Book Title: Nimadi Bhasha aur Uska Kshetra Vikas
Author(s): Ramnarayan Upadhyay
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमाड़ी भाषा और उसका क्षेत्र विस्तार निमाड़ और उसकी सीमा : हिन्दुस्तान के नक्शे में विन्ध्य और सतपुड़ा के बीच में जो भू-भाग बसा है, वह निमाड़ के नाम से प्रसिद्ध है। वैसे शासन व्यवस्था की दृष्टि से यह दो भागों में विभाजित रहा है। एक पूर्वी निमाड़ तथा दूसरा-पश्चिमी निमाड़ । लेकिन रहन-सहन, रीति-रिवाज, आब-हवा, भाव-भाषा और संस्कृति की दृष्टि से दोनों एक और अभिन्न हैं। भौगोलिक सीमा की दृष्टि से उत्तर में विन्ध्याचल, दक्षिण में सतपुड़ा, पूर्व में छोटी तवा नदी और पश्चिम में हरिणफाल के पास सुदूर धारा और बड़वानी को लेकर इसकी सीमायें बनती हैं । यह एक संयोग की बात है कि उत्तर दक्षिण में यदि दो पर्वत सजग प्रहरी की तरह इसके दो किनारों पर खड़े हैं तो पूर्व और पश्चिम में दो नदियां जिसकी सीमा-रक्षा करती आयी हैं। अन्य भाषा-भाषी प्रान्तों की दृष्टि से उत्तर में मालवा, दक्षिण में खानदेश, पूर्व में होशंगाबाद और पश्चिम में सुदूर गुजरात को इसकी सीमायें छूती हैं। कुछ लोग निमाड़ और मालवा को एक ही सीमा में गिनते चलते हैं। लेकिन वास्तव में मालवा यदि नर्मदा के उत्तर में फैला है, तो निमाड़ नर्मदा के दक्षिण में पूर्व और पश्चिम की ओर फैलते हये सुदुर खानदेश तक चला गया है। डाक्टर यदुनाथ सरकार के मत और मालवे की एक लोकोक्ति से भी जिसकी पुष्टि होती है । डाक्टर यदुनाथ सरकार ने (इडिया एण्ड ओरंगजेब) में मालवा की सीमा के सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है कि-स्थूल रूप से दक्षिण में नर्मदा नदी, पूर्व में बेतवा, एवं उत्तर पश्चिम में चम्बल नदी प्रान्त की सीमा निर्धारित करती थी। एक लोकोक्ति के अनुसार भी दक्षिण मालवे की सीमा नर्मदा तक ही मानी जाती है। उसके शब्द हैं-- 'इत चम्बल उत बेतवा, मालव सीम सजान, दक्षिण दिसि है नर्मदा, यह पूरो पहिचान ।' समूचे निमाड़ की जनसंख्या करीब १२ लाख और क्षेत्रफल १० हजार वर्ग मील है। नाम: जहां तक इसके नाम का सम्बन्ध है, ऐसा अनुमान है कि यह उत्तर भारत व दक्षिण भारत का सन्धि-स्थल होने से प्रार्य और अनार्यों की मिश्रित भूमि रहा होगा और इसी नाते इसका नाम 'निमार्य (नीम आर्य) पड़ा होगा। 'नीम' का अर्थ भी निमाड़ी में प्राधा होता है। इसी निमार्य का बदलते बदलते निमार और निमाड़ हो जाना स्वाभाविक है। इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि निमाड़ मालवे से नीचे की ओर बसा है। मालवे से निमाड़ की ओर पाने में निरन्तर नीचे की ओर उतरना होता है। इस तरह 'निम्नगामी' होने से जिसका Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमाड़ी भाषा और उसका क्षेत्र विस्तार १७५ नाम 'निमानी' और उससे बदल कर 'निमारी' और 'निमाड़ी' हो गया होगा। पहले की अपेक्षा यह दूसरा कारण प्रामाणिक व उचित भी प्रतीत होता है । प्राचीन इतिहास : प्राचीन इतिहास की खोज करने से पता चलता है कि सुदूर रामायण काल में (ई० पूर्व १६०० के)१ यहां पर 'माहिष्मती' (आधुनिक महेश्वर) को