान – बाह्य लक्ष-आवे त्यारे, पेटमां वजन जेवू जणाय त्यारे पूछे के “ में जमी लीधुं ? " " हा, आपy भोजन पती गयुं छे." आ दशा हती हों ! आ सहज समाधि ! ! योगीओने कंदराओमां रहीने पण जे कठण, ते एमने सहज हतु-मोहमयी नगरीमां. मुंबइ एटले शुं ? मोहमयी नगरी. मोहनु साम्राज्य विशेषपणे त्यां वर्ते छे. केम, मजा आवे छे ने मोहना साम्राज्यमां ? मोह एटले शु ? बेभानपणुं. “ हु आत्मा छु, हुं ब्रह्म छु तेवू भान न रहेवू तेनुं नाम मोह छे. मोह मूर्छायां। जेमने आत्मानुं भान होय एवी व्यक्तिओ मुंबइमां केटली मळशे ? कोइ विरला भाग्यशाळीओ. बहुरत्नानि वसुंधरा । बाकी लगभग बेभानपणे वर्ते छे. आत्मानु भान ज नथी ! पोताने पुरुष अने स्त्री मानीने टापटीप करता ते नजरे जोवाय छे. सजावट करता होय वस्त्रोनी. तेमां अमारी बहेनो शुं अने भाइओ शुं ? आजकालना युवानो, कोलेजीयनो तो
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शरीरना उपर जे वस्त्र परिधान करे छे ए तो शरीरनुं प्रदर्शन करवा माटे के रक्षा ? वस्त्रो शरीरना रक्षण माटे छे के प्रदर्शन माटे ? बोलो ! एक श्रोता : रक्षण माटे "
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तेने बदले शरीरनुं प्रदर्शन ! वा वाय छे एवा ज प्रकारनो. बच्चांओने आजे कंइ खबर ज नथी. जेवा मातापिता संस्कार आपे तेवा ग्रहण करे छे. एमने खबर पण नथी होती एवं पण बने छे. पण थाय छे शरीरनुं प्रदर्शन. " हुं केवो रूपाळो छु ! केवो सारो देखाउं छं ! " आ रीते बीजाओनुं आकर्षण पोता भणी थाय एवी टापटीप थाय छे. ते मोहनुं साम्राज्य के बीजुं कंइ ? ज्यां जुओ त्यां गरीब वर्ग पण ए ज स्थितिमां छे. आजे तो एने ज पोषण मळी रधुं छे. सिनेमा पद्धतिए विलासितानी खूब, एटली बोलबाला करी छे ! एटलो विकास करी नांख्यो छे विलासितानो के एवं कदी सांभळ्युं ज न हतुं, जोयुं तो नहोतुं, सांभळ्युं पण न हतुं ! आ स्थिति छे. तेवी नगरीमां रहीने अमोह स्थिति करवी ए कोइ नानीसूनी वात नथी. ते माटे स्वरुप जागृत रहेवुं. सतत ... आत्मा भूलाय नहीं लेतां के देतां, खातां के पीतां, चालता, ऊठता, बेसता, दरेक क्रिया करतां आत्मा भूलाय नहीं. एनुं नाम स्वरुप - जागृति. चार अवस्थाओमां आ जाग्रत दशा. अने पछी माहें अजवाळु थइ जाय, देहनुं भान पण भूलाइ जाय त्यां उजागर चोथी अवस्था "" उज्जागर ! निद्रा अने खप्नदशामां पड्यो छे. आ जीव अनादि स्वप्नदशामां छे. अने स्वप्नदशामां जे कंइ देखाय
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छे तेने साचुं माने छे ! ! कोइ आपणने स्वप्नमां गाळ आपी जाय अने पछी जागीने तेने घेर जइने आपणे गाळ आपवा जइए तो ? सारूं लागे ? स्वप्नमा कोइए (आपणने) मायु, पछी जागीने आपणे तेने घेर जइने तमाचो मारी आवीए, “ मने ते. स्वप्नामां मायुं हतुं.” तो शुं मानशे ? “ आ 'केक' छे ! "
