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नारी जागरण के प्रेरक भगवान श्री महावीर एवं वर्तमान नारी समाज
-श्री चंदनमल "चांद' एम.ए. साहित्यरत्न
जीवन रुपी रथ के दो पहिये हैं पुरुष और नारी। इन दोनों के सामंजस्य और संतुलन से ही जीवन की गाड़ी निरंतर चलती है। समय-समय पर उत्थान-पतन के क्रम से नारी जाति ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। विश्व के लगभग सभी धर्मों ने सिद्धान्तत: तो नारी की महिमा गाई है किन्तु व्यवहार में पुरुष की अपेक्षा नारी को हीन माना गया हैं। भारतीय दर्शन में एक ओर तो "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता" की घोषणा हुई और शक्ति, बुद्धि एवं धन की अदिष्ठता क्रमश: दुर्गा, सरस्वती एवं लक्ष्मी को मानकर पूजा की गई हैं किन्तु दूसरी
ओर व्यवहारिक क्षेत्र में नारी समाज पीडित, शोषित, उपेक्षित और हीन ही रहा। नारियों को केवल भोग्या, पांव की जूती समझनेवाला पुरुष उसे गहने आभूषणों के प्रलोभन में बांधकर रखता है। उसके तन को भोगता रहा किन्तु मन के अन्दर झांकने का प्रयास नहीं किया।
नारी अपने क्षमा, धैर्य, सहनशीलता, मृदुता और सेवा जैसे गुणों से पुरुषों का पीडित पीती रही किन्तु युग बदला और नारी जागरण की एक लहर उठी। नारी जागरण की लहर आधुनिक नहीं है और भारत में नारी जागृति का इतिहास लिखने वाले यदि राजाराम मोहन रॉय से नारी जागण की बात लिखते हैं तो भूल करते है। नारी जागरण का शंखनाद आज से लगभग अढाई हजार वर्षों पूर्व भगवान श्री महावीर ने किया था। उन्होंने केवल अपने उपदेशें में ही यह घोष नहीं किया बल्कि व्हवहारिक रुप में धर्म के क्षेत्र में नारियों को बराबरी का दर्जा देकर उनकी महत्ता सिद्ध की थी। । तीर्थंकर भगवान श्री महावीर अपने युग के ऐसे महामानव और युग पुरुष थे जिन्होंने उस युग की सामन्तवादी व्यवस्था, नारी-दासता, परिग्रह, शोषण जातिवाद आदि बुराईयों के खिलाफ मुक्तकंठ से क्रांति का स्वर बुलंद किया। भगवान महावीर ने केवल वैचारिक क्रांति का बीज ही नहीं बोया बल्कि उसे व्यवहारिक रुप भी दिया।
लगभग अढाई हजार वर्षों पूर्व तीर्थंकर श्री महावीर ने जो उपदेश दिया वह आज भी उतना ही उपयोगी एवं कालातीत है। महावीर ने प्राणीमात्र के प्रति समभाव, मैत्री, करुणा, अपरिग्रह एवं अहिंसा का जो उपदेश दिया वह वर्तमान युग के संदर्भ में और भी अधिक उपयोगी है। महावीर का दर्शन उनके सुदीर्ध साधना एवं तप के अनुभवों पर आधारित कैवल्यज्ञान से आलोकित था। उन्होंने "मीत्ति में सव्व भुएसु" का उद्घोष करते हुए शाश्वत सुख मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया एवं लोकहिताय भी वे अपनी वाणी और व्यवहार से समता का मार्गदर्शन करते रहे।
तीर्थंकर श्री महावीर के अनेक पहलुओं में से केवल नारी जागरण के सम्बन्ध में ही यदि विचार करें तो लगता है कि वे नारी जागरण के अग्रदूत थे। महावीर युग में नारी केवल भोग्याथी, पुरुष वर्ग उसे पाव की जुती समझता था। बहु-विवाह का प्रचलत था और खुले आम दासियों के रुप में नारी की बोली बोली जाती थी। नारी समाज भी वस्त्र, आभूषणों में ही स्वयं को आसक्त बनाकर अपने अधिकार और कर्तव्य को भूकाबैठा था। धार्मिक, सामाजिक