राजधानी के रूप में लेकर एक सशक्त राज्य स्थापित था। महेश्वर को हैहयवंशी राजा सहस्त्रार्जुन एवं चेदीवंशी के राजा शिशुपाल की राजधानी होने का गौरव प्राप्त था । वाल्मीकि रामायण में हैहयवंशीय सहस्त्रार्जुन को 'अर्जुनों जयन्ता श्रेष्ठो माहिष्मत्या पति प्रभो' अर्थात माहिष्मती नगरी का राजा महा विजयी अर्जुन ऐसा लिखा है२ जिस रावण ने कुबेर, यम और वरुण को भी जीत लिया था उसे सहस्त्रार्जुन ने महेश्वर में पराजित किया था। कुछ लोगों ने आधुनिक मान्धाता को माहिष्मती दर्शाया है। लेकिन यह सर्वथा निराधार है। सहस्त्रार्जुन ने जहां अपने सहस्त्रों हाथों से नर्मदा को रोका था और जहां से नर्मदा का जल सहस्त्रों हाथों में से होकर बहा था, वह स्थान आज भी महेश्वर में सहस्त्रज्ञधारा के नाम से प्रसिद्ध है। वाल्मीकि रामायण में भी सहस्त्रधारा के निकट ही, सहस्त्रार्जुन और रामायण में युद्ध होना पाया जाता है।। श्री शांतिकुमार नानुराम व्यास ने भी श्री नन्दलाल दे की (जाग्रफीकल डिक्शनरी आफ एनसिएट एण्ड मिडिवल इण्डिया ) के आधार पर इंदौर से ४० मील दूर दक्षिण में नर्मदा तट स्थित महेश्वर को ही माहिष्मती दर्शाया है। कहते हैं हवा वंश के राजा मांधाता के तीसरे पुत्र मुचकुंद ने महेश्वर को बसाया था। उसने पारिमात्र और ऋक्षपर्वतों के बीच नर्वदा किनारे एक नगर बसाया था और उसे दुर्ग के समान चारों ओर से सुरक्षित किया था। वही आधुनिक महेश्वर है। बाद में हैहयवंशीय राजा माहिष्मत ने उसे जीत कर उसका नाम 'माहिष्मती' रखा । पश्चात् सहस्त्रार्जुन ने कर्कोटक नागों से युद्ध कर अनूप देश पर कब्जा कर लिया था और माहिष्मती को अपनी राजधानी बनाया था । प्राचीन राज व्यवस्था का जिक्र करते हुये श्री बालचन्द्र जैन ने लिखा है, 'उस काल में मध्य प्रदेश का बहुत सा हिस्सा 'दण्डकारण्य' कहलाता था। उसके पूर्वी भाग में कौशल, दक्षिण कौशल या महाकौशल का राज्य स्थित था जिसे अब छत्तीसगढ़ कहते हैं। उत्तरीय जिले 'महिष-मण्डल' और 'डाहल-मण्डल' में विभाजित थे। महिषमण्डल की राजधानी निमाड़ में 'माहिष्मती' में थी और 'डाहल-मण्डल' की राजधानी जबलपुर के निकट 'त्रिपुरी' में । १-पुराण विशेषज्ञ-पाजिटर-संस्कृत और उसका साहित्य २--बाल्मीकि रामायण (उत्तर काण्ड-सर्ग २२ श्लोक २) ३--श्री शांतिकुमार नानुराम व्यास (रामायण कालीन समाज) पृष्ठ ३१० । ४--श्री बालचन्द्र जैन (शुक्ल अभिनन्दन ग्रन्थ) इतिहास पुरातत्व खण्ड पृष्ठ ६ ५--श्री बालचन्द्र जैन (शुक्ल अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ६) ६--श्री बालचन्द्र जैन (शुक्ल अभिनन्दन ग्रन्थ) पृष्ठ ३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रामनारायण उपाध्याय जिसके बाद महाभारत काल में भी युधिष्ठिर के द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ की सफलता के लिये भीमसेन द्वारा विजित देशों के बर्तन में चेदीवंश के राजा शिशुपाल की राजधानी 'माहिष्मती' में ही होना पाया जाता है। इसी सम्बन्ध में श्री डा वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है- 'अनेकों देशों को जीतने के बाद भीम ने चेदी के राजा शिशुपाल की ओर मुंह मोड़ा जिसे वंश में लाने के लिये युधिष्ठिर की विशेष माशा थी। वेदी जनपद नर्मदा के किनारे फैला हुआ था और माहिष्मती उसकी राजधानी थी।