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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
नारी को भूमिका : विश्व-शान्ति के सन्दर्भ में
-डा. कृ. मालती जैन
जहाँ भी जाता हूँ, वीरान नजर आता है ।
खून में डूबा हर मैदान नजर जाता है । उपर्युक्त पंक्तियाँ एक भावुक कवि का कल्पनाप्रवण प्रलाप मात्र नहीं, अपितु आज के निरन्तर विकासशील विश्व का यथार्थ कारुणिक चित्र है । आज जबकि चारों ओर हिंसा का वातावरण है, रक्तपात, लट-पाट, एवं उपद्रव-उत्पात जैसे दिनचर्या में शामिल हो गये हैं, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता और रंगभेद के विषधर फन फैलाये घूम रहे हैं। जाति, वर्ग और प्रान्त के नाम पर विघटनकारी शक्तियाँ अपने दांव पेंच दिखला रही हैं, विश्व की महाशक्तियां विघटनकारी अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण में अपने बौद्धिक-विलास का परिचय दे रही हैं, तब विश्व शान्ति की चर्चा अरण्य रोदन सा प्रतीत होती है। इस चर्चा में, उस नारी की भूमिका पर विचार करना—जिसकी कहानी केवल “आँचल में दूध और आँखों में पानी' तक सिमटी है, जिसे मूर्तिमती दुर्बलता कहकर सम्बोधित किया जाता रहा है (Frailty thy name woman) सतही स्तर पर हास्यास्पद लगता है। जो अबला अपनी ही रक्षा नहीं कर सकती, वह विश्व शांति की स्थापना में क्या योगदान देगी? ऐसे विचारकों की भी कमी नहीं है जो यह दृढ़ता के साथ स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक संघर्ष के मूल में कहीं न कहीं नारी रही है । राम-रावण युद्ध का दोषारोपण सती सीता पर सरलता से किया जाता रहा है और महाभारत के मूल में द्रौपदी को देखा जाता रहा है। संघर्ष के प्रमुख कारणों में जर और जमीन के साथ जोरू की गणना भी की जाती है
तब फिर ? क्या यही सच है ? नहीं, निराश होने का प्रश्न तो उठता नहीं। चिली के महाकवि पव्लोनेरूदा के शब्दों में
"बाहर अंधेरा बहुत है । कुछ भी नहीं सूझता । मैं छोटा सा दीपक जलाये रहूंगा । मेरा छोटा सा परिवेश आलोक में रहेगा।"
नारी की भूमिका : विश्व-शान्ति के संदर्भ में : डॉ० कुमारी मालती जैन | २६५
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आइये, आस्था और आशा के इसी आलोक में हम इतिहास के पृष्ठों को पलटें, वर्तमान पर दृष्टि डालें, तो पायेंगे कि “दया, माया, ममता, मधुरिमा और अगाध-विश्वास" के उमड़ते रत्ननिधि को अपने वक्षस्थल में समेटे, नारी ने सदैव ही संघर्ष और अशान्ति को दूर कर शान्ति और समरसता की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।
हिन्दी-साहित्य के प्रसिद्ध नाटककार, श्री जयशंकर प्रसाद ने अपने प्रसिद्ध नाटक 'अजातशत्रु" में लिखा है
“कठोरता का उदाहरण है पुरुष और कोमलता का विश्लेषण है-स्त्री जाति । पुरुष क्रूरता है तो स्त्री करुणा-जो अन्तर्जगत का उच्चतम विकास है जिसके बल पर समस्त सदाचार ठहरे हुए हैं।"
इतिहास साक्षी है, करुणामयी स्त्री ने सदैव पुरुष की क्रूरता का प्रत्युत्तर अपनी सहिष्णुता और अतिशय क्षमाशीलता से देकर संघर्ष का निराकरण कर शान्ति की स्थापना की है। केवल लोकापवाद से बचने के लिए निष्कलंक गर्भवती सीता का राम के द्वारा परित्याग-निष्ठुरता का वह उदाहरण है जिसे क्षम्य नहीं कहा जा सकता लेकिन क्षमाशील, सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति सीता राम के इस कृत्य पर न उन्हें बुरा-भला कहती है और न उस प्रजा को कोसती है, जिसके मिथ्या अपवाद के कारण उन्हें विषम स्थिति में वन-वन भटकना पड़ा । संकट की इस घड़ी में उनका हृदय प्रतिशोध की भयंकर ज्वाला से दग्ध नहीं होता, अपितु राजा राम और उनकी प्रजा दोनों का हित-चिन्तन करती हुई वे कहती हैं
अवलम्ब्य परं धैर्य महापुरुष ! सर्वथा ।
सदा रक्ष प्रजां सम्यक् पितेव न्यायवत्सलः ।। अर्थात् --हे पुरुषोत्तम मेरे वियोगजन्य खेद का परित्याग कर धैर्य के साथ प्रजा का सम्यक् प्रकारेण पालन करना।
सीता चाहतो तो अपने ऊपर किये गये अत्याचार की दुहाई देकर, राजा राम के प्रति विद्रोह भावना को भड़का कर संघर्ष का सूत्रपात कर सकती थी-पर नारी का हृदय “कोमलता का पालना है, दया का उद्गम है, शीतलता की छाया है, अनन्य भक्ति का आदर्श है' वे भला क्यों अशांति उत्पन्न करतीं ?