आ खप्नुं छे : “ सकळ जगत ते ॲठवत्, अथवा स्वप्न समान, ते कहीए ज्ञानी दशा, बाकी वाचा ज्ञान....” ( आत्मसिद्धि )
जगतना अठवाडरुपे (आ) बधुं आकारप्रकार छे. बधाए ग्रहण करीने छोडेली वस्तुओ छे. जे आपणे रोज भोजन करीए छीए ने, ते दूध क्यांथी आवे छे ? गाय-में सना शरीरमांथीने ? ए पण छोडेली चीज छे ! आ अनाज ? आपणे जे चीज छोडीए छीए, खाधा पछी मळ अने मूत्र थाय छे, तेनुं खातर बने छे. ते खेतरमां जाय छे, अने ए ज पेला अनाजना दाणाओ एमांथी पोषण तत्त्व ग्रहण करीने तैयार थाय छे अनाज.... बीज-वृक्ष बने छे, छोडवा वने छे. तेमांथी पाछा दाणा तैयार थाय छे. ते क्यांथी आवे छे अणुओ ? आ जे मळमूत्र छे ते परिवर्तित थइने रसोइना आकारे आपणा भाणामां आवे छे. जे जे आपणे खाइए पीए छीए ते बधुं आम ज छे. हों ! आखा जगतमां आ रीतिए परिवर्तन थइ रह्यु छ !
श्रोता : "धरतीनी अंदर प्रयोगशाळा छे."
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छे ज ने ! खुल्ली प्रयोग शोळा छे, अंदर शुं ? प्रगट, चोरे ! तो आ बधुं जे कंइ सारं सारं देखाय छे ते रुपांतर छे. एज पार्छु खराब देखाशे. ए अणुओ बदलाया ज करे छे, परिवर्तित थया ज करे छे. एटले आ बधुं जे आकार-प्रकार रुपे देखायजणाय जे, ते बधुं पुद्गल छे. बधुं जगतनुं ओठवाड छे. ( बधो जगतनो ओठवाड छे.) अने एमां जे कांइ लेती - देती अने वह्निवटो साचा मानी बेठा छीए, संबंधो साचा मानी बेठा छीए, ते खप्न जेवा छे. आंख बंघ थइ एटले बस. हंस ऊडी गयो, पछी तमारा संबंधो ख़तम. त्यां सुधी मानी बेसो तो य शुं अने न मानो तो य शुं ? आखर मानवा लायक नथी. शुद्ध जाग्रत अवस्थावाळो ए तो आ मानतो नथी. निद्रामां जे स्वप्नुं आवे तेवी स्थितिमां जे होय, भले आंखो खोलीने जोतो होय, पोताने जाग्रत मानतो होय के " हुं जागुं लुं, बराबर जोउं छं, हुं समजुं कुं, हु डाह्यो छं." पण एना भावोमां स्वप्नावस्था छे,
एटले जाग्रत जाग्रत थाओ, जाग्रत थाओ. " हे जीव ! प्रमाद छोडी जाग्रत था ! जाग्रत था ! नहीं तो रत्नचिंतामणि जेवो आ मनुष्य देह निष्फळ जरो," आ ' जाग्रत था ' नी जे पोकार करी छे ने ! आम सादा सीधा शब्दो देखाय छे, पण अर्थ गंभीर छे. सतत आत्मभाव, स्वरुप- जागृति आ भान कायम राखीने जे जे फरजो छे ते अदा करो ! कोण मना करे छे ? बधाने कंइ बाबा बनवानुं नथी. कां. बघा त्यागी बनी जाय तो ज एने केवळ