७ १७६ महाभारत के नलोपाख्यान में जुये में हारे हुये निषध राजा नल द्वारा दमयन्ती के साथ वन में पहुंचने पर नल ने दमयन्ती को अपने मैंके जाने का प्राग्रह करते हुये जो तीन मार्ग बताये थे, उसमें से एक निमाड़ में से होकर गया था। वे हो तीनों मार्ग आज भी भारतीय रेलपथ ने लिये हैं। ८ महाभारत के पश्चात् परीक्षित भारतवर्ष के सम्राट बने। उनके समय से ही कलियुग का आरम्भ होना पाया जाता है । उसके बाद जनमेजय ने राज्य लिया। इस समय प्रवन्ति के राज्य में मालवा, निमाड़ तथा मध्य प्रदेश के लगे हुये हिस्से मिले थे। अवन्ति राज्य पर अभी हैहयवंशी लोग राज्य कर रहे थे । बौद्ध ग्रन्थ अगुतर निकाय, जैन ग्रन्थ भगवती सूत्र या व्याख्या प्रज्ञप्ति तथा अन्य ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि ईस्वी पूर्व ६०० के लगभग उत्तर भारत में सोलह महाजन पद राज्य स्थापित थे जिनमें मगध, कौशल और अवन्ति, दूसरों की अपेक्षा अधिक सुसंगठित एवं शक्तिशाली थे। मध्य प्रदेश का कुछ हिस्सा अवन्ति महाजनपद के अन्तर्गत था जिसकी राजधानी 'माहिष्मती' थी। । लेखों और शिलालेखों के आधार पर ईसा की पहली और दूसरी सदी से जिस जनपद का 'अनूप' नाम पाया जाता है, ईस्वी सन् १२४ में गौतमी पुत्र सतकर्णी ने नहपाना नामक नरेश से जो प्रदेश अपने अधिकार में लिया, उसमें अकारा ( पूर्वी मालवा ) और अवन्ति ( पश्चिमी मालवा ) के साथ अनूप ( निमाड़ ) का भी उल्लेख है। इससे भी पहले कण्व और सुरंग के राज्य को नष्ट करके आन्ध्र के मालवा और निमाड़ में अपना राज्य स्थापित कर लिया था और उसका पराभव के प्रतिनिधि महाक्षेत्र से रुद्रदमन ने किया था। इस इतिहास का उल्लेख गिरनार के ईस्वी सन १५० में जिस शिलालेख में हुआ है, उसमें भी इस प्रदेश का नाम 'अनूप दिया गया है। १० मुगल काल में भी निमाड़ की एक स्वतन्त्र राज्य के रूप में प्रतिष्ठा थी इस सम्बन्ध में श्री प्रयागदत्त शुक्ल ने लिखा है- 'तुगलक वंश के समय मुसलमानी भारत कई स्वतन्त्र राज्यों में विभक्त हो गया था । इन प्रान्तीय राज्यों में निमाड़ भी एक था ११ इस तरह सुदूर प्राचीनकाल से निमाड़ और निमाड़ी का स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है । ७- श्री डा० वासुदेव शरण अग्रवाल (भारत सावित्री पृ० १३९ ) ८--श्री डा० वासुदेव शरण अग्रवाल (भारत सावित्री पृ० २१६ ) राजा सियुक्त सतवाहन ने कनिष्क के कुशल साम्राज्य ६ -- श्री बालचन्द्र जैन ( शुक्ल अभिनन्दन ग्रन्थ) पृ० १० । १० - श्री सत्यदेव विद्यालंकार ( मध्य भारत जनपदीय अभिनन्दन ग्रन्थ) पृष्ठ ७७ ११ - श्री प्रयागदत्त शुक्ल ( शुक्ल अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ७१ ) । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमाड़ी भाषा और उसका क्षेत्र विस्तार जीवन और संस्कृति : किसी भी भाषा को वहां के जीवन और संस्कृति से अलग नहीं किया जा सकता और इस दृष्टि से निमाड़ में नर्मदा का महत्वपूर्ण स्थान है । जिस तरह गंगा के किनारे भारतीय सभ्यता पनपी है, उसी तरह नर्मदा को निमाड़ की संस्कृति के निर्माण का श्रेय रहा है । वह आत्मा के संगीत की तरह इसके मध्य से प्रवाहमान है। गंगा को ज्ञान का रूप माना गया है क्योंकि उसके किनारे ऋषियों ने ज्ञान की उपलब्धि की और यमुना को प्रेम का प्रतीक माना जाता है क्योंकि उसके किनारे भक्ति का संगम प्रयाग में हुआ। नर्मदा भी एक विशेष भावना का प्रतीक है-और वह है तपस्या व प्रानन्द की भावना। इसके किनारे ऋषियों ने तपस्या के द्वारा प्रानन्द की प्राप्ति की है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच में बहने के कारण यह उत्तर की यार्य व दक्षिण की द्रविड़ संस्कृति का भी सन्देश वहन करती है । १२ यहां की ऊबड़-खाबड़ जमीन के बीच में भी लहलहाने वाली खेती, अमाडी की भाजी व जूवार की रोटी से पुष्ट होने वाले जीवन और झुलसा देने वाली गरमी के बीच भी मुस्कराने वाले पलाश के फूल से मानों एक ही संदेश गूज रहा है-तपस्या का आनन्द । ___ जब मैं निमाड़ की बात सोचता हूँ तो मेरी आंखों में ऊंची-नीची घाटियों के बीच बसे छोटे-छोटे गांव, गांव से लगे जुवार-तुवर के खेतों की मस्तानी खुशबू और उन सबके बीच घुटने तक ऊंची धोती पर महज एक कुरता और अंगरखा लटकाये हुये भोले भाले किसान का चेहरा तैरने लगता है। यहाँ की उबड़-खाबड़ जमीन और उसके चेहरे में कितना साम्य रहा है । यहां की जमीन की तरह यहां का जानपद जन मटमैला-गेहुआ रंग लिये होते हैं । हल की नोक से जमीन की छाती पर उभरे हुये ढेलों की तरह उनके चेहरों पर सदियों का दुख-दर्द आसानी से पढ़ा जा सकता है। उसने इतने कष्ट सहे हैं कि कष्टों को मुस्करा कर पार कर जाना उसके संस्कारों में बिंध गया है। स्वभावतः वह अत्यन्त मेहनती और सहनशील रहा है । दुख का पहाड़ पा जाये या सुख की क्षीण रेखा, वह सदा मुस्कराता है और अकेले रह जाने पर भी अपनी राह चलना नहीं छोड़ता। जिस तरह कठोर पर्वत अपने हृदय में नदियों के उद्गम को छिपाये रहता है ऐसे ही ये ऊपर से कठोर दिखने वाले मनुष्य सदियों से अपने अन्दर लोक साहित्य की परम्परा को जिन्दा रखे हुये हैं । इनके पास समा के नहीं श्रम के गीत हैं जिन्हें ये हल चलाते व मजदूरी करते समय भी गाते आये हैं। इनके पास रंग-मंच के नहीं, वरन खुले मैदानों में जन साधारण के बीच खेलने योग्य प्रहसन हैं जिन्हें ये बिना किसी बाह्याडंबरों के भाव-प्रदर्शन और विचार-दर्शन के जरिये खेलते आये हैं। इनके पास पुस्तक की नहीं, वरन जीवन की लोक कथायें हैं जिन्हें ये पीढ़ी-दर पीढ़ी सुनाते आये हैं और हैं ऐसी लोक-कहावतें जिनमें इनके सदियों का ज्ञान व अनुभव गुथे हुये हैं। निमाड़ी भाषा और उसका स्वरूप किसी भी राष्ट्र की भाषा के दो स्वरूप होते हैं। एक राष्ट्र भाषा और दूसरा वहां के विभिन्न जनपदों में प्रचलित लोक-भाषायें । राष्ट्र भाषा समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है । राजकीय दृष्टि से १२-श्री प्राचार्य क्षिति मोहन सेन के भाषण से। . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्री रामनारायण उपाध्याय विभाजित प्रान्तों को समग्र राष्ट्रीयता के एक सूत्र में पिरोये रखने का श्रेय भी उसे ही होता है । उसे लेकर ही राष्ट्रीय इतिहास का निर्माण होता है और इस तरह किसी विश्व मान्य भाषा के सहारे प्रान्त और राष्ट्रों में विभाजित सम्पूर्ण मानवीय जगत, वसुदेव कुटुम्ब की तरह समीप प्राता जाता है । लेकिन लोकभाषायें इन सबकी जड़ में अन्तर्निहित वह शक्ति है जिसे लेकर ही राष्ट्र भाषा समृद्ध होती है। वे राष्ट्रीय इतिहास के नहीं, वरन मानवीय जीवन की निर्माता होती हैं। उनके सहारे ही हम कोल-संस्कृति और लोकजीवन का दर्शन कर सकते हैं । इस तरह भिन्न भिन्न व्यक्तियों, जनपदों और प्रान्तों को लेकर राष्ट्र भाषा बनती है, उसी तरह विविधता में सुन्दरता और एकता की तरह लोक भाषाओं से राष्ट्र-भाषा समृद्ध होती है और उसका स्वरूप निखरता आया है । निमाड़ी निमाड़ जिले की ग्राम जनता द्वारा बोली जाने वाली ऐसी ही एक लोक भाषा है । समूचे निमाड़ पर जिसका एक छत्र प्राधिपत्य है । यह मुख्यतः उत्तर में मालवे की सीमा को छूते हुये नर्मदा के आस-पास, ओंकारेश्वर, मण्डलेश्वर, महेश्वर, मध्य में खरगोन, पश्चिम में जोबट, अलीराजपुर, धार और बड़वानी, तथा पूर्व में होशंगाबाद के नजदीक हरदा और हरसूद को लेकर दक्षिण में सुदूर खण्डवा श्रौर बुरहानपुर के आस पास खान देश की सीमा तक बोली जाती है । आदर्श निमाड़ी के केन्द्र खण्डवा और खरगोन रहे हैं। इसके बोलने वालों की संख्या लगभग ५ लाख है । लिपि और उच्चारण : निमाड़ी भाषा के कुछ ध्यान नहीं दिया जावे तो निमाड़ी होने की सम्भावना रहती है । जैसे मख, तुख, जेम, श्रोम । देखने में ये सीधे-साधे दो अक्षरी शब्द हैं लेकिन इनके निमाड़ी स्वरूप में प्रत्येक के साथ अन्त में 'अ' का लोप है, और इनके उच्चारण में अन्तिम अक्षर पर जोर दिया जाता है । यथा- मख्न, तुखत्र्, जेमत्र् श्रोमय् । लिखावट और उच्चारण में समन्वय साधने की दृष्टि से मैंने जिसके लिये संस्कृत के शब्द का प्रयोग किया है । इससे सारी कठिनाई हल हो जाती है और साथ ही शब्द का सही स्वरूप भी स्पष्ट हो जाता है । उदाहरण के लिये निमाड़ी लोक गीत की एक पंक्ति को लीजिये: ॥ जेम सर श्रोम सारजो ॥ इसमें इसका वास्तविक स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाया है क्योंकि जैसी लिखावट है वैसा ही उच्चारण होगा - 'जेम सर श्रोम सारजो' । लेकिन इसका सही निमाड़ी स्वरूप है - 'जेम, सरन, ओमन, सारजो ।' अतएव विशुद्ध निमाड़ी लिपि की दृष्टि से यह यों लिखा जावेगा - (१) जेमs ( २ ) सर (३) श्रोम (४) सारजो । शब्दों की लिखावट और उच्चारण में फर्क रहा है । यदि इसकी ओर भाषा को ठीक ढंग से पढ़ा नहीं जा सकता और उसका अर्थ भी गलत निमाड़ के कुछ शब्द हैं 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमाडी भाषा और उसका क्षेत्र विस्तार १७६ लक्षण-निमाड़ी में 'ल' की जगह 'ल' का उपयोग बहुतायत से होता है यथा 'माला -'माला', 'ताला'--'ताला', 'नाला'- 'नाला', 'काला' --'काला', केल–'केल', 'कोयल'--'कोयल' 'उजेला''अजालो' आदि । (१) 'है' की जगह गुजराती भाषा की 'छे' क्रिया का उपयोग अधिकतर होता है । यथा-क्या हैकाई छ ? कौन है = कुण छे ? कैसा है = कसो छ ? इसमें न' शब्द