__ बौद्ध धर्मावलम्बी मगधराज श्रेणिक का जैन साधुओं के प्रति अशोभनीय आचरण, उनकी जैन, धर्मावलम्बी रानी चेलना को उत्तेजित करने के लिए पर्याप्त था पर विवेकशील चेलना अपना धैर्य नहीं खोती । क्रोधान्ध होकर, प्रतिशोध लेकर वह राजा श्रेणिक के हृदय परिवर्तन में सफल नहीं हो सकती थी। हाँ, उसकी सहिष्णुता रंग लाई। राजा श्रेणिक ने जैन धर्म अङ्गीकार किया। चेलना का विवेकपूर्ण सहिष्णु आचरण धर्मान्ध कट्टरपंथी व्यक्तियों के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है।
धार्मिक सहिष्णुता के सन्दर्भ में कर्नाटक प्रान्त की जाकल देवी का उदाहरण भी उल्लेखनीय है। जैन धर्म के कट्टर विरोधी अपने पति चालुक्य राजा को जैनमतानुयायी बनाने का श्रेय जाकल देवी की विनम्रता और शालीनता को ही है। काश ! आज धर्म के नाम पर रक्त की होली खेलने वाले विवेकहीन, इन सहिष्णु नारियों से धार्मिक सद्भावना और सौहार्द का पाठ पढ़ सकते।
राज-विद्रोह और धार्मिक वैमनस्य ही अशांति को जन्म नहीं देते, साहित्यिक प्रतिद्वन्द्विता भी शान्ति की जड़ें खोदती है। "वाद" के नाम पर तथाकथित बुद्धिजीवियों की गुटबन्दी, उखाड़-पछाड़,
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२६६ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान
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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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आलोचना-प्रत्यालोचना, छींटाकशी-समस्त, वातावरण को इतना विषाक्त बना देती है कि स्वयं साहित्य ही-'साहितस्य भाव साहित्यं'-अपनी अर्थवत्ता खो बैठता है। बौद्धिक वाद-विवाद कभी-कभी इतने छिछले स्तर पर आ उतरता है कि हाथा-पाई की नौबत आ जाती है। कर्नाटक की प्रसिद्ध जैन कवयित्री कंती देवी (ई० सं० ११०६ से ११४१) के जीवन की निम्न घटना इस तथ्य का पुष्ट प्रमाण है कि साहित्यिक क्षेत्र में भी नारी ने संघर्ष के मार्ग का अनुसरण न कर वातावरण को सौहार्दपूर्ण बनाने का प्रयास किया है।
कहा जाता है कि कंती की अलौकिक प्रतिभा और बुद्धि वैलक्षण्य के कारण उनका समकालीन कवि पंप उनसे ईर्ष्या करता था तथा प्रतिक्षण क्षिद्रान्वेषण कर नीचा दिखाने की कोशिश करता था। पंप ने अनेक कठिन से कठिन समस्यायें प्रस्तुत की किन्तु कंती उनसे किसी भी प्रकार परास्त नहीं हुई। अंत में एक दिन कवि पंप निश्चेष्ट हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। पंप को मृत समझकर कंती का निश्छल हृदय करुणाद्रवित हो चीख उठा
"हाय ! मुझे मेरी जिन्दगी से क्या लाभ है ? मेरे गुण और काव्य की प्रतिष्ठा रखने वाला ही संसार से चल बसा। पंप जैसे महान कवि से ही राजदरवार की शोभा थी और उस सुषमा के साथ मेरा भी कुछ विकास था।"
इन शब्दों को सुनते ही पम्प ने आँखें खोल दीं। उसका हृदय अपने प्रति घृणा और पश्चात्ताप से भर उठा । कॉफी पी-पीकर अपने साथी साहित्यकारों को कोसने वाले बुद्धिजीवियों की आँखें इस विशाल हृदया कवयित्री के स्पृहणीय आचरण से खुल जानी चाहिए।
नारी स्वयं तो क्षमाशीला है ही, क्रूरकर्म करने को उद्यत पुरुषों को स्नेह, सहनशीलता और सदाचार का पाठ पढ़ाने का उत्तरदायित्व भी वह सफलतापूर्वक निभाती है।
"प्रसाद" जी के शब्दों में"स्त्रियों का कर्तव्य है कि पाशववृत्ति वाले क्रूरकर्मा पुरुषों को कोमल और करुणाप्लुत करें" ।
(अजातशत्रु नाटक) श्वेताम्बर साहित्य में आचार्य हरिभद्रसूरि के जीवन वृत्तान्त में नारियों के इस कर्तव्य-पालन का सुन्दर उदाहरण दृष्टिगत होता है