संसार में प्रत्येक पुरुष के जीवन में आत्म निरीक्षण द्वारा शुद्धि के एक-दो अवसर मिलते है।
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राजनैतिक आदि क्षेत्रों में नारी पुरुष से हीन समझी जाती थी।
भगवान श्री महावीर ने जातिवाद के साथ-साथ लिंगवाद पर भी कडा प्रहार करते हुए "भावे वंध, भावे मोक्ष" की घोषणा की। पुरुषों के समान ही पूजा आराधना का अधिकार नारियों को दिया, श्रावक के समान ही श्राविकाएं भी "बारह व्रत" पालन कर उपासिका पालन कर उपासिका बन सकती है, ऐसा निर्देश किया। स्वयं तीर्थकर महावीर ने अपने धर्म संघ में चंदना जैसी दासी के रुप में बिकी हुई नारी को दीक्षित किया एवं छत्तीस हजार साध्वियों का प्रमुखा पद दिया। महावीर के संघ में साधुओं की अपेक्षा साध्वियां तथा श्रावकों की अपेक्षा श्राविकाओं की संख्या अधिक थी।
नारी और पुरुष का साधना के क्षेत्र में भेद नहीं करने वाले क्रांति दूत महावीर ने महिला समाज को भोग, विलास, फैशन से मुक्त बनाकर संयम, सादगी, सेवा का मार्ग बताया। एक आदर्श माता के रुप में, पतिव्रता पत्नी के रुप में नारी ही पुरुष को संस्कारी शीलवान एवं सुशील बना सकती है। महावीर की जननी भी तो माता त्रिशला नारी ही थी और इसी प्रकार सृष्टि के सभी महापुरुषों को जन्म देने वाली, लालन-पालन करने वाली नारी जाति के प्रति उस युग में होने वाले भेद भाव, अत्याचार आदि के खिलाफ भगवान महावीर ने सबल स्वर में विरोध ही नहीं किया बल्कि व्यवहारिक क्षेत्र में नारी को सुप्रतिष्ठित भी किया। जो नारी केवल भोग और वासना का साधन थी उसे पूज्या, आदरणीया बनाकर दिखाया।
भगवान महावीर के समकालीन तथागत बुद्ध ने भी अपने धर्म संघ में नारी को दिक्षित तो किया परन्तु प्रारम्भ में वे हिचकिचाये किन्तु महावीर ने क्षणभर की भी दुविधा न रखते हुए नारी जाति को सम्मानीय, गौरवशाली एवं आदरणीय मानकर अपने संघ में दीक्षित किया।
आधुनिक युग में नारी जागरण, नारी स्वतंत्रता की जो मांग उठ रही हैं और नारी पुरुष के बराबर अपने कार्यकौशल का प्रदर्शन कर रही है उसमें यदि महावीर की शिक्षा संयम, सादगी, सेवा आदि नारियों समावेश कर सके तो नारी जागरण सार्थक होगा। तीर्थंकर महावीर का घोष था। "उट्ठिए णो पमायए" उठो प्रमाद मत करो।
जैन समाज में नारियों की आधुनिक युग में क्या स्थिति हैं इस पर विचार करें। जो कम पढ़े-लिखे व्यापारी हैं उनकी बहु-बेटियां भी थोड़ी सी शिक्षा पाती हैं। दूसरा वर्ग वह है जो सुशिक्षित है और सरकारी नौकरियों अथवा बड़े पदों पर या सी.ए. आदि क्षेत्रों में हैं इन सुशिक्षित परिवारों में बहुएं भी पढ़ी लिखी आती हैं, और बेटियों को भी शिक्षा दिलाई जाती है। जहां शिक्षा कम है वहां अज्ञान का अंधकार होने से रुढ़ियों का बोलबाला है, जागृति का अभाव है और उनकी दुनिया घर की दीवारों तक अथवा आभूषण एवं कपडे बर्तनों की दुकान तक ही सीमित हैं। दूसरी ओर जहां शिक्षा है वहां अपवाद छोडकर लगभग फैशन, आडम्बर अधिक बढ़ा है। क्लब, होटलों, सिनेमाओं तक उन्होंने अपनी परिधि बढाई हैं किन्तु घर का लगाव कम होने से घर की गरिमा घटी है। शिक्षित महिलाओं के रहन-सहन, वस्त्रों आदि में आभिजात्यपन आया है और उसने उन्हें सभ्य तो बनाया हैं किन्तु संस्कार कम हुए हैं। घरों में भारतीय संस्कृति का प्रभाव घट रहा है। मातृभाषा और पुराने रीति-रिवाज के प्रति विरक्ति बढी हैं और पश्चिमी सभ्यता एवं अंग्रेजी भाषा, रहन-सहन को प्रमुखता देकर यह सिद्ध करने