जब प्रथमाक्षर के रूप में आता है तो यह बदल कर 'ल' हो जाता है और जब अन्तिम अक्षर के रूप में आता है तो वह बदल कर 'ण' हो जाता है । यथा-प्रथमाक्षर के रूप मेंनीम 'लीम' । नमक-'लोण' । निंबू-'लिंबू' । अन्तिम अक्षर के रूप में जैसे-बहन--'बहेण' । आंगन-- 'प्रांगणो' । जामुन-'जामुण' । (४) कर्मकारक की अभिव्यक्ति में 'को' के स्थान पर 'ख' का उपयोग होता है । यथा, मुझको'मखऽ' । तुमको–'तुमखऽ' । उनको-'उनखऽ' । (५) सहायक क्रिया में 'है' के स्थान पर 'ज' का उपयोग होता है । यथा, चलता है-'चलज्' । दौड़ता है-दौड़ज्' खाता है-'खावज्' । (६) इसमें कर्ताकारक की विभक्ति 'ने' के स्थान पर बहुधा 'न' का ओर बहुवचन में 'नन्' का उपयोग होता है । यथा, आदमी ने-'पादमीन' आदमियों ने-'प्रादमी नन' । पक्षी ने-'पक्षी नई' । पक्षियों ने-'पक्षीनन । (७) इसके सर्वनाम हैं-'हंऊ, तु और 'ऊ'। क्रिया में, एक वचन में, तीनों कालों में जिसका स्वरूप होगावर्तमान काल-हऊ चलूज् । तू चलज् । ऊ चलज् । भूतकाल-हऊ चल्यों। तू चल्यो । ऊ चल्यो । भविष्यकाल-हऊ चलू गा। तू चलऽगा । ऊ चलऽगा । (८) इसके कुछ शब्दों में अनुस्वार का लोप हो जाता है । यथा, दांत-'दात' मां-'माय' । हंसना-'हसना ।' सीमावर्ती भाषायें उत्तर में मालवीय, पश्चिम में गुजराती, दक्षिण में खानदेशी और पूर्व में होशंगाबादी इसकी सीमावर्ती भाषायें रही हैं। शब्दों का आदान प्रदान किसी भी जीवित भाषा का लक्षण होता है। इस दृष्टि से जैसा कि सभी भाषाओं के साथ होता है, निमाड़ी पर भी उसकी सीमावर्ती भाषाओं का असर रहा है। निमाड़ी व गुजराती निमाड़ के पश्चिम से गुजरात की सीमा लगी होने के कारण निमाड़ और गुजरात के बीच काफी सम्बन्ध रहे हैं । निमाड़ के ग्रामों में 'गुजराती' नामक एक खेतिहर जाति बसी है । यद्यपि यह अब निमाड़ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्री रामनारायण उपाध्याय से आत्मसात् हो चुकी है। लेकिन इसके नाम से इसके गुजरात से आने का पता चलता है । निमाड़ में 'नागर' जाति के भी गुजरात से सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं । निमाड़ में रहने वाली 'लाड़' जाति गुजरात में रहने वाले 'लाड़' लोगों से सम्बन्धित रही है । ये भी गुजरात से आये होंगे ऐसा प्रतीत होता है । राजपुर बड़वानी में 'मेघवाल' नामक एक जाति बसी है । यह यहां सौराष्ट्र से आकर बसी है । इनके रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि सब पर सौराष्ट्रीय संस्कृति श्राज भी विद्यमान है । गनगौर गीत में रनु के यहां सौराष्ट्र से प्राने का जिक्र है, देखिये गीत को निमाड़ के एक पंक्तियां हैं आई हो । अर्थ है - हे रनु तुम्हारे किन किन स्वरूपों का वर्णन किया जाये, तुम सौराष्ट्र देश से जो थारो काई काई रूप बखाणू रनुबाई, सोरठ देश से आई ओ 11 श्री डा० वासुदेवशरण अग्रवाल के मत से रादनी देवी की पूजा गुजरात सौराष्ट्र में भी प्रचलित थी । वहां उसकी चौदहवीं सदी तक की मूर्तियां पाई गई हैं । एक मूर्ति के लेख में उसे श्री सांबादित्य की देवी श्री रनादेवी कहा गया है । सौराष्ट्र के पोरबन्दर के समीप बगवादर और किन्दरखेड़ा में