अपने शिष्यों के बौद्धों द्वारा मारे जाने पर आचार्य हरिभद्र क्रोधवश बौद्धाचार्यों को मंत्रबल से आकर्षित कर उन्हें मारने को उद्यत हुए । उस समय “याकिनी महत्तरा" ने समझाकर उनके क्रोध को युक्तिपूर्ण ढंग से शांत किया। आचार्य हरिभद्र सूरि ने “याकिनी महत्तरा" के उपकार को “याकिनी महत्तरा सूनु" के रूप में अपना परिचय देते हुए व्यक्त किया है।
भारतीय नारी ने प्रतिपक्ष की क्रोधाग्नि को समता और शान्ति के शीतल जल से तो शान्त किया ही है, समय की पुकार पर उसने रणचण्डी का रूप धरकर कर आतताइयों के विनाश के लिए अपने नाजुक हाथों में तलवार भी धारण की है । चंद्रगिरि पर्वत के शिलालेख नं० ६१ (१३६) में जो “वीरगलु" के नाम से प्रसिद्ध है उसमें गंग नरेश रक्कसयणि के वीर योद्धा "वद्देग(विद्याधर) और उनकी पत्नी "सावियव्वे" का परिचय दिया हुआ है । यह वीर नारी अपने पति के साथ “वागेयूर" के युद्ध में गई थी और वहाँ शत्रु से लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुई थी।
लेख के ऊपर जो चित्र उत्कीर्ण है, उसमें वह घोड़े पर सवार है और हाथ में तलवार लिए हुए हाथी पर सवार किसी पुरुष का सामना कर रही है ।
___ नारी की भूमिका : विश्व-शान्ति के संदर्भ में : डॉ० कुमारी मालती जैन | २६७
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इसी सन्दर्भ में किरणा देवी जैन का नाम भी इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। मुगल बादशाह अकबर के द्वारा लगाये जाने वाले 'मीना बाजार' को जिसमें शक्ति और वैभव के बल पर नारी की अस्मिता सरेआम लूटी जा रही थी, बन्द कराने का श्रेय इसी वीरांगना को है। कहा जाता है कि किसी तरह किरणा देवी इस मीना बाजार में पहुँचा दी गई। जब बादशाह की लोलुप दृष्टि रूपसी किरणा पर पड़ी तब बादशाह ने उसे अपनी वासना-पूर्ति का साधन बनाना चाहा । किरणा देवी, अपनी प्रत्युत्पन्नमति और उदार साहस का परिचय देते हुए, बादशाह की कटार छीनकर उसी से उसका वध करने को प्रस्तुत हुई । अन्त में इस आश्वासन पर, कि भविष्य में बादशाह नारियों के सतीत्व के साथ इस तरह खिलवाड़ नहीं करेगा-किरणा ने उसे जीवनदान दिया। इस प्रकार एक वीर नारी के साहसिक अभियान ने एक पथभ्रष्ट बादशाह को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया।
उपर्युक्त ऐतिहासिक उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि परिस्थितियों की मांग के अनुरूप, नारी ने सर्वसहा, क्षमाशीला बनकर या अन्याय के दमन के लिए रणचण्डी का रूप धारण कर सदैव शान्ति स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
विश्व-शान्ति में नारी की भूमिका पर यहाँ अन्य दृष्टिकोण से भी विचार करना असंगत न होगा। नारी जाया ही नहीं जननी भी है। जो केवल बच्चे को जन्म देकर ही अपने कर्तव्य से मुक्त नहीं हो जाती अपितु उसे एक सुयोग्य, शान्तिप्रिय नागरिक बनाने का गम्भीर उत्तरदायित्व भी वहन करती है। जैन इतिहास में ऐसी माताओं का नाम अमर है, जिन्होंने पालने में भक्ति और वैराग्य के भजन सुनाकर, अपने नन्हें शिशु को सांसारिक संघर्षों से पृथक रहकर शांति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी है। "बच्चों का हृदय कोमल थाला है चाहे उसमें कँटीली झाड़ी लगा दो, चाहे फूलों के पौधे ।"
(अजातशत्रु 'प्रसाद') आंग्ल भाषा का यह कथन भी विचारणीय है
"Child learns the first lesson of citizenship between the kiss of his mother and caress of his father".
