Book Title: Nar se Narayan
Author(s): Guruprasad Kapur
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211246/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर से नारायण —मुक्ति का सूत्र समीक्षक : श्री गुरप्रसाद कपूर जैन धर्म का अभ्यूदय अहिंसा, मानवता, प्यार, दया, करुणा और ज्ञान-चेतना के अखण्ड प्रकाश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए हुआ है। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने अपने गम्भीर अध्ययन और दार्शनिक विचारों से जैन समाज का ही नहीं, संसार के समस्त प्राणियों का जो उपकार किया है वह वन्द्य है / महान् कर्मयोगी ने अपनी अलौकिक अनुभूतियों से साधारण शब्दों के माध्यम से वर्ग या भाषा की दीवार से ऊपर उठ राष्ट्र के निर्माण में जो योगदान दिया है उसे कोई भी सहृदय कैसे भूल सकता है। अनेक भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं पर भी इनका अधिकार इनकी भावधारा को बड़ी सरलता से अन्तःस्थल तक पहुंचाने में समर्थ है। जहां-जहां आपके चरण पड़े वहां-वहां पावन तीर्थ का सा दृश्य उपस्थित हो गया। आपके दर्शनों से जन-जन ने अपने जीवन को धन्य समझा। पदयात्रा से जनसाधारण के समीप पहुंच व प्राचीन तीर्थों का जीर्णोद्धार कर आपने जैन धर्म की भावना को समृद्ध बनाया है। अपने विचारों से भारत के लालों' को 'जीना और जागना' सिखाकर अपने कर्तव्य-बोध का सुन्दर परिचय दिया है। ये विचार पुस्तक के आकार में हमारे सामने मार्ग-दर्शन का कार्य बड़ी कुशलता से करते रहेंगे, ऐसा प्रत्येक पाठक का विचार है। प्रस्तुत पुस्तक 'नर से नारायण' भी एक है। आत्मशुद्धि और चरित्र-निर्माण की दिशा में आचार्य देशभूषण जी के विचार पाठकों के मर्म पर बड़ी खूबी से चोट करते हैं / कुरीति, झठी तड़क-भड़क और कामुक वेशभूषा के अतिरिक्त आपने स्त्री के आभूषण-मोह को खुले शब्दों में ललकारा है। अंधविश्वास के अंत में निकलकर कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होने का सन्देश सभी को अभीष्ट होना चाहिए। यह क्षणिक और नश्वर जीवन लोभ, मोह और काम की भयंकर है-जन्म-मरण का चक्र / वस्तुतः भौतिक सुख ही हमारी दुर्दशा के कारण हैं / इनसे छुटकारा पाना यद्यपि सरल नहीं है किन्तु प्रभाव को कम कर हमें अपने भावी जीवन को सुखमय बनाना चाहिए। शक्ति-परीक्षा यदि करनी है तो अखाड़े में नहीं वरन् व्यसनों से मुक्ति पाने में हो। पूर्व कर्म और अच्छे संस्कारों से भगवद्-भक्ति को बल मिलता है और भगवद्भक्ति ही मोक्ष-प्राप्ति का एकमात्र साधन है / भगवद्भक्ति केवल ईश्वर-भजन, जप-तप तक ही सीमित नहीं है। इसकी विशाल सीमा या काया का निर्माण शुद्ध दैनिकचर्या, नैतिक आचारविचार, ब्रह्मचर्य पालन, अहिंसा, प्यार, दया, करुणा आदि सात्विक विचारों द्वारा हुआ है। इन विचारों पर आस्था ही ईश्वर-भक्ति है। सामान्य जन को 'अति गृद्धतापूर्वक' विषय भोग न करने का सुझाव ईश्वर-भजन की प्रथम सीढ़ी है। निरंतर अच्छे उद्यम करने से एक दिन साधना साध्य के समीप पहुंचा ही देती है। इसीलिए जीवन में उद्यम का स्थान 'पर्व' से कम नहीं। किन्तु यह उद्यम 'सत्वेद्रिक' होना चाहिए। विवेक ज्ञान भी भगवद्भक्ति का छोटा भाई समझना चाहिए। इस तरह नर (मानव) के जीवन को किस तरह नारायण तुल्य अथवा उस नारायण के समक्ष खड़ा करने में यह पुस्तक प्रभावशाली बन पड़ी है इसे केवल पढ़ने के बाद ही जाना जा सकता है। यही इस पुस्तक का उद्देश्य है / यही देशभूषण जी का 'बीजमन्त्र' है। भाव-गरिमा के साथ-साथ इसकी प्रतिपादन शैली बड़ी मार्मिक और सुबोधगम्य है। भाषा सरल और बोध-साध्य है। गृढ़ और अगम्य विचार-माला पाठक के मन और बुद्धि को एक बार तो झकझोर ही देती है। पांडित्यप्रदर्शन या अहं की भावना आचार्य देशभूषण जी के विचारों से बहुत दूर और बहुत दूर है। अन्त में परम सिद्ध तपस्वी महान् नर रूपी नारायण श्री देशभूषण जी महाराज के चरण कमलों में मैं अपनी पूर्ण आस्था के सुमनों की वर्षा कर अपने जीवन को धन्य समझंगा। निश्चय ही कुछ क्षणों के लिए उनके विचारों से मैं झंकृत हो अपनी 'मैं' महिमा को भूल तद्रूप हो गया था। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