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ज्ञान अने मोक्ष थाय एम एवी एकांतिक वात नथी. घरमां य ज्ञान थाय छे; अने नहीं तो जंगलमां य नथी थतुं ! पण " आत्मामां " थाय छे. जेने थाय छे ते अंतर्गुफाभां प्रवेश करे तेने थाय छे. एटले सतत स्वरूप जागृतिए रहेवुं ए सत्पुरुषार्थ छे ते कुंची छे. सतत स्वरुप जागृति : सतपुरुषार्थनी कुंची :
जे पांच कारणो बताव्या काळ, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत अने पुरुषार्थ – एमां पांचमां एक पण ओछु होय तो काम न थाय. भाग्यमां न होय, कूवौ खोदे. वरसाद नथी. बे वरसथी दुकाळ छे कच्छमां के राजस्थानमां. तो जे ठेकाणे कूवो खोदे, भले गमे तेली महेनत करे, पण पाणीनो झरो नीकळे ज नहीं अने भाग्यशाळी होय तो थोडामां ज नीकळी आवे छे. भाग्य जो पाधरा होय तो नीकळी आवे छे, अने भाग्य नबळां होय तो ? छतां मुख्यता पुरुषार्थनी छे. सत् पुरुषार्थ - साचो निर्णय करीने मंडी पडे तो, भाग्य नामना अजिन वडे खेचाती गाडीने पाछळ धक्को मारे ऊंचे चडवाने माटे एवं एंजिन जोडी काढे तो उन्नतिना शिखरे जइ पहोंचे छे. एक एंजिनथी गाडी समतल भूमिमां तो चाले, पण तमे खंडालाना घाटमां आव्या त्यां बीजं एंजिन जोडायुं ? एटले भाग्य - पूर्वकृत अने पुरुषार्थ - एनी साथे साथे आ त्रण - ए बधां मळींने पांच समवाय कारणो कहे छे. समवाय तंत्र कारणो छे. ए पांचेनी अनुकूळताए कार्यसिद्धि थाय छे, समजायुं ? बाकी एकलुं भाग्य के एकलो पुरुषार्थ करशे शुं ? स्वभावने अनुकूल
समवाय
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न बनावे, पति अने पत्नीमा झगडा थाय छे, पतिने अनुकूळ पोतानो स्वभाव के पत्नीने अनुकूळ स्वभाव अपनावी ले तो झगड़ा न थाय ! आ तो बने वटमां रहे ' मारी वात', तो कहे ' मारी वात.' तो ए कंइ मेळ खाय : वहेवारनी अंदर पण आपणे साथे रहेता होइए तो एकबीजाना स्वभावने अनुकूल रहेवुं जोइए. तेम आना पोताना चैतन्य साम्राज्यमां पण जो आत्मवैभवनो अनुभव करवो होय तो एने अनुकूल रहेतुं जोइए. एनुं नाम स्वभाव.
तो स्वभावने पकडो. भावोने छोडीने, परभावोने छोडीने स्वभावने पकडो. परिस्थितिने बदलवाथी, केवळ परिस्थितिने बदलवाथी, कंह आत्मशुद्धि थवानी नथी. साधु बनी गया, जंगलमां गया, त्यां बेठा, तेथी करीने थइ जवानुं छे ? गमे एटली बदलीओ करो - वेशनी, देशनी अने क्रियाकांडनी. पण ज्यां सुधी भावोमां परिवर्तन नथी थयुं त्यां सुधी ए बहारनुं परिवर्तन आत्म शुद्धिमां काम आवतुं नथी. अने जो आ भावोमां पहेलाना जे अज्ञानदशाना भावो हता, ज्ञानीओना सत्संग वडे परिवर्तित करी दीघा, बदली नांख्या, परभावाने स्वभावर्मा बदली नांख्या तो पछी गमे त्यां रहो.
" मन हाथ पड्यो जिनको, तिनको
न ही घर है, घर ही वन है...."