बच्चा नागरिकता का पहला पाठ माँ की गोद में सीखता है । विश्व-शांति के उद्घोषक चौबीस तीर्थंकरों के जीवन-निर्माण में उनकी माताओं के योगदान को स्वीकार करते हुए ही, श्री मानतुंगाचार्य ने निम्न शब्दों में माँ मरुदेवी के प्रति अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित की है
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् । नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशा दधति भानि सहस्ररश्मि । प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ।।
जगत के बीच अनेकों मात
प्रसव करती हैं पुत्र जिनेश । किसी माँ ने न किया उत्पन्न
__ आपके सम पर सुत राकेश ।।
२६८ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान
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________________ साउ रित्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ) दिशाएँ सारी धरती हैं सितारों का प्रभु उजियाला। किन्तु प्राची ही प्रकटाती दिवाकर सहस्ररश्मि वाला।। सीता चाहती तो अपने लाडले, लव-कुश को उनके पिता राम का विद्रोही बनाकर, प्रतिशोध लेने के लिए आमने-सामने खड़ा कर देती किन्तु आदर्श जननी सीता अनजाने में लव-कुश के द्वारा राम के ये गये अपमानजनक आचरण के लिए, संतप्त होती है और पूत्रों के अपने पिता से क्षमा याचना करने पर ही, चैन की साँस लेती है। अभयकुमार और वारिषेण जैसे शान्तिप्रिय पुरुषों के जीवननिर्माण में चेलना के योगदान को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है। आणविक युग की विभीषिका में विश्व-शान्ति की स्थापना की चर्चा, हमारी माननीया स्वर्गीया प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के योगदान के उल्लेख के बिना अधरी है / दृढ इच्छा शक्ति की धनी, इस लौह महिला ने शान्ति की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देकर जो अनुकरणीय विस्मयकारी आदर्श प्रस्तुत किया है, उसे आगे आने वाली पीढ़ियाँ सदैव स्मरण रखेंगी। मूर्तिमती करुणा, मदर टेरेसा के, विश्व शान्ति स्थापना के लिए किये गये अथक प्रयास, हमें एक क्षण के लिए यह सोचने को मजबूर कर देते हैं कि इस कम्प्यूटर यग में भी दया और ममता का अकाल नहीं पड़ा है। आज के भौतिकवादी युग में जब धनमद और बलमद से बौराया व्यक्ति एक दूसरे के सर्वनाश में ही अपनी महत्ता का चरमोत्कर्ष और अपने अस्तित्व की सार्थकता तलाशता है तब साध्वीरत्न श्री पुष्पवती के निर्देशन में महासती श्री चन्द्रावती जी, महासती श्री प्रियदर्शना जी, महासती श्री किरनप्रभा जी, महासती श्री रत्नज्योति जी आदि नारी-रत्नों के, सांसारिक वैभव को ठुकरा कर, शान्ति-स्थापना के लिए किये गये अनवरत प्रयत्न आणविक अस्त्रों के ढेर के नीचे सिसकती हुई विश्व-शान्ति को एक सम्बल प्रदान करते हैं। पैदल गाँव-गाँव जाकर अपनी सुमधुर शीतल वाणी से शान्ति, सहयोग और सदभावना का उद्घोष करती हुई इन साध्वियों के दृढ़ आत्मिक बल को देखकर हमें राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की निम्न पंक्तियाँ सार्थक प्रतीत होती हैं एक नहीं दो दो मात्रायें नर से भारी नारी (द्वापर) इन साध्वियों का यह प्रयास निश्चय ही हिंसा के कारण रक्तरंजित वसुन्धरा में पीयूष स्रोत | की तरह प्रवाहित होकर विषमताओं को दूर कर, जीवन को समरसता का दृढ़ आधार प्रदान करेगा नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पगतल में। पीयूष स्रोत सी बहा करो __ जीवन में सुन्दर समतल में / (कामायनी-"प्रसाद") नारी की भूमिका : विश्व-शान्ति के संदर्भ में : डॉ० कुमारी मालती जैन | 266