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जिस हाथ से किया है, जिस हृदय से किया है, उसी हाथ और हृदय को भुगतना भी पड़ता है।
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________________ का भौंडा प्रयास हो रहा है कि हमारा रहन-सहन स्टेंडर्ड का है, हम अधिक सभ्य है। वस्तुत: वस्त्रों, टेबलों, कुर्सियों और अधकचरी विदेशी भाषा से सभ्यता एवं संस्कृति नहीं आति है। सभ्यता और संस्कृति का विकास जीवन के आचार एवं व्यवहार में होता है। हमारा समाज संक्राति काल में है। एक ओर पुरानी रुदयों के बंधन हैं,तो दूसरी ओर उस्तुकता के स्थान पर उच्छखलता है। कहीं मध्यमवर्गीय समाज का बाप अपनी ब्याह योग्य कन्या के लिए दहेज की चिंता में घुल रहा है तो कहीं एक-एक शादी में लाखों रुपये सजावट एवं आतिशबाजी में ही फूंके जा रहे हैं। कहीं नारियां केवल भोग्या, दीनहीन अज्ञान के अंधेरे में घुट रहीं हैं और कुछ महिलाएं फैशन की तितली बनकर क्लबों एवं होटलो में जाकर अपना धर्म, अपनी संस्कृति एवं खानपान को ही बिगाड रही है। ऐसी स्थिति में हमारी विनम्र राय में समाज को नारी जागरण का सही दिशा में प्रयत्न करना चाहिए। शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढे किन्तु उसके दुष्परिणामों से बचने की सावधानी रखी जाय। पुरानी रुढ़ियों के बंधन तोड़े जायें लेकिन नई प्रथाएं, नये आडम्बर और प्रदर्शन नहीं पनपने पायें। मृत्यु भोज समाप्त हो चले हैं और एक रुदि टूटि है किन्तु "बर्थडे" पार्टियो का जोरदार प्रचलन चल पड़ा है। विवाह में गांव की बिरादरी का भोज बंद हुआ है लेकिन फाईव स्टार होटलों में खड़े-खड़े भोज की प्रथाएं चल निकली हैं। अत: हमें पुराना छोड़ने और नया ग्रहण करने में बहुत सावधानी एवं विवेक रखना होगा। देखा-देखी कुछ भी करना उचित नहीं है। भारतीय नारी समाज एक महान परम्परा, महान संस्कृति की धरोहर का दायित्व लिए हुए है। नारियां ही अपने घर को सुसंस्कारी बनाती है, बालकों में संस्कार भरती हैं अत: स्वयं उनका जीवन आदर्श, संस्कारमय होना जरुरी है। हमें हमारे तीर्थंकरों का अनंत उपकार मानना चाहिए और उनके बताये मार्ग पर सदा चलने का प्रयत्न करना चाहिए। भगवान श्री महावीर नारी जाति की ही देन हैं, और विश्व के सभी महापुरुष, विभूतियां नारी जाति की कोख से ही जन्मी हैं अत: मातृशक्ति की महिमा का पार नहीं है। नारी को अपनी महिमा और अपने आदर्श बनाये रखने के लिए भोग विलास के प्रलोभनों को त्यागना चाहिए और दूसरी ओर अज्ञान के कारण अंधविश्वासों एवं रुढ़ियों के बंधनो से भी मुक्त होना चाहिए। भारतीय महिला वर्ग जागरुक है और अधिक सचेष्ट बनेगा और उसका भविष्य उज्जवल है, ऐसा मेरा विश्वास है। जिसे कोई चिंता नही होती उसकी निन्द्रा से गाढी दोस्ती होती है। 327