मन हाथमें आ जाना चाहिए । उसकी कुंची स्वरूप जाग्रति है । सबसे पहले यह काम करनेका है । आत्मा का
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विस्मरण न हो ! सतत — मैं आत्मा हूँ यह भान बना रहे । इस तरह से बस्तु-तत्त्व का रहस्य जल्दी से समझ में आ जाय इस हेतुसे इन पांच समवाय कारणों को बताया है । ऐसे कारण और भी हैं - उपादान, निमित्त आदि कई हैं। पर वस्तु, कार्य-कारण न्याय से विशेष रूप में समझने के लिये पाँच समवाय कारण भी बतलाये हैं। उनमें से पूर्वकृत और पुरुषार्थ दो कारण हैं । तो केवल दो कारणों से नहीं पर पॉच कारणों से कार्य होता है। अब कोई कहता है, “पुरुषार्थ बड़ा या भाग्य ?” कौन बड़ा ? “पुरुषार्थ"
___मुख्यता पुरुषार्थ की है। भाग्य भी तो पुरुषार्थ से बना है ! मुख्य केन्द्र तो पुरुषार्थ है। वह ( भाग्य ) असत् पुरुषार्थ से बना था। अब सत्पुरुषार्थ करो तो अच्छा निर्माण होगा । तो पुरुषार्थ की मुख्यता है । पुरुष + अर्थ = पुरुषार्थ । अर्थ याने प्रयोजन । यह पुरुष याने आत्मा । प्रकृति और पुरुष – सांख्य परिभाषा में आत्मा को पुरुष कहा है । इसको, पुद्गल को प्रकृति कहा है। आठ कर्म प्रकृति । पुरुष का अर्थ याने प्रयोजन जिससे सिद्ध हो इस प्रकार की मेहनत वह है पुरुषार्थ । जों पुरुष को, आत्मा को जिस मेहनत के फलस्वरूप आत्मा को दुःख ही दुःख मिले ऐसी मेहनत असत् पुरुषार्य और जिस मेहनत के फलस्वरूप सुख ही सुख मिले वह है सत् पुरुषार्थ । इस तरह से पूर्वकृत और पुरुषार्थ के विषय में सबेरे कहा था और अब इसका विस्तार से थोड़ा सा दिग्दर्शन किया ।
ॐ शांति......
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________________ > > > > > > > > > > > श्रीमद राजचन्द्र आश्रम, हम्पी. प्रकाशित साहित्य श्रीमद राजचन्द्र : तत्त्वविज्ञान * अनुभूति की आवाज उपास्यपदे उपादेयता सहजानन्द विलास * सहजानन्दघन पत्र-सुघा * सहजानन्द सुधा : पदावली * श्री भक्ति कर्तव्य आनंदघन चौवीशी सार्थ टीका * जीवनी (श्री. नाहटाजीलिखित) पू. माताजी की जीवनी (नाहटाजी) * परमगुरु प्रवचन : क्रमिक माला (प्रा. प्रतापकुमार टोलिया) वर्धमान भारती, बेगलोर. प्रकाशित साहित्य * श्री आत्मसिध्धि शास्त्र (हिन्दी अनुवाद सह) दक्षिणापथ की साधनायात्रा (हिन्दी) * दक्षिणापथकी साधनायात्रा (गुजराती) मुद्रणाघीन * अनत की अनुगूज (भा. सरकार पुरस्कृत आत्मखाज गीत) * विदेशो में जैनधर्म प्रभावना (मुद्रणाधीन) * Meditation & Jainism * Jainism Abroad (मुद्रणाघीन) * Mystic Master Yogindra Yugapradhan SRI SAHAJANANDAGHANJI * आत्मसिघि-अपूर्व अवसर * राजपद-राजभक्तिपद * परमगुरु पद * सहजानन्द पद * प्रभातम गल * परमगुरु प्रवचन मजुषा (11) कल्पसूत्र केसेट मजुषा (10) विडियो केसेट : JAINISM PERFORMANCES ABROAD, * MAHAVIR DARSHAN KALPASUTRA SCRIPTS लगभग 100 उपरान्त रिकार्ड, केसेटादि प्राप्त है / > > > > > > > > > >