Book Title: Padimadhari Shravak Ek Parichay
Author(s): Jatankumarishreeji
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211311/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "संति एगेहि भिक्खूहि गारत्था संजमोत्तरा" कुछ भिक्षुओं की अपेक्षा कुछ गृहस्थों का संयम श्रेष्ठ एवं अनुत्तर होता है । जो तीन करण और तीन योग से असत् प्रवृत्ति का परित्याग करता है, वह महाव्रती होता है। जो इनमें अपवाद रखता है, वह श्रावक होता है । श्रावकों के अनेक स्तर हैं, उनमें भी एक स्तर प्रतिमाधारी श्रावक का है। प्रतिमा का अर्थ - विशेष त्याग [च] विशेष अभिग्रह है। प्रतिमाएँ व्यारह हैं जो निम्न प्रकार हैं: पडिमाधारी श्रावक एक परिचय साध्वी श्री जतनकुमारी ( युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) (१) दर्शन-प्रतिमा समय एक मास विधि एक मास तक निरतिचार (शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित) सम्यक्त्व का पालन करना । संसार के सर्व धर्मों को जानकर भी सम्यग्दर्शन में दृढ़ रहना, सम्यक्त्व के दोषों को वर्जना । सम्यग्दर्शनी किसी भी परिस्थिति में देव, गुरु और धर्म के अतिरिक्त और किसी को वन्दन, व्यवहार नहीं करता है । सगे-सम्बन्धियों से संलग्न जुहार आदि करना भी निषिद्ध है। क्योंकि संसार में रहता हुआ भी सांसारिक व्यवहारों से अलग रहता है। -- - (२) व्रत- प्रतिमा समय दो मास विधि— ग्रहण किये हुए अगुवत, गुणव्रत और शिक्षायतों का निरतिचार पालन होता है । 1 (३) सामायिक प्रतिमा - समय - ३ मास । विधि- प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या तीनों समय शुद्ध सामायिक एवं देशावकाशिक करता है । नवकारसी तथा पौरसी का क्रम चालू रहता है । (४) पौषध- प्रतिमा समय - ४ मास । विधि- अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या एवं पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध का पालन करना । (५) कायोत्सर्ग-प्रतिमा - समय --- ५ मास । विधि - इस प्रतिमा में श्रावक रात के समय कायोत्सर्ग करता है । पाँचवीं प्रतिमावाला (१) स्नान नहीं करता (२) रात्रिभोजन नहीं करता (३) धोती की लांग नहीं देता । (४) दिन में ब्रह्मचारी रहता है (५) रात्रि में मैथुन का परिमाण करता है । ---- (६) ब्रह्मचर्य - प्रतिमा - समय - ६ मास । विधि पूर्व नियमों के अतिरिक्त इस प्रतिमा में श्रावक पूर्ण ब्रह्मचारी रहता है। (७) सचित्त- प्रतिमा- -समय- -७ मास । विधि- सचित्त आहार का सर्वथा त्याग होता है । (८) आरंभ प्रतिमा--समय- मास । विधि इस प्रतिमा में श्रावक सर्वथा आरम्भ समारम्भ करने का त्याग करता है। सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि, बौज आदि का संघट्टा भी नहीं कर सकता। .0 . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड (e) प्रेष्य-प्रतिमा-समय-९ मास / विधि-नौकर-चाकर आदि से भी आरम्भ, समारम्भ नहीं करवाना। (10) उद्दिष्ट-वर्जक-प्रतिमा-समय-१० मास / विधि-इस प्रतिमा वाला श्रावक साधुओं की भांति उद्दिष्ट भोजन का परित्याग करता है। (अपने लिए बनाया हुआ भोजन आदि ग्रहण नहीं करता), बालों का क्षुर से मुण्डन करता है अथवा शिखा धारण करता है (चोटी रखता है) / घर सम्बन्धी प्रश्न पूछने पर “मैं जानता हूँ अथवा नहीं।" इन दो वाक्यों से अधिक नहीं बोलता। (11) श्रमणभूत-प्रतिमा-समय-११ मास / विधि-ग्यारहवीं प्रतिमावाला श्रावक शक्ति हो तो लोच करता है अन्यथा क्षुर से मुण्डन करता है / तीन करण और तीन योग से सावध कार्य का त्याग करता है, और साधुओं की तरह मुंहपत्ति, रजोहरण धारण करता है लेकिन रजोहरण की डण्डी खुली होती है। साधुओं का आचार-महाव्रत, समिति, गुप्तियों का निरतिचार पालन करता है। साधुओं की तरह गोचरी भी करता है किन्तु ज्ञाति वर्ग से उसका प्रेम बन्धन नहीं टूटता, इसलिए वह भिक्षा के लिए ज्ञातिजनों में ही जाता है। पर एषणा समिति का पूरा ख्याल रखता हुआ 42 दोषों को टालकर भिक्षा ग्रहण करता है / पडिलेहणा आदि क्रियाएँ एवं भिक्षा विधि साधुओं के समान होने से ग्यारहवीं प्रतिमा को जैन आगमों में श्रमणभूत कहा है / वह मुनि के तुल्य होता है, पर मुनि नहीं। इन प्रतिमाओं का पालन करने वालों को प्रतिमाधारी श्रावक कहते हैं / इन सभी प्रतिमाओं में पाँच वर्ष और छ: मास का समय लगता है, और प्रथम प्रतिमाओं का त्याग यथावत् अन्त तक चालू रहता है। इन प्रतिमाओं में देव, मनुष्य और पशु, पक्षी सम्बन्धी उत्पन्न उपसर्गों को साधक "परिसह आय गुत्ते सहेज्जा" आत्मगुप्त होकर सहन करता है क्योंकि "देह दुक्खं महाफलं" साधना काल में दैहिक कष्टों को समता से सहन करना महान फलदायक है। Xxxxxxx xxxxxxxx xxxxxx xxxxxx त्याजो महत्तां हि बिति गुर्वी, गृह्णाति चेद् वास्तविक स्वरूपं / न द्रव्यतो गौरवमेति किचिद्, भावात्मकः सोऽतितरां विशिष्टः // -वर्द्धमान शिक्षा सप्तशती (श्री चन्दन मुनि) X X X X X यदि त्याग वास्तविक-यथार्थ रूप में हो तो उसकी बहुत बड़ी महत्ता है। त्याग यदि केवल द्रव्य दृष्टि-बाह्यदृष्टि से हो तो उसका महत्त्व नहीं है, भावात्मक (आन्तरिक) त्याग की ही अत्यधिक विशेषता है। X X X X X X X X X X X X X X xxxxxxxx