रन्नादेवी या रांदलदेवी के मंदिर हैं । वस्तुतः यह रादनी देवी गुप्तकाल से पहिले ईरानी शकों के साथ गुजरात-सौराष्ट्र में लाई गई थी जिसा कि निमाड़ी लोक गीत में कहा गया है गुजरात सौराष्ट्र में राणादे या रांदलमां की पूजा सन्तान प्राप्ति के लिये की जाती है । अर्वाचीन गुजराती साहित्य में भी रणादेव के भजन पाये जाते हैं । ' गुजराती की तरह ही निमाड़ी में भी निमाड़ी भाषियों की रेल में बातचीत सुनकर लगता है । निमाड़ी देखिये निमाड़ी और गुजराती भाषा के निम्न दो लोक गीतों में कितना साम्य रहा हैः गुजराती " किया तो कुछ इस कदर प्रयोग में लाई जाती है कि दो अपरिचितों को उनके गुजराती भाषा होने का शक होने जी रे चांदों तो निर्मल नीर, तारो क्यारे ऊंगशे । ऊंगशे रे पाछली सी रात, मोतीड़ा घरणा भूल ॥ २ चन्द्रमा निरमई रात, तारो कवं जंगसे, तारो ऊंगसे पाछली रात, पड़ोसेण जागते | 3 (१) जनपद - बनारस (पृष्ठ ६१-६२ ता० १-१-५३ ) (२) व ( ३ ) निमाड़ी लोकगीत ( रामनारायण उपाध्याय) पृष्ठ ५६ -- Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमाड़ी भाषा और उसका क्षेत्र विस्तार एक और गीत है: गुजराती निमाड़ी पान सरीखी पातलई रे, चोल ई मं छिप जाय रे । इलायची, सरीखी महेकणई रे, बटुवा मं छिप जाय रे ॥ ५ साथ ही गुजराती और निमाड़ के इन शब्दों का साम्य भी देखिये । निमाड़ी स्यालो उढालो प्रांगणो मुक्को अंगलाई फलई जाड़ो घाघरो शहेर महेल पान सरखी रे हूं तो पातलई रे, मने बीड़लो वालई लई जावरे । एलायची सरखी रे हूँ तो मधु मधु रे, मने दाढ़ मां घाली ने लई जाव रे ॥ * सेरी गुजराती शियालो उनालो ग मुक्की आांगली फली जाडु घाघरो शहेर महेल शेरी (४) सम्मेलन पत्रिका, लोक संस्कृति अंक, संवत २०१० पृष्ठ १८६ (५) जब निमाड़ गाता है ( रामनारायण उपाध्याय) पृष्ठ ६२ । निमाड़ी और मराठी निमाड़ के दक्षिण में मराठी भाषी प्रान्त लगा होने से निमाड़ी में मराठी के भी कुछ शब्द प्रा मिले हैं, लेकिन इनकी संख्या इतनी कम रही है कि निमाड़ी भाषा सहज ही इन्हें आत्मसात् कर चुकी है । निमाड़ी में 'ल' की जगह 'ल' का प्रयोग भी मराठी से ही श्राया प्रतीत होता है । निमाड़ी श्रौर मालवी । निमाड़ी और मालवी में जितना साम्य है उतना और किसी भाषा में नहीं है । जिस तरह इन दोनों भू-भागों की सीमा एक दूसरे से गले लिपटी हैं, उसी तरह यहां की भाषायें भी एक दूसरी से कुछ इस कंदर मिलती हैं मानों दो बहिनें परस्पर गले मिल रही हों । हिन्दी अर्थ जाड़ा गरमी प्रांगन घूस अंगुली फली मोटा लहंगा शहर महल गली १८१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रामनारायण उपाध्याय निमाड़ के उत्तर में मालवे की सीमा लगी होने से वहां पर निमाड़ी मालवी से प्रभावित होकर बोली जाती है । इसमें निमाड़ के 'तुमख' को 'तमख', काई - 'कंई', कहूं— 'कू', वहां – 'वां', जव – को 'जद', श्रौर नहीं को 'नी' कर देने से निमाड़ी सहज ही मालवी से प्रभावित हो उठती है । देखिये -निमाड़ी का एक लोकगीत मालवी प्रभावित क्षेत्र में पहुंचकर किस कदर बदल उठा है । निमाड़ी गीत की पंक्तियां है :-- १-२ सरग भवन्ति हो गिरधरनी, एक संदेसों लई जाश्रो । सरग का अमुक दाजी खश्रू यो कहेजो, तुम घर अमुक को व्याय || जेमय् सर श्रोमय् सारजो, हमरो तो श्रवणों नी होय । जड़ी दिया वज्र किवाड़, अग्गल जड़ी लुहा की जी ॥ १ इसका मालवी प्रभावित स्वरूप है: सरग भवन्ति को गिरघरनी, एक संदेशों लई जावो । सरग का श्रमुक दाजी से यूं कीजो, तम घर अमुक को याय ॥ जेमय् सर ग्रोमम् सारजो, हमरो तो श्रावणों नी होय । जड़ी दया वजर कवाड़, अग्गल जड़ी लुप्रा की जी ॥ इसमें रेखाकित शब्द निमाड़ी से मालवी प्रभावित हो उठे हैं । प्रचलित सिंगाजी का एक गीत देखिये:— ( २ ) अजमत भारी काई कहूं सिंगाजी तुम्हारी, भाबुना देश बहादसिंग राजा । अरे वहां गई बाजू ख फेरी, जहाजवान न तुमख इसी का मालवी से प्रभावित स्वरूप है: सुमर्यो, अरे वहां डूबत जहाज उबारी ( ३ ) अजमत भारी कई कू सिंगाजी, तमारी अरे वां गई बाजू ने फेरी, भाजवान ने तमख (१) निमाड़ी लोकगीत ( रामनारायण उपाध्याय ) (२) लेखक द्वारा संग्रहित गीतों की पाडु लिपि ( ३ ) श्री श्याम परमार ( नई दुनिया ) २१-६-५३ इसी तरह निमाड़ी भाषा में झाबुना देस वाँ सुमर्या, अरे वां इसमें रेखांकित शब्द निमाड़ी से मालवी प्रभावित हो उठे हैं। इसी सीमावर्ती भाषाओं के प्रभाव के आधार पर कुछ लोग निमाड़ी को मालवी की उपभाषा गिनते चलते हैं लेकिन वास्तव में दोनों भाषाओं का अपना अपना स्वतन्त्र स्वरूप श्रोर उच्चारण रहा है। एक श्रोर मालवी जहां अपने वहां की गहर गंभीर जमीन और सौन्दर्यप्रिय लोगों की अत्यन्त ही मृदु, कोमल और कमनीय भाषा है, वहीं दूसरी ओर निमाड़ी अपने यहां की ऊबड़-खाबड़ जमीन और कठोर परिश्रमी लोगों की अत्यन्त ही भाषा है । उच्चारण की दृष्टि से मालवी जहां हर बात में लचीलापन लिये सीधी बात करने की अभ्यस्त रही है । प्रखर, तेजस्वी और सुस्पष्ट होती है, वहां निमाड़ी साफ बादरसिंह राजा । डूबी भाज उबारी | 3 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमाड़ी भाषा और उसका क्षेत्र विस्तार 183 पाश्मकी, चेदी और प्रांवती महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने पाणिनी-कालीन बोलियों का उल्लेख करते हुये लिखा है कि 'पाणिनी-काल' में सारे उत्तरी भारत की एक बोली नहीं थी। वरन् अलग अलग जनपदों की अलग अलग भाषायें थीं। पश्चात् पाली काल में उत्तरी भारत सोलह जनपदों में बटा हुआ था जिनकी अपनी अपनी बोलियां रही होंगी जिनके नाम निम्न थे: [1] अंगिका [2] मागधी [3] काशिका [4] कौशली [5] वजिका [6] मल्लिका [7] चेदिका [8] वात्सी [6] कौरवी [10] पांचाली [11] मात्सी [12] सौरसेनी [13] पाश्मको [14] प्रांवती [15] गांधारी [16] काम्बोजी। इसमें आपने आश्मकी, प्रांवती और चेदिका का अलग अलग उल्लेख करते हुये उनके स्थान पर आज क्रमशः निमाड़ी, मालवी और बघेली-बुदेली को प्रचलित माना है / ' __इसमें इतना तो स्पष्ट है कि निमाड़ी और मालवी परसर एक दूसरे की उपभाषायें नहीं, वरन् प्राचीन काल से विभिन्न जनपदों की समकक्ष भाषायें रही हैं। और सुंदर रामायण काल में महेश्वर को राजधानी के रूप में लेकर नर्मदा और ताप्ती की सीमाओं से दिये निमाड़ का अपना स्वतंत्र अस्तित्व रहा है। (1) सम्मेलन पत्रिका आश्विन